वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परम पूज्य गुरुदेव की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका 

17 अगस्त 2023 का ज्ञानप्रसाद

श्रीराम मत्त जी स्वयं सेवक : 

आज गुरुवार है, गुरु के समर्पण का दिन। पिछले दो लेखों की भांति आज का लेख भी स्वतंत्रता आन्दोलन से ही सम्बंधित है। स्वतंत्रता से सम्बंधित गुरुदेव के संस्मरण यहाँ  वहां, अनेकों स्थानों पर मिल सकते हैं, उन सभी को एक ही लेख में compile  करना कोई सरल कार्य नहीं है। अखंड ज्योति का  सितम्बर 1990 वाला अंक एक स्मृति अंक के रूप में प्रकाशित हुआ था, उसके ही पन्नों का अध्यन करके, केवल कुछ एक संस्मरण ही ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के समक्ष प्रस्तुत है। 

कल प्रकाशित होने वाली वीडियो के माध्यम से हम USA के Yosemite National Park क्षेत्र की जानकारी प्राप्त करेंगें जहाँ Shantikunj of North America विकसित किया जा रहा है। 

तो आइए चलें आज की गुरुकुल कक्षा में और गुरुदेव के शौर्य का ज्ञान प्राप्त करें।

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स्वयंसेवक बनना बहुत ही कठिन कार्य है क्योंकि इस साधना में अपने अहं को पूर्णतया गला डालना होता है। इस अनिवार्यता को उन जैसे कोई विरले ही निभा पाते हैं। आगरा में कॉंग्रेसी कार्यकर्ताओं का बृहद् सम्मेलन था। स्वर्गीय बालकृष्ण शर्मा “नवीन” आए हुए थे। सम्मेलन में कार्यक्रम की समाप्ति पर श्री कृष्णदत्त पालीवाल जी ने “नवीन” जी को सभी का परिचय देना शुरू किया। एक के बाद अनेक लोगों का परिचय देते हुए तरुण श्रीराम की बारी आयी। उनके सामने रुककर तनिक गौरवपूर्ण स्वर में पालीवाल जी ने कहा, 

“यह है हमारे यहाँ के स्वयं सेवक श्रीराम मत्त ।”

 “बाकी सब क्या हैं ?” नवीन जी ने पूछा। पालीवाल जी का उत्तर था,”वे कार्यकर्ता हैं।” स्वयं सेवक शब्द में छुपे पदार्थ और गरिमा को देखकर नवीन जी तरुण श्रीराम के चरणों में झुक पड़े। उनके द्वारा किया गया यह सम्मान अहं विसर्जन करने वाले साधक का सम्मान था।

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शासन द्वारा दिए सम्मान न स्वीकार करना  : 

देश को स्वाधीनता मिल जाने के बाद, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले सैनिकों को पुरस्कृत और  सम्मानित करने की बारी आयी। एक-एक करके सभी को पेन्शन, पदक, यात्रा भत्ता आदि सुविधाओं की व्यवस्था होने लगी।  गुरुदेव के पास भी एक अधिकारी पेन्शन आदि का प्रस्ताव लेकर आए। उनने कड़ाई से मना कर दिया। बाद में 1988 में  शासन के उच्चाधिकारियों ने आकर स्वीकार करने का अत्यधिक आग्रह किया तो गुरुदेव बोले, 

“राष्ट्र के सम्मान चिह्न के रूप में मैं पदक तो रख लेता हूँ लेकिन  किन्हीं सुविधाओं का उपयोग नहीं करूंगा। पेन्शन को आप राष्ट्रीय सुरक्षा निधि को देदें।” 

अधिकारी निस्पृहता के इस प्रतीक को कुछ देर ताकता रहा, फिर उनका निर्देश पालन कर वापस चला गया।

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शौर्य का अद्भुत उदहारण -नमक के घोल की कथा 

विषधर सर्प आड़े समय पर केंचुए की भाँति बिलों में दुबके नहीं पड़े रहते। जिनके पास तनिक भी साहस, शौर्य, संघर्ष की शक्ति है, वह विषम समय पर प्रकट हुए बिना नहीं रहता। फिर जो इससे भरे-पूरे हैं, उनका कहना ही क्या? पूज्य गुरुदेव के साथ कुछ ऐसा ही था। राष्ट्र पिता के आह्वान पर देश भर में नमक सत्याग्रह प्रारंभ हुआ। आगरा जिले में एक स्थान पर 17-18 वर्ष के तरुण श्रीराम भी अपने साथियों के साथ नमक बनाने में जुटे थे। प्रशासन का प्रतिरोध तो होना ही था। पुलिस की लाठियों के आतंक के मारे भगदड़ मच गई। इस हड़बड़ी में वह नमक के कुंड में गिर गए। नमकीन घोल शरीर स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक होता है, यह जानकारों से छुपा नहीं लेकिन गुरुदेव  दम साधे पड़े रहे। सारा तूफान शान्त हो जाने पर हँसते हुए कुंड के बाहर निकल आये। लोग उनके इस तरह निकलने पर भौंचक्के थे। किसी ने कहा-अमुक तकलीफ होगी, कोई कहता वह कष्ट तो होकर ही रहेगा लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ, वह नहा-धोकर पूर्ववत् हँस रहे थे।  शौर्य का यह अद्भुत उदाहरण  जिसने भी देखा उसी ने दाँतों तले अंगुली दबा ली।

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स्वतंत्रता संग्राम एक युगधर्म : 

शहीद  अर्थात् लगन, निष्ठा कि देश, समाज, धर्म, कर्तव्य के प्रति अपनी कुरबानी तक दे देने की ललक उनके मार्गदर्शक ने उन्हें अपने महाअनुष्ठान में  परिस्थितियों के अनुरूप समझौता कर वर्षों में कटौती कर लेने का संकेत कर दिया था। अतः वे उनके आदेश का पालन करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। यह युगधर्म था। हजारों  स्वयं सेवकों में एक न भी जाता तो किसी का कोई क्या बिगाड़ लेता। किंतु प्रेरणा औरों  को भी तो देनी थी। अतः सत्याग्रही बनने का संकल्प पूरा करने के विचार को अमली स्वरूप दिया व वे घर से भाग खड़े हुए।

जिन परिस्थितियों में वे भागे वे संभवतः औरों  के साथ रही होती तो न कर पाते। वे अपनी विधवा माँ, माता दान कुंवरी जी के इकलौते बेटे थे। शादी हो चुकी थी। माँ चाहती थी  वे भी पुरोहिताई करें । ऐसे में कॉंग्रेस रूपी मौत के कुएं में कूदना आत्मघाती कदम ही था। सभी को भय था कि वे कहीं भाग न जाये अतः घर पर ताले डाल दिये गये। वे घर से पानी भरा लोटा लेकर शौच के बहाने निकले एवं घर से 17 किलोमीटर दूर आगरा पहले उल्टी दिशा में चल कर, फिर घूमकर लौटकर लगभग 12 घंटे पैदल चलकर स्वयं सेवक भर्ती कैम्प में पहुँचे। वहाँ वे अपने मित्र जगन प्रसाद जी रावत, ठाकुर ऊधमसिंह तथा ठाकुर गंगासिंह से मिले। चारों  तरफ जन संपर्क का माहौल बनाया एवं सभाओं में गर्म उत्तेजक भाषण देकर नये स्वयं सेवको की भर्ती चालू कर दी।

मार्च-अप्रैल 1931 में वीर भगत सिंह को फाँसी लगते ही सारा देश आक्रोश से भर उठा। “सरफरोशी की तमन्ना” वाले देश भक्तो की भीड़ से जेल भर गयी। उनमें से एक हमारे पूज्य गुरुदेव भी थे जिन्हें सब श्रीराम मत्त के नाम से जानते थे। कुछ दिन जेल  का यातनाएं सहकर बाहर निकले। आंवलखेड़ा  के थाना अहारान के अंतर्गत एक कस्बा था जारखी सरकार ने वहाँ से जुलूस निकालने पर प्रतिबन्ध लगा रखा था। तिरंगा झंडा लेकर सरकार को चुनौती देकर निकलना एक दुस्साहसी का ही काम हो सकता था। जुलूस निकला, वंदे मातरम् के नारे गंज उठे। पुलिस ने डण्डों  से पिटाई चालू की। झण्डा मत्तजी के हाथों में था। बेहोश होकर वे कीचड़ में गिर गये व पुलिस पीटती चली गई। प्रातः दाँतभिची स्थिति में उनके मित्रों  ने उन्हें कीचड़ के जोहड़ से निकाला। डॉक्टरों ने जब औजारों से मुँह खोला तो तिरंगे झण्डे का टुकड़ा जो डण्डें  की मार से हाथ से छूट गया था व उनने मुँह से दाँतों में भीच रखा था, फँसा पाया। यह स्थिति देखकर उनकी स्वतंत्रता  के प्रति यह लगन व उमंगे देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये मत्तजी नाम तब और प्रख्यात हो गया।

सत्याग्रह आंदोलन के अंतर्गत टेलीफोन के तार काटने से लेकर पुलिस थानों पर छापे मार हमले बोलने तक का कार्य उनने व उनके युवा मित्रों  ने किया। अपने 6-8  वर्ष के स्वतंत्रता सेनानी जीवन काल में गुरुदेव का “योद्धा” वाला वह रूप उभर कर आता है जिसको हम परिमार्जित प्रौढ़रूप में बाद मे पण्डों से संघर्ष करते हुए सहस्रकुंडीय यज्ञ में तथा पूरे समाज में संव्याप्त अनीति से मोर्चा लेते हुए युगनिर्माण के सूत्रधार के रूप में देखते हैं। 

अगणित चोटे खाई हैं  इस “आजादी के सिपाही” ने जो बिना नाम व यश की आकाँक्षा के लड़ा व मात्र  स्वयं सेवक ही रहना जिसने पसन्द किया।

अपने जीवनकाल के इस अध्याय पर पूज्य गुरुदेव अपनी आत्मकथा में जो लिखते हैं : 

“देश के लिए क्या किया? कितने कष्ट सहे? सौपे गये कार्यों को कितनी खूबसूरती से निभाया  इसकी चर्चा करना यहाँ सर्वथा अप्रासंगिक है। उसे जानने की आवश्यकता प्रतीत होती हो तो वे उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित आगरा संभाग के स्वतंत्रता सेनानी पुस्तक पढ़ ले उसमे ढेरों  महत्वपूर्ण कार्यों के साथ हमारे नाम का उल्लेख अनेक बार हुआ है लेकिन  यहाँ तो केवल यह देखना है कि हमारे हित में  मार्गदर्शक ने किस हित को ध्यान में रखा?”

