25 जुलाई 2023 का ज्ञानप्रसाद
हम बार-बार कहते आये हैं कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार अनेकों शिक्षित, अनुभवी, सूझवान प्रतिभाओं का जमावड़ा है,इसका प्रतक्ष्य प्रमाण आदरणीय कुमोदनी गौरहा बहिन जी का कल का कमेंट दे रहा है। हमने जानने का प्रयास किया था कि अगर देने वाले को देवता कहते हैं तो दान करने वाला मनुष्य भी देवता है क्या?
बहिन जी ने लिखा था कि देवता होना कोई साधारण बात नहीं है, बड़े बड़े तपस्वी भी देवता नहीं माने जाते, उन्हें अवतारी पुरुष ज़रूर कह सकते हैं। ईमानदारी की कमाई को दान देकर जो व्यक्ति देवत्व के गुणों से ओतप्रोत रहते हैं उन्हें देवता की संज्ञा ( केवल संज्ञा) दी जा सकती लेकिन देवता नहीं कहा जा सकता।
इस ज्ञानप्राप्ति के बाद हमने आज के लेख की दिशा को थोड़ा सा divert किया है। परम पूज्य गुरुदेव की बहुचर्चित पुस्तक “समयदान ही युगधर्म” पर आधारित आज का लेख तो तो दान की परिभाषा पर ही चर्चा कर रहा है, धीरे-धीरे समयदान की और ही रुख करने की योजना है।
तो इन्ही शब्दों के साथ विश्वशांति की कामना करते हैं और नियमितता की पालना करते हुए गुरुदेव के चरणों में समर्पित हो जाते हैं।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो।
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दान पुण्य शब्द एक साथ मिलाकर बोले जाते हैं और इनके प्रतिफल भी समानांतर बताए जाते हैं। अध्यात्म की भाषा में दान की महत्ता स्वर्ग प्राप्ति के रूप में बतायी जाती है और बोल-चाल की भाषा में उसे प्रगति, सफलता, वरिष्ठता प्रदान करने वाला बताया जाता है।
दान का अर्थात् होता है ‘‘देना’’, अगर देना पुण्य है तो “लेना” पाप होना चाहिए । मनुष्य दोनों में से कौन से मार्ग का चयन करता है, यह मनुष्य की अपनी इच्छाओं पर निर्भर करता है । परिस्थितियाँ कई बार इस चयन के उलट की और भी दबाव डालती देखी गई हैं,यानि पाप ,पुण्य एक तरफ, इच्छा शक्ति दूसरी तरफ। कौन किस पर हावी होता है, मनुष्य के अंतःकरण में संघर्ष चलता ही रहता है, अन्तत: होता वही है, जिस पर इच्छा शक्ति संकल्प बनकर केंद्रीभूत होती है।
हरिश्चंद्र, कर्ण, बलि, दधीचि, भामाशाह आदि की कथाएँ इसी तथ्य का प्रतिपादन करती हैं। स्वर्ग की इच्छा रखने वाले और मुक्ति पाने वालों को इससे बढ़कर आत्म समर्पण करना पड़ता है।
भक्ति का एक ही स्वरूप है-अपनी इच्छा-आकांक्षाओं को आराध्य के साथ घुला-मिला देना। भगवान को भक्त वत्सल ( भक्त को प्यार करने वाले) कहा गया है। भगवान् स्वयं को समर्पणकर्ता के हाथों सौंप देते हैं और उसके इशारे पर नाचते हैं । मीरा के साथ सहनृत्य करना, नेत्रहीन सूरदास की लाठी पकड़ कर सेवक की तरह कार्यरत रहना, अर्जुन के रथ का चालक बन जाना, यह कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं जिन्होंने भगवान के खेत में अपना सर्वस्व उदारतापूर्वक बोया और बीज की तुलना में कई गुना पाया।
इन सभी महामानवों ने मात्र एक ही सूत्र अपनाया जो उन्हें उत्कृष्ट बना गया । वह सूत्र था कि उन्होंने संसार से जो कुछ भी पाया, उसकी तुलना में असंख्य गुना करने का व्रत निभाया ।
यह एक अटल सत्य है कि “जो जितना देता है, उसी अनुपात में पाता है।” मसखरी करने वालों को बदले में उपहास ही हाथ लगता है। यह बात इस सन्दर्भ में कही जा रही है कि देने के नाम पर अँगूठा दिखाने और लेने के लिए कंधे पर बड़ा सा थैला लादे-फिरने वाले, मात्र निराशा, थकान और खीज ही लेकर लौटते हैं। भले ही उन्होंने मुफ्त में तुर्त-फुर्त बहुत कुछ पाने की शेखचिल्ली जैसा सपना ही क्यों न सँजो रखा हो।
संसार में व्यवहारिकता का ही प्रचलन है। संसार के बाजार में, एक से एक बढ़िया वस्तुएँ भरी पड़ी हैं जिन्हें आकर्षक ढंग से सजा कर रखा हुआ है लेकिन इनमें से किसी एक को भी मुफ्त में पा सकना असंभव है। जो ऐसा प्रयास करते हैं, वे चोरों की तरह पकड़े जाते हैं, या फिर भिखारियों की तरह हर द्वार से दुत्कारे जाते हैं। इस आधार पर यदि किसी ने कभी कुछ पाया भी होगा, तो वह उसकी आदत और व्यक्तित्व का स्तर गिरा देने के कारण महँगा भी बहुत पड़ा होगा। अनुदान का प्रतिदान ही यहाँ का शाश्वत नियम है।
मन के लड्डू न बनाने हों, दिन में सपने न देखने हों, बिना पंख आकाश नापने की योजना न बनानी हो और सत्य का सहारा लेते हुए ठोस उपलब्धियाँँ हस्तगत कर लेने की अभिलाषा हो तो वही करना चाहिए जो अब तक के उदारचेता या महामानव अपनाते रहे हैं। उससे प्रेय( प्रेम)तथा श्रेय का दुहरा लाभ उठाते रहे हैं। सन्त, सुधारक, शहीद और सेवाभावी अपनी उदारता के बल पर ही मनुष्यों से लेकर देवताओं तक के वरदान पाते रहे हैं। शायद ही कोई होगा जिसे तपश्चर्या अपनाए बिना विभूतियों और सिद्धियों का वरदान मिला हो।
संसार से हम आए दिन कितना लेते हैं, इसका बही-खाता रखने की किसी को भी फुरसत नहीं है। व्यवसाय के लिए बैंक से जो कर्ज़ा लिया जाता है, उसे ब्याज समेत चुकाना पड़ता है। कर्ज़ा वापिस न करने के कारण जेल तक हो सकती है लेकिन हे मानव तू तो लेते ही जा रहा है, क्या दिए बगैर काम चल जायेगा ? कदापि नहीं। बैंक वाले तो कर्ज़े के साथ ही पहली क़िस्त बना देते हैं और पहले ही दिन से लेना शुरू कर देते हैं।
लेन-देन का नियम शाश्वत्, अटल होते हुए भी हर कोई स्वयं को इस व्यवस्था से पूरी तरह से छूट दिलाना चाहता है। यहाँ हर किसी को, हर किसी से कुछ न कुछ लेना ही है। वापिस देने के नाम पर अँगूठा दिखा देने से क्या काम चल जाता है ? मनुष्य को चाहिए कि बैंक की भांति साथ-साथ देता चले ,अदाएगी करता चले ।
‘‘दो और पाओ’’, ‘‘बोओ और काटो’’, ‘‘बाँटो और झोली को कभी खाली न होते पाओ।’’ जैसे सन्देश दसों दिशाओं से गूंजते रहते हैं। कंजूसी की आदत अनादि काल से इस शाश्वत सत्य को झुठलाती चली आ रही है, फिर भी यथार्थता( reality ) को अपने स्थान से एक इंच भी हटाया नहीं जा सका है।
दान के विषय में एक महत्वपूर्ण प्रश्न
जब अधिकांश लोग अभावों से ग्रसित हैं और गरीबी रेखा से नीचे रहकर दिन काटते हैं तो दान-पुण्य की परम्परा को कैसे निभाया जाए ? इस प्रश्न में बच्चों जैसे भोलेपन की झलक-झाँकी मिलती है। अक्सर समझा जाता है कि धन का दान ही एक मात्र दान है। ऐसा इसलिए समझा जाता है क्योंकि हर जगह धन का ही तो बोलबाला है। कहीं भी चले जाओ, पार्टी, घर, बाहर, यहाँ तक की पूजा स्थानों में भी धन की ही चर्चा होती है और उसी की प्रशंसा होती है। अपने निकटतम परिवारों तक गिफ्ट देने का प्रचलन बना चुका है, सोशल रिलेशन्स उन्हीं के मज़बूत होते हैं जिनमें न केवल लेन-देन बल्कि लेन-देन का स्तर भी matter करता है।
ऐसे प्रचलन को देखते हुए ऐसी मान्यता बन जाना कुछ आश्चर्यजनक भी नहीं प्रतीत होता कि बेचारा मनुष्य तो चीज़ ही क्या है, देवताओं तक को भेंट, उपहार, खुशामद के सहारे अपने पक्ष में लाया जा सकता है, भले ही वह खुशामद कितनी भी अनैतिक व अवाँछनीय क्यों न हो।
मानवी मूल्यों का पालन करने वाले जमावाड़े, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में,अभी तक एक भी ऐसा साथी, सहकर्मी देखने को नहीं मिला है जो ऐसी मान्यताओं का पालन यां समर्थन करता हो लेकिन इस विचारधारा का एक बहुत बड़ा समुदाय अवश्य ही exist करता है, ऐसा हमारा विश्वास है।
ऐसी दशा में यदि दान शब्द का अर्थ धनदान के साथ जुड़ गया हो और फिर एंटरटेनमेंट तक के लिए किए जाने वाले खर्च को भी दान समझा जाए तो कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है। पूजा पाठ में एक विधि पशुवध की भी सम्मिलित थी और उसे “बलिदान” कहा जाता था। हरिजनों को कभी जूठन दान दिया जाता था, जिसे अब उन्होंने अपमान मानना शुरू कर दिया है और लेना अस्वीकार भी कर दिया है। कहीं कहीं तो रोगियों के उतरे हुए कपडे भी लोग खुशी-खुशी ले जाते थे लेकिन अब इस “उतरन-दान” को स्वाभिमानी-नितान्त निर्धन भी स्वीकार नहीं करते। दान के नाम पर कन्यादान जैसी प्रथा कितनी ही प्रचलित है, हम सब भलीभांति परिचित हैं। इन्कम टैक्स से बचने के लिए किसी संस्था को दान देकर दुहरा लाभ उठाने वाले भी अपनेआप को दानवीरों की श्रेणी में गिनते हैं । चंदा माँगने वालों का दबाव, तीर्थयात्रा के नाम पर पर्यटन पिकनिक भी दान है। और तो और नशा पीने से पहले उसे शंकर भगवान को अर्पण कर दिए जाने पर वह भी भोग प्रसाद बन जाता है। यश के लिए कहीं पैसा देकर प्रतिष्ठा प्राप्त करना और उस ‘‘इमेज’’ का लाभ किसी दूसरी प्रकार से भुना लेना भी दान की श्रेणी में गिना जा सकता है।
इस प्रकार दान शब्द व्यवहार में जिस ढंग से प्रयुक्त होता है, उसे आदान-प्रदान कहा जाए तो अधिक उपयुक्त हो सकता है।
अगर दान को पुण्य की श्रेणी में शामिल करना है तो उसे प्रामाणिक माध्यमों से उच्चस्तरीय सत्प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाए नहीं तो उससे ठीक उलटा प्रतिफल भी हो सकता है। परिणाम और प्रयोग के साथ जुड़ी हुई उत्कृष्टता ही पुण्य का आधार बनती है और उसकी प्रतिक्रिया पुण्य के साथ जुड़ने वाले, अनेक कल्याणकारक रूपों में सामने आती हैं। इसके विपरीत यदि उससे दुष्प्रयोजनों का परिपोषण हुआ, तो समझना चाहिए कि वह देने की तरह खर्च किए जाने पर भी, ऐसे दुष्परिणाम उत्पन्न कर सकती है, जो अपने तथा दूसरों के लिए नरकवास जैसे अनेकों संकट खड़े करती है।
दान देने के और भी कईं दुष्परिणाम देखने में आते हैं जैसे मुफ्तखोरी की आदत बढ़ाना, किसी के अध:पतन का द्वार खोलना है। आपत्तिग्रस्तों को सामाजिक सहायता देकर उन्हें अपने पैरों खड़े होने की स्थिति तक पहुँचा देना एक बात है, किन्तु मुफ्तखोरी की आदत डालकर वैसा स्वभाव बना देना एक प्रकार से भले चंगे को अपाहिज बना देने के समान है। शारीरिक दृष्टि से हृष्ट पुष्ट व्यक्ति को भिक्षा के बजाए परिश्रम करके जीवनयापन करने की प्रेरणा देना किसी भी दान से बेहतर है।
परम पूज्य गुरुदेव की शिक्षा के अनुसार औचित्य इस बात में होना चाहिए कि हर व्यक्ति औसत नागरिक स्तर का जीवन जिए, ‘‘सादा जीवन-उच्च विचार’’ की नीति अपनाए, न्यायोचित पसीने की कमाई पर सन्तोष करे और चोरी बदमाशी का प्रयोग न करे। यदि अपने खर्च से कुछ धन बच जाता है तो उसे अवांछनीयताओं जैसी अव्यवस्थाओं से निपटने के लिए खर्च कर दें। सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन की व्यवस्था न जुट पाने से ही श्रेष्ठता और प्रगतिशीलता की पौध सूख रही है। उसे सींचने के लिए जो कुछ बन सकता हो, अवश्य करें । यही सतयुगी परम्परा रही है और इसे ही अपनाना भी चाहिए।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 10 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज गोल्ड मैडल की लिस्ट में सुजाता जी और सरविन्द जी विजयी हुए हैं। (1)संध्या कुमार- 33 ,(2) सुजाता उपाध्याय-47 ,(3) रेणु श्रीवास्तव- 33 ,(4) सुमन लता-25 ,(5) चंद्रेश बहादुर-25 ,(6) सरविन्द पाल-47 ,(7) )वंदना कुमार- 25 , (8 ) मंजू मिश्रा-24 ,(9 )विदुषी बंता-29, (10) नीरा त्रिखा-24 सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई