वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अखंड ज्योति के प्रथम अंक की कथा गाथा

13 जून 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज का ज्ञानप्रसाद वर्तमान अखंड ज्योति शृंखला का दूसरा लेख है। मई 2002 में प्रकाशित “अखंड ज्योति के प्रथम अंक की कथा गाथा” और विकिपीडिया की सहयता से तैयार किया गया आज का लेख बहुत ही उच्चकोटि का ज्ञान प्रदान करेगा, ऐसा हम विश्वास करते हैं। 

आज के ज्ञानप्रसाद लेख में वही पंक्तियाँ रिपीट होती दिखेंगीं जो पाठकों ने कल वाले लेख में देखीं थीं लेकिन आज हमें गुरुदेव की अंतर्मन में उठ रहे विचारों को आत्मसात करने का सौभाग्य भी प्राप्त हो रहा हैं। 

लेख में भी लिखा है और यहाँ भी निवेदन कर रहे हैं कि इन पंक्तियों को ग्रुप discussion की भांति चर्चा करके समझने का प्रयास करें तो हमारे गुरुदेव  के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी। 

गुरुकुल पाठशाला के विद्यार्थिओं की सुविधा के लिए हमने 1940 और 2023 के स्क्रीनशॉट प्रस्तुत किये हैं ताकि तब और अब का अनुमान हो सके। 

तो आइए कक्षा की  ओर प्रस्थान करें। 

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“अखंड ज्योति का पहला अंक कब प्रकाशित हुआ था”, अगर हम इस प्रश्न को गूगल पर सर्च करें तो उत्तर जनवरी 1938 मिलता है लेकिन जनवरी 1940 से पहले का कोई भी अंक उपलब्ध नहीं है। विकिपीडिया के अनुसार पत्रिका का उद्घाटन अंक वसंत पंचमी जनवरी 1938 को प्रकाशित किया गया था। इस पत्रिका का आरम्भ आगरा के एक छोटे से परिसर में हुआ था लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण कच्चे माल की सप्लाई पर प्रभाव पड़ा और प्रकाशन को बीच में ही रोकना पड़ा। 

जनवरी 1940 में 500 प्रतियों के साथ प्रकाशन फिर से शुरू हुआ। 1941 में यह प्रकाशन  मथुरा में शिफ्ट हो गया। तब से आज 2023 तक बिना किसी रुकावट के इस दिव्य पत्रिका का प्रकाशन जारी है जो 7 भाषाओं में प्रकाशित हो रही  है। 

विकिपीडिया में वर्णित है कि  पत्रिका के पहले संपादक पंडित  श्रीराम शर्मा आचार्य, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक सेनानी और सक्रिय पत्रकार थे। उन्होंने हिंदी साप्ताहिक  “सैनिक” में श्री कृष्णदत्त पालीवाल की सहायता की थी, जहाँ वे “मत्त प्रलाप” शीर्षक से कॉलम  लिखते थे। 1990 में, अखिल विश्व गायत्री परिवार की सह-संस्थापक श्रीमती भगवती देवी शर्मा ने संपादन का कार्य संभाला लेकिन लेकिन 1994 में  उनके महाप्रयाण के बाद डॉक्टर प्रणव पंड्या, निर्देशक, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान, इस पत्रिका के मुख्य संपादक बने और अभी भी सेवारत हैं।

विकिपीडिया की इस जानकारी के साथ ही  2002 में प्रकाशित एक लेख “अखंड ज्योति के प्रथम अंक की कथा गाथा” बहुत ही रोचक है। इस लेख को भी अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना हमारा परम कर्तव्य है। हालाँकि इस लेख की कुछ पंक्तियाँ कल प्रकाशित हुए लेख के साथ रिपीट हो रही हैं लेकिन continuity रखने के लिए उन्हें डिलीट करना उचित नहीं है। 

इस लेख की इक्क्ठे बैठ कर  ग्रुप discussion की भांति चर्चा की जाए तो गुरुदेव के अंतर्मन में उठ रहे विचारों को आत्मसात करने में बहुत सहायता मिल सकती है और  ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के उद्देश्य को बल मिलेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।      

अखण्ड ज्योति के प्रथम अंक की कथा बहुत ही  प्रेरक है। हमारे साथी जब इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं तो उनके हाथों में मई 2023 का अंक होगा। उन्हें तो कल्पना भी नहीं होगी  कि  अखंड ज्योति के प्रथम अंक की क्या कथा रही होगी। मई 2023 के अंक पर अंकित वर्ष 87 से अनुमान लगाया जा सकता है ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के कई पाठक तो तब पैदा भी न हुए हों। लेकिन इन पंक्तियों को पढ़ रहे सभी पाठकों  के मनों में जिज्ञासा के भाव एक समान ही  होंगे। सभी की  चाहत एक जैसी होगी और वोह चाहत होगी “अखण्ड ज्योति के पहले अंक की कथा जानने की।” सभी के हृदयों में अंकुरित हो रहा यह प्रश्न एक सा होगा कि “जनवरी 1940 में प्रकाशित हुआ अखण्ड ज्योति का यह पहला अंक कैसा था?”

