15 मार्च 2023 का ज्ञानप्रसाद – ज्योति अगस्त 1996
सप्ताह के तीसरे दिन बुधवार को हम आपके लिए दिव्य ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत कर रहे हैं। हम सभी सहकर्मी ब्रह्मवेला में, दिव्य प्रज्ञागीत से आरम्भ करके इस दिव्य ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करते हैं जिससे हमारी अंतरात्मा ऊर्जावान होती जाती है और हम इस संचित ऊर्जा से दिन भर के कार्यों को चुटकियों में सम्पन्न किये जाते हैं। विश्वभर में फैले ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवारजन अपने अपने समयानुसार इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करते हैं लेकिन आशा यही की जाती है कि सूर्य भगवान की प्रथम किरण की ऊर्जावान लालिमा में यह पुनीत कार्य सम्पन्न किया जाये।
ज्ञानप्रसाद के शीर्षक को देखकर हमारे पाठकों के ह्रदय में यह प्रश्न अवश्य ही उठा होगा कि 15 वर्ष तीर्थस्थान में रहने के बाबजूद तीर्थ की प्राप्ति क्यों नहीं हो सकी। कहाँ कमी रह गयी। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जो भावना उभरी है उसका सार यही है कि जिस मानव में संयम, सदाचार, इन्द्रिय एवं मन का दमन तथा सतत् भगवत्स्मरण है, उसी ने तीर्थ पाया है, उसी का तीर्थवास सच्चा तीर्थवास है। जो भावनाएँ तीर्थ चेतना में नहा न सकें, मन देव स्मरण में भीग न सके उनके लिए तीर्थ में वास करने के बावजूद तीर्थवास नहीं है। 12 मार्च वाला लेख भी तीर्थ सेवन पर केंद्रित था, दोनों लेखों की प्रस्तुति के पीछे उद्देश्य केवल एक ही है और वह है सोमवार को आरम्भ हो रही लेख शृंखला की पृष्ठभूमि। वर्ष 1996 युगतीर्थ शांतिकुंज की स्थापना का रजत जयंती वर्ष,यानि सिल्वर जुबली वर्ष था। इस वर्ष का अगस्त अंक रजत जयंती अंक था और अति सुन्दर जानकारी से भरपूर है। लेख श्रृंखला आरम्भ करने से कई दिन पूर्व पृष्ठभूमि रिलीज़ करने का उद्देश्य वही होता है जो मूवी से पहले ट्रेलर का होता है।
प्रभो! मुझे लगभग 15 वर्ष हो गए हैं आपके इस पवित्र वृन्दावन धाम में निवास करते लेकिन तीर्थ की प्राप्ति नहीं हो पायी। मैं तीर्थवासी नहीं बन सका। उनकी इस बात को कोई दूसरा सुनता तो उनका उपहास किए बिना नहीं रहता क्योंकि 15 वर्ष तीर्थ स्थान में रहने के बावजूद कह रहे थे कि “तीर्थवासी नहीं बन पाए” ,क्या अर्थ है इस वाक्य का ? लेकिन उनकी बात सुनने की फुरसत किसे थी। यात्री आ जा रहे थे, किसे पड़ी थी यह देखने की कि एक सफेद दाढ़ी वाला, गोरा रंग, झुर्रियों भरे चेहरे वाला बूढ़ा पता नहीं कब से बाँके बिहारी के द्वार के एक ओर ऐसे बैठा है जैसे गिर पड़ा हो और फिर उठने में असमर्थ हो गया हो। उसकी आँखों से झरती बूँदें नीचे के चिकने फर्श को धो रही थीं और उसके हिलते अधरों से जो शब्द निकलते थे, उन्हें या तो वह स्वयं सुनता था यां उसके हृदय में विराजमान बाँके बिहारी जी सुनते थे यां फिर वोह जो उससे थोड़ी दूर आराध्यपीठ पर विराजमान श्री बाँके बिहारी जी । आप संसार के स्वामी हैं और मैं आपके ही संसार का एक प्राणी हूँ, आपका ही हूँ और आपके द्वार पर आ पड़ा हूँ। बार-बार वह रुकता, हिचकियाँ लेता और फिर मस्तक उठाकर बड़े ही डरे हुए नेत्रों से आराध्यपीठ पर स्थित प्रभु की मूर्ति की ओर देखता था। वह कह रहा था- मैं जानता हूँ कि आप मुझे मुक्त कर देंगे लेकिन मैं मुक्त नहीं होना चाहता हूँ। मुक्त तो वह भी हो जाता है जिस पर वृन्दावन की पावन रज उड़कर पड़ जाती है। मैं आपके धाम में तीर्थवास करने आया था लेकिन आपके श्रीचरणों में आकर भी मुझे तीर्थवास प्राप्त नहीं हुआ।
श्री बाँके बिहारी का दर्शन करने के लिए महाप्रभु बल्लभाचार्य पधारे, उन्होंने कहा, “तुम तीर्थ में ही हो भद्र!” बल्लभाचार्य का ईश्वर सहचर्य, शास्त्रों का पारदर्शी ज्ञान, उत्कट तपश्चर्या लोक विख्यात थी, उनके विवेक, वैराग्य, आत्मनिष्ठा तथा अनुभव सिद्ध ज्ञान का अद्भुत तेज देखा और घूमकर महाप्रभु के चरणों पर मस्तक रख दिया। अश्रुधारा से आचार्य के श्रीचरण धुल गए ।
कुछ क्षण में ही वृद्ध ने आश्वस्त होकर दोनों हाथ जोड़ लिए और बोले “ देव! इस वृन्दावन धाम की पावनता में मुझे कोई सन्देह नहीं है लेकिन मैं इतना नीच हूँ कि 15 वर्ष रहने पर भी श्री जगदीश्वर की कृपा का अनुभव नहीं कर सका। मुझे आज भी तीर्थवास प्राप्त नहीं हुआ। भावुकता की अधिकता ने मन मस्तिष्क को कुछ अव्यवस्थित कर दिया है।”
एक युवक ने जिनके शरीर पर पीत वस्त्र थे और सम्भवतः अभी छात्र ही होंगे अपने साथ के गुरुकुल वासी से धीरे से कहा। भद्र! मैं श्री बाँके बिहारी के दर्शन करके लौट रहा हूँ। आचार्यश्री ने किसी की ओर ध्यान नहीं दिया। लगता था कि आज वे इस वृद्ध पर कृपा करने ही मन्दिर पधारे हैं। वृद्ध के कन्धे पर उनका करुण करकमल रखा था उन्होंने पूछा “तुम मेरे साथ आज बैठक चलोगे।” आचार्यश्री के चरण बिना किसी उत्तर की अपेक्षा किए आगे बढ़ गये। वृद्ध स्थिर नेत्रों से उनके आगे बढ़ते चरणों की ओर देखता खड़ा रहा।
खड़े-खड़े न जाने कब उसका मन अतीत के स्मरण में भीगने लगा, उन्हें अपने पिछले 15 वर्ष स्मरण हो आये।
15 वर्ष पूर्व का जीवन -Flashback
ठाकुर जोरावर सिंह आदर्श पिता , आदर्श जागीरदार हैं और आदर्श क्षत्रिय रहे हैं। उन्होंने पुत्रों को केवल पुस्तकों की ही शिक्षा नहीं दी बल्कि व्यवहार का भी विद्वान बनाया और अपनी नैतिक दृढ़ता उनमें लाने में सफल हुए। दोनों पुत्र अब युवक हो गए हैं, दोनों का विवाह हो चुका है,उन्होंने जागीरदारी सम्हाल ली है। प्रजा के लिए यदि जोरावर सिंह सदा स्नेहमय पिता रहे हैं तो उनके पुत्र सगे भाई रहे अब सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी होने पर जोरावर सिंह वृन्दावन जाकर तीर्थवास करना चाहते हैं। उन्होंने निश्चय कर लिया और उनका निश्चय जीवन में कभी भी, कोई भी परिवर्तित न कर पाया। जब उन्होंने यह संकल्प लिया तो पुत्रों, पुत्र वधुओं और प्रजा के सैकड़ों, हजारों लोगों के ह्रदय में वेदना थी कि उनका देवता जैसा पिता इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है जो उनको छोड़कर चला ही जाएगा। वह कह रहे थे,
“मैं पिता का कर्तव्य पूरा कर चुका, अब तुम लोगों को पुत्र का कर्तव्य पूरा करना चाहिए। पिता को पुत्रों का रक्षण, शिक्षण और पालन तब तक करना चाहिए जब तक पुत्र स्वयं समर्थ न हो जाएँ और पुत्रों को समर्थ हो जाने पर पिता को अवकाश दे देना चाहिए ताकि वह भगवान की सेवा में लगे।” जोरावर सिंह स्थिर स्वर में कहे जा रहे थे- “तुम्हारे प्रति मेरे जो भी कर्तव्य थे मैं पूरे कर चुका, अब मुझे परम पिता के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करने दो।”
गुरुकुल वासिओं ने कुछ कहना चाहा लेकिन “तुम बच्चे हो” कहकर ज़ोरावर सिंह हंस पड़े। उन्होंने कहा कि तुम वृन्दावनधाम भगवान श्रीकृष्ण की पावन भूमि की महिमा समझ नहीं पाते हो और यह भी नहीं समझ पाते कि यहाँ रहने के लिए ह्रदय में जितनी शक्ति चाहिए वह मेरे जैसे इस नीच प्राणी में नहीं है। मैं बृजधाम के अधीश्वर के श्रीचरणों में गिर जाना चाहता हूँ।”
ज़ोरावर सिंह घर छोड़कर वृन्दावन आ गए थे । अवश्य ही उन्होंने पुत्रों का यह अनुरोध स्वीकार कर लिया होगा कि शरीर निर्वाह के लिए खर्चा पुत्रों से ले लिया करेंगे और वृन्दावन में उनके निवास के लिए यमुना जी की ओर बस्ती से दूर एक छोटी कुटिया भी पुत्रों ने ही बनवा दी थी। बहुत अनुरोध करने पर भी कोई सेवक साथ में उन्होंने नहीं लिया। प्रातः यमुना स्नान करके जोरावर सिंह श्री बाँके बिहारी के मन्दिर चले जाते थे और रात्रि में प्रभु के शयन होने तक वहीं रहते थे। लौटते समय निश्चित पुजारी उन्हें महाप्रसाद दे देता था और इसके लिए उसे जोरावर सिंह के पुत्र मासिक दक्षिणा दे दिया करते थे।
भगवद् धाम में निवास, भगवान् का जप, केवल एक बार भगवत्प्रसाद ग्रहण, उन्हें किसी दूसरे से कुछ बोलने का कदाचित् ही अवकाश मिलता था। परन्तु वे बोलते बहुत थे, जप के सिवा वे बोलते ही तो रहते थे। मन्दिर के द्वार के पास बैठे-बैठे बोलते रहते थे, रोते रहते थे और बोलते थे-प्रार्थना करते थे, भगवान् को उलाहना देते थे, अनुरोध करते थे परन्तु उनका यह सब केवल श्री बाँके बिहारी के प्रति स्नेह ही था। भगवान से कहते,
“तुम कंजूस हो गए हो! मुझ एक प्राणी को तीर्थवास देने में तुम्हारा क्या बिगड़ा जाता है? मेरे लिए ही तुम इतने कठोर क्यों हो गए?” पता नहीं क्या- क्या कहते रहते थे, लेकिन उनका विषय एक ही था “मुझे तीर्थवास चाहिए, ऐसा तीर्थवास जो दूसरों को अपने सान्निध्य मात्र से पावन कर दे वोह वाला।
तीर्थ की यह परिभाषा तो सभी शास्त्र करते हैं परन्तु जोरावर सिंह की परिभाषा अपनी है। उनकी मान्यता है कि जब तक हृदय में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार आदि का लेश भी हैं, तीर्थ में रहकर भी तीर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। देवता जैसा बने बिना देवता नहीं मिलता। तीर्थस्वरूप बने बिना तीर्थ की प्राप्ति नहीं होती। केवल शरीर तीर्थ में चला गया या रहा, यह तीर्थवास नहीं है। तीर्थस्वरूप श्री बाँके बिहारी के श्रीचरण हृदय में प्रकट हो जाएँ तो तीर्थवास प्राप्त हुआ समझा जाना चाहिए इस अड़ियल भक्त ने तीर्थवास की भारी-भरकम परिभाषा बना ली और वह उस पर ही अड़ा है। श्री बाँके बिहारी जी तो है ही ऐसे कि उनके साथ उलटी-सीधी सबकी हठ निभ जाती है। किन्तु महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य इस बूढ़े क्षत्रिय को अपनी चौकी के पास इतने आदर से बैठाकर उसकी बातें इतनी एकाग्रता से सुन रहे हैं, क्या यह कम आश्चर्य की बात है। “ठाकुर, तुममें काम, क्रोध, मोह आदि कोई दोष है कहाँ ?, तुम तो इन सभी का त्याग करके पिछले 15 वर्षों से इधर वास कर रहे हो। ” ज़ोरावर सिंह ने कहा,“ हाँ मैं इधर रह रहा हूँ लेकिन मैं भूल ही नहीं सका कि मैं क्षत्रिय हूँ, मैं जागीरदार हूँ। कोई अपमान करे तो मैं सहन नहीं कर सकूँगा और कामना कर रहा हूँ हृदय में श्री बाँके बिहारी जी के दिव्य चरणों की स्थापना की।” बल्लभाचार्य जी ने कहा,“दिव्यचरण तो तुम्हारे तुम्हारी हृदय में नित्य ही बसे हैं। यह दूसरी बात है कि उनकी उपलब्धि तृष्णा और लोभ को बढ़ाती रहती है।” आचार्य श्री वात्सल्यपूर्ण स्वर में कह रहे थे, “जोरावर सिंह, संयम, सदाचार, इन्द्रिय एवं मन का दमन तथा सतत् भगवत्स्मरण जिस मानव में है, उसी ने तीर्थ पाया है, उसी का तीर्थवास सच्चा तीर्थवास है।”
आचार्यश्री के मुख से निकली वाणी को सभी उपस्थित जन ध्यान से सुन रहे थे। युगावतार की लीलाभूमि, देवताओं की तपस्थली में रहने मात्र से मन, प्राण, चेतना आलोकमय लोक में जा पहुँचते हैं। तुम धन्य हो कि तुमने यहाँ रहने का संकल्प लिया, रहते तो सभी हैं परन्तु शरीर से। तुम विचारों और भावनाओं से, समूचे अन्तःकरण से तीर्थ चेतना में डूबने का प्रयास कर रहे हो, इसीलिए तुम सच में, सही मायनों में तीर्थवास कर रहे हो। तुम तीर्थ में हो और तीर्थ तुममें है। तुम्हारा दर्शन दूसरों को पवित्र करता है। वृद्ध ज़ोरावर सिंह हाहाकार करते हुए उठे, उनके लिए अपनी प्रशंसा सुनना असह्य हो गया। आचार्यश्री ने प्रसंग को मोड़ते हुए पूछा,“बाँके बिहारी जी तुम्हारे हैं न?” जोरावर सिंह के स्वर में क्षत्रिय का जोश आया, उन्होंने ने कहा, “ क्यों नहीं होंगें, वे संसार के स्वामी हैं और मैं उनके ही संसार में रहता हूँ तो वे मेरे ही हुए न?” आचार्यश्री की व्याख्या ज़ोरावर सिंह जी से भी अद्भुत थी। उन्होंने कहा, “वे तुम्हारे हैं, इसीलिए तुम्हें तीर्थ नित्य प्राप्त है। भगवद् विश्वास है तो तीर्थ नित्य प्राप्त है और जो भावनाएँ तीर्थ चेतना में नहा न सकें, मन देव स्मरण में भीग न सके तो प्राप्त तीर्थ भी उपलब्ध नहीं है।”
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