इस आत्म विवेचना में कितना भोलापन है व यश न लेने की, आत्मस्तुति न करने की एक ऐसी वृत्ति का दर्शन होता है जो आज कही दिखाई नहीं देती। उन दिनों की दो दिन जेल काटने वाले भी आज मंत्री पद की शोभा बढ़ा रहे हैं।  देश की भूखी जनता दाने-दाने को तरसती रहे, स्वयं अपने कोठे भरे जा रहे है लेकिन  निस्पृह लोकसेवी उन दिनों भी थे, इसके  साक्षी हैं  पूज्य गुरुदेव जिनने अपनी इस 8 वर्ष की तपस्या का प्रतिदान न सुविधाओं के रूप में लिया, न पद-वैभव के रूप में। उनके मार्गदर्शक बहादुरी की  जो परीक्षा  ले रहे थे उसमे वे पूरी कसौटी पर खरे उतर रहे थे।

गुरुदेव बताते थे कि इस अवधि में जेल मे व जेल से बाहर अनेक प्रकृति के लोगों से मिलना हुआ। इनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। जेल में ही लोहे के तसले की पीठ को कागज, कंकड़ को फाउन्टेन पेन व “लीडर” की एक पुरानी प्रति को पाठ्य पुस्तक बनाकर साथियों से पूछते-पूछते अंग्रेजी सीख ली। उत्तर भारत की प्रायः सभी भाषाओं का अभ्यास जेल में रहते-रहते होता रहा। कई बार जिम्मेदारी के पद सौपने के आग्रह हुए पर सदा स्वयं सेवक ही बने रहने का अनुरोध किया। कभी किसी पद की चाह नहीं की। केसकर साहब जो बाद में प्रसारण मंत्री बने को एक स्वयं सेवक की आवश्यकता थी। उनने स्वयं को प्रस्तुत किया व उनकी व्यक्तिगत देखभाल से लेकर आने वालों  से मिलने तक, छापा मारने वाली पुलिस से उन्हें बचा कर पीछे के दरवाजे से रवाना करने व स्वयं को वेश बदल कर  गिरफ्तारी से बचने के सारे नाटक गुरुदेव ने  किये।

काँग्रेस उन दिनो गैरकानूनी थी। कलकत्ता में 1933 में एक बड़ा अधिवेशन होने जा रहा था। देशभर से सत्याग्रही कलकत्ता रवाना होने लगे। सरकार ने बंगाल की सीमा में प्रवेश करने के लिए बड़ी संख्या में हर जिले की सी. डी. लगा रखी थी। बर्दवान स्टेशन पर हर डिब्बे की तलाशी लेकर गिरफ्तारियों की गयीं। आगरा से चला आखिरी जत्था श्री रावत जी, गोपाल नारायण व श्रीराम मत्त का था। तीनो ने कई रेले बदली पर अन्ततः आसनसोल स्टेशन पर आगरा के ही सब इंस्पेक्टर ने पहचान कर उतार लिया व उसी जेल में बन्द कर दिया जहाँ अन्य व्यक्तियों का आगमन थोड़ी देर में होना था। ये थे महामना मदन मोहन मालवीय, स्व. जवाहर लाल नेहरू की माता स्वरूप रानी, गाँधीजी के बड़े पुत्र देवीदास गाँधी, रफी अहमद किदवई, शोभालाल गुप्त, कन्हैयालाल खादीवाला, गोपीनाथ श्रीवास्तव इत्यादि। मालवीय जी व माता स्वरूप रानी सबके साथ बच्चों जैसा व्यवहार करते। जो कुछ मिलता-मिल बाँट कर खाते। शाम सत्याग्रहियों को कबड्डी खिलाई जाती व फिर उपदेश परामर्श का क्रम चल पड़ता था।

गुरुदेव के साहित्य में ऐसे अनेकों संस्मरण मिल सकते हैं, सभी का  एक ही अंक में प्रकाशन करना असंभव सा प्रतीत होता है। 

आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 4 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज का गोल्ड मेडल सरविंद जी को जाता है। उन्हें हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। 

(1)संध्या कुमार-29 

(2)चंद्रेश बहादुर-31 

(3 )सरविन्द पाल-33 

(4)  सुमन लता-24

 सभी साथियों के सहयोग, समर्पण, समयदान एवं श्रमदान के लिए हमारा नमन


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