परम पूज्य गुरुदेव के ह्रदय में जनवरी 1940 से भी काफी पहले अखंड ज्योति  एक दिव्य संदेश की भाँति अवतरित हुई। अपनी साधना में समाधिस्थ गुरुदेव को हिमालय के ऋषियों का यह सन्देश मिला कि 

“आध्यात्मिक जगत् में भारत माता की बेड़ियाँ टूट चुकी हैं। राष्ट्र की स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी है। कुछ ही वर्षों में यह सत्य प्रत्यक्ष जगत् में प्रकट हो जाएगा इसलिए अब तुम्हें नए दायित्व सम्भालने हैं। राजनैतिक क्रान्ति को सही अर्थ तब तक न मिलेगा, जब तक इसमें सामाजिक क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति एवं बौद्धिक क्रान्ति के स्वर न मुखर होंगे। इन नयी क्रान्तियों के स्वर को मुखर बनाने के लिए एक ऐसी पत्रिका की आवश्यकता है, जिसकी मूल भावना आध्यात्मिक हो । जो देशवासियों और विश्वमानवता की आत्मा को जाग्रत् कर सके। अपने प्रकाश की प्रदीप्ति से उनकी आत्म ज्योति को जगा सके। “

परम पूज्य गुरुदेव को साधना काल में जो सन्देश मिला, जो संकेत प्रकट हुए उन्हीं के आधार पर अखण्ड ज्योति के प्रकाशन की योजना बनी। यह दैवी संकल्प का दिव्य प्राकट्य था। उन दिनों न तो मिशन था और न साधन । सहयोगियों एवं समर्पित कार्यकर्त्ताओं की आज की भांति  लम्बी कतारें न थी । प्रत्यक्ष में कुछ भी न होते हुए अप्रत्यक्ष में हिमालयवासी ऋषियों का आशीष और आश्वासन था। गुरुदेव की मार्गदर्शक सत्ता का आशीर्वाद  था। अपने हृदय में अलौकिक ऊर्जा को संजोये गुरुदेव ने ठीक समय पर अखण्ड ज्योति के पहले अंक को प्रकाशित कर ही दिया।

35 पृष्ठों  का यह अंक विषय वस्तु एवं सामग्री की दृष्टि से थोड़ा सा भी कम न था । इसकी प्रिंटिंग  की व्यवस्था आगरा शहर के जौहरी बाजार की दौलत मार्केट के न्यू. फाइन आर्ट प्रिंटिंग काटेज में बनी। इसके मालिक पं. मधुसूदन शरण शर्मा परम पूज्य गुरुदेव( तब के ‘मत्त जी)  के व्यक्तित्व से परिचित ही नहीं, प्रेरित और प्रभावित भी थे। उन्होंने अखण्ड ज्योति के इस प्रथम अंक की छपाई  को न केवल ठीक समय पर सम्पन्न किया बल्कि इसकी उत्कृष्टता का भी ध्यान रखा।  उन दिनों गुरुदेव ने आगरा शहर के फ्रीगंज मुहल्ले में “अखण्ड ज्योति” का कार्यालय खोला हुआ था। यहीं से इसके प्रकाशन एवं वितरण की व्यवस्था बनायी गई।

अखण्ड ज्योति के प्रथम वर्ष के प्रथम अंक का मूल्य  मात्र दो आने था । इसका वार्षिक शुल्क मात्र 1.50 रुपये था। 24 आने में पूरे वर्ष भर अखण्ड ज्योति के 35 पृष्ठों  में उत्कृष्ट विषय वस्तु को प्रकाशित करवाने का बीड़ा गुरुदेव ने उठाया। उनका उद्देश्य था कि “कम से कम खर्च में पठनीय और उत्कृष्ट सामग्री जन सामान्य तक पहुँचे।” वह अखण्ड ज्योति को केवल विचारशील वर्ग की पत्रिका बनाने में विश्वास नहीं रखते थे। उनका उद्देश्य जन सामान्य को विचारशीलों के समुदाय के रूप में विकसित करना था। 

साज-सज्जा की दृष्टि से अखण्ड ज्योति अपने पहले अंक से ही आकर्षण का केन्द्र बन गयी। इसके पहले अंक के कवर पेज पर योगिराज भगवान् श्री कृष्ण का चित्र प्रकाशित किया गया। प्रथम अंक के कवर पेज पर छपे हुए इस चित्र में जो संकेत है, उनसे पत्रिका की  रीति-नीति ही नहीं गुरुदेव के जीवन की  भी अभिव्यक्ति मिलती है। इस चित्र में योगीराज भगवान् श्री कृष्ण युद्धभूमि में खड़े हैं। उनके दाँए हाथ की तर्जनी अंगुली में सुदर्शन चक्र गतिशील है। इस चित्र से दो सत्यों का भावबोध होता है:

1. महायोगी अब साधना के एकान्त से समाज के महायुद्ध  में आ खड़े हुए हैं।

2. यहाँ केवल उनकी उपस्थिति ही नहीं है बल्कि उन्होंने कालचक्र की गति को अपने हाथों से नियंत्रित करने का संकल्प कर लिया है।

इन दोनों ही बिन्दुओं से परम पूज्य गुरुदेव के अपने स्वयं के जीवन की झलक मिलती है। इन्हीं से गुरुदेव का अपना स्वरूप एवं संकल्प प्रकट होता है। ज्ञान का बोध कराने वाला यह चित्र बताता है कि इस युग में प्रभु केवल सारथी बनकर सन्तुष्ट नहीं हैं। वह इस युग के महायुद्ध  में स्वयं महानायक की भूमिका निभाएँगे। कालचक्र की गति को अपने हाथों से, अपनी आत्मा से प्रकट  होने वाले आध्यात्मिक तेज से नियंत्रित करेंगे। इस आकर्षक चित्र की ही भाँति इसकी विषय सूची  भी बहुत ही आकर्षक थी । अखण्ड ज्योति के इस प्रथम अंक में प्रकाशित सामग्री के शीर्षक अग्रलिखित हैं- 1. अखण्ड ज्योति क्यों? 2. कर्त्तव्य की पुकार, 3. धर्म का सच्चा स्वरूप, 4. मौन एक दैवी रेडियो, 5. धर्म और विज्ञान, 6. मनुष्य का मनोबल, 7. शीर्षासन का महत्त्व, 8. जहाँ चाह – वहाँ राह। इसी के साथ इसके अन्तिम पृष्ठ पर ‘आत्मचिन्ता’ शीर्षक से एक कविता प्रकाशित हुई है।

इस प्रथम अंक का प्रथम लेख परम पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखा गया सम्पादकीय है। जिसके ऊपर अखण्ड ज्योति एवं उसके संस्थापक की कार्यशैली को स्पष्ट करने वाली दो पंक्तियाँ छपी है। ये पंक्तियाँ हैं-

सुधा बीज बोने से पहले, कालकूट( विष) पीना होगा। पहिन मौत का मुकुट विश्वहित मानव को जीना होगा॥

इन पंक्तियों में गुरुदेव का स्वयं अपना जीवन ध्वनित होता है। सचमुच ही वह इसी तरह से जन्में  और जिए । शिवत्व ही उनके जीवन का परिचय रहा है । सृष्टि में अमृतबीजों की फसल को बोने के लिए वह सारे जीवन हलाहल विष पीते रहे। हलाहल समुद्र मंथन के समय निकले विष का ही दूसरा नाम है। 

अपने जीवन सत्य की इस काव्यमयी अभिव्यक्ति के साथ उन्होंने अखण्ड ज्योति के आध्यात्मिक सत्य को स्पष्ट करते हुए इस प्रथम अंक में लिखा- ‘आज तक जितने भी मानवता के महान् आचार्य हुए हैं, उन्होंने एक स्वर से चिल्ला-चिल्लाकर कहा है। असली आनन्द, सुख-सन्तोष और शान्ति मनुष्यता की उपासना में है। इस समय जितनी गुत्थियाँ दुनिया के सामने हैं, उनकी जड़ में एक ही कारण है- मनुष्यता का अभाव। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक, आर्थिक, शारीरिक, कौटुम्बिक, मानसिक जितनी भी उलझनें हैं, उनका पूरी तरह से तब तक निराकरण नहीं हो सकता, जब तक हमारे आचरण पवित्र न हों, जब तक हम सच्चे नागरिक न बनें। सच्चा योगी बनाने का एक ही मार्ग है, और वह है सदाचार | सदाचार और अध्यात्म विद्या को एक ही चीज के दो पहलू कहना चाहिए। ‘अखण्ड ज्योति’ इसी अध्यात्म विद्या की चर्चा करने के लिए अवतीर्ण हुई है।’ (अखण्ड ज्योति, जनवरी, 1940, पृ. 3)।

अखण्ड ज्योति के प्रथम अंक के सम्पादकीय के अंश, गुरुदेव की लेखनी से निःसृत सत्य – किस तरह अखण्ड ज्योति एवं उसके पाठकों का जीवन सत्य बना हुआ है- इससे हम सभी परिचित हैं। इसके अलौकिक प्रकाश में हमारे देव परिवार के सभी सदस्य इसी तरह अपने जीवन सत्य और जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ते रहेंगे, ऐसा विश्वास है। इसके प्रथम अंक से जो जीवन बोध का निर्झरिणी प्रवाहित हुई, वह सदा सदा यूँ ही प्रवाहित होती रहेगी। बिना कोई  विराम लिए, अविराम और अखण्ड ।

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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 13  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज का गोल्ड  मैडल फिर से  सरविन्द जी को प्रदान किया जाता हैं। 

(1)सरविन्द कुमार-52 ,(2 )संध्या कुमार-28 ,(3) सुजाता उपाध्याय-49 ,(4) अरुण वर्मा-24, (5 )रेणु श्रीवास्तव-28, (6) चंद्रेश बहादुर-31,(7)निशा भारद्वाज-24,(8)वंदना कुमार-36, (9)कुमोदनी गौराहा-32,(10) पिंकी पाल-28 (11),विदुषी बंता-26,(12) मंजू मिश्रा-28,(13) सुमन लता-24     

सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई


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