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हमारे गुरुदेव, स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी -डॉ चंद्रेश बहादुर द्वारा लिखित पुस्तक 

16 अगस्त 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज का ज्ञानप्रसाद शब्द सीमा के कारण बहुत ही संक्षिप्त भूमिका की ओर संकेत कर रहा है, यहाँ तक कि संकल्प सूची के लिए भी स्थान नहीं बचा है। 

भारत के 77वें स्वतंत्रता दिवस पर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के समर्पित साथी आदरणीय डॉ चंद्रेश बहादुर जी की पुस्तक “स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी” का इस मंच पर शेयर होना एक परम  सौभाग्य है। इससे भी बड़ा सौभाग्य है कि इस पुस्तक में से गुरुवर का भाग अपने साथिओं के समक्ष प्रस्तुत करना। चंद्रेश  जी को हम सब की बहुत बहुत बधाई।

आदरणीय निशा भारद्वाज जी के भाई, अमर शहीद सुनील जी से सम्बंधित हमारे कमेंट को आपने अवश्य देखा होगा,दुःख भरी दास्ताँ सुनकर आँखों में आँसू आ गए थे। सरकारों के लिए स्वतंत्रता दिवस केवल एक ही  दिन होता होगा लेकिन हमारे लिए शहीदों की चिताओं पर हर क्षण मेले लगने चाहिए। किसी दिन पूरी दास्ताँ का वर्णन करने का मन है।

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अमर स्वतंत्रता सेनानी पं० श्रीराम शर्मा आचार्य (श्रीराम मत्त) 

सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राष्ट्रसंत पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य उर्फ श्रीराम मत्त, वे राजनीति में इसी नाम से पुकारे जाते थे । आपका परिवार क्षेत्र का प्रतिष्ठित पुरोहित ब्राह्मण परम्परा का था, पर बालक श्रीराम प्रारंभ से ही इस जातिगत अहंकार से ऊपर थे। आपका जन्म 20 सितम्बर 1911 को आगरा जनपद के आँवलखेड़ा ग्राम में हुआ था। इस मामले में वे कबीर से बहुत प्रभावित थे- 

“जाति-पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।” 

कबीर के प्रति निष्ठास्वरूप उन्होंने बाल्यावस्था में ही अपने गाँव में एक बुनताघर खोला था, जहाँ गाँव के बच्चों को बुलाकर वे उन्हें बुनाई सिखाते थे । हरिजन सेवा और स्वदेशी आंदोलन दोनों ही उन्हें विरासत में बापू से मिले थे ।

सत्याग्रह उनके जीवन में कूट-कूटकर भरा था। घर वाले नहीं चाहते थे कि वे स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लें। कम उम्र में शादी हो गई थी, ससुराल वाले भी असहयोग करे थे। घर वालों ने तो एक तरह से उन पर पहरा बैठा दिया था, पर वे एक दिन दीर्घशंका करने के बहाने घर से लोटा लेकर निकले और निक्कर – बनियान में ही सीधे ‘आगरा काँग्रेस स्वयंसेवक भर्ती दफ्तर’ में जाकर रुके। उनकी अन्त:प्रेरणा इतनी जबर्दस्त थी कि वे किसी भी प्रतिरोध के सामने कभी झुके नहीं।

आगरा जिले का स्वाधीनता संग्राम यों तो 1857 के गदर से ही प्रारंभ हो गया था, जब आगरा के क्रांतिकारियों ने अँग्रेजों के महत्वपूर्ण फौजी ठिकानों पर आक्रमण करने के लिए 30 किलोमीटर लंबी यात्रा की थी । पाँच जुलाई को भयंकर युद्ध हुआ था। सुचेता नाम का यह गाँव फतेहपुर सीकरी मार्ग पर पड़ता है, जहाँ आज भी खुदाई में मिलने वाली शहीदों की हड्डियाँ इस जिले के गौरवपूर्ण स्वाधीनता संग्राम की याद दिलाती हैं।

