26 जून 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज एक बार फिर रविवार की संचित ऊर्जा लेकर सोमवार का दिन,सप्ताह का प्रथम दिन आ चुका है, हम सब इस दिन का स्वागत करने को आतुर हैं। हमारे सभी सहयोगी, समर्पित सहकर्मी, परम पूज्य गुरुदेव-वंदनीय माता जी के निष्ठावान बच्चे इस बार के सोमवार को तो अवश्य ही कुछ अतिरिक्त ऊर्जा अनुभव कर रहे होंगें क्योंकि हम से जितना बन पाया,आदरणीय डॉ चिन्मय पंड्या जी के साथ आप सभी के हृदयों के तार जोड़ने का प्रयास किया। साथियों ने कमेंट करके लिखा भी है कि रविवार को ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का अवकाश होने के बावजूद चिन्मय जी के कनाडा USA प्रवास का अपडेट पोस्ट होता रहा। अलग-अलग स्रोतों से इस प्रवास से सम्बंधित फोटो/ वीडियो इतनी भारी गिनती में प्राप्त हो रही हैं/ शेयर हो रही हैं कि क्या कहा जाए। हम अपने साथियों को सात समुन्द्र पार हो रहे महान गायत्री आयोजनों से अवगत करने को संकल्पित हैं। बड़े गर्व की बात है विदेशों में जिस गति से गायत्री परिवार का विस्तार हो रहा है, इसे मत्स्यावतार न कहें तो और क्या कहें। हम सबका इसके प्रचार-प्रसार में योगदान देना ही सच्ची गुरु भक्ति है।
22 जून गुरुवार को हमने शक्तिपीठों पर आधारित लेख श्रृंखला का ट्रेलर दिखाया था। आज के लेख में हम शक्तिपीठों की स्थापना के पीछे गुरुदेव की फिलॉसोफी, विज़न और उद्देश्य को समझने का प्रयास करेंगें। शक्तिपीठों की स्थापना के प्रति परम पूज्य गुरुदेव की दृष्टि तो स्पष्ट है ही लेकिन वंदनीय माता जी की डाँट भी जानने के लिए हमने 36 सेकंड की वीडियो short का एक लिंक शेयर किया है, साथियों के लिए स्थिति और भी स्पष्ट होने की सम्भावना है।
हमारे साथी, सहपाठी जानते हैं कि आजकल चल रही लेख शृंखला ब्रह्मवर्चस द्वारा लिखित 474 पन्नों के दिव्य ग्रन्थ “पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य-दर्शन एवं दृष्टि”, पर आधारित है जिसका स्वाध्याय हम पिछले एक महीने से कर रहे हैं। यह ग्रन्थ सच में एक masterpiece है और इसी masterpiece पर आज का लेख भी आधारित है।
इन्ही शब्दों के साथ विश्वशांति का कामना करते हुए,हम गुरुकुल पाठशाला की ओर गुरुचरणों का सानिध्य प्राप्त करने को रवाना होते हैं।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने।हे भगवन हमें ऐसा वर दो।
परम पूज्य गुरुदेव ने राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए जीवंत और जाग्रत शक्तिपीठों के निर्माण के संकल्प की घोषणा सन् 1979 के वसंत पर्व पर की थी लेकिन समाज में समग्र परिवर्तन की आवश्यकता के लिए सांस्कृतिक चेतना के पुनर्जागरण की आवश्यकता वे बहुत पहले से ही बताते रहे हैं। गुरुदेव का स्पष्ट मानना था कि लोगों की मान्यता, विचार और भावनाओं को बदलने से ही युग परिवर्तन का संकल्प पूरा हो सकेगा और यह कार्य धर्मतंत्र के माध्यम से ही भलीभाँति पूरा हो सकता है। यदि हमें समाज को बदलना है, तो धर्मतंत्र की दिशाधारा को बदलना होगा।
गुरुदेव ने लिखा है कि भारतीय संस्कृति के वे प्रकाशदीप जो दूर-दूर तक धर्म की शुभ किरणें फैलाते रहें ये देव मंदिरं ही हो सकते हैं। भगवान को साक्षी मानकर दुष्प्रवृत्तियों से बचाने और सन्मार्ग को अपनाने की प्रेरणा केवल धर्मसेवी पुरोहितों के लिए ही नहीं बल्कि उन धर्म संस्थानों से सम्बंध रखने वाले सामान्य जनसमाज के लिए भी पथ-प्रदर्शक होती है।
यह व्यवस्था ठीक प्रकार चलने लगे, मंदिरों में पूजा करने वाले नित्य नियमित साधनाक्रम के अतिरिक्त अपना धर्म प्रचार करने एवं धर्म प्रवृत्तियों के संचालन की जिम्मेदारी भी समझें और उस ज़िम्मेदारी की पूर्ति के लिए प्राणपण से जुटे रहें। अगर वह इस ज़िम्मेदारी को समर्पण और श्रद्धा से निभाते हैं तो हमें अनगनित “धर्म सेवक” मिल सकते हैं। इन धर्म सेवकों की गिनती उनसे तीन गुना अधिक हो सकती है जितनों के बल पर ईसाइयों ने पिछले 150 वर्षों में समस्त संसार की लगभग आधी जनसंख्या को ईसाई बना लिया ।
आज पुजारी लोग केवल यह कोशिश करते हैं कि उन्हें जनता से अधिक से अधिक धन प्राप्त होता रहे। धन प्राप्ति के लिए वे अन्य मंदिरों की प्रतिमाओं की तुलना में अपने मंदिर की प्रतिमा को अधिक चमत्कारी बताते रहते हैं। जो भक्त उनके मंदिर की प्रतिमा को जितना अधिक भोग प्रसाद, वस्त्र आभूषण चढ़ावेगा, उसे उतनी ही भगवान की कृपा मिलेगी । मंदिरों के ऐसे कार्यकर्ता धर्मसेवा के अपने मूलभूत कर्त्तव्य को एक प्रकार से त्याग बैठे हैं। मंदिरों में आये दिन जिन भ्रष्टाचारों के समाचार आते रहते हैं उनसे जनता में विश्वास के बजाए अश्रद्धा बढ़ रही है। मंदिरों में धर्म प्रवृत्ति जीवित न रहने के कारण दैनिक कार्यक्रम केवल प्रतिमा को स्नान-भोजन करा देने मात्र तक ही सीमित हो गया है। ऐसी स्थिति के कारण मंदिरों के प्रति अरुचि एवं घृणा होनी आरम्भ हो गयी है। मंदिरों के संचालक इस दिशा में कोई भी उत्साह नहीं दिखाना चाहते। वे कुछ भी हेर-फेर करके देवता या पुजारी के नाराज़ होने से कोई अनिष्ट हो जाने की बात सोच कर डरते हैं और लोगों को भी डराते हैं। जिन मंदिरों में जाकर कभी शांति का आभास होता था आज अशांति के अड्डा बने हुए हैं। ऐसे मंदिरों में कौन जाना चाहेगा। शांति की खोज में भटक रहे अनेकों व्यक्ति अकेले रहना पसंद कर रहे हैं।
समाजिक और असमाजिक में अंतर् :
यहाँ एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है। मनुष्य को समाजिक प्राणी की संज्ञा दी गयी है, अक्सर कहा गया है Man is a social animal, अगर अकेले ही रहना है तो “social” का शब्द निकल जाता है और मनुष्य केवल animal ही रह जाता है। अगर हम ऐसा कहें कि animal से भी बदतर है तो शायद अनुचित न हो क्योंकि एक दूसरी कहावत यह भी कहती है Birds of a feather flock together. अगर हम एक दूसरे के साथ, परिवार के साथ, समाज के साथ मिल कर नहीं रह सकते, तो फिर समाज का कांसेप्ट ही समाप्त हो जाता है। स्थिति तो यहाँ तक पहुंचे जा रही है कि अकेले रह कर, असमाजिक जीवन व्यतीत करने वाले लोगों को धर्म सेवा, समाज सेवा, जन सेवा भी व्यर्थ लगने लग रही है।
असमाजिक को इंग्लिश में asocial कहा जाता है जो antisocial से अलग है। जहाँ antisocial को समाज विरोधी दृष्टि से देखा जाता है,asocial यां असमाजिक ऐसे लोगों को कहा जाता है जो समाज के साथ चलने में comfortable नहीं होते, असहमति सहन नहीं करते और एकांत में ही रहना पसंद करते हैं। ऐसे लोग अपना स्वर्ग, अपनी मुक्ति, अपनी शांति की ही बात करते हैं और इसके लिए वे एकान्त को आवश्यक समझते हैं। क्या यह सही है ? कदापि नहीं। परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार सही बात यह है कि प्राणिमात्र की सेवा एवं जनहित में स्वयं का बलिदान करने से ही कोई व्यक्ति स्वर्ग, मुक्ति एवं शांति का अधिकारी बन सकता है।
