वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

शांतिकुंज स्थित गायत्री विद्यापीठ गुरुकुल का समापन लेख

18 जुलाई 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज के लेख साथ अटैच किया गया प्रज्ञा गीत आदरणीय पुष्पा  बहिन जी द्वारा हमें भेजा गए था। बहिन जी के अनुसार सावन में कजरी गीत सुनने का चलन है, हमें तो इसका कोई भी ज्ञान नहीं है, इसकी लोकप्रियता  साथियों/सहपाठिओं पर ही छोड़ते हैं। बहुत बहुत धन्यवाद् बहिन जी। 

किसी unknown कारणों से संकल्प सूची में कोई भी साथी संकल्प पूर्ण नहीं कर सका इसलिए इसे प्रकाशित नहीं कर रहे  हैं।

तो आइए विश्वशांति की कामना  के साथ आज के ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करते हैं। 

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो। 

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1 जून 1980 को दिए गए उद्बोधन में गुरुदेव कह रहे हैं कि गायत्री विद्यापीठ  गुरुकुल एक समग्र, सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला बनने जा रही है जिसमे हम नररत्नों को ढालेंगे, जिनसे व्यक्ति, परिवार नए  समाज का निर्माण होगा। आप हमें  मौका दीजिए ताकि हम नया समाज बना सके नया ज़माना  ला सकें। यह उद्बोधन “गुरुवर की धरोहर भाग 2” में प्रकाशित हुआ। हमारा सौभाग्य है कि हमारी सहकर्मी स्नेहा गुप्ता जी  का बेटा निर्झर मेरठ स्थित “गुरुकुल  प्रभात आश्रम” में कक्षा 9 का विद्यार्थी है जिनसे कुछ समय पूर्व हमें गुरुकुल पद्धति के बारे में उत्कृष्ट जानकारी मिली थी। 

आज के  ज्ञानप्रसाद लेख में हम गायत्री विद्यापीठ गुरुकुल के बारे में परम पूज्य की दृष्टि (vision) समझने का प्रयास करेंगें। 

हम एक छोटी सी पाठशाला शुरू करके एक शानदार शुरुआत करते हैं। हम आज की  शिक्षा पद्धति  के साथ-साथ “संस्कृति विद्या” भी पढ़ाना चाहते है। संस्कृति है क्या? संस्कृति किसे कहते है? संस्कृति वह होती है  जिसे ग्रहण करने के बाद साधारण मनुष्य मानव  बन जाता है, मानव के बाद महामानव और फिर देवमानव बन जाता है। आज की शिक्षा  तो संस्कृतिविहीन है। गुरुदेव कहते हैं आज के अनपढ़ मनुष्यों  की तुलना में पढ़े-लिखों से मुझे अधिक डर लगता है। कम पढ़े लिखों से यह निश्चितता तो बनी ही रहती है कि वह बदमाशी या चालाकी नही कर सकते, अगर करेंगें भी तो किसी एक सीमा के अंदर ही रह कर करेंगें। अभी तक उनके अंदर भलमनसाहत तो  है ही, ऐसे लोगों को यदि थोड़ा पढ़ा-लिखा कर जीवन जीना सिखा दिया जाए तो अच्छे मनुष्य  बन सकते हैं ।

संस्कृति मनुष्य को सही मार्ग दिखाकर से मानव  बनकर जीना सिखाती है। “शिक्षा से जुड़ी संस्कृति का शिक्षण  ही  मिलजुल कर  “विद्या” कहलाती ।”

गुरुदेव इस संदर्भ में पूछते हैं कि संस्कृति का शिक्षण कौन देगा ? सरकार देगी ?  संस्कृति का मंत्रालय, Ministry of Culture या विद्यालय, विश्वविद्यालय सरकार के पास तो है ही  लेकिन  उसमें संस्कृति व विद्या नाम की कोई चीज़ है यां नहीं है, यह एक बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है। 

