28 जून 2023 का ज्ञानप्रसाद
शक्तिपीठों की स्थापना से सम्बंधित पूज्यवर ने अनेकों पुस्तकें लिखी हैं और उनका प्रयास बड़े भव्य भवनों की दिशा में न होकर, समर्पित साधकों की ट्रेनिंग में था जो चलते फिरते जीवंत शक्तिपीठ की भूमिका निभा सकें। इस उद्देश्य से गुरुदेव ने 1972-73 में ढाई माह की पूर्वी अफ्रीकी देशों की यात्रा संपन्न की,यहीं पर इन चलते फिरते शक्तिपीठों का सूत्रपात हुआ जो आज सारे विश्व में फैल चुके हैं।
आज शब्द सीमा ज्ञानप्रसाद के इलावा कुछ भी लिखने की आज्ञा नहीं दे रही।
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परम पूज्य गुरुदेव शक्तिपीठों के निर्माण के प्रति अपने दृष्टिकोण को समय-समय पर प्रस्तुत करते रहे हैं। उनके महत्वपूर्ण अंशों को संकलित कर एक पुस्तक तैयार की गयी है जिसका शीर्षक है “गायत्री शक्तिपीठ पूज्य गुरुदेव की दृष्टि और हमारे दायित्व।” इस पुस्तक के अध्ययन से शक्तिपीठों के निर्माण के प्रति गुरुदेव का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। अगर हमारे सहकर्मी चाहें तो 97 पन्नों की इस पुस्तक का अध्यन करके शक्तिपीठों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते है लेकिन हम इस पुस्तक में से कुछ चुने हुए बिंदु निम्लिखित प्रस्तुत कर रहे हैं, पुस्तक का clickable लिंक भी दे रहे हैं।
शक्तिपीठ जीवंत हों,जनउपयोगी हों :
गुरुदेव बता रहे हैं कि जिस प्रकार समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र भर में छोटे-छोटे महावीर मंदिर बनाए थे, उसी प्रकार गाँव-गाँव प्रज्ञा मंदिर बनाए जाएँ। भले ही वे आकार की दृष्टि से छोटे और लागत की दृष्टि से सस्ते हों,उनमें धर्मतंत्र की गरिमा को बढ़ाने वाले जीवन्त कार्यक्रम सतत चलाए जाएँ । दर्शनार्थी देवप्रतिमा की झाँकी करने के साथ ही इन देवालयों से वह प्रेरणा भी ग्रहण करें जो युग परिवर्तन के लिए अनिवार्य है। गुरुदेव कहते हैं कि देवालयों (प्रज्ञा संस्थानों) में चलते रहने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा निर्धारित है। प्रातः सायं सामूहिक प्रार्थना-आरती और दिन में दो-दो घंटे की तीन (कुल छह घंटे) प्रशिक्षण कक्षाएँ, जिनमें छोटी आयु के बालक, प्रौढ़ एवं अधेड़ आयु के नर-नारी अपनी सुविधानुसार पढ़ाई की सुविधा प्राप्त करते रहें। देश में फैली हुई निरक्षरता एवं शिक्षा में रुचि को हटाने के लिए यह कार्यक्रम अतीव उपयोगी सिद्ध होगा ।
हमारा उद्देश्य – व्यक्ति निर्माण:
गुरुदेव बताते हैं कि व्यक्ति निर्माण हमारा मुख्य उद्देश्य है और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए शक्तिपीठों का बहुत बड़ा दाइत्व है। शक्तिपीठों में देवताओं को प्रणाम करने के लिए आना तो उचित है लेकिन यह भी आवश्यक है कि देव संस्थान अपनी धर्मधारणा को प्रतिष्ठित एवं परिपक्व करने के लिए भी प्रबल प्रयत्न करें। युग निर्माण के लिए मनुष्य का दृष्टिकोण और चरित्र बदलना बहुत ही आवश्यक है । गायत्री शक्तिपीठों को “युगतीर्थ” की संज्ञा देने में कोई अत्युक्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि इन्होंने ही युग परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है।
समग्र क्रान्ति के ऊर्जा केन्द्र:
जन सम्पर्क की घनिष्ठता आते ही उन मुख्य प्रयोजनों को हाथ में लिया जायेगा, जिनके लिए इतनी बड़ी और दूदर्शितापूर्ण योजना बनाई गई है। रचनात्मक कार्यों में प्रौढ़ शिक्षा, गृह उद्योग, वृक्षारोपण, आँगनबाड़ी, स्वास्थ्य प्रबंधन, शिशु कल्याण, नारी जागरण, श्रमदान, स्वच्छता अभियान, पर्यावरण, सहकारिता, अल्पबचत जैसी कितनी ही सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण एवं अभिवर्धन करना है। सुधारात्मक कार्यक्रमों में नशा उन्मूलन , छूतछात पर्दाप्रथा, शादियों में अपव्यय, दहेज, मृतक भोज, अन्धविश्वास, जमाखोरी, मिलावट, रिश्वत, बहुप्रजनन, छल, आक्रमण, जैसी दुष्प्रवृत्तियों के विरोध में वातावरण बनाना प्रमुख है।
श्रद्धा का प्रसाद, ज्ञान:
गायत्री परिवार में साहित्य प्रसाद का बहुत लोकप्रिय प्रचलन है। गुरुदेव ने देव प्रतिमा पर पैसा फेंकने को मना किया हुआ है लेकिन फिर भी अगर कोई चढ़ाना चाहता हो तो उस चढ़ावे के बदले में संस्थान की रसीद देने का यां उतनी ही राशि का साहित्य प्रसाद के रूप में देने की प्रथा है। चढ़ावे के धन का दुरुपयोग होने के कारण ही मंदिरों को हड़प लेने का क्रम बनता है। गायत्री शक्तिपीठ एक नयी परम्परा स्थापित करने जा रहे हैं।
निंदा से बचें, प्रतिष्ठा पायें :
कई व्यक्ति देवालय बनाने के लिए भावावेश में अत्यंत उतावले हो जाते हैं और भूल जाते हैं कि भावावेश में इमारत बना देना तो सरल है उनके दैनिक प्रबंध के लिए पुजारी, पूजा सामग्री तथा नियमित खर्चे का क्या प्रबंध होगा। यह अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष है जिसे आमतौर पर नकारा ही जाता है। यही कारण है कि देव मंदिरों की दुर्दशा हो रही है। उतावले लोगों की मनोभूमि केवल श्रेय प्राप्ति और अहम् की तृप्ति के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। वे मंदिर निर्माता, प्रबंधक बनने के लिए आतुर दिखाई पड़ते हैं, ताकि किसी आर्थिक लाभ का छिद्र ढूँढ सकें। गुरुदेव बताते हैं कि यह केवल बदनामी तक ही सीमित नहीं है बल्कि युगनिर्माण में निर्देश दे रही शक्तियों से लेकर प्रज्ञावतार तक की नींद उखड़ जाती है।
हमारी वंश परम्परा को जानिए:
गुरुदेव अपनी वंश परंपरा को जानने के लिए आग्रह करते कहते हैं कि अगर हमें यह मालूम पड़ा कि आपने हमारी परम्परा नहीं निभाई, अपना व्यक्तिगत ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया, अपना व्यक्तिगत अहंकार, व्यक्तिगत यश कामना और व्यक्तिगत धन संग्रह का सिलसिला शुरू कर दिया, व्यक्तिगत रूप से बड़ा आदमी बनना शुरू कर दिया हमारी आँखों से आँसू टपकेंगे और वे आँसू आपको चैन से नहीं रहने देंगे, आपको भी अवश्य ही व्यथित करेंगें ।
शक्तिपीठों का सहयोगी तंत्र :
युग निर्माण आन्दोलन में गायत्री शक्तिपीठों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। शक्तिपीठ पर आने वालों को सम्मानजनक मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन मिले, क्षेत्रीय कार्यक्रमों की व्यवस्थित योजना हो, यह सब सभी परिजनों के परस्पर सहयोग से ही संभव है। इसके लिए शांतिकुंज से शक्तिपीठों के प्रबंधन के संदर्भ में 4 प्रबंधन समितियां बनाई गयी हैं । समय-समय पर समितियों के दायित्वों का स्मरण कराया जाता है।
1.शक्तिपीठ प्रबंधन समिति:
शक्तिपीठ के स्थूल एवं सूक्षम वातावरण को सुरुचिपूर्ण एवं प्राणवान बनाने के दायित्व इस समिति के हैं।
यह समिति स्वच्छता, सुव्यवस्था पर ध्यान देती है, सुनिश्चित करती है कि दीवारों पर सद्वाक्य लगे हों ,लाल मशाल का भाव सहित बड़ा चित्र और युग निर्माण के सत्संकल्प बड़े साइज में लगे हों। यह कमेटी सुनिश्चित करती है कि कार्यक्रमों की जानकारी वाला सूचना बोर्ड लगा हो, प्रमुख स्थानों पर गायत्री शक्तिपीठ का नाम बोर्ड लगा हो, पर्याप्त हरीतिमा और वृक्षारोपण हो, गुरुदेव के जीवन दर्शन की प्रदर्शनीअवश्य हो, झोला पुस्तकालय, ज्ञानरथ, वाचनालय, साहित्य स्टॉल हो, बाल संस्कार शाला, स्वावलम्बन, साधना, कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण की व्यवस्था हो। नियमित समयबद्ध दैनिक क्रियाकलाप, त्रिकाल संध्या, ध्यान, प्रातः-सायं आरती, सत्संग, निःशुल्क यज्ञ-संस्कार निर्विग्न हों। प्रभात फेरी, सामूहिक साधना, सृजन साधना, महापुरश्चरण की उपयुक्त व्यवस्था, बसन्त पर्व, गायत्री जयन्ती, गुरुपूर्णिमा, श्रावणी पर्व, दोनों नवरात्रियों में परिजनों द्वारा सामूहिक अनुष्ठान साधना किये जाने की व्यवस्था भी बनाई जाए। वार्षिकोत्सव एवं माह में पड़ने वाले पर्व-त्योहारों को सामूहिक रूप से मनाने की व्यवस्था की जाए । परिजनों, कार्यकर्त्ताओं तथा अन्याय व्यक्तियों के जन्म-दिन, विवाह-दिवस का रिकार्ड रखा जाए तथा समय पर उन्हें मनाने की व्यवस्था हो। क्षेत्र में यज्ञ एवं सभी संस्कार सम्पन्न कराने के लिए टोलियों की उचित व्यवस्था हो। मिशन की विभिन्न योजनाओं, कार्यक्रमों, गतिविधियों को संचालित करते हुए हुए उसकी प्रोग्रेस रिपोर्ट नियमित रूप से शांतिकुंज को भेजने की व्यवस्था बनायी जाए ।
2.विधि एवं वित्त प्रबंधन समिति:
शक्तिपीठ के कानूनी दायित्वों का पालन करते हुए समाज और प्रशासन के विश्वास पर खरे उतरना, हिसाब-किताब की प्रामाणिकता,संगठन की सभी इकाइयों के हिसाब-किताब संबंधी मार्गदर्शन, उनकी वित्तीय आवश्यकताओं का उचित प्रबंधन, विधि एवं प्रबंधन समिति के अंतर्गत आता है।
3.संगठन प्रबंधन समिति:
संगठन प्रबंधन समिति का दाइत्व अपने क्षेत्र की समीक्षा करते हुए नये लोगों को साधना- स्वाध्याय से जोड़ना, मंडलों का गठन, रजिस्ट्रेशन और उनकी जानकारी रखना है। इसके इलावा समयदान और अंशदान की व्यवस्था बनाना, समर्थ समयदानी सहयोगियों की खोज करना, क्षेत्र के दीक्षितों, संस्कारितों, पत्रिकाओं के ग्राहकों की जानकारी रखना, उन्हें सक्रिय बनाना एवं समस्त जानकारी शांतिकुंज को भेजना इसी के अंतर्गत आता है। ट्रस्टियों, संचालकों, परिजनों / कार्यकर्त्ताओं एवं संगठन की विभिन्न इकाइयों के मध्य आपसी तालमेल तथा उनका शक्तिपीठ के विकास में सक्रिय सहयोग लेना भी इसी समिति का कार्य है।
4.आन्दोलन समिति :
शक्तिपीठ से जुड़े लोगों को सतत साधना के लिए प्रेरित करना और साधना की ऊर्जा को सृजन अभियान में नियोजित करना आंदोलन समिति का काम है। क्षेत्रीय समदानियों के कौशल के अनुरूप सप्त आन्दोलनों को पुष्ट करना ,आपदा प्रबंधन समिति का गठन करना, एक गांव गोद लेकर ( Adopt) उसे अपने बच्चे की भांति स्वच्छ, स्वस्थ, शिक्षित, संस्कारयुक्त, व्यसनमुक्त, स्वावलम्बी, सहकारी ग्राम बनाना इसी का काम है । क्षेत्र के पांच विद्यालयों को गोद लेकर उनमें उपयुक्त वातावरण बनाना ।
शक्तिपीठ में एक या अधिक ब्रह्मवर्चस की शक्ति धाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाली गायत्री प्रतिमाओं की स्थापना करना तथा सत्साहित्य का एक प्रचार केन्द्र व सत्संग हेतु एक-एक कक्ष विनिर्मित करने के लिए प्रेरित करना बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है । जहाँ व्यवस्था बन पड़े वहाँ बाहिर से आने वालों के लिए निवास बनाना भी आवश्यक है। इस बात को सुनिश्चित करने की भी आवश्यकता है कि साधक स्थायी महन्त बनने के लिए नहीं बल्कि गायत्री प्रचार, विस्तार करते हुए एक विनम्र लोकसेवी के रूप में उभरें। साधकों में से ही ऐसे परिजन निकलें जो तीन माह से लेकर एक वर्ष तक एक स्थान पर रहकर और फिर बुद्ध प्रचारकों की भांति आगे बढ़कर नया कार्यक्षेत्र संभालने का कार्य करें।
जब हम यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं तो अभी 2 दिन पहले ही आयी शांतिकुंज टोली का स्मरण हो आया जो अगले तीन महीने हमारे ही क्षेत्र कनाडा में ही रहेगी, अपनी गतिविधियों से गुरुदेव के विचारों का प्रचार प्रसार करेंगीं। आदरणीय चिन्मय पंड्या जी भी तो इसी उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए केवल 10 दिनों में कनाडा-USA जैसे विशाल देशों की यात्रा पर आये हैं।
ऐसे ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पूज्य गुरुदेव ने स्वयं अपनी चौथी हिमालय यात्रा से लौटकर दिसंबर 1972 में आरम्भ करके ढाई माह का पूर्वी अफ्रीका देशों का प्रवास संपन्न किया था। पांच दशक पूर्व सम्पन हुई यह यात्रा गुरुदेव ने समुंद्री जहाज़ से की थी। इस यात्रा पर आधारित अनेकों विस्तृत लेख हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। प्रवासी भारतीयों में देव – संस्कृति का विस्तार, विदेश में बसे प्रवासियों व नागरिकों को देवसंस्कृति के महत्वपूर्ण निर्धारणों से अनुप्राणित कर उस केन्द्रीय धुरी से जोड़ना,जो प्राण-संचार करती रह सके, गुरुदेव की इस यात्रा के मुख्य उद्देश्य थे। विदेशों में गायत्री परिवार का विस्तार जिसे हम आजकल देख रहे हैं, उसका सूत्रपात गुरुदेव की इस ढाई माह की यात्रा से ही हुआ था। 50 वर्ष में हुए इस विस्तार को देखकर भी अगर कोई गुरुदेव की शक्ति को शंका की दृष्टि से देखता है तो फिर “मैं न मानूं” वाली बात ही तो है।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 7 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। अरुण जी आज भी गोल्ड मैडल विजेता हैं । (1)संध्या कुमार-42,(2 ) सुजाता उपाध्याय-25, (3 ) रेणु श्रीवास्तव-42,(4) सुमन लता-29 ,(5 ) चंद्रेश बहादुर-32, (6)अरुण वर्मा-55,(7) वंदना कुमार-24 सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई