13 जुलाई 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज गुरु का दिन गुरुवार है और गुरुकुल विद्यालय के सभी समर्पित विद्यार्थी उत्सुक हैं कि आज क्या जानने को मिलेगा। माँ गायत्री की शक्ति के 24 दिव्य स्वरूप और उनका गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों से सम्बन्ध अवश्य ही श्रद्धा और विश्वास को और भी परिपक्व कर रहा है। हमारा तो विश्वास है कि जब तक किसी तथ्य की फिलोसॉफी को न समझा जाए, उद्देश्य की पूर्ति में अनेकों बाधाएँ आती हैं और परिणाम कहीं दूर दूर तक भी दिखाई नहीं देते। उस स्थिति में माला जपना तोते की भांति रटने यां किस Robot की भांति कार्य करने से कम नहीं होता। गायत्री मंत्र का अर्थ समझना, माँ गायत्री की शक्तिधाराओं को जानना/समझना और मंत्र के साथ कनेक्ट करने का अर्थ KG कक्षा से Grade 1/2 में प्रमोट होने जैसा है। हमारे अधिकतर साथी तो ग्रेड 2 में प्रमोट हो चुके हैं, हम तो अभी ग्रेड 1 में ही हैं।
पिछले लेखों की बेसिक बैकग्राउंड के साथ आज हम यज्ञ चिकित्सा की उतनी ही जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करेंगें जितनी हमें आवश्यक है और जिसे हम आसानी से समझ सकें। यह विषय इतना विशाल और विस्तृत है कि एक/दो लेखों में वर्णित करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है। हमें साहस किया है, आशा करते हैं कि गुरुकुल पाठशाला के सभी साथी कुछ न कुछ तो लाभांवित होंगें ही। साथियों से आग्रह कि लेख में यज्ञ से सम्बंधित वीडियो लिंक और स्क्रीनशॉट अवश्य देखें।
शुक्रवार को रिलीज़ होने वाली वीडियो में इसी कंटेंट को वीडियो फॉर्म में प्रस्तुत किया गया है।
इन्ही शब्दों के साथ विश्वशांति की कामना करते प्रस्तुत है आज का ज्ञानप्रसाद।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने।हे भगवन हमें ऐसा वर दो।
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यज्ञ चिकित्सा/ यज्ञोपैथी
यजुर्वेद और अथर्ववेद में समग्र स्वास्थ्य के लिए “यज्ञ चिकित्सा” के अनेकों प्रभाव मिलते हैं। यज्ञ चिकित्सा को ही इंग्लिश में यज्ञोपैथी यां यज्ञोथेरपी का भी नाम दिया गया है। Therapy का अर्थ Treatment/Cure होता है। जिस प्रकार अंग्रेजी दवाओं से इलाज करने को Allopathy कहते हैं, प्राकृतिक पदार्थों/तरीकों से इलाज करने को Homeopathy/ Naturopathy कहते हैं, उसी प्रकार यज्ञ से बीमारीओं के निवारण करने को यज्ञोपैथी कहते हैं।
परम पूज्य गुरुदेव ने आधुनिक युग में लुप्त हो रही यज्ञोपैथी को न केवल पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है, बल्कि उसे सशक्त वैज्ञानिक आधार भी प्रदान किया है। यह चिकित्सा पद्धति इस मूल सिद्धान्त ( Basic principle ) पर आधारित है कि रोग का वास्तविक कारण कीटाणु नहीं, बल्कि “जीवनी शक्ति का क्षरण (Loss of Vital Power )” है। इसी प्रक्रिया को Loss of Immunity कहते हैं। रोग के कीटाणु तो वातावरण में विद्यमान रहते ही हैं लेकिन उन कीटाणुओं प्रभाव उन्हीं पर होता है, जिनकी “जीवनी शक्ति” कमज़ोर हो गयी है।
यज्ञ का विज्ञान “वातावरण के परिशोधन” के साथ जीवनी शक्ति के संवर्धन की सशक्त प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया की रिसर्च हरिद्वार स्थित ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की प्रयोगशाला में सम्पन्न किया जाता है। संस्थान के डायरेक्टर डॉ. प्रणव पण्ड्या के अनुसार यह मूलतः ध्वनि, ताप एवं भाव शक्ति का समन्वित प्रयोग है। इसके लिए प्रयोग किए जाने वाले मुख्य तत्व वनौषधियाँ, समिधाएँ, घृत, पूर्णाहुति में डाले जाने वाले पदार्थ,यज्ञ धूम्र, यज्ञ ऊर्जा, यज्ञ भस्म, कलश जल, मन्त्र शक्ति एवं कर्मकाण्ड, धर्मानुष्ठानों से जुड़ी तपश्चर्यायें आदि हैं। वेदों में इस तरह के यज्ञ को भैषज यज्ञ कहा है। भैषज का अर्थ होता है रोगी को स्वस्थ करने अथवा रोग का इलाज या उसकी रोकथाम करने के लिए विधिपूर्वक बनाया हुआ पदार्थ यां प्रक्रिया।
वनौषधि यज्ञ को वेदों में भैषज्य यज्ञ कहा है। “भैषजकृतो हवा एवं यज्ञो यत्रैवंविद ब्रह्मा भवति” अर्थात् जिनमें वैद्यक शास्त्रज्ञ ब्रह्मा होता है, वे भैषज्य यज्ञ हैं। विभिन्न औषधियों के भिन्न- भिन्न रोग निवारक एवं स्वास्थ्यवर्धक प्रभाव बताये गये हैं। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में अनेकों चुनी हुई प्रामाणिक जड़ी बूटियों को लेकर प्रयोग किये गए हैं, जिनका उपयोग आयुर्वेद एवं एलोपैथी में विभिन्न रूपों में किया जाता है। एलोपैथी में भी जड़ी बूटियों का उपयोग विभिन्न औषधियों के निर्माण में हुआ है।
यज्ञ चिकित्सा में इन औषधियों को होमीकृत कर उन्हें सूक्ष्मतम (Micro-refined) बनाना एवं उनके प्रभाव से व्यक्तियों, वातावरण एवं वनस्पतियों को विकार मुक्त करना ही प्रमुख उद्देश्य है। यज्ञ से उठ रहे धूम्र से होमीकृत की प्रक्रिया में जड़ी बूटियों के Micro-particles वातावरण में फैलकर अपना प्रभाव दिखाते हैं। Material Scientists अब तक कुछ ही वनौषधियों का chemical analysis कर पाये हैं। मात्र वर्णित माहात्म्य के आधार पर उनका उपयोग विवेकसम्मत नहीं है, इसीलिए ब्रह्मवर्चस में पूर्ण विश्लेषण कराये जाने की व्यवस्था की गयी है।
पुरातन भारतीय पद्धति के अनुसार मन्द बुद्धि के लिए वन तुलसी के बीज, अपामार्ग, इन्द्रायण, करंजा की गिरी, दारू हल्दी, चौलाई के पत्ते, बिनौले की गिरी, लाल चन्दन एवं मष्तिष्क रोग के लिए बेर की गुठली का गूदा, मौलसिरी की छाल, पीपल की कोपलें, इमली के बीजों का गूदा, काकजंघा, बरगद के फल, खिरैटी, गिलोय का प्रयोग प्रचलित है। इसी दिव्य सिद्धांत का प्रयोग करके ब्रह्मवर्चस में बहुत ही उच्चकोटि के रिसर्च परिणाम मिले हैं जिन्हें विश्व्यापी ख्याति प्राप्त हुई है।
श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी का कहना है कि देश-विदेश में आयोजित हो रहे यज्ञों का उद्देश्य मानवता को समग्र स्वास्थ्य उपलब्ध कराना है। हम अपनी प्रयोगशाला में जिन औषधियों को जीवनी शक्ति बढ़ाने के लिए उपयोगी पाते हैं, अपने यज्ञों में उन्हीं का प्रयोग करते हैं। गायत्री परिवार के कार्यकर्ता देश/विदेश में इन प्रयोगों के लाभकारी परिणामों का सर्वेक्षण अध्ययन कर रहे हैं। हमने इस लेख के साथ ही एक सैंपल रिसर्च स्टडी का स्क्रीनशॉट शामिल किया है। यह स्क्रीनशॉट देव संस्कृति यूनिवर्सिटी के Department of Ayurveda & Holistic Health द्वारा प्रकाशित रिसर्च पेपर के Abstract का संक्षिप्त विवरण है। रिसर्च पेपर तो बहुत ही लम्बा है लेकिन हमारी रूचि होने के कारण हमने इसे पढ़ा और समझने का प्रयास किया। इस पेपर में वर्णन की गयी रिसर्च में बीमारी के लिए तीन मार्गों से दवाई देने की तुलना की गयी है। यह तीन मार्ग हैं : 1) टेबलेट/कैप्सूल, 2) Intravenous (IV) injection और 3) यज्ञ के उठने वाला धुआँ।यह रिसर्च पेपर सिंगापुर से प्रकाशित होने वाले इंटरनेशनल रिसर्च Journal में प्रकाशित किया गया है और विश्व भर में विख्यात है। यह केवल एक ही उदहारण है, DSVV से प्रकाशित हो रहे अनेकों रिसर्च रिजल्ट्स परम पूज्य गुरुदेव के विज़न को सार्थक कर रहे हैं।
अग्निहोत्र का स्वास्थ्य एवं कृषि पर प्रभाव
अग्निहोत्र, कृषि, पर्यावरण तथा प्राणीजगत के लिए एक वरदान है। प्रदूषित हो रहे पर्यावरण में जीना दूभर हो रहा है। अग्निहोत्र का विज्ञान जीवन के अस्तित्त्व को चुनौती दे रहे पर्यावरणीय प्रदूषण का कारगर समाधान प्रस्तुत करता है। यज्ञ द्वारा वायु मण्डल की शुद्धि होती है। वायुमण्डल के शुद्ध रहने से हमारा मन शुद्ध रहता है, मन स्वस्थ रहेगा तो तन तो स्वतः ही स्वस्थ रहेगा ।
पर्यावरण संवर्धन के लिए यज्ञ का बहुत बड़ा योगदान है। अग्निहोत्र में आकाश में व्याप्त गंदगी की नष्ट करने की अपूर्व क्षमता है। यदि बड़ी संख्या में अग्निहोत्र हों और उनकी श्रृंखला बराबर चलती रहे तो बढ़ा हुआ वायु प्रदूषण जो TB, Asthma, Cancer , Sleeplessness,Stress,Heart Trouble, Diabetes आदि बीमारीओं का उपचार हो सकता है।
अग्निहोत्र पात्र पिरामिड आकार का होता है, पात्र से औषधियों का स्पन्दन ( Vibration) बना रहता है। जिस स्थान पर अग्निहोत्र होता रहता है तो उस स्थान की वनस्पति, पेड़-पौधों आदि को पोषक तत्व मिलने के कारण उनमें प्रफुल्लता मिलती है और वे सदा हरे-भरे रहते हैं। खादों तथा कीटनाशकों के दुष्प्रभाव को समाप्त करने में यह सक्षम है।
जो बात यहाँ वनस्पतियों के लिए लिखी जा रही है, मानवों के लिए भी शत प्रतिशत सही है।
अग्निहोत्र का पर्यावरण में महत्व इतना चर्चित है कि आजकल यूरोप में बसों, कारों तथा दुकानों में “Heal the atmosphere Perform agnihotra” “अग्निहोत्र करो और “वायुमण्डल स्वस्थ रखो” स्टीकर लगे देखे जातें हैं।। प्रदूषण के कारण पर्यावरण में पुष्टिकारक तथ्वों का अंत हो रहा है। उन तत्वों की भरपाई करने के लिए अग्निहोत्र पूर्णतया समर्थ है।
अग्निहोत्र का प्रभाव कोई सुनी सुनाई, मनगढ़ंत बात नहीं है, इसका आधार एकदम वैज्ञानिक है। यज्ञ का धूम्र आकाश में जाकर बादलों में मिल जाता है। वर्षा के जल के साथ जब वह पृथ्वी पर आता है तो उससे परिपुष्ट अन्न, घास आदि वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, जिनके सेवन से मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी परिपुष्ट होते है। मंत्रोच्चार के ध्वनिकम्पन से लोगों का मानसिक परिष्कार भी होता हैं।
अग्निहोत्र से वातावरण में फैलने वाला धुआँ पेड़ों, पौधों की पत्तियों को भी प्रभावित करता है। पत्तियों के सम्पर्क में आते ही धुआँ क्लोरोफिल उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध हुआ है।
जब बगीचों में अग्निहोत्र को विधि-विधान से किया गया तो पाया गया कि सामान्य फलों की अपेक्षा फलों का आकार दुगुना और संख्या अधिक हुई है।
यज्ञ से उत्पन्न पौष्टिक वायु, जल, धूम्र एवं भस्म से अन्न में रस, स्वाद, आरोग्य एवं पौष्टिकता की प्राप्ति हुई है । कृत्रिम खादों से उत्पन्न अन्न को खाकर मनुष्य क्रूर और हिंसक होता जा रहा है जबकि यज्ञीय वातावरण में उत्पन्न हुए अन्न का खाने से मनुष्य में दया, प्रेम, सद्भाव परोपकार और सहयोग की भावना जागृत होती है। जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन की बात ऐसे ही तो नहीं कही गयी है, इसका बहुत ही ठोस आधार है
यज्ञ सम्पन्न होने के बाद अग्नि को शांत होने के लिए 12 घण्टे के लिए छोड़ दिया जाता है। ठंडी हुई भस्म को खेतों में फैला देना चाहिये। यज्ञ की भस्म से उपजने वाली फसल खुशबूदार होती है जिसे खाने पर एक अलग सुगन्ध और स्वाद का एहसास होता है। अन्न के दाने संख्या में अधिक, आकार में बड़े तथा स्वाद में मधुर होते है।
देसी गाय के घी में विशेष औषधीय गुण होने के कारण, अग्निहोत्र में इसी का प्रयोग किया जाता है। देसी घी अदृश्य ऊर्जाओं के वाहक के रूप में कार्य करता है एवं इसमें शक्तिशाली ऊर्जा बंध जाती है।
चावल को अक्षत कहा जाता है। अक्षत का अर्थ होता है अखंडित। चावल को पूर्णता का प्रतीक और देवताओं का भोग माना गया है। हमारी श्रद्धा और भक्ति खंडित न हो, सदैव बढ़ती जाए इसीलिए यज्ञ में चावल अर्पित किए जाते हैं। किसी को आशीर्वाद देते वक्त कहा जाता है- धन और धान्य से संपन्न हो। इसमें धान्य (धान) का अर्थ चावल ही होता है।
चावल के साथ दहन के समय निकलने वाली गैसें जीवाणुओं के खिलाफ प्रतिरोधी शक्ति प्रदान करती है।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 2 युगसैनिकों (1)संध्या कुमार-24 ,(2) रेणु श्रीवास्तव-24 ने संकल्प पूर्ण किया है और दोनों ही गोल्ड मैडल विजेता हैं। नारी शक्ति को नमन करते हैं। दोनों को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई
