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लीलापत शर्मा जी की पुस्तक “पत्र पाथेय” देती है अद्भुत मार्गदर्शन।

5 जुलाई 2022 का ज्ञानप्रसाद-लीलापत शर्मा जी की पुस्तक “पत्र पाथेय” देती है अद्भुत मार्गदर्शन।

“पत्र  पाथेय” शीर्षक की  183 पन्नों की पुस्तक एक बहुत ही दिव्य और  अद्भुत पुस्तक है जिसमें पंडित लीलापत शर्मा जी को  गुरुदेव द्वारा लिखे 89 पत्र शामिल किये गए हैं।   पाथेय का अर्थ होता है-वह खाने-पीने वाली वस्तुएं जो कोई यात्री अपने साथ रखता है। हम सबकी  जीवन यात्रा में इस पुस्तक में  दिया गया ज्ञान किसी भी खाद्य पदार्थ की तुलना नहीं कर सकता। यह पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध है। सभी  पत्रों को ऑनलाइन ज्ञानरथ के  लेखों में वर्णित करना शायद संभव न हो सके परन्तु पाठकों को प्रत्येक  पत्र एक के बाद एक पढ़ कर कड़ी स्थापित करनी चाहिए और लीलापत जी की चयन प्रक्रिया (selection  process) को समझना चाहिए कि उन्होंने किस आधार पर यह 89 पत्र चुने थे। 

आज का ज्ञानप्रसाद पंडित लीलापत शर्मा जी पर आधारित लेख श्रृंखला का प्रथम भाग है। 

कुछ समय पूर्व हमारे सहकर्मी प्रदीप शर्मा हमें दो बार आग्रह कर चुके थे कि पंडित लीलापत शर्मा जी पर कुछ लेख लिखे जाएँ। हमारे अनेकों सहकर्मियों ने इस प्रकार का आग्रह दो वर्ष पूर्व भी किया था। ऐसा आग्रह करना स्वाभाविक  है क्योंकि पंडित जी के व्यक्तित्व, समर्पण, श्रद्धा, निष्ठां और पात्रता का अमृतपान हर कोई करना चाहेगा। 

लीलापत जी द्वारा लिखी गयी पुस्तकों में से कुछ एक: पत्र पाथेय, प्रज्ञावतार का कथामृत, गुरुदेव के मार्मिक संस्मरण, Gurudev prophet of New Era वर्णन योग्य हैं। यह पुस्तकें हमारी दिशा और दशा में परिवर्तन लाने में बहुत सहायक साबित हो सकती हैं।  आज जब हम इस लेख शृंखला को लिखना आरंभ करने लगे तो दो वर्ष पूर्व प्रकाशित लेखों पर भी दृष्टि दौड़ाई और पाया कि अभी बहुत कुछ लिखने को बाकी है। ज्ञान के इस अथाह सागर में अभी बहुत से हीरे-मोतियों की तलाश बाकी है।  परम पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन  पर हमें अटूट विश्वास है और हम अनवरत, बिना रुके अद्भुत कंटेंट ही लेकर प्रस्तुत होंगें। 

आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करते  समय साथ दिए गए स्क्रीनशॉट को अवश्य देख लें। यह हम इसलिए कह रहे हैं कि जब हम गूगल में  “पत्र पाथेय” सर्च करते हैं तो दो पुस्तकों के कवर पेज  दिखाई देते  हैं। एक पुस्तक के लेखक गुरुदेव लिखे हैं और दूसरी के पंडित लीलापत शर्मा जी। दोनों को जब पढ़ने के लिए क्लिक करते हैं तो एक ही पुस्तक दिखाई देती है जिस पर आज का लेख आधारित  है। इसी स्क्रीनशॉट में गुरुदेव की ही लिखावट में 89 पत्रों में से एक पत्र  भी शामिल किया गया है। 

तो आरम्भ करते हैं इस लेख श्रृंखला का प्रथम ज्ञानप्रसाद। 

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89  पत्रों की स्टडी  से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरुदेव पात्रता की परख कैसे करते थे। कैसे एक-एक गुण को देख-परख कर ही लीलापत जी के कन्धों पर तपोभूमि मथुरा का भार डाला था।  

जो परिजन पंडित जी के बारे में नहीं जानते, हम उनके लिए केवल इतना ही कह सकते हैं कि इस स्तर के  व्यक्तित्व  की  कोई भी introduction नहीं होती। वंदनीय माता जी अक्सर कहा करती थीं :

” अगर मेरा बड़ा बेटा देखना है तो  तपोभूमि में जाकर देखो “

पंडित लीलापत जी इस पुस्तक के preface में लिखते हैं : 

इसे परम पूज्य  गुरुदेव का अनुग्रह ही कहना होगा कि 20 वर्ष तक उनका सानिध्य प्राप्त हुआ लेकिन आखिर के सात  वर्ष  तो रात दिन गुरुदेव के साथ ही रहे। 1965 से 1971 के  सात  वर्षों ने   सैंकड़ों यज्ञ करवा लिए थे। 

1971 में परम पूज्य गुरुदेव मथुरा छोड़ कर शांतिकुंज आ गए थे। 1971 से लेकर गुरुदेव के महाप्रयाण  1990 तक पंडित जी गुरुदेव के साथ रहे और महाप्रयाण के उपरांत वंदनीय माता जी के मार्गदर्शन में तपोभूमि की सभी गतिविधियों में कार्यरत रहे। 14 मई 2002, निर्वाण दिवस तक गायत्री परिवार के लिए  पंडित जी के योगदान को  भूल पाना  शायद ही संभव हो पाए। हम सबके लिए ऐसे महापुरष एक  फ़्लैशलाइट से कम नहीं हैं।       

परम पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में सम्पन्न हो रहे आयोजनों में लीलापत जी एक-दो दिन पहले पहुँच जाते थे, कार्यकर्मों की  देख रेख में योगदान देते  और अगर कुछ फेर -बदल करनी होती तो  कर लेते।  लीलापत जी का समर्पण और गुरुदेव का सानिध्य एक ऐसी  अटूट कड़ी थी जिसको हम आज  इस लेख में और आने वाले  लेखों में  वर्णित करने का प्रयास करेंगें । 

पंडित जी लिखते हैं:

“गुरुदेव ने हम में पता नहीं क्या देखा जो अपने अटूट  स्नेह और अनुकम्पा के योग्य समझा। एक सामान्य परिवार में जन्म, कोई बड़ी शिक्षा नहीं, कोई बड़ी उपलब्धि भी नहीं कि युग निर्माण के इस विश्व्यापी अभियान में लगाया दिया। कुछ भी सामर्थ्य और योग्यता न होते हुए, पूज्य गुरुदेव ने इसके बावजूद  हमें अपनाया। यह उनका स्नेह  और अपनत्व ही हो सकता है। स्वजन-परिजन कहते हैं कि हमारे पास केवल  समर्पण और साहस ही था जिसने हमें गुरुदेव के इतने निकट पहुँचाया। हो सकता है इसमें कुछ  सच्चाई हो, परन्तु हमारा  मन तो उनके स्नेह को ही “कारण”  मानने में प्रसन्न और संतुष्ट हो जाता है।” 

जो परिजन  इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं, अनुमान लगा सकते हैं  कि लीलापत जी किस व्यक्तित्व के इंसान थे।  हमने यह पंक्तियाँ उनकी पुस्तक से बिल्कुल यथावत  ही कॉपी की  हैं । कितने down -to -earth  इंसान थे। Down -to -earth  का हिंदी अनुवाद करें तो सादा,सर्वजनोपयोगी होता है।  ऐसा इंसान जो सब लोगों के लिए उपयोगी हो।  उन्होंने लोगों की बातों को नकारा तो नहीं लेकिन गुरुदेव के निकट आने का संकेत और श्रेय अपने ऊपर न लेते हुए बहुत ही शालीनता  से मान लिया था। पंडित जी के इसी  व्यक्तित्व ने हमें उन पर रिसर्च करने और लिखने को प्रेरित किया। हमने तो उनको देखा तक नहीं। केवल अपने परिजनों से कभी -कभार नाम अवश्य सुना था।  भला हो योगेश जी का जिन्होंने लीलापत जी के दो पन्ने व्हासप्प करके हमें भेजे और हमारे ह्रदय में उनके प्रति स्नेह और आदर की  चिंगारी भड़काई। 

तो आइये आगे चलते हैं । 

लीलापत जी लिखते हैं :

“जहाँ कहीं भी जाते, गुरुदेव हमारा परिचय इस प्रकार देते :परिजन इसे अपना  बड़ा भाई ही समझें।  हमारे बाद गायत्री तपोभूमि और युग निर्माण आंदोलन का संगठन पक्ष यही संभालेंगें। यह परिचय सुन कर हमें संकोच होता। एक-आध बार अपना संकोच बताया भी लेकिन गुरुदेव यह कर समझाते :

” व्यक्ति कुछ नहीं होता। ईश्वरीय शक्ति उससे जो कार्य करवाना चाहती है उस कार्य के योग्य वह व्यक्ति को  स्वयं ही गढ़ लेती है।आज से अपने आप को छोटा मत कहना यां करना।”   

यह आश्वासन देने के बाद पूज्य गुरुदेव ने हमें कहाँ से गढ़ा,कैसे गढ़ा, कितना कांटा-छांटा और क्या स्वरूप दिया हम नहीं जानते लेकिन परिजन कहते हैं कि हमें जो भी दायित्व सौंपा उसे हमने  भली भांति निभाया। गुरुदेव की लेखनी और वाणी से हमारी बुद्धि ने युग निर्माण आंदोलन की philosophy  सीखी और समझी। लेकिन मिशन की सेवा में हमने जो कुछ भी किया है वह  सब गुरुदेव का ही हाथ पकड़कर सिखाया हुआ है। इस पुस्तक में दिए गए पत्र गुरुदेव द्वारा दिए गए शिक्षण का एक छोटा सा  भाग हैं।” 

ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मी अनुमान लगा सकते हैं  कि गुरुदेव की युगसैनिकों को तैयार करने की  प्रक्रिया कैसी थी और किस प्रकार वह  महाकाल का आवाहन सुनने के लिए जगाते हैं।   

अपने व्यक्तिगत पत्रों को सार्वजनिक करने का क्या कारण था ?

कारण सिर्फ यही है कि पंडित जी को पूज्य गुरुदेव से जो दिशा मिली और जिस प्रकार अपना  दायित्व निभाने के लिए उन्हें  तैयार किया गया केवल गुरुदेव के  प्रत्यक्ष सानिध्य  में ही सम्पन्न हो सकती थी । गुरुदेव कहते रहे ,पंडित जी सुनते रहे, इस प्रयोग-परीक्षण प्रक्रिया द्वारा अपनी देख-रेख में गुरुदेव  सिखाते ही चले गए। आज के इंटरनेट युग में अगर  हम सोचते हैं कि  गूगल सब कुछ सिखा देगा,कुछ  गलत सा ही लगता है। Crash course , bridge course, weekend course लेकर हम पेट पालने का सामर्थ्य तो  प्राप्त कर ही लेते हैं लेकिन वास्तविक ट्रेनिंग से वंचित ही रह जाते हैं।   महापुरषों  का सानिध्य, वातावरण, उनकी देख-रेख का बहुत बड़ा योगदान है। गायत्री परिवार के सभी परिजन इसी व्यक्तित्व के हैं। सब कोई श्रेय उस परमसत्ता को ही देते हैं। 

लीलापत जी लिखते हैं :

यह सारे पत्र व्यक्तिगत और निजी हैं।  इनको सार्वजनिक करवाने का मतलब है अपनी बढ़ाई और लोगों के आगे जगहंसाई। लोग उपहास उड़ाने लगते हैं। पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, प्रेमी -प्रेमिका सभी में बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो अपने तक  ही सीमित रहनी चाहिए, किसी तीसरे के सामने प्रकट नहीं होनी चाहिए। वर्षों तक हमने इन पत्रों को बहुमूल्य हीरे मोतियों की भांति संभाल कर  रखा लेकिन पिछले कुछ महीनो में चिंतन उभरा कि अब इनको सार्वजानिक कर ही देना चाहिए।   

इन पंक्तियों को लिखते समय हमें  एक  पति-पत्नी couple  का स्मरण हो आता है जिनको व्यवसाय के कारण एक दूसरे से  लगभग पांच वर्ष अलग रहना पड़ा।  दोनों ने बहुत पत्र -व्यव्हार  किया और अपनी दिनचर्या से लेकर सब छोटी -बड़ी बातें इन पत्रों में लिख डालीं। पांच वर्ष बाद जब मिलन हुआ तो दोनों फूट -फूट कर रोये तो थे ही लेकिन अपने-अपने पत्र लेकर आ गए।  एक दूसरे को दिखाने लगे।  दोनों ने date-wise  एक-एक पत्र को  ऐसे संभाल कर रखा था जैसे हीरे-मोती हों।  इससे बड़ा  समर्पण और निष्ठां का उदाहरण  और कौन सा हो सकता है। ऐसा ही सम्बन्ध था गुरुदेव और पंडित जी का। 

हम अपनी लेखनी को यहीं विराम देने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव।

To be continued : क्रमशः जारी

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 4  जुलाई   2022  की 24 आहुति संकल्प सूची: 

(1 ) संध्या कुमार-24 , (2 ) अरुण वर्मा-25  , (3 ) सरविन्द कुमार  -27    

इस सूची के अनुसार तीनों सहकर्मी    गोल्ड मैडल विजेता हैं, उन्हें हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद


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