वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

समयदान हर कोई कर सकता है। 

प्रज्ञागीत भी समय की ही बात कर रहा है।

 https://youtu.be/EYZnircb21A

26 जुलाई 2023 का ज्ञानप्रसाद

अपने समर्पित और संकल्पित साथियों से क्षमाप्रार्थी हैं कि शब्द सीमा की बन्दुक एक बार फिर 24 आहुति संकल्प सूची को प्रकाशित करने के मार्ग में रोड़ा अटका रही है।हमें बहुत ही कष्ट होता है जब हमारे सहपाठी लगभग 20 घंटे के लिए संकल्प सूची के उत्पादन में समयदान करते हैं और हम प्रकाशित नहीं कर पाते। 

तो आइये आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने के लिए गुरुकुल पाठशाला में “समयदान की क्लास” का शुभारम्भ करें, गुरु चरणों में नमन के साथ ।        

धन का दान करना सभी के बस की बात नहीं क्योंकि धन होने के बावजूद अनेकों ऐसे होंगें जो बहाना बना सकते हैं कि हमारे पास तो धन है ही नहीं,ऐसे भी  अनेकों मिल जायेंगें जो कहते होंगें “कौन जानता  है कि  हमारे द्वारा दिया गया धन ठीक तरह से प्रयोग होता भी है कि नहीं।” लेकिन ऐसा  लिखते समय उन अनेकों साथियों को नज़रअंदाज करना अनुचित होगा जो पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ अंशदान करते आ रहे हैं  और करते रहेंगें।

ऐसी  स्थिति में हमें अपनी दृष्टि उस संपदा पर केंद्रित करनी  होगी, जो सृष्टा ने हर किसी को  उदारतापूर्वक प्रदान की है और उस संपदा का नाम है, “समय”,  समय की कड़ियों से जुड़कर ही जीवन शृंखला बनती है। समय का  उदार उपयोग तभी बन पड़ता है जब उद्देश्य  में गहरी रुचि हो। जिस कार्य में मन नहीं लगता वह यां  तो प्रारम्भ ही नहीं होता, यां  फिर आधा-अधूरा रहकर बीच में ही छूट जाता है।

दान देना तो कई नामों से प्रसिद्ध है लेकिन अंश दान के बाद अगर किसी प्रकार के दान की बात की जाती है तो वह है “समयदान”। समयदान तो हर किसी  के लिए सुलभ भी है और इसका उपयोग तो  मोटी बुद्धि वाले भी कर लेते हैं। विचारशीलों से परामर्श करने पर, उसके लिए सहज मार्गदर्शन भी मिल जाता है।

समयदान के साथ श्रद्धा का गहरा पुट लगना बहुत ही आवश्यक है। श्रद्धा के अभाव में  व्यस्तता जैसे अनेकों बहाने सहज ही  बन जाया करते हैं। Look busy do nothing/busy for the sake of remaining busy जैसे स्लोगन कितने ही प्रसिद्ध हैं। 

महान् मनीषियों की साधना ‘‘समय’’ की तपशिला पर बैठकर ही सम्भव हुई है। उन्होंने जो सोचा, जैसा सृजन किया  उसके पीछे उनकी समर्पित  “समय साधना” ही रही है। वैज्ञानिकों -आविष्कारों ने अपनी बुद्धि  और समय, निर्धारित लक्ष्य की ओर  केंद्रित न किया होता, तो सफलता कहाँ बन पड़ती? लोकसेवियों ने अपने समयदान के सहारे एक से  बड़े एक  कार्य सम्पन्न कर दिखाए हैं। धन न सही, समय को साथ लेकर तो फरहाद जैसे साधनहीन भी अपनी समर्पित साधना के बल पर 32  मील लंबी नहर खोद सकने में सफल हो सकते हैं।

आधुनिक युग के  बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के लिए शासन भांति भांति  के क़ानून बनाता फिरता है लेकिन चिंतक तो मनोस्थिति को समझने का बात करते हैं, सद्भाव संवर्धन की बात करते हैं , भाव सम्वेदना की बात करते हैं। सख्त से सख्त कानून बनाये जा सकते हैं, उनका सख्ती से पालन भी किया जा सकता है लेकिन जब तक मनस्थिति की overhauling नहीं होती, कुछ भी सार्थक/long-lasting हल ढूंढ पाना असंभव सा लगता है। भाव संवेदनाओं को समझने/ समझाने के लिए, मनस्थिति को बदलने के लिए  समय चाहिए और समय किसी के पास है नहीं।  हमारे ही एक समर्पित पाठक आदरणीय चंद्रेश बहादुर जी ने लिखा था कि जिस किसी को भी समय के बारे में पूछें तो एक ही उत्तर मिलेगा “यहाँ तो मरने का समय नहीं है।”  

इतिहास साक्षी है कि भारतीय परिव्राजकों ने, विश्व के कोने-कोने में पहुँचने की कष्ट साध्य यात्राएँ सम्पन्न की और वहाँ के पिछड़ेपन को हटाने एवं उत्कर्ष का बहुमुखी समाधान  जुटाकर, परिस्थितियों में जादुई परिवर्तन कर दिखाया। उपयोगिता और गरिमा का मूल्यांकन करने वालों ने उन्हें देव मानवों की पंक्ति में प्रतिपादित किया है। आज भी चाहे जितनी भी उच्चकोटि की  सुविधाएँ उपलब्ध हो गयी हैं, लेकिन जब कष्टकारी,लम्बी यात्राओं में चिन्मय जी एवं टोली के देवमानवों को देखते हैं तो दांतों तले ऊँगली दबाने के इलावा हमें कुछ सूझता ही नहीं है। अभी 3-4 वर्ष पूर्व तक श्रद्धेय डॉक्टर साहिब भी विश्व भर में जाते रहते थे।     

भारत की पुरातन गरिमा पर दृष्टिपात करते हैं तो उसके मूल में एक ही तथ्य उजागर होता है। वोह तथ्य है  साधु-ब्राह्मणों का वानप्रस्थ। पुरोहितों का, न्यूनतम निर्वाह में अपने काम चलाना और शेष सारा समय परिपूर्ण लगनशीलता के सहारे, लोकमंगल की उस समय की  आवश्यकताओं को पूरा करते रहना, उनकी इसी  सेवा-साधना ने जन-जन का मन जीता।  सांसारिक प्रयोजनों में जीवन की आधी अवधि लगाने के उपरांत, शेष आधी को लोकमंगल के लिए लगाया जाना आवश्यक माना जाता था। गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ हल्की -फुलकी रखी जाती थीं। कोई बुद्धिमान ऐसे परिवारों का सृजन नहीं करता था, जिनका भार वहन करते-करते ही जिंदगी का कचूमर निकल जाए। जो गृहस्थ में प्रवेश करते थे, वे भी न्यूनतम संख्या में सन्तानोत्पादन आरम्भिक दिनों में ही पूरा कर लेते थे; ताकि अधेड़ होते-होते घर-परिवार के बन्धन से छूट सकें। सुसंस्कारिता के लिए समुचित मार्गदर्शन ही अभिभावकों का कर्तव्य रहता था। हर घर में  एक व्यक्ति, पूरे समय के लिए लोकमंगल के लिए समर्पित होता था। इसी में किसी गृहस्थ की शान समझी जाती थी। राजपूतों में से हर घर के पीछे एक व्यक्ति सेना में भर्ती होता था। सिखों में से एक को गुरु कार्यों के लिए समर्पित होकर रहना पड़ता था। उसके हिस्से में आने वाली जिम्मेदारियों को घर के अन्य लोग मिल-जुलकर पूरी कर लिया करते थे। यही थी वह महान परम्परा, जिसके कारण भारत भूमि ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ रही, स्वर्गतुल्य रही और यहाँ के नागरिक, देवमानव के रूप में विश्व भर  में प्रसिद्ध हुए। ऐसे  देवमानवों की समय साधना ने ही भारत को  ज्ञानक्षेत्र में जगद्गुरु, विज्ञानक्षेत्र में चक्रवर्ती, शासन और व्यवस्था क्षेत्र में स्वर्ण संपदाओं का स्वामी बनाया था। परम पूज्य गुरुदेव आज भी उद्घोष कर रहे हैं कि यदि उन पुरातन परम्पराओं को किसी प्रकार फिर से  जीवन्त किया जा सके, तो सतयुग लौट आने की सम्भावना सुनिश्चित हो सकती है। दुर्बुद्धि के दावानल में जलती हुई दुनिया को, फिर से नए वातावरण में साँस लेने की सुखद सम्भावनाएँ हस्तगत हो सकती हैं।

आज के कंप्यूटर युगी  मानव की चतुरता ने “असल की नकल” बनाने में ऐसी प्रवीणता प्राप्त कर ली है की क्या कहा जाए । खिलौने की दुकान से जानकारी के सभी नमूने थोड़े-से पैसे खर्च करके खरीदे जा सकते हैं। इतना ही नहीं, जिस देवता की भी प्रतिमा  चाहें बिना किसी कठिनाई के, खरीदी जा सकती हैं। लेकिन  खिलौना-गाय दूध कहाँ देती है? खिलौना-हाथी की पीठ पर बैठकर लंबा सफर कहाँ किया जा सकता है? खिलौना-मुर्गी अण्डे कहाँ देती है? यही बात सुखी और समुन्नत संसार में सतयुगी वातावरण बनाए रखने वाले देवमानवों के सम्बन्ध में भी है। धर्मोंपदेशकों की सही गिनती बताना तो कठिन होगा लेकिन धर्म  की आड़ में जिस-तिस बहाने अनुदान और सम्मान बटोरने वालों की इतनी बड़ी संख्या है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। इतनी अधिक संख्या में धर्म सेवकों के होते हुए, विश्व की  न सही भारत की ख्याति तो  चरम स्तर की होनी चाहिए थी लेकिन दिखाई  इससे ठीक उल्ट ही रहा है। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रत्येक व्यक्ति को “सर्वसुलभ समयदान” के लिए आमन्त्रित किया जाता  है/प्रेरित किया जाता है। प्रयास यही रहता है कि लोकमंगल के लिए समयदान की प्राचीन परम्परा को किसी प्रकार पुनर्जीवित किया जा सके। उज्ज्वल भविष्य की संरचना में प्रमुख भूमिका निभा सकने में समर्थ इस महान प्रचलन को अपनाने के लिए, विचारशील पीढ़ी में नए  उल्लास का उत्पादन किया जा सके। 

सही अर्थों में समयदान तभी करते बन पड़ता है, जब अन्तराल की गहराई से आदर्शों पर चलने के लिए बेचैन करने वाली टीस उठती हो। ऐसे लोग अपने प्राणप्रिय लक्ष्य की दिशा में बढ़ चलने के लिए आकुल-व्याकुल होकर तीर की तरह सनसनाते हुए चलते हैं। प्रलोभन और रुकावटें  उनके मार्ग में न आते हों, ऐसी  बात नहीं है, लेकिन उन्हें  ignore करने पर रुकावट का  दबाव अनुभव नहीं होता। 

पूर्व संचित  बुरे संस्कार, समय का प्रभाव, लालच का दबाव तथा so called well wishers  का प्रभाव, सभी एक ही सलाह देते हैं कि जैसे भी सम्भव हो,अधिकाधिक सुविधा-साधन जुटाना, कूड़ा-कर्कट इक्क्ठा  करना ही, प्रसन्नता का मार्ग है , स्वार्थ ही सर्वोपरि है, अपनी सुविधा के बारे में सोचना  ही सर्वोपरि है।  इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आज के मानव को किसी भी प्रकार का compromise करना उचित लगता है। 

हमारे पाठक हमारे साथ सहमत होंगें कि यह सब एक प्रकार का Skit है, लघु नाटिका है, ड्रामा है,मात्र -अभिनय  है, जो मंच पर क्रीड़ा कौतुक दिखाकर पानी के बुलबुले की तरह समाप्त हो जाता है। छल कभी भी  छिपता नहीं है । वस्तुस्थिति कल नहीं तो परसों प्रकट होकर ही  रहती है। ऐसी दशा में यह बहुरूपियापन, विचारशीलों की दृष्टि में उपहासास्पद बनकर ही रह जाता है। अबोध बच्चे ही उस छलावे को न समझ पाने के कारण कुछ देर तक तालियाँ बजा सकते हैं। इस अर्थ प्रधान युग में,जहाँ केवल पैसे का ही बोलबाला है, किसी को भी खरीदकर, उससे कुछ भी कहलाया, कराया या लिखवाया जा सकता है लेकिन  इस समूचे गठजोड़ में इतना दम नहीं होता कि प्रस्तुत प्रपंच को लम्बे समय तक जीवित रख सके। उस खिलवाड़ से बालू के महल सजाए भले ही जाएँ लेकिन  वह  कुछ ही क्षणों में गिरकर धराशायी हो जाते हैं। ऐसी विडंबनाएँ आए दिन रची जाती हैं और उजड़ती देखी जा सकती हैं। इसे कौतुक कौतूहल के अतिरिक्त और क्या  कहा जाए। 

इस लेख में जिन महत्त्वपूर्ण, नि:स्वार्थी,उपयोगी और प्रेरणाप्रद कार्यों की बातें चल रही हैं,वह  मात्र उन्हीं से बन पड़ती हैं जिनकी आदर्शवादिता से जुड़ी हुई लगन, टीस बनकर हर घड़ी कसकती रहती है और “समय” ही नहीं, कौशल और साधनों को भी अभीष्ट के प्रति समर्पित करने में गर्व-गौरव अनुभव कराती है। 

निष्कर्ष क्या निकलता है ? समयदानी ही महादानी हैं ,युगतीर्थ शांतिकुंज इसका जीवंत उदहारण 

संसार भर के इतिहास का एक ही निष्कर्ष है कि आदर्शवादी घटनाक्रम, अभियान, आंदोलन चलाने और व्यापक बनाने में, मात्र वे ही लोग सफल हुए हैं जिन्होंने उत्कृष्टता को अपनी जीवनचर्या का अविच्छिन्न अंग बनाया और आदर्शों का पालन  करने में अपना सर्वस्व दाँव पर लगाया। इन्हीं को “समयदानी”  कहते हैं। उनका प्रयास न तो बीच में रुकता है, न पथभ्रष्ट होता है, न गड़बड़ाता है। श्रेयाधिकारी ऐसे ही लोग बनते हैं। महादानी इन्हीं को कहना चाहिए। छुटपुट दान की चिह्न पूजा करते रहने वाले तो हर गली-कूचे में कुछ न कुछ आडंबर पहने, जहाँ-तहाँ घूमते देखे जा सकते हैं।


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