वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अध्याय 4-सुखभोग  की  स्पृहा को कैसे जीता जाय ? भाग 1

17 नवम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद –   सुखभोग  की  स्पृहा को कैसे जीता जाय

आज का ज्ञानप्रसाद स्वामी आत्मानंद जी द्वारा  लिखित पुस्तक “मन और उसका निग्रह” के  स्वाध्याय के उपरांत आदरणीय अनिल कुमार मिश्रा  जी की  प्रस्तुति है। यह प्रस्तुति अध्याय 4 का प्रथम भाग है, द्वितीय भाग कल का ज्ञानप्रसाद होगा। यूट्यूब में  शब्द सीमा होने  के कारण हम अध्याय चार को दो भागों में बाँटने के लिए विवश हैं । आज का लेख भी पूर्णतया  मूलरूप में बिना किसी बदलाव के प्रस्तुत किया जा रहा है। हाँ, दो शब्द जो हमें कठिन लगे उनका अनुवाद लेख के बाहिर ही अपनी और अपने पाठकों की सुविधा के लिए लिख रहे हैं। स्पृहा का अर्थ है कामना और  का उदात्तीकरण को अंग्रेजी में समझना अधिक सरल है ।इसका  अंग्रेज़ी अनुवाद sublimation यानि भाप बनकर उड़ना है।  हर बार की तरह आज भी  हम किसी भी त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थी हैं और प्रत्येक परिवारजन को अपने विचार रखने की पूर्ण स्वतंत्रता है। 

हमने कहा है, “जबतक सुखभोग  की  स्पृहा  दूर  नहीं  होती  , तबतक  हम  चाहे  जो  करें  , मन  को  कभी पूरी  तरह  वश  में  नहीं  कर पाएंगे.’” यह कथन बहुत  से  साधकों को  चोट  पहुंचा  सकता है, पर  बात  तो सत्य ही  है। हमें  इस बात  को  अधिक गहराई से समझ  लेना चाहिए। यह फट  से कह  देना तो  सरल  है कि जबतक  सुखभोग की  स्पृहा का त्याग  नहीं किया  जाता  , तबतक  मनोनिग्रह के लिए  दृढ़  इच्छाशक्ति  नहीं  पैदा हो सकती, लेकिन सुख – स्पृहा हममें  स्वाभाविक होने  के  कारण  हमारे रक्त और मांस  में इस  गहराई  तक गढ़ी  हुई है कि  उसे  अत्यंत कठिनाई  से ही  निकाला  जा  सकता है। तथापि  हम  ऐसा  सोचकर  अपने  भीतर  की  अवस्था जटिल  न  बना  लें कि  चूंकि हममें सुखभोग की स्पृहा  है  इसलिए हम  बुरे  हैं।  सुखभोग  की  स्पृहा  अपने आप  में  कोई पाप  नहीं  है।  पर , हाँ  यदि हम  अनैतिक  इन्द्रिय – भोगों  में  लग जाते हैं  तो उससे हमारा  बन्धन और दृढ़ हो  जाता है  तथा  हमारा उच्चतर आत्मिक विकास रुक  जाता है।  इसे हम  अवश्य  पाप  कह  सकते हैं।  जो  उच्चतर  आदर्शों से  प्रेरित  होकर समस्त  सांसारिक  एषणाओं का त्याग  कर  देते हैं  ऐसे  इने- गिने व्यक्तियों को छोड़कर,  जिनके  लिए  हम  यहाँ  पर चर्चा  नहीं कर  रहे हैं ,  शेष  सबके  लिए तो  सुखभोग की  लालसा  की  सन्तुष्टि  के  बिना  यह  जीवन  ही  सम्भव  न होगा  , ”  यदि  सुखभोग  के लिए न  जियें तो किसके  लिए जियें ? ‘  यह  लालसा मनुष्य  में एक जीवन शक्ति है  और वह  मनुष्य को  जीवित रखती है।  तथापि  यह  भी  सत्य है कि  सुख  की यह  लालसा  मन:संयम की इच्छाशक्ति को  खा  जाती है।   तब इस आन्तरिक  समस्या  का  समाधान  क्या है ?  यह सत्य है कि बहुलांश  जनता  के लिए  भोग-सुख  का अस्वीकार  कोई  समाधान  नहीं हो सकता।  

फिर तपस्वी रहना  भी कोई उत्तर  नहीं  हो  सकता। समाधान तो  अपनी  सुख की  प्रेरणा को धीरे-धीरे संस्कारित  करने  में  तथा  अपने  यथार्थ  स्वरूप  को पहचानने  में  है। समाधान इसमें है कि हम जान  लें इस सुख की प्रेरणा को आत्म  उत्थान में  कैसे  लगाया  जाय।  यहाँ पर  कुछ  स्पष्टीकरण  की  आवश्यकता होगी।     

यहाँ  पर  स्पष्ट  कर  देना  उचित  होगा कि  हम  ऐसी  सामान्य  समस्या  पर विचार  कर  रहे हैं  जो  नौसिखियों के  सामने आती  है  , जो  दुनियादार  हैं  पर  अध्यात्म  के  पथ  पर चलने की इच्छा  रखते हैं।  जो  आगे  बढे  हुए  साधक हैं, उनके लिए  यहाँ पर  विवेच्य  कुछ  बातें  लागू  नहीं होंगी।  वे जान  पाएंगे  कि  वो  बातें  कौन सी हैं।  उदाहरणार्थ, मर्यादित  इन्दिरा – भूखों का उपभोग  उस  साधारण  व्यक्ति  के  लिए तो  ठीक है जिसे आध्यात्मिक जीवन  में  शुरुआत  करनी  है,  लेकिन  उसके  लिए  ठीक  नहीं है जो  कुछ  कदम  आगे बढ़ चुका है। जिसके स्वभाव में सुख-भोग  की  लालसा  विशेष रूप से  बनी  हुई है, उससे  कहना  कि ‘सुखभोग की  स्पृहा त्यागो ‘ , कोई  व्यवहारिक  बात  नहीं  होगी।  भारत  के  ऋषि- मुनि सत्य के  द्रष्टा  तो  थे ही,  साथ  ही  वे  मानव – मनोविज्ञान के भी सुरक्षित ज्ञाता  थे तथा  करुणावान्  उपदेशक  थे। इस  विषय  पर उन्होंने  जो  शिक्षा  दी, उसे  कुछ  शब्दों में  यों  रखा  जा  सकता है —यदि  सुख  की  चाह है  तो  उसका  भोग  करो , पर  ख्याल  रखो  कि तुम्हारा शारीरिक या  मानसिक स्वास्थ्य नष्ट न  हो  पाये ,  तुम्हारा  आत्मिक  विकास रुक  न पाये। यदि  शारीरिक सुख  तुम्हें  चाहिए  ही  , तो इस प्रकार  उनका  भोग करो  जिससे  मानसिक  सुख  के  उपभोग  की  क्षमता तुममें  बनी  रहे।  मानसिक सुखों का भोग  इस  प्रकार करो  कि  आत्मा  के सुख  को  प्राप्त  करने  की तुम्हारी  शक्ति  सुरक्षित  रहे। सुख के  पीछे  इस प्रकार  न दौड़ो कि वह तुम्हें ही नष्ट कर दे। विचारवान  व्यक्तियों  को यह  बात  सारवान  मालूम पडेगी।  मन:संयम में  सहायक  जितने  नैतिक नियम हैं , वे  इसलिए  बनाये  गये  हैं  कि मनुष्य स्वयं अपनी  हानि करने  से  अपने  को बचा सके। इस  प्रकार  वे  उसी  का  सर्वोच्च हित- साधन  करते हैं। 

