30 मई 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज मंगलवार है, सप्ताह का दूसरा दिन और समय है प्रातः मंगलवेला का जिस समय हम सभी सहपाठी परम पूज्य गुरुदेव द्वारा संचालित गुरुकुल पाठशाला में, उन्ही के दिव्य साहित्य का अमृतपान करते हुए अपने जीवन को सार्थक बना रहे हैं।
कल वाले ज्ञानप्रसाद लेख में हमने देखा था कि लगभग 200 वर्ष पूर्व 1835 में लार्ड मैकाले ने किस प्रकार भारतीय शिक्षा प्रणाली के साथ खिलवाड़ किया जिसके परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। परम पूज्य गुरुदेव जैसे युगदृष्टा की इन पंक्तियों की छिपी ज्वाला “हम उल्टे को उलट कर सीधा कर देंगे, है नहीं तलवार अपने हाथ में तो क्या हुआ, हम कलम से ही करेंगे सिरफिरों के सिर कलम” ने 1994 में भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा को जन्म दिया। आज के लेख में हम इस परीक्षा से सम्बंधित बेसिक इतिहास और उद्देश्य जानने का प्रयास करेंगें। साथ ही देखेंगें कि अन्य कार्यों की भांति इस योजना का भी कैसे मतस्यावतार बन कर विस्तार हो रहा है। किसी एक राज्य के शिक्षा बोर्ड की कार्यक्षमता कितनी होती है हम सब अनुमान लगा सकते है लेकिन यह विशाल राष्ट्रिय स्तर की योजना कैसे चल रही है, अवश्य ही किसी दिव्य शक्ति का हाथ है।
विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा संचालित “अखिल भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा” भी इसी परीक्षा के साथ मिलती जुलती परीक्षा है। यह अलग परीक्षा है अतः आशा करते हैं कि किसी तरह का कोई confusion नहीं होगा।
ब्रह्मवर्चस द्वारा सम्पादित “पंडित श्रीराम शर्मा,दर्शन एवं दृष्टि” (2012) जैसे 474 पन्नों के विशाल ग्रन्थ पर आधारित आज का लेख हमें भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा को समझने में बहुत सहायक होगा।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सहकर्मियों द्वारा पोस्ट किये गए पिछले दिनों के कमैंट्स से आशा की जा सकती है कि इस परीक्षा के बारे में और अधिक जानकारी मिलेगी क्योंकि विद्यार्थीओं, शिक्षकों, अभिभावकों, स्कूल प्रशासकों का यह जमावड़ा निसंदेह हमसे अधिक ही जानकारी रखता है। इस विशाल ग्रन्थ को देखने से पहले हमें तो इस परीक्षा का कुछ भी ज्ञान न था, नाम भी नहीं सुना था।
तो आइए विश्वशांति की कामना के साथ परस्पर सहायता करते हुए ज्ञान का प्रचार प्रसार करें।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा का इतिहास एवं स्वरूप
आज पश्चिमी संस्कृति एवं सभ्यता का प्रवेश सिनेमा, टी.वी., इंटरनेट के माध्यम से घर के चौके तक हो गया । परम पूज्य गुरुदेव भारतीय संस्कृति के इस प्रभाव से अत्यंत व्यथित थे । उन्होंने लगभग 3400 पुस्तक-पुस्तिकाओं के माध्यम से लिखकर यह घोषित किया: “हम उल्टे को उलट कर सीधा कर देंगे, है नहीं तलवार अपने हाथ में तो क्या हुआ, हम कलम से ही करेंगे सिरफिरों के सिर कलम”