1919 में रोलेट एक्ट आने के साथ ही यहाँ स्वाधीनता संग्राम के नये अध्याय की शुरूआत हुई, जिसे लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी, हृदयनाथ कुंजुरू आदि निरन्तर हवा देकर भड़काते रहे। 1923-24 में श्री कृष्णदत्त जी पालीवाल के आ जाने और सैनिक अखबार का प्रकाशन आरंभ हो जाने के साथ ही यहाँ कांग्रेस संगठित हुई और इस जिले में व्यापक रूप से स्वाधीनता संग्राम प्रारंभ हुआ। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के हृदय में आज़ादी की आग तभी भड़क उठी थी, जब महात्मा गाँधी ने देशव्यापी दौरा किया और विद्यार्थियों से गुलामी की जंजीरें मजबूत करने वाली अँग्रेजी शिक्षा पद्धति के प्रति विद्रोह कीआग भड़काई, उनकी अपील की सारे देश में व्यापक प्रतिक्रिया हुई । पूज्य आचार्य जी भला उससे अछूते क्यों रहते ? वे तब तक प्राइमरी ही उत्तीर्ण कर सके थे, उन्होंने स्कूली पढ़ाई से मुँह मोड़ लिया। घर पर रहकर ही संस्कृत भाषा, अपने भारतीय आर्षग्रंथ तथा विशेष रूप से महापुरुषों की जीवनियां और राजनेताओं की वक्ताएँ पढ़ने में अभिरुचि लेने लगे । विश्वकवि,नोबल पुरस्कार विजेता  रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी किसी स्कूल में शिक्षा नहीं पाई थी, उनका ज्ञान स्व-उपार्जित था । पूज्य आचार्य जी की विद्या भी इसी कोटि की थी। उससे उनके हृदय में स्वाभिमान और स्वाधीनता की आग तीव्र गति से में भड़कती चली गई। राजनेताओं के भाषण सुनने के लिए वे दूर-दूर तक जाते । स्वयंसेवक के रूप में भर्ती हो जाने के बाद से तो आगरा ही उनकी गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु हो गया।

सक्रिय स्वाधीनता संग्राम का श्रीगणेश :

श्री पालीवाल जी ने दैनिक “सैनिक” की स्थापना की। यहीं से आचार्य जी के सक्रिय राजनीतिक जीवन का श्रीगणेश हुआ। उन्होंने प्रेस का कार्य, कम्पोज, प्रूफ रीडिंग और लेखन आदि प्रारंभ किया। अपना काम इतनी लगन, निष्ठा और कुशलता से  करते थे कि देखने वालों को भी आश्चर्य होता था। स्वभाव की मृदुलता के कारण वे न केवल दैनिक “सैनिक”  परिवार के परम चहेते बने अपितु श्री कृष्णदत्त पालीवाल जी के विशेष कृपापात्र भी बने । लेखन की प्रतिभा उन्होंने बाबू गुलाबराय  के लेख पढ़-पढ़कर स्वयं विकसित की।

उनके क्रांतिकारी गीत न केवल दैनिक “सैनिक” में छपे; अपितु कानपुर से छपने वाले पत्र “विद्यार्थी” जिसके सम्पादक श्री गणेश शंकर विद्यार्थी थे, में भी नियमित रूप से प्रकाशित होते थे । श्री विद्यार्थी जी उनको निरंतर प्रोत्साहित करते रहते थे, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने अपने गीत कलकत्ता से छपने वाले दैनिक “विश्वामित्र” में भी भेजना प्रारंभ कर दिया। इन गीतों ने समूचे बंगाल में क्रांति की आग भड़काने में अपूर्व योगदान दिया। पीछे तो “किस्मत” ओर “मस्ताना” जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं ने भी उनकी रचनाएँ प्रकाशित करना प्रारंभ कर दिया। वे गीत प्राय: काँग्रेस के कार्यक्रमों-अधिवेशनों में भी गाये जाते थे।

उनके इन गीतों ने जहाँ एक ओर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का मनोबल बढ़ाया, वहीं क्रांति की ज्वाला भी द्रुतगति से भड़काई । ये गीत दैनिक “सैनिक” में “मत्त प्रलाप” शीर्षक से नियमित रूप से छपा करते थे, जिन्हें आज भी चिरंजीव पुस्तकालय ने सुरक्षित करके रखा है। 1935-36 में छपे कुछ गीत इस प्रकार हैं:

देख-देखकर बाधाओं को पथिक न घबरा जाना । 

सब कुछ करना सहन किन्तु मत पीछे पैर हटाना ।।

माता व्यथित हुई कैसे ? जल आँखों में भर आया । 

रोती है, जननी यह कैसा संकट जननी तुझ पर आया ।। 

कोई भी हो दुश्मन तेरा निश्चय मिट जायेगा । 

त्रिंस कोटि हुकारों से नभमण्डल फट जायेगा । । 

मलय मरुत हो बन्द, बवंडर के प्रचण्ड झोंके आवें ।

शान्त हिमालय फटें शिलाएँ उड़े चूर हो टकरावें ।।

परिवर्तन निश्चित है, बहिरे सुनें आँख अन्धे खोलें ।

सोने वाले उठें, सिपाही जागें, सावधान हो लें । ।

उनकी यह पंक्तियाँ बताती हैं कि उनके हृदय में क्रांति की कितनी तीव्र आग बचपन से ही जल रही थी । यह एक अबूझ पहेली है कि वे ऊपर से उतने ही विनम्र और सेवाभावी थे। एक बार श्री बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आगरा आये और उन्होंने श्री पालीवाल जी से कहा- मैं कॉंग्रेस के नेताओं से तो बहुत मिल चुका हूँ, मुझे उन स्वयंसेवकों से भेंट कराओ, जिन पर गाँधी जी की छाप हो । श्री पालीवाल जी उन्हें आचार्य जी के पास ले गये और बोले, 

“यह बालक सच्चे अर्थो में कांग्रेस का स्वयंसेवक है ।” 

श्री नवीन जी झुककर उनके पैर छूने लगे, जबकि आयु में वे बहुत बड़े थे । संकोचवश आचार्य जी पीछे हटने लगे तो नवीन जी ने कहा-‘“बेटा! आज देश को तुम जैसे स्वयंसेवकों की ही जरूरत है।” श्री नवीन जी के इस कथन को पुण्य आचार्य जी ने न केवल साबरमती जाकर स्वयं सेवा का भाव पक्का किया, अपितु सारा जीवन ही स्वयंसेवक के रूप में गुजारा। जितना कार्य उन्होंने अकेले किया, उतना कार्य करने वाला व्यक्ति शायद ही कोई और इतिहास में ढूँढने पर मिले। उन्होंने बिना किसी यश की कामना से यदि एकनिष्ठ होकर कार्य न किया होता, तो 3500 पुस्तकों की संरचना, उनका प्रकाशन-प्रसार, 5-6 पत्रिकाओं का नियमित सम्पादन-प्रकाशन, देश के कोने-कोने की यात्रा, 3000 शक्तिपीठों, 12000 प्रज्ञा मण्डलों की स्थापना और 10 लाख अखण्ड ज्योति परिवार का एक विस्तृत संगठन खड़ा न हो पाता ।

मत्त जी अर्थात् देश-प्रेम में मतवाले:

आगरा जिले में यहाँ से प्राय: 40 किलोमीटर  दूर कस्बा जरार, काँग्रेस सत्याग्रह का मुख्य केन्द्र बन गया। उसे काँग्रेस की छावनी कहा जाता था । तब आगरा के कलेक्टर श्री विलियम्स थे। गाँव के जमींदार श्री सूरजपाल सिंह अँग्रेजों के बड़े प्रिय थे। उन्हें बुलाकर विलियम्सन ने डाँट लगाई और कहा कि यदि काँग्रेस छावनी जरार से नहीं हटी तो उनकी जमींदारी छीन ली जाएगी और हथियार के लाइसेन्स भी छीन लिए जाएँगे। श्री सूरजपाल सिंह ने अपने गुण्डों को लेकर सत्याग्रहियों को बुरी तरह पीटना, कष्ट देना, महिलाओं का अपमान करना, आभूषण लूटना प्रारंभ किया, पर सत्याग्रही टस से मस नहीं हुए। एक दिन श्रीचंद दोनोरिया को तो इतना पीटा कि वे बेहोश हो गये। उन्हें मरा समझकर छोड़ दिया गया। कई माह बाद बेहोशी दूर हुई ।