सर्वप्रथम उच्छृंखल  ऐन्द्रिय सुख  की  लालसा  को  आत्मविकास के चौखटे में  बिठाकर  पालतू  बनाना  पड़ता है, तब  कहीं  उसके  उन्नयन की पारी  आती है। यहाँ पर ‘उन्नयन’  से हमारा क्या  तात्पर्य है?  श्रीरामकृष्ण  उपदेश  देते हैं : आनन्द  तीन  प्रकार के  होते  हैं;  विषयानन्द  , भजनानन्द  और ब्रहमानन्द।  जिसमें  लोग  सदा  ही  लिप्त  रहते  हैं ,जो कामिनी  और  कानून का आनन्द है, उसे  विषयानन्द  कहते हैं।  ईश्वर  के  नाम  और  गुणों  का  गान  करने  से  जो आनन्द मिलता है, उसका नाम  है भजनानन्द और  ईश्वर के  दर्शन में जो आनन्द है, उसका  नाम  है  ब्रह्मानन्द। ब्रह्मानन्द को  प्राप्त  करके  ऋषि स्वेच्छा – विहारी हो जाते थे।   

उन्नयन का अर्थ है  उपर्युक्त  आनन्द के स्तरों में  नीचे  के  स्तर  से  ऊपर के स्तर में जाना। हमें  ध्यान  रखना चाहिए कि ब्रह्मानन्द की  प्राप्ति  मात्र सैद्धांतिक नहीं है  बल्कि  वास्तविक है। इस  सत्य  पर दृढ़  विशवास  , सुख  लालसा के उन्नयन  के लिए आवश्यक है। यदि आवश्यक ही है तो विषयानन्द  खोजो , पर  इस प्रकार कि  जिससे  वह  भजनानन्द की  प्राप्ति  में बाधक  न  हो जाय।  विवेक के  अभ्यास  के द्वारा  यह  कार्य  सध  सकता है। विषयानन्द  का  भोग करते  समय  विवेक  से काम  लो।  भगवान कृष्ण  ‘ गीता ‘  में हमें  सिखाते  हैं  तथा अनुभव  भी  यह  बताता है कि  समस्त  स्पर्शजन्य सुख दुख को  जन्म  देता  है।  विषयानन्द का  उपभोग  करते  समय  इसका स्मरण  रखना  भी विवेक के अभ्यास  को  दृढ़ करेगा।  तब मनुष्य के लिए नैतिक  नियमों  की  सीमा  के  भीतर  रहकर  विषयानन्द का भोग करना सहज  होगा। यह  सीमा  इसलिए  निर्धारित की  गयी है कि  मनुष्य  सर्वोच्च आनन्द  के भोग के लिए  अपने  को  बचाकर रख  सके।  इसके  साथ- साथ वह  ऐसी उपयुक्त  साधना  -प्रणाली में  अपने  को लगाये  रक्खे  जो भजनानन्द  के अनुकूल हो। ज्यों – ज्यों  उसका  मन  अधिकाधिक  पवित्र  होता  जायगा ,  त्यों – त्यों विषयानन्द में  उसकी  रुचि  कम  होती  जाएगी  और भजनानन्द  में  उसकी  प्रवृत्ति  उसी  अनुपात में बढ़  जाएगी।   

अन्त  में  उसके  जीवन  में एक दिन  ऐसा  आएगा  जब  भजनानन्द भी  उसे  फीका  मालूम  पड़ने  लगेगा  और वह उसे त्यागकर  परमात्मा  का  खोजी  बन  जाएगा।  ईश्वर  की खोज  से मिलनेवाले  लाभ  की  खोज  करना  एक बात  है,  और  ईश्वर की  स्वयं उन्हीं  को  पाने  की  इच्छा से खोज  करना बिल्कुल  भिन्न  बात है ,  फिर  लाभ  हो  या  न  हो। जब  साधक का भीतरी  विकास इतना हो  जाय कि वह परमात्मा को  केवल  उन्हीं को  पाने के  उद्देश्य से  खोजे  ,  जब  ईश्वर  की खोज  के  पीछे  उसका  तनिक  भी  दूसरा  उद्देश्य  न  हो, तब उसकी  सुख – भोग  की  लालसा  का  उदात्तीकरण  हो  जाता है  और  इससे  उसके पूर्ण  मनोनिग्रह में  सहायता  मिलती है।

क्रमशः जारी भाग 2 

जय गुरुदेव  

कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को  ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से  चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।


Leave a comment