परमपूज्य गुरुदेव की इसी लेखनी को, उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने, बच्चे बच्चे तक पहुँचाने के लिए उन्हीं की चेतना के फलस्वरूप वर्ष 1994 में प्रथम बार भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा का आयोजन गायत्री शक्तिपीठ, भोपाल द्वारा किया गया। डॉ. के.वी. पण्ड्या, डॉ. पाटीदार, डॉ. रमन परिवार, टण्डन परिवार तथा नायक परिवार के साथ प्रारंभ की गई। यह परीक्षा लगभग 20 हायर सेकेंडरी स्कूलों में आयोजित हुई, जिसमें लगभग 2000 परीक्षार्थियों ने भाग लिया। वर्ष 1995 में यह परीक्षा भोपाल के 114 हायर सेकेंडरी स्कूलों की 9वीं से 12वीं की कक्षाओं के लिए आयोजित हुई जिसमें लगभग 7000 छात्र परीक्षा में बैठे। वर्ष 1995 में इस परीक्षा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना हुई कि परीक्षा में प्रत्येक शाला के प्रथम तीन छात्रों की मेरिट सूची में लगभग 350 छात्रों के नाम लगभग 10 पृष्ठों में प्रकाशित हुए थे। भोपाल शक्तिपीठ के अधिकारी इस मेरिट लिस्ट को मध्य प्रदेश के प्रमुख अखबार “दैनिक भास्कर” में बोर्ड के परीक्षा परिणामों की तरह छपवाना चाहते थे, ताकि पूरे प्रदेश में भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा का विस्तार हो सके। भोपाल शक्तिपीठ के पास विज्ञापन देने के लिए समुचित राशि नहीं थी, अतः शक्तिपीठ की टीम अखबार के मालिक के पास गई। अधिकारीयों ने नपे-तुले शब्दों में निवेदन किया, “भाई साहब, आपके पास भगवान का दिया सब कुछ है, गाड़ी है, घोड़ा है, मकान है, कारखाना है, हम लोग भी गायत्री शक्तिपीठ की ओर से भगवान का, राष्ट्र का यह कार्य कर रहे हैं और चाहते हैं कि छात्रों का 10 पृष्ठों का यह परीक्षा परिणाम आपके अखबार में यदि प्रकाशित हो जाए, तो शायद आप अनुमान नहीं लगा सकेंगें कि आप देश की कितनी बड़ी सेवा करेंगें ,यह आने वाला समय ही बताएगा।” अखबार के मालिक परीक्षा परिणाम प्रकाशित करने को तैयार हो गए।
दो दिन बाद दिनांक 12 अक्टूबर 1995 को जब भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा का परिणाम प्रकाशित हुआ तो भोपाल सहित पूरे प्रदेश में एक प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। अखबार का लगभग आधा पेज 114 शालाओं एवं उनके मेरिटोरियस छात्रों के नामों से भरा पड़ा था। सभी पाठशालाओं के विद्यार्थी, गुरुजन एवं आम जनता परीक्षा परिणाम पढ़कर आश्चर्यचकित थे कि यह कौन सी नई परीक्षा है, जो छात्रों को संस्कृति से जोड़ने का प्रयास कर रही है; काश! हमारी पाठशाला भी इस परीक्षा में सम्मिलित हुई होती ।
उपर्युक्त विज्ञापन एवं तत्पश्चात् हुए पुरस्कार वितरण समारोह का परिणाम यह रहा कि वर्ष 1996 में जब भोपाल गायत्री शक्तिपीठ की टीम परीक्षा के प्रचार के लिये पूरे प्रदेश में निकली, तो उसका व्यापक स्वागत हुआ और 1996 में परीक्षार्थियों की संख्या 7000 से बढ़कर मध्य प्रदेश में लगभग ढाई लाख तक पहुँच गई, जिसमें मिडिल स्कूलों के छात्रों को भी शामिल कर लिया गया था । वर्ष 1996 से प्रादेशिक विस्तार क्रम में भोपाल से डॉ. कर्मयोगी जी भी इस क्रम में सम्मिलित हो गए। जिससे प्रादेशिक विस्तार में और गति आयी और धीरे-धीरे परीक्षा को अन्य प्रदेशों में भी विस्तार मिलता गया ।
शीघ्र ही शांतिकुंज के तत्वावधान में “भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा cell ”, की मात्र चार सदस्यों की टीम जिसमें श्री आर. के. नायक, श्री मोहन सिंह भदौरिया, डॉ. पी. डी. गुप्ता, श्री जनार्दन मौर्य शामिल थे, legal cell के श्री विपिन सोरी, योगेन्द्र ठाकुर के साथ देशभर के सभी गायत्री शक्तिपीठों, जोनल,उपजोनल परिजनों तथा सम्मानीय अध्यापकों के सहयोग से इस परीक्षा का विस्तार देश भर के लगभग 400 जिलों में हो गया। प्रत्येक प्रांत, जिला एवं तहसील स्तर पर समितियाँ गठित कर परीक्षा ढाँचे को एक व्यवस्थित स्वरूप दिया गया जिसके लिए नियमावली भी तैयार की गयी जिसे सभी संबंधित जिलों को भेजा गया।
वर्ष 2004 तक यह परीक्षा केवल दो ही वर्गों- जूनियर और सीनियर में कराई जाती थी। कक्षा 6 से 8 तक के विद्यार्थी जूनियर वर्ग में तथा कक्षा 9 से 12 तक के विद्यार्थी सीनियर वर्ग में आते थे। जूनियर और सीनियर वर्ग की अलग पुस्तकें, अलग question bank के माध्यम से यह परीक्षा सम्पन्न होती थी। वर्ष 2005 में यह परीक्षा तीन वर्गों में कराई गयी। पहले वर्ग में कक्षा 6 और 8 के विद्यार्थी, दूसरे में कक्षा 9 और 10 के विद्यार्थी और तीसरे वर्ग में कक्षा 11 और 12 के विद्यार्थी शामिल थे। वर्ष 2007 से कक्षा 5 को भी परीक्षा में सम्मिलित कर लिया गया और परिणाम स्वरुप विस्तार को देखते हुए चार वर्गों में वर्गीकृत करने की आवश्यकता पड़ी जो निम्नलिखित थे :
पहला वर्ग: कक्षा 5 और 6
दूसरा वर्ग : कक्षा 7 और 8
तीसरा वर्ग : कक्षा 9 और 10
चौथा वर्ग : कक्षा 11 और 12
पुस्तकों के लेखन एवं संपादन क्रम में भोपाल के डॉ. प्रेम भारती जी एवं उनकी टीम का प्रमुख योगदान रहा ।
ब्रह्मवर्चस द्वारा सम्पादित पुस्तक “पंडित श्रीराम शर्मा,दर्शन एवं दृष्टि” के 2012 एडिशन के अनुसार 2007 में 38 लाख विद्यार्थी सम्मिलित हुए। उस समय भारत के 22 राज्यों में हिन्दी तथा अंगरेजी भाषा सहित आठ भाषाओं में यह परीक्षा सम्पन्न हो रही थी।
1994 से आरम्भ हुई यह परीक्षा 2012 में भारत के 3 करोड़ से अधिक परिवारों तक पहुँच चुकी थी। आज 2023 में इन पंक्तियों को लिखते समय भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा में भाग लेने वाले विद्यार्थियों का नंबर कईं करोड़ होगा, इसमें कोई शंका नहीं हो सकती।
परीक्षा में आकर्षण के प्रमुख बिन्दु:
परीक्षा में आकर्षण के प्रमुख बिन्दु छात्रों के लिए भागीदारी प्रमाण पत्र तथा तहसील, जिला से लेकर प्रांतीय स्तर तक के आकर्षक पुरस्कार, स्कालरशिप तथा नैतिक मूल्यों के एक से तीन दिवसीय शिविर रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भी 2008 का 25 से 28 अप्रैल वाला चार दिवसीय “राष्ट्रीय मेरिटोरियस छात्र शिविर” देश भर के प्रांतीय मेरिटोरियस छात्रों के लिए शांतिकुंज में विशेष आकर्षण का केन्द्र रहा। इसी क्रम में परम आदरणीय गुरुजनों के लिए भी देश में लगभग सभी प्रांतों के शिविर शांतिकुंज में आयोजित किए गए। ऐसे शिविर प्रतिवर्ष आयोजित किए जाते हैं । देश में सर्वाधिक छात्र संख्या बिठाने वाले जिले को शांतिकुंज द्वारा “विशेष शील्ड” तथा प्रमाण पत्र से पुरस्कृत किया जाता है। वर्ष 2005 से 2007 तक 3 वर्षों से यह गौरव राजस्थान के राजसमंद जिले को प्राप्त हुआ है, जहाँ वर्ष 2007 में जिले में लगभग 82 हजार छात्र सम्मिलित हुए । परीक्षा का Competition इतना बढ़ चुका है कि वर्ष 2008 में कुछ जिलों ने तो एक लाख से भी अधिक छात्रों को परीक्षा में बैठाने का संकल्प लेकर साहित्य वितरण भी प्रारंभ कर दिया है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की आदरणीय साधना बहिन जी ने आज ही कमेंट करते हुए लिखा कि दोनों पति- पत्नी 2005 से इस परीक्षा को करवा रहे हैं और नंबर बढ़ता ही जा रहा है। 2022 में 2000 छात्रों ने परीक्षा दी और अपने विद्यालय के लिए परम पूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद की कामना की है।
अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रमुख तथा देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या इसे न केवल विस्तार दिया बल्कि प्रत्येक शाला में संस्कृति मंडलों की स्थापना हेतु प्रोत्साहन नीति अपनाई तथा यह भी घोषित किया कि प्रांतीय स्तर पर मेरिट में आए कक्षा 12वीं के छात्रों के लिए देव संस्कृति विश्वविद्यालय में प्राथमिकता के आधार पर प्रवेश दिया जाएगा तथा अन्यान्य सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई जाएँगी। परम श्रद्धेय डॉ. साहब तथा परम आदरणीय शैल जीजी के आशीर्वाद से वर्ष 2008 में इस परीक्षा मं बैठने वाले छात्रों का लक्ष्य 50 लाख था और गुरुदेव की जन्म शताब्दी वर्ष 2011 में इस संख्या को बढ़ाकर एक करोड़ के पार ले जाना कीतिमानी रहा ।
कवि रवींद्र नाथ टैगोर की एक रूपांतरित कविता में लिखा है:
“साँध्य रवि (शाम को अस्त होते सूर्य ) ने कहा मेरा काम लेगा कौन, रह गया सुनकर निरुत्तर जगत सारा मौन,एक माटी के दिए ने नम्रता के साथ,कहा जितना बन सकेगा मैं करूँगा नाथ।”
आइए! हम सब छोटे-छोटे माटी के दीपकों की तरह मिलकर परम पूज्य गुरुदेव की विचार क्रांति की इस मशाल को पूरे विश्व में पहुँचाएँ।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 13 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज का स्वर्ण पदक अरुण जी को जाता है लेकिन पूनम जी ने अपने दोनों बच्चों के साथ संकल्प पूरा किया है जिसके लिए स्पेशल बधाई।
(1)चंद्रेश बहादुर-36 ,(2 ) रेणु श्रीवास्तव-34 ,(3 )सरविन्द कुमार-33 ,(4) संध्या कुमार-36 , (5 )अरुण वर्मा -80 ,(6 ) पिंकी पाल -45 ,(7 )विदुषी बंता-29,(8 ) मंजू मिश्रा-24, (9 )संजना कुमारी-25,(10) निशा भारद्वाज-24, (11)शुभम राज-28, (12 ) पूनम कुमारी-26, (13) वंदना कुमार-24
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।