धर्मतंत्र की शक्ति का अनुमान लगाते हुए परम पूज्य गुरुदेव 1948 के कुछ आंकड़ों के बारे में कहते हैं कि देश की बहुत बड़ी प्रतिभा धर्मतंत्र में लगी हुई है। धर्मतंत्र का उत्तरदाईत्व समाज का उचित मार्गदर्शन करना है। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है कि भारतवर्ष की जनता देवमंदिरों के लिए अगाध श्रद्धा रखती है, उनके लिए जनता ने भारी त्याग किया है और अब भी कर रही है ।आंकड़ों के अनुसार मंदिरों के इमारतें लगभग 14500 करोड़ रुपये की बनी हुई हैं । यह रकम सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैली हुई रेलवे की सारी सम्पत्ति से भी अधिक है। मंदिरों के आभूषण, रत्न, नकदी,भूमि,सम्पति, व्यवसाय आदि के रूप में स्थायी सम्पत्ति का मूल्य भी लगभग 3000 करोड़ रूपए आंका जा सकता है। लगभग 1300 करोड़ रुपया हर वर्ष मंदिरों पर खर्च होता है। यह रकम उस धन से भी अधिक है, जितना सारे देश की शिक्षा पर खर्च होता है। स्थायी सम्पत्ति, इमारतें, चालू खर्च, इन कार्यों में लगी हुई जनसंख्या एवं जनता के प्रमुख भावना केन्द्र होने की दृष्टि से मंदिरों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। यह ठीक है कि धर्म के नाम पर आज जो धोखाधड़ी चारों ओर फैली हुई है, उससे जनता के विश्वास की नींव हिलने लगी है और इस ओर घृणा की दृष्टि से देखा जाना आरंभ हो गया है लेकिन अभी वह बुराई इस हद तक नहीं बढ़ी है कि धर्म को अनावश्यक समझा जाए । वैसी स्थिति उत्पन्न होने से पूर्व ही यदि संभल लिया जाय, जो स्थान धर्म ने भारतवर्ष में बनाया हुआ है, भावना की दृष्टि में तथा धनबल और जनबल की दृष्टि से एक चलती हुई परम्परा एवं व्यवस्था के सदुपयोग की दृष्टि से इस धर्म भावना का सदुपयोग आवश्यक है। यदि इस ओर विचारवान लोगों का ध्यान न गया और आज जो दुर्व्यवस्था चल रही है, वही चलती रही, तो न केवल राष्ट्र की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति का ग़लत व्यय ही होगा बल्कि इस बुराई की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप लोग पथभ्रष्ट होंगे,साथ ही धर्म की उपयोगिता संदेहास्पद बन जायेगी । इस दिशा में सुधार न करने की प्रवृति और सब कुछ देखकर भी आँख मूँद लेने की प्रवृति, बड़ी ही तीव्र गति से नास्तिकवाद को फलने का खुला आमंत्रण देगी।
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आज के लेख का समापन यहीं पर होता है। साथियों को बता देना चाहते हैं कि शक्तिपीठों की स्थापना से पहले परमपूज्य गुरुदेव ने ज्ञान मंदिरों/देव मंदिरों की स्थापना का आवाहन किया था। कल वाला ज्ञानप्रसाद लेख ऐसे ही देवमंदिरों की जानकारी देने वाला है।
आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 5 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। संध्या जी आज के गोल्ड मैडल विजेता हैं । (1)संध्या कुमार-36 ,(2 ) सुजाता उपाध्याय-31, (3 ) रेणु श्रीवास्तव-24 ,(4) सुमन लता-25 ,(5 ) चंद्रेश बहादुर-29
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई