वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परम पूज्य गुरुदेव ने हिमालय यात्राएं क्यों कीं ?

28 अगस्त 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज से आरंभ हो रही ज्ञानप्रसाद लेख श्रृंखला की पृष्ठभूमि से पहले कुछ बातें  अपनों के साथ कर लें  तो आत्मिक तृप्ति हो जाएगी।  

सप्ताह का प्रथम दिन सोमवार एक बार फिर हम सबका स्वागत कर रहा है, पुकार रहा है कि रविवार की संचित ऊर्जा और उमंग के साथ, सभी सहपाठियों के संग,आओ इस सप्ताह की प्रथम कक्षा का शुभारम्भ करें,परम पूज्य गुरुदेव के दिव्य श्री चरणों में नतमस्तक  हो उस दुर्लभ  ज्ञान का अमृतपान करें जो हमें सुखद जीवन जीने का मार्गदर्शन प्रदान करेगा।

हमारे जन्म दिवस पर, अनेकों सोशल मीडिया साइट्स के माध्यम से जिन साथियों के  शुभकामना सन्देश प्राप्त  हुए, उन सभी का हम ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। हमारी वरिष्ठ एवं आदरणीय सुमनलता बहिन जी की नातिन मान्या का भी संयोगवश कल ही जन्मदिन था, बहिन जी नोएडा में व्यस्त होने के कारण हमें समय पर सूचित न कर पाए, इसलिए बेटी मान्या हम सब के शुभकामना सन्देश न मिल पाए। 

ज्योति श्रीवास्तव,माधुरी सिंह और प्रमोद देशपांडे जैसे कुछ साथियों के सन्देश पहली बार पोस्ट हुए हैं,ऐसे सभी साथियों को हमारा सादर निमंत्रण है, सादर निमंत्रण है यह देखने के लिए कि हम सब साथी, सहकर्मी, किस प्रकार एक छोटे से किन्तु समर्पित परिवार की भांति, परम पूज्य गुरुदेव के संरक्षण और मार्गदर्शन में,श्रद्धायुक्त होकर विश्व के कोने-कोने में बसे हर गायत्री परिजन के ह्रदय में गुरुदेव को स्थापित करने का अथक प्रयास कर रहे हैं।  यह देखने के लिए कि  हमारी कार्यप्रणाली सबसे अलग और यूनिक क्यों है।  आपको गुरुदेव के  साथ कोई ऐसा वैसा कोई  कॉन्ट्रैक्ट नहीं साइन करना है कि quit करने की स्थिति में कोई penality भरनी पड़ेगी।  हमारा विश्वास है कि अगर आप एक बार गुरुदेव के साथ जुड़ गए तो कोई भी शक्ति अलग  नहीं कर सकती। 

पृष्ठभूमि:

हमारी सहकर्मी कोकिला बारोट जी ने लगभग एक वर्ष पूर्व  परमपूज्य “गुरुदेव की हिमालय यात्रा” पर आधारित लेखों में रुचि दिखाई थी। हमारे यूट्यूब के सहकर्मियों ने भी इस सुझाव का समर्थन किया था और हमारे पूर्व प्रकाशित  हिमालय-यात्रा लेखों को repost करने की इच्छा दिखाई थी। उसके बाद भी अनेकों साथियों के सुझाव आते रहे कि इस विषय पर अवश्य ज्ञान प्रदान किया जाए। 

वैसे तो परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित साहित्य का कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिसको आरम्भ करें और समापन कर सकें, सभी विषय  ही अनंत अमृत तुल्य हैं लेकिन हिमालय की दिव्यता किसी का भी मन मोह लेती है चाहे उसका गुरुदेव से, गायत्री परिवार से सम्बन्ध हो या न हो।     

चाहे देर से ही सही, जिसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं,अपने आदरणीय सहकर्मियों के सुझाव सर्वोपरि हैं। आज आरम्भ हो रही लेख श्रृंखला देवात्मा हिमालय को ही समर्पित है। पुराने लेखों को खंगालने पर repost करने का विचार drop करना पड़ा और सभी नए सिरे  से ही लिखने की योजना है। कारण  है-विस्तृतता, विशालता,आकर्षण एवं दिव्यता। हाँ कहीं,कहीं रिपीट होना संभव हो सकता है।     

तो आइए इस ट्रेलर के साथ  आज के ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करें।  