संस्कृति का “शिक्षा” में समावेश हर कोई नहीं कर सकता। केवल ऋषि ही कर सकते हैं। प्राचीन काल में शिक्षा के क्षेत्र में हर कोई हाथ नहीं डालता था। आप मकान बनाइए, उद्योग खड़ा कीजिए, खेती-बाड़ी कीजिए, राज कीजिए लेकिन  “शिक्षा से जुड़ी संस्कृति का शिक्षण जिसे मिला जुलाकर “विद्या” कहते है, उसका भी ध्यान रखिये।” गुरुदेव कहते हैं कि आजकल हर कोई विद्यालय खोले बैठा है, उसका मालिक बना हुआ है लेकिन प्राचीन काल में यह कार्य विशुद्धतः ऋषियों के ज़िम्मे था। आजकल गुरु को मास्टर कहते हैं।  गुरू वे होते है जो शिष्य को अनगढ़ता के अंधेरे से निकाल कर प्रकाश भरा रास्ता दिखाते हैं । वह केवल  जानकारी ही  नहीं देते बल्कि आत्मीयता का पोषण भी देते हैं, संवेदना देते है। इसी को संस्कृति या विद्या कहते हैं ।

गुरुदेव बता रहे हैं : हम गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़े थे, आज से 60 वर्ष पूर्व,  दो रुपये की  छात्रवृत्ति हर प्रतिभावान बच्चे को मिलती थी। हमारे गाँव आँवलखेड़ा के स्कूल में एक तिहाई विद्यार्थी सारे आगरा ज़िले की छात्रवृति हड़प ले जाते थे। किस कारण? क्योंकि वहाँ गुरुजी थे, मास्टर जी  नहीं। हमारे गुरुजी ने विद्यालय को गुरुकुल बना दिया था। बच्चे स्कूल में ही सोते थे। सवेरे उठाकर वे मां की तरह कुल्ला कराते, नहलाते व फिर पढ़ाते। नींद आती तो धमकाते नहीं थे। कहते अच्छा सो जा, लेकिन  जल्दी उठ जाना, देर तक मत सोना। न केवल हम बल्कि जितने भी विद्यार्थी उस स्कूल में उस समय पढ़े, तीन साल तक लगातार  सारे ज़िले की छात्रवृत्तियां लेकर आते रहे। यह विद्यार्थी नौकरी के लिए नहीं, संस्कृति के लिए शिक्षण लेते थे। हर मां-बाप को प्रसन्नता थी कि गुरु के पास बच्चा जितना अधिक रह जाएगा, उतना ही अच्छा है। सवेरे जल्दी उठेगा, नहायेगा, साफ रहेगा,मनुष्य बनेगा। पढ़ा-लिखा बने चाहे नहीं, लेकिन विनम्र बनेगा। गुरुकुल का शाब्दिक अर्थ गुरु का कुल ही तो होता है।  

गुरुदेव कहते हैं कि हमें अब क्वालिटी के सहयोगी मिले हैं तो हम इस विद्यापीठ को  आरंभ करने का साहस कर सकते हैं। गुरुदेव 1980 के आंकड़ों के  आधार पर कह रहे हैं कि सारे गायत्री परिवार के चौबीस लाख परिवारों के बच्चों को पढ़ाने की हमारी हैसियत तो है नहीं लेकिन  हम एक ‘मॉडल’ खड़ा करना चाहते है कि बच्चों का शिक्षण कैसा होना चाहिए। राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र मांगकर अपने साथ ले गए  थे। हम भी गायत्री परिवार के विशाल परिवार के सदस्यों से उनके बच्चों को मांगेंगे कि हम इन्हें नवयुग के लिए तैयार करना चाहते हैं, आप हमें दे दीजिए। अगले वर्ष से हम KG  से दसवीं कक्षा तक के 200 बच्चों को  शिक्षा देने का कार्य करेंगे लेकिन  इसकी विशेषता यह होगी कि सरकारी सिलेबस के साथ साथ  संस्कृति, शिष्टाचार, जीवन जीने की कला, आत्मावलंबन, स्वावलंबन  आदि का पाठ भी पढ़ाया जायेगा । यह प्रयास मात्र एक बीजारोपण  है,  इसकी परिणति आप आने वाले 20-30 वर्षों में देखेंगे, जब यह एक  विश्वविद्यालय का रूप ले लेगा।

हम यहाँ चौबीस घंटे  का शिक्षण देंगे। जिसमे खेलना-कूदना,व्यायाम करना, हंसी-मजाक भी तथा भयमुक्त होकर जीना भी शामिल होगा। हम यहाँ “परिवार निर्माण” की शिक्षा आरंभ करने वाले है ताकि कुटुंब व्यवस्था ठीक हो सके। व्यक्ति को अच्छा बनाने के लिए कुटुंब को अच्छा बनाना होगा। आज के भागदौड़ वाले अधिकतर परिवार यह काम नहीं कर सकते। वे रात को खाना खाते हैं, रेडियो सुनते हैं, टीवी देखते हैं और सो जाते है। सुबह तब उठते हैं  जब बच्चे स्कूल चले जाते हैं और रात को घर तब आते हैं जब बच्चे सो गए होते हैं। सभी परिवार ऐसे नहीं हैं, अनेकों सुसंस्कृत भी  हैं।   

परिवारों को बनाने के लिए हमें  नारियों को शिक्षण देना  होगा। वे ही बच्चों में संस्कारों  के बीज बो पाएंगी। नारियों  के शिक्षण के बिना गुरुकुल में बच्चों का शिक्षण अधूरा है। गुरुकुल को मात्र बच्चों का  एक भवन कहना ठीक नहीं होगा। हम गायत्री विद्यापीठ को एक   overall  “परिवार शिक्षण” का आरण्यक बनाने की योजना को पूर्ण करने के लिए संकल्पित हैं।  

परिवार सहयोग एवं सहकार का नाम है, मिलजुल  कर रहने की भावना का नाम “गायत्री परिवार है, युग निर्माण परिवार” है। यदि हम सब में परिवार की भावना बन सके तो समाज बन सकता है। परिवार को “समाज की ढलाई का कारखाना” कहें तो गलत नहीं होगा।  परिवार में ही सुसंस्कारी व्यक्ति ढलता है और व्यक्ति ही परिवार का यूनिट है, इकाई है।  सुख और शांति की दृष्टि से परिवार की महत्ता है और इसके  संचालन के लिए महिलाओं की आवश्यकता है। महिलाओं का, नारी जाति का शिक्षण बहुत ही आवश्यक है। परिवार के निर्माण के लिए कहीं कोई स्कूल नहीं है, उसी उद्देश्य से यह  गुरुकुल, गायत्री विद्यापीठ बना रहे हैं। 

बच्चों की समस्याएं समझकर उनका समाधान करने की कला ईश्वर  ने जितनी नारी को दी है, उतनी और किसी को नहीं। पुरुषों के हाथों में धमकाने की कला दी है व नारी को जो कला दी है, उसे प्यार कहते है, संवेदना कहते है, करुणा कहते है। मर्दों के पास ताकत तो बहुत है, समर्थता भी  है लेकिन प्यार  नहीं है। 

गुरुदेव ने शांतिकुंज के कार्यकर्ताओं की बेटियों से, धर्मपत्नियों से, देवकन्याओं से, जो  माताजी की गोदी में रहकर पली हैं, उन सबसे इस स्कूल की “परिवार निर्माण प्रयोगशाला” का आरम्भ किया। गुरुदेव कह रहे थे: हम  गायत्री परिवार के लोगों से कहते हैं  कि अपनी पत्निया हमें  सौंप दीजिए, हम उन्हें संस्कारवान बनाएंगे। हम विद्या,संस्कृति व ज्ञान द्वारा नयी पीढ़ी बनाने के लिए संस्कारों का  शिक्षण देकर  एक गुरुकुल आरंभ कर रहे हैं।  

हमारी तो इच्छा थी कि स्कूली पाठ्यक्रम भी इस शिक्षा से निकाल देते पर क्या करे? मजबूरी है। बच्चे और उनके अभिभावक कहेंगे कि हमें नौकरी के लायक भी नहीं बनने दिया। हम तो उन्हें जीवन जीने की कला, महामानव बनने की विधा सिखाना चाहते हैं लेकिन  समय को देखते हुए विद्यालयीन सरकारी पाठ्यक्रम भी साथ जोड़ दिया है। सरकारी शिक्षण पद्धति से तो पढ़ाएंगे ही  लेकिन साथ में  “जीवन की दिशा का निर्धारण” करना, अपना भविष्य स्वयं कैसे बनाया जाए, इस विधा का शिक्षण भी  करेंगे। भारतीय संस्कृति का शिक्षण करने वाला एक विश्वविद्यालय स्तर का तंत्र हम खड़ा करेंगे। कब करेंगे? आप देखिएगा। हम हो न हों लेकिन  उसके बीज बो रहे हैं । हमारे उत्तराधिकारी आने वाले दस-पंद्रह वर्षों में यह समग्र तंत्र तैयार कर देंगे। आपको इस संबंध में आशावादी होना चाहिए।

अगर  समाज को IAS  की आवश्यकता है तो  समाज को सुधारने वाले लोकसेवियों की भी आवश्यकता है। समाज को उत्कृष्ट  मनुष्यों की आवश्यकता  है, स्वस्थ चिंतन करने वाले युवा रक्त की आवश्यकता  है। इसलिए स्कूलों की, कालेजों की, शिक्षण पद्धति में व्यापक क्रांति पैदा करने के लिए यहीं से वातावरण बनाते हैं, न जाने इनमें से कौन गांधी है, नेहरू है, सुभाष बोस है, खुदीराम है। प्रत्येक बालक/बालिका  के अंदर की मौलिक क्षमता को निखारने का प्रयास करेंगे। आठ घंटों  की सरकारी पढ़ाई व बाकि बचे  घंटों  की हमारी संस्कारों वाली पढ़ाई। उज्ज्वल भविष्य के लिए संस्कारवान बच्चे और सुसंस्कारी, संवेदनशील, स्वावलंबी, शिक्षित नारी शक्ति की बड़ी आवश्यकता है। हम  इन्हीं दो को आगे बढ़ाएंगे। इस दिशा में हमारे कदम छोटे भले ही हों  लेकिन परिणाम शानदार होंगें।  

अब अंत में एक अनुरोध उन बुज़ुर्गों से करते हैं जो रिटायर हो चुके हैं, जिनके पास फ्री  समय है, हम यहां बुलाते हैं। हमें वानप्रस्थ स्तर के रिटायर्ड सेवाभावी व्यक्ति चाहिए। यदि ऐसे व्यक्ति युवा वर्ग में से मिल जाएँ तो फिर बात ही क्या है। उन दिनों परिवार में  एक ही कमाने वाला होता था, गुरुदेव ने उसे नहीं बुलाया लेकिन इतना ज़रूर कहा कि यहाँ आकर वर्ष में एक बार नौ दिन का अनुष्ठान अवश्य करे। अपने घर की महिलाओं व बच्चों का शिक्षण यहाँ  देवपरिवार में आकर करवाएं। यह गुरुकुल एक समग्र, सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला है जिसमे हम नररत्नों को ढालेंगे, जिनसे व्यक्ति, परिवार नए  समाज का निर्माण होगा। आप हमें  मौका दीजिए ताकि हम नया समाज बना सके नया ज़माना  ला सकें।


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