इस बीच पूज्य आचार्य जी तथा अन्य सत्याग्रहियों सर्वश्री रामबाबू, टीकाराम पालीवाल (पंजाबीशेर) मूलचंद, रामचन्द्र पालीवाल, अली ठाकुर, मेघसिंह, अमरेठा, मुरारीलाल तथा गीतम सिंह आदि ने लगातार संघर्ष जारी रखा। एक दिन तो विलियम्सन अपनी पुलिस लेकर चढ़ बैठा, एक ओर सूरजपाल सिंह के गुण्डे, दूसरी ओर पुलिस, सत्याग्रहियों की भयंकर पिटाई हुई। पूज्य आचार्य जी के हाथ में झण्डा था। पुलिस अधिकारियों ने उन्हें इतना पीटा कि वे बेहोश होकर कीचड़ में गिर गये, पर झण्डा नहीं छोड़ा वे उसे मुँह में दबाए रहे। उनकी छाती पर पैर रखकर ही पुलिस डण्डे को निकाल पायी, सो भी फटा हुआ । आचार्य जी रात भर कीचड़ में पड़े रहे। लोगों ने उन्हें मृत समझा। उन्हें डाक्टर के पास ले जाया गया। झण्डे का टुकड़ा अभी तक भी उनके दाँतों में दबा हुआ था । उपचार के पश्चात जब वे होश में आये, तभी वह टुकड़ा निकाला जा सका ।

यहीं से उनका नाम ‘मत्तजी’ अर्थात् देशप्रेम में मतवाले पड़ा और वे इसी नाम से पुकारे जाते रहे। उपचार करने वाले डाक्टरों को भी तरह-तरह से सताया गया। सत्याग्रहियों पर उलटे मुकदमें चले । आचार्य जी को छह माह की सजा हुई। अनेक अत्याचारों के बावजूद जरार की काँग्रेस छावनी तोड़ी नहीं जा सकी ।

पूज्य आचार्य जी जेल से लौटे तब तक प्रेस आर्डिनेंस द्वारा दैनिक “सैनिक” के प्रकाशन पर रोक लगा दी गई थी। उसके स्थान पर साइक्लोस्टाइल सत्याग्रह समाचार सैनिक सहनाद आदि प्रारंभ हुआ। उसमें पूज्य आचार्य जी ने बड़ा कार्य किया। प्रशासन ने जगह-जगह छापे डाले, पर किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जा सका। उसके हॉकर्स तक गिरफ्तार हुए, जुर्माने हुए,सजाएँ हुई, पर समाचार संचार का कार्य सरकार किसी भी तरह रोक नहीं पाई ।

पूज्य आचार्य जी समर्पित भाव से आन्दोलनों में भाग लेने लगे। श्री मोती लाल जी नेहरू के आह्वान पर प्रारंभ हुए विदेशी वस्त्र और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार में उन्होंने बढ़-चढ़कर कार्य किया । इस कार्य में आगरा जिला सबसे आगे रहा । नशाखोरी के विरुद्ध पिकेटिंग, चौकीदारों, मुखियाओं से इस्तीफे दिलाने, कालेजों पर धरने, बाल भारत सभा, ग्राम- ग्राम प्रचार और समानान्तर सरकारों को स्थापना तथा किरावली काण्ड में आचार्य जी की भूमिका एक तपे हुए सैनिक की थी । इन आन्दोलनों में सक्रियता के कारण उन्हें 5 अप्रैल 1932 को गिरफ्तार किया गया। 19 मई को उन्हें छह माह की कैद और 25 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई गई। आपने 2 जून 1990 को शांतिकुंज हरिद्वार में महाप्रयाण किया।

साभार : आचार्य श्रीराम शर्मा वांग्मय का प्रथम खण्ड

( युग द्रष्टा का जीवन दर्शन)


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