वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अखंड ज्योति का प्रथम अंक,जनवरी 1940 

आज का ज्ञानप्रसाद आरम्भ करने से पहले ही हम क्षमाप्रार्थी  हैं कि “पंडित श्रीराम शर्मा,दर्शन एवं दृष्टि” जैसे महान ग्रन्थ पर आधारित ज्ञानप्रसाद श्रृंखला को एक सप्ताह के लिए बीच में रोक कर, एक नवीन लेख शृंखला का आरम्भ  किया गया है। महान ग्रन्थ जैसे हाईवे से डाइवर्ट होने का कारण हमारी रविवार की रिसर्च आधारित उत्सुकता ही है। मन में केवल एक छोटा सा, बहुत ही साधारण सा प्रश्न उठा कि अखंड ज्योति का प्रथम अंक कब  प्रकाशित हुआ था। गूगल सर्च बार में यह प्रश्न टाइप करने पर भांति भांति कि एंट्रीज आती गयीं; 1937, 1938, 1940 इत्यादि। अखंड ज्योति,चेतना की शिखर यात्रा,विकिपीडिया ,न्यूज़ आइटम्स, यूट्यूब वीडियोस,अपने ही प्रकाशित लेख और न जाने क्या क्या सोर्स।   इतना अधिक प्रकाशित कंटेंट कि कोई भी बड़ी आसानी से कंफ्यूज हो सकता है। 

फिर क्या था- इस विषय पर हमारा जी जान से जुट जाना स्वाभाविक था। परिश्रम के परिणाम स्वरूप हम चार लेख shortlist कर पाए : 1.अखंड ज्योति क्यों, 2.अखंड ज्योति परिवार क्या है,3.अखंड ज्योति प्रथम अंक की कथा गाथा,4.अखंड ज्योति क्यों पढ़ें।

आज का ज्ञानप्रसाद “अखंड ज्योति क्यों”  जनवरी 1940 के प्रथम अंक में प्रकाशित हुआ था। यह वही बहुचर्चित अंक है जिसकी बार-बार चर्चा हुई है, योगिराज भगवान कृष्ण की दिव्य पिक्चर वाला अंक। 35 पन्नों के इस दिव्य अंक के ही छठे पन्ने पर बहुचर्चित पंक्तियाँ  “सुधा बीज बोने  से पहले, कालकूट पीना होगा। पहन मौत का मुकुट,विश्वहित मानव को जीना होगा।” प्रिंट हुआ था। हम इस अंक की दो  फोटो भी आज के लेख में शामिल कर रहे हैं ताकि किसी प्रकार की  कोई शंका  रह ही न जाए कि प्रथम अंक कब प्रकाशित हुआ था।

गुरुकुल पाठशाला के विद्यार्थी आज की क्लास में जान पायेंगें कि अखंड ज्योति का अवतरण अध्यात्म विद्या की चर्चा करने के लिए हुआ था । 

आने वाले लेखों में 1937, 1938 वाले प्रश्नों का भी निवारण करने का प्रयास किया जायेगा।  आज हमारी समर्पित बहिन कुसुम त्रिपाठी जी की वैवाहिक वर्षगांठ है। दोनों को परिवार की सामूहिक एवं हमारी व्यक्तिगत बधाई। कामना करते हैं कि गुरुदेव, पतिदेव कामेन्द्र त्रिपाठी जी को  बहिन जी की इच्छा  अनुसार गुरुकार्य में लगा दें।

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आज हम लोग उन कांटेदार झाड़ियों में, उबड़ खाबड़ रास्तों में भटके  पड़े हैं जहाँ तरह-तरह के दुःखों का सामना करना पड़ रहा है। गरीबी और गुलामी रूपी डायनें हमारे पीछे पड़ी हुई  हैं। अज्ञान का अन्धकार छाया हुआ है, चिन्ता और अशान्ति की दो धार वाली   तलवार हमारी गर्दन  पर चल रही हैं। फलस्वरूप आज के मनुष्य का शरीर एवं मन रुग्ण और जर्जर  हो गया है। भले ही किसी के शरीर में कुछ बल प्रतीत होता हो, कुछ फूला और मोटा दिखता  हो लेकिन  उसमें स्फूर्ति, छरहरापन और निरोगता कहाँ है।  भले ही किसी के पास घोड़ा, गाड़ी, मोटर, रुपया पैसा , महल, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेवक आदि सब  हों लेकिन आत्मिक (आत्मा का) सुख और संतोष कहाँ है? हमारी बुद्धि दूषित हो गई है। पैसे के बल पर अच्छे से अच्छे दिमाग को खरीद कर, बुरे से बुरे काम में लगाया जा सकता है। स्वार्थ के लिए पुण्य और पाप में कोई भेद नहीं किया जाता । तृष्णा इतनी बढ़ गई है कि हम जीभ निकाल कर हाँफते हुए हाय प्यास, हाय प्यास चिल्ला रहे हैं। इस अतृप्त प्यास की अग्नि  दावानल की तरह चारों ओर धधक रही है। मनुष्य इस मृगतृष्णा  में जला जा रहा है। चारों ओर जल-अकाल  पीड़ितों की तरह, शुष्क-तालु मनुष्य मारे-मारे फिर रहे हैं। हाहाकार इतना बढ़ गया है कि भाई-भाई की देह में मुँह गड़ाकर उसकी धमनियों में से रक्त चूस रहा है। किसान,मज़दूर, स्त्रियाँ, अशिक्षित,असहाय,करुण स्वर से चिल्ला रहे हैं लेकिन  क्या यह प्यास तृप्त होती दिख रही है? नहीं, वह दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है । महायुद्धों का राक्षस असंख्य निरपराध प्राणियों को क्यों खाये जाता है ? बम और गैस की मार से चारों ओर कहर  क्यों मचा हुआ है ? सबल निर्बलों को क्यों पीट रहे हैं? मानव अपनी अतृप्त प्यास को बुझाने के लिए यह नरमेध रच रहा है लेकिन ज्यों-ज्यों आहुतियाँ पड़ती जाती हैं, यह तृष्णा  अधिकाधिक वेग से उग्र रूप धारण करती जाती है। भगवान का पावन  लीला-उद्यान अब मरघट बन कर धू-धू जल रहा है। आधुनिक सभ्यता ने हमारी प्यास बढ़ाई है, यह कहाँ पहुँच कर शान्त होगी, कोई नहीं जानता।

आइये, विचार करें कि ऐसा क्यों हो रहा है? मनुष्य की प्यास इतनी अधिक क्यों है ? क्यों उसे भेड़िआ बनना पड़ रहा है ? दाल, रोटी और कपड़ों का खर्च  तो मनुष्य आसानी से पैदा कर सकता है। ईश्वर ने भूमि में उर्वरा शक्ति देकर, दुधारू पशुओं से हमारा निकट सम्बन्ध बनाकर, हमारी दैनिक और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के सभी उपकरण जुटा कर, जीवन निर्वाह की समस्या इतनी आसान कर दी है कि हम सरलता पूर्वक जीवित रह सकते हैं  और “मानवता की उपासना” कर सकते हैं। भ्रातृ भाव, करुणा, प्रेम, उदारता, परोपकार, दया, न्याय प्रियता, सत्यनिष्ठा, सदाचार प्रभृति दिव्य गुण ही मानवता के प्रतीक है; इन दिव्य गुणों के अनुपस्थित होने के कारण भेड़िये और मनुष्य में क्या अन्तर रह जाता है। 

“मानवता की उपासना” हमारा कर्तव्य पथ है, राजमार्ग है. सुपर हाईवे है । इसी पर चल कर हम सुख, शान्ति और सन्तोष की सांस ले सकते हैं। मानवता ही वह अमृत है, जिसे पीकर प्यास बुझती है। शैतान की उपासना से हमने तृष्णा का अभिशाप प्राप्त किया है। वह मानवता की पूजा से ही शान्त होगा। कांटेदार  झाड़ियों से निकलकर मनुष्य  जब तक अपने राजमार्ग पर नहीं आएगा, तब तक वह भेड़िया ही बना रहेगा और जीभ निकाल कर हाय प्यास, हाय प्यास चिल्लाता ही रहेगा।

1.यम (संयम),2. नियम(नियमों का पालन),3.आसन(आसन) 4.प्राणायाम( श्वास की अदला बदली),5. प्रत्याहार(मन के लिए विकल्प), 6.धारणा(मन केंद्रित करने की क्षमता),7. ध्यान (ध्यान), 8. समाधि(चेतना की उच्च अवस्था) 

इन आठ नियमों   में से पहले दो यानि यम और नियम ही  सदाचार और पवित्रता के सूचक हैं। तीसरा और चौथा नियम यानि  आसन और प्राणायाम, शारीरिक स्वास्थ्य के  विधान हैं । पांचवा, छठा और सातवां नियम यानि  प्रत्याहार, धारणा और ध्यान, मन और बुद्धि का व्यभिचार दूर करने के लिए हैं। इन नियमों को समझने के बाद यह कहा जा सकता  है कि शरीर और मन को स्वस्थ और पवित्र रखना ही “अध्यात्म विद्या” है। इस विद्या के अन्तर्गत जितनी भी  क्रियाऐं हैं उनमें से अधिकांश  मन  को एकाग्र करने की ही  विधियाँ हैं। एकाग्रता से ही वह दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है, जिनसे मानव से महामानव और महामानव से देवमानव (देवता ) बनता  है।

इस राजपथ पर चलते-चलते मनुष्य जहाँ पहुँचता है, वह अनन्त आनन्द, शास्वत शान्ति समाधि (आठवां और अंतिम नियम) है। योग के साधनों की विभिन्नता कोई वास्तविक विभिन्नता नहीं है। मनुष्य की रूचि  को ध्यान में रखकर आचार्यों ने उन साधनों को  कई रूपों में हमारे सामने रख दिया है ताकि  जैसी हमारी रूचि हो उसी  के अनुसार साधन चुन सकें।

“असली आनन्द, सुख,सन्तोष और शान्ति मनुष्यता की उपासना में है।” 

वर्तमान समय में अपने आसपास दिख रही समस्त गुत्थिओं की जड़ में एक ही कारण है, “मनुष्यता का अभाव।” राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक, आर्थिक, शारीरिक, कौटुम्बिक, मानसिक जितनी भी उलझनें हैं, उनका पूरी तरह से  तब तक निराकरण नहीं हो सकता जब तक मनुष्य का आचरण पवित्र न हो। जब तक मनुष्य सच्चा नागरिक नहीं बनेगा दुविधाएं बढ़ती ही जाएँगी और मनुष्य इस अंधी मृगतृष्णा की दौड़ में भागते मर जाएगा। सच्चा योगी बनने  का केवल एक ही मार्ग हो सकता है और वह है सदाचार।  सदाचार और अध्यात्म विद्या को एक ही वस्तु  के दो पहलू कहना चाहिए। 

अखण्ड ज्योति का अवतरण इसी अध्यात्म विद्या की चर्चा करने के लिए हुआ है। अखंड ज्योति के इस प्रथम अंक  में तन्त्र विज्ञान, मैस्मरेजम, प्रेतवाद, मनोविज्ञान आदि की चर्चा में कुछ विलक्षणता और अटपटापन देखकर पाठकों  को न तो भ्रम में पड़ना चाहिए और न आश्चर्य करना चाहिए। यह सब विधियां मनोविज्ञान और अध्यात्म विद्या द्वारा समयानुकूल रोगों की चिकित्सा विधि मात्र है। यह रोते हुए बच्चों को खिलौने देना जैसा  हैं। इसमें अन्ध विश्वास या भ्रमजाल का  तनिक भी स्थान नहीं है।  यह विशुद्ध वैज्ञानिक मानसिक क्रियाऐं हैं जिनका विस्तृत विवेचन अगले अंकों में पढ़कर पाठक भली प्रकार समझ सकेंगे।

मराठी वाक्य “वादे वादे जायते तत्व बोध” बताता है कि  वाद-विवाद में ही  किसी दिन तत्व का बोध हो जायेगा । ज्ञान चर्चा के उद्यान में मनुष्य का विकास  ही होता है। सत्संग में अनेक बातें सामने आती हैं उनमें कुछ अनुपयोगी और भ्रमपूर्ण भी होती है लेकिन अन्त में सत्य पक्ष का निर्णय हो ही  जाता है और भ्रान्ति मिट जाती है। यदि यह सब कुछ संभव है तो अध्यात्म विद्या की चर्चा करते-करते क्या एक दिन हम सब “सत्य तत्व” को प्राप्त नहीं कर सकेंगे?

जनता जनार्दन के सामने “अखण्ड ज्योति” का प्रथम अंक  लेकर उपस्थित होते हुए मुझे अपनी अयोग्यता का संकोच अवश्य है लेकिन  जिस सदुद्देश्य से इसका प्रकाशन हो रहा है वह लोक हितकारी होगा, ऐसा मुझे विश्वास है और इसी विश्वास के आधार पर एक आशा और उत्साह की लहर आज मुझमें दौड़ रही है।

हमने ‘अखण्ड ज्योति’ को ठीक समय पर निकालने का निश्चित प्रबन्ध कर लिया है। वह बिना एक दिन के भी अन्तर के सदैव अपनी तारीख पर निकल जाया करेगी। किन्तु आगामी अंक में सम्भवतः कुछ देर हो जाय। कारण यह है कि पोस्ट ऑफिस वाले रजिस्ट्रेशन  नम्बर देने में बहुत देर लगा देते  हैं। प्रथम माह से ही अखण्ड ज्योति के इतने ग्राहक हैं, जो डाकखाने की निश्चित संख्या से कई गुना अधिक हैं, फिर भी रजिस्ट्रेशन  नम्बर मिलने में देर न लगने की आशा नहीं है। सम्भव है वे इस कार्य में एक महीना से भी अधिक समय लगा दें ।

हम अगला अंक भी निश्चित तिथि पर ही छपाकर तैयार रख लेंगे और रजिस्ट्रेशन  नम्बर आते ही पाठकों की सेवा में भेजेंगे। बिना नम्बर आये पत्र भेजने में तीन गुना  पोस्टेज लगेगा, इसलिए अगले अंक के लिये पूरा  फरवरी प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि फिर भी नम्बर न आया तो 28  फरवरी को तीन गुना पोस्टेज लगाकर ही  “अखंड ज्योति” अवश्य भेज देंगे।

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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 8  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज का गोल्ड मैडल सरविन्द जी को प्रदान किया जाता हैं। (1)सरविन्द कुमार-50 ,(2 )संध्या कुमार-26,(3) सुजाता उपाध्याय-36 ,(4) अरुण वर्मा-25 , (5 )रेणु श्रीवास्तव-31, (6) चंद्रेश बहादुर-33,(7)निशा भारद्वाज-28,(8)वंदना कुमार-37  सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई


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