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हम सभी जानते हैं कि परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शक, हमारे दादा गुरु परमपूज्य सर्वेश्वरानन्द जी 1926 की वसंत को प्रातः आंवलखेड़ा आगरा स्थित गुरुदेव की पूजा की कोठरी में प्रकट हुए और कई निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गए। यह एक सौभाग्य/संयोग ही हो सकता है कि हमारे गुरुदेव को जीवन के आरम्भ से अन्त तक एक समर्थ सिद्ध पुरुष के संरक्षण में गतिशील रहने का अवसर मिल गया। उस महान मार्गदर्शक ने जो भी आदेश दिये, वे ऐसे थे जिनमें  गुरुदेव के जीवन की सफलता के साथ-साथ लोक-मंगल का महान् प्रयोजन भी जुड़ा रहा। केवल 15 वर्ष की आयु से दादा गुरु की अनुकम्पा बरसनी शुरू हुई और गुरुदेव ने प्रयत्न किया कि महान गुरु के गौरव के अनुरूप शिष्य बना जाय। सो एक प्रकार से उस सत्ता के सामने “आत्म-समर्पण” (Surrender) ही हो गया। कठपुतली की तरह अपनी समस्त शारीरिक और भावनात्मक क्षमताएं उन्हीं के चरणों में  समर्पित हो गई। जो-जो आदेश,जब-जब भी होता रहा उसे पूरी श्रद्धा के साथ शिरोधार्य और कार्यान्वित किया जाता रहा। जीवन के अंत तक अपने मार्गदर्शक के आदेशों को मानते रहे,वैसे तो अंत कहना उचित  नहीं होगा क्योंकि गुरुदेव जैसी दिव्य सत्ताओं का कभी भी अंत नहीं होता और हम जैसे अनगनित बच्चे प्रतिक्षण परमपूज्य गुरुदेव की उपस्थिति को अनुभव कर रहे हैं। 

अपने जीवन के क्रिया-कलापों को परमपूज्य गुरुदेव ने एक “कठपुतली की उछल-कूद” जैसा बताया हैं। ठीक उसी तरह जैसे एक कठपुतली अपने मदारी की डोर की हरकतों से उछलती है,कूदती है। 

यह दिव्य साक्षात्कार मिलन तब हुआ जब गुरुदेव अपनी आयु के 15 वर्ष समाप्त करके 16 वें वर्ष में प्रवेश कर रहे थे। इस दिव्य मिलन को ही “विलय” भी कहा जा सकता है। विलय को आज की आधुनिक भाषा में समझने का प्रयास करें तो Fusion सबसे उचित प्रतीत होता है। जैसे म्यूजिक में Fusion होता है यां दूध में पानी का विलय होता है, ठीक इसी प्रकार का विलय था गुरुदेव और दादा गुरु का। 

केवल दो पदार्थों, “जौ की रोटी और छाछ” पर 24 वर्ष तक निर्वाह करने का निर्देश एवं अखण्ड दीपक के समीप 24 गायत्री महापुरश्चरण करने की आज्ञा हुई। महापुरश्चरण का अर्थ होता है एक वर्ष में 24 लाख मंत्र यानि 60 माला प्रतिदिन। गुरुदेव ने 24 वर्ष तक अनवरत यह टाइम टेबल निभाया। 24 लाख के 24 महापुरश्चरण पूरा होते ही 10  वर्ष धार्मिक चेतना उत्पन्न करने के लिये प्रचार और संगठन, लेखन, भाषण एवं रचनात्मक कार्यों की श्रृंखला चली। उन वर्षों में एक ऐसा संघ तन्त्र जिसे हम आज “अखिल विश्व गायत्री परिवार”  के नाम से जानते हैं, बनकर खड़ा हो गया, जिसे नवनिर्माण,युगनिर्माण के लिए उपयुक्त आधारशिला कहा जा सके। 

“गुरुदेव ने जितनी शक्ति 24 वर्ष की पुरश्चरण साधना से अर्जित की थी, वह दस वर्ष में खर्च हो गयी।”

हिमालय यात्रा का उद्देश्य :  

दादा गुरु ने इससे भी बड़े कार्य करवाने थे,इसलिए उस अधिक ऊंची जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये नई शक्ति की आवश्यकता पड़ी। सो इसके लिये फिर आदेश हुआ कि इस शरीर को एक वर्ष तक हिमालय के उन दिव्य स्थानों में रहकर विशिष्ट साधना करनी चाहिये। ऐसे स्थानों पर साधना करनी चाहिए जहां आज  भी “आत्म-चेतना का शक्ति प्रवाह” प्रवाहित होता है। अन्य आदेशों की तरह यह आदेश भी शिरोधार्य ही रहा। 

1958 में परमपूज्य गुरुदेव ने एक वर्ष के लिये हिमालय में तपश्चर्या के लिये प्रयाण किया ।

गंगोत्री में भागीरथ के तपस्थान पर और उत्तरकाशी में परशुराम के तपस्थान पर यह एक वर्ष की साधना सम्पन्न हई। गुरुदेव को लेखन का व्यसन (addiction ) तो था ही, यह सब अनुभूतियाँ गुरुदेव अपनी डायरी में लिखते रहे ताकि उनके अनुभवों से और लोग भी लाभ उठा सकें। जहां-जहां रहना हआ, वहां-वहां भी अपनी स्वाभाविक प्रवत्ति के अनुसार मन में भाव भरी हिलोरें उठती रहीं। इन अनुभूतियों को गुरुदेव ने अखण्ड-ज्योति में छपने के लिए भेज दिया और वह छप भी गईं। अनेकों  ऐसी थीं जिन्हें प्रकट करना अपने जीवनकाल में उपयुक्त नहीं समझा गया, सो नहीं भी छपाई गई। उन दिनों के अखंड ज्योति के अंक हम देखें तो “साधक की डायरी के पृष्ठ” और  “सुनसान के सहचर” आदि शीर्षक से प्रकाशित हुए थे  । अखण्ड-ज्योति पत्रिका में छपे यह लेख, लोगों को बहुत ही अच्छे लगे। बात पुरानी हो गई लेकिन  लोगों की दिलचस्पी बढ़ती ही गयी,लोग इन लेखों को पढ़ने के लिये उत्सुक थे। 

“सुनसान के  सहचर का जन्म” 

सो फिर निर्णय लिया गया कि इन लेखों को पुस्तक आकार  में प्रकाशित कर देना चाहिए। इस तरह “सुनसान के सहचर” नामक पुस्तक का जन्म हुआ। घटनाक्रम अवश्य पुराने हो गए हैं लेकिन  उन दिनों की उठती रहीं  विचार अनुभूतियां, स्थाई हैं, अनंत हैं। उनकी उपयोगिता और महत्व में समय के पीछे पड़ जाने के कारण कुछ भी अन्तर नहीं आया है। आशा की जानी चाहिये भावनाशील अन्तःकरणों को वोह अनुभूतियां अभी भी गुरुदेव की ही तरह झंकृत  कर सकेंगी और पुस्तक की उपयोगिता एवं सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।

जब हम इस पुस्तक की उपयोगिता देख रहे थे हमने देखा कि स्कैन कॉपी के प्रथम पन्ने पर दर्शाया गया है कि इस पुस्तक को Faculty of arts के graduate स्तर के सिलेबस की पढ़ाई में मान्यता प्राप्त है। टेक्स्ट कॉपी में ऐसा कोई वर्णन नहीं मिला, साथ ही हम यह जानने में असफल रहे कि यह मान्यता किस यूनिवर्सिटी द्वारा दी गयी है, शायद देव संस्कृति यूनिवर्सिटी ही हो। एक और बात जो देखने वाली है कि “सुनसान के सहचर” जिसको  आधार बना कर हम यह लेख लिख रहे हैं 2003 का एडिशन हैं और उस एडिशन का मूल्य केवल 15 रूपए है। 119 पन्नों की पुस्तक,केवल पुस्तक ही नहीं बल्कि ज्ञान-अमृत कहें तो गलत नहीं होगा, इतना कम मूल्य!!! 

हम अपने लेखों में कई बार कह चुके हैं कि परमपूज्य गुरुदेव का साहित्य लागत से भी कम मूल्य पर उपलब्ध है, इसका कारण तो एक ही हो सकता है कि कोई भी यह बहाना न लगा सके कि यह साहित्य हमारी जेब से बाहिर है। और हम तो यह कहेंगें कि ऐसे अनमोल साहित्य को किसी भी कीमत पर लेकर पढ़ना चाहिए। 

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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 8 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज सुजाता  बहिन और रेणु बहिन  जी गोल्ड मैडल विजेता हैं। 

(1)संध्या कुमार-29,(2) सुजाता उपाध्याय-36 ,(3) मंजू मिश्रा -29,(4 )वंदना कुमार-27,(5 ) सरविन्द पाल-31,(6)सुमन लता-26,(7) चंद्रेश बहादुर-29,(8) रेणु श्रीवास्तव-35   

सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई


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