वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

स्वामी रामतीर्थ की शिक्षा “आनंद क्या है” पार्ट 2 

10 अगस्त  2021 का ज्ञानप्रसाद – स्वामी रामतीर्थ की शिक्षा “आनंद क्या है” पार्ट 2 

लेख आरम्भ करने से पहले हम प्रमोद कुमार जी की निष्ठा और अनुशासन पर नतमस्तक हैं। ऐसे सहकर्मी हों तो हमें आपसे स्नेह और प्यार क्यों न हो। उन्होंने लिखा है “कल से मर्चेंट नेवी में ज्वाइन करने के कारण उनकी नियमितता नहीं बन पायेगी क्योंकि जहाज पर इंटरनेट नहीं होगा “ उन्होंने क्षमा व्यक्त की है। धन्यवाद् प्रमोद जी। हम सभी ऑनलाइन ज्ञानरथ के स्तम्भों की पालना तो करते ही आ रहे हैं, साथ में सम्पर्क साधना में भी अपना योगदान दे रहे हैं। हम आशा करते हैं सम्पर्क-स्नेह बना ही रहे, न कि एकदम दृष्टि से ओझल हो जाएँ ,उड़नछू हो जाएँ।

तो आइये चलें साथ -साथ लेख की ओर :

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पिता के  द्वारा पढाई  की फीस देने से मना कर देने पर  ट्युशन पढ़ा कर अपने स्कूल की  फीस, व रहने खाने का भार  स्वयं निर्वहन किया।  खाने के खर्च को एक आना अर्थात  छह पैसे में ही दोनों समय का भोजन होटल वाले से कहकर कर लिया करते थे। कुछ दिनों तक तो होटल वाले ने यह दया  दिखाई  कि   तीन पैसे में  शाम के भोजन  की वयवस्था  चलने दिया रोटी और दाल-सब्जी परन्तु एक दिन मना कर दिया। होटल वाले ने  कहा ,”  ऐ लड़के !   देख , अबतक तीन पैसे में तुझे  रोटी मिलती थी  और दाल  मुफ्त में मिल जाया करती थी पर अब  दाल के भी  पैसे तुझे देने पड़ेंगे। तब तीर्थराम ( सन्यास  लेने के पहले का नाम) ने    तीन पैसे में से  दो पैसे की रोटी  और एक पैसे की दाल  लेकर  कुछ दिन तक  काम चलाया।   जब  महंगाई  बढी तो होटल वाले ने  कम पैसे में भोजन  देने से मनाकर दिया।  उस समय तब तीर्थराम ने पांच पैसे में एक ही  समय भोजन करके काम चलाया परन्तु  अपने ऊपर का खर्च, बजट नहीं बढ़ाया।  कभी-कभी तो कालेज में अपने साथियों द्वारा  ध्यान  दिलाए जाने पर  अपने पैरों  की चप्पलों  को  देखते  कि  एक पैर  में एक चप्पल है  तो  दूसरी पैर में  दूसरी  तरह  की  चप्पल। एक तरफ पढाई की धुन और  लगन और दूसरी तरफ आर्थिक अभाव।   दोनों तरफ का  संघर्ष जारी रहा. …….लेकिन  जब  परीक्षा फल आया तो  एम. ए.  की परीक्षा में गणित  विषय में  प्रथम श्रेणी से पूरे कालेज में टाप किया।  यह   देखकर पढ़ाने वाले   प्राध्यापकों ने उसी कालेज  में गणित के प्रोफेसर बनकर पढ़ाने  की बात  रख दी जिसे  तीर्थराम ने  स्वीकार कर लिया। आर्थिक अभाव  दूर हो गया।  कुछ वर्षों बाद  ही  लाहौर में  विश्व विजय करके भारत  लौटे  स्वामी विवेकानंद का आगमन  हुआ , व्याख्यान हुआ, सुनकर  तीर्थराम  का मन स्वामी विवेकानंद जी से मिलने को हुआ। जब उनसे मिले  तो  स्वामी  विवेकानंद ने  वेदांत  को जीवन में धारण करके  सन्यासी बनने की प्रेरणा  भरी  और भारतीय सस्कृति  के विस्तार में जीवन लगा दिया। 

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विदेश से वापसी

स्वदेश लौटने पर लोगों ने राम से अपना एक समाज खोलने का आग्रह किया। राम ने बाँहें फैलाकर कहा, “भारत में जितनी सभा समाजें हैं, सब राम की अपनी हैं। राम मत की एकता के लिए है, मतभेद के लिए नहीं; देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की, राष्ट्रधर्म और विज्ञान साधना की, संयम और ब्रह्मचर्य की। उनकी दृष्टि में सारा संसार केवल एक आत्मा का ही खेल था। जिस शक्ति से हम बोलते हैं, उसी शक्ति से पेट  में अन्न पचता है। उनमें कोई अंतर नहीं। जो शक्ति एक शरीर में है, वही सब शरीरों में भी है। उनका मानना था कि मनुष्यों की भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं। कोई मनुष्य अपने परिवार से, कोई जाति से, कोई समाज से तो कोई संप्रदाय से घिरा हुआ है, बँधा हुआ है। कोई मनुष्य सिर्फ स्वयं के बारे में सोचता है, स्वयं का भला चाहता है, कोई परिवार के बारे में सोचता है, कोई सिर्फ अपने ही समाज व संप्रदाय के बारे में सोचता है, पर सच्चा मनुष्य तो वही है  जो सबके  हित में सोचता है, जो समस्त सृष्टि  को भगवान का प्रतिरूप मानकर सबको अपना ही मानता है और सबके सुख, सौभाग्य व कल्याण की भावना रखता है।” तंगदिली ,नीचता ,क्षुद्रता के कारण व्यक्ति को अपने घेरे के भीतर के लोग, समाज, संप्रदाय अनुकूल लगते हैं और घेरे से बाहर के लोग, समाज व संप्रदाय प्रतिकूल लगते हैं। यही नीचता  अनर्थों की जड़ है। प्रकृति में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं। अस्तु अपनी सहानुभूति के घेरे भी फैलाने चाहिए। इसी से आत्मविस्तार संभव है। सच्चा मनुष्य वही है जो देशमय होने के साथ-साथ विश्वमय भी हो जाता है। इसमें नुकसान कुछ भी नहीं, वरन लाभ-ही-लाभ है। यह प्रकृति के भी अनुकूल है। यह वेदांत के भी अनुकूल है। वे कहते थे कि इसमें अपनी संकीर्णता का अंत भी है और अपना ही आत्मविस्तार भी है।इसी  में आनंद है, परमानंद है, ब्रह्मानंद है। हमें हर पल यह स्मरण रहना ही चाहिए कि “आनंद ही जीवन का परम लक्ष्य है। आनंद की खोज में, चाह में, हम जन्म से मरणपर्यंत भटकते फिरते हैं। कभी किसी वस्तु में सुख ढूँढ़ते हैं तो कभी किसी व्यक्ति में, पर आनंद का स्रोत तो हमारी आत्मा ही है। जो अपने सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा” को भुला  कर उस आनंद से परे  है, वही वास्तव में दास है, गुलाम है , शाश्वत सुख व आनंद से वंचित है। शाश्वत का अर्थ होता है जो कभी ना खत्म हो या जिसे कभी कोई मिटा ना सके।अतः आनंद पाने के लिए हमें अपनी आत्मा की ही उपासना करनी चाहिए। स्वामी रामतीर्थ का यह जीवन संदेश हम सबके लिए अत्यंत प्रेरणादायी है।रामतीर्थ के जीवन का प्रत्येक पक्ष आदर्शमय था वे एक आदर्श विद्यार्थी, आदर्श गणितज्ञ, अनुपम समाज-सुधारक व देशभक्त, दार्शनिक कवि और प्रज्ञावान सन्त थे। राम तीर्थ पब्लिकेशन लीग ने भारत के इस महान संत के अधिकांश लेखन को प्रकाशित किया है। उन्हें कई खंडों में दिया गया है, जिसका शीर्षक है,In Woods of God-Realization भारत के  भविष्य के लिए स्वामी राम तीर्थ द्वारा की गई एक महत्वपूर्ण भविष्यवाणी शिव झावर की पुस्तक Building a Noble World में की गई है। शिव झावर भारती -अमरीकी लेखक हैं।  राम तीर्थ ने भविष्यवाणी की: “जापान के बाद, चीन बढ़ेगा और समृद्धि और ताकत हासिल करेगा। चीन के बाद भारत पर फिर से समृद्धि और विद्या का सूरज मुस्कुराएगा।”

आइये आनंद के बारे में  थोड़ी और चर्चा कर लें। शायद ऑनलाइन ज्ञानरथ का अनवरत प्रयास हर घर में ,हर परिवार में सुख शांति “ में कुछ प्रतिशत सफलता मिल सके। 

इस संसार का सबसे बड़ा आकर्षण “आनन्द” है। जिसमें जिसको आनंद  प्रतीत होता है वह उसी की  ओर दौड़ता है। व्यभिचारियो को वेश्यालयों में ही स्वर्गसुख का आनन्द मिलता है। शराबी अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं। गरीब रूखे-सूखे भोजन मे षट्-रस व्यंजनों जैसा स्वाद और आनन्द लेते हैं। मजदूरों का तो कहना ही क्या। दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद जब चारपाई पर पड़ते हैं  तो सुख की नींद  में ऐसे खो जाते हैं  मानो उससे बढ़कर उनके लिए कदाचित ही कोई दूसरा सुख हो। इसी प्रकार वैज्ञानिक, कलाकार, कृषक, संगीतकार सभी को अपने-अपने क्षेत्रों में अदभुत रस मिलता है।लेकिन  इसे अनंत नहीं कहा जा सकता है। देखा गया है यदि किसी मनुष्य  को किसी क्षेत्र में  सुख की अनुभूति हो रही है  तो कुछ ही समय बाद  वह क्षेत्र  उसे फीका और dull  प्रतीत होने लगता है और उसकी  रस की खोज, आनंद की खोज किसी  और दिशा की तरफ  चल पड़ती है। दिव्य आनंद, परम-आनन्द ( Divine  Happiness ) की प्रकृति ऐसी नहीं है । उसमे नीरसता  जैसी शिकायत नहीं होती। यह एक ऐसा आनंद होता है  जिस में से मनुष्य  बाहर आना ही नहीं चाहता, किन्तु सांसारिक क्रिया-कलापो के कारण  उसे हठपूर्वक बाहर जाना पड़ता है।  ऐसी स्थिति में आत्मा को स्वर्ग की , मुक्ति की और  समाधि जैसे आनंदों  की प्रतीक्षा  रहती है। आनन्द variation  से प्रेम का दूसरा नाम है। Variation /change प्रकृति का अटल नियम तो है ही, लेकिन मानव भी बदलाव में ही आनंद अनुभव करता है।  एक ही दाल -सब्जी खाने से ,एक ही गाड़ी चलाने से ,एक ही घर में रहने से -मनुष्य ऊब जाता है। 

जिस भी वस्तु, व्यक्ति एवं प्रवृत्ति से प्रेम हो जाता है वहीं प्रिय लगने लगती है। प्रेम घटते ही निंदा  चल पड़ती है और यदि उसका रुझान द्वेष  की ओर चल पड़े, तो फिर वही  वस्तु या व्यक्ति के रूपवान, गुणवान होने के बावजूद वे बुरे लगने लगते हैं। उनसे दूर हटने या हटा देने की इच्छा होती है। अँधेरे मे जितने स्थान पर टार्च की रोशनी पड़ती है उतना ही स्थान  प्रकाशवान होता  है। प्रेम को ऐसा ही टार्च-प्रकाश कहना चाहिए जिसे जहाँ भी फेंका  जायेगा, वही सुन्दर, प्रिय एवं सुखद लगने लगेगा। वैसे इस संसार मे कोई भी पदार्थ या प्राणी अपने मूल रूप मे प्रिय या अप्रिय  है ही नहीं। यह केवल  हमारे दृष्टिकोण का ही खेल है ,हमारे  मूल्यांकन का खेल है। हमारा मन ही आनन्ददायक,अप्रिय,कुरूप जैसे ताने बाने बनता रहता है। आज कोई हमें बहुत प्रिय लगता है ,वही कुछ दिन बाद हमारा सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है  प्रेम को परमेश्वर कहा गया है,  ईश्वर ही आनन्द है। ईश्वर से प्रेम करके ही  हम सुख की अनुभूति करते हैं और प्रसन्न होते हैं । यह स्पष्टतः जानना चाहिए कि परब्रह्म के अनेकानेक नाम हैं और सच्चिदानन्द्  उनमे से ही एक नाम है जिसमें  तीन गुणों का  समन्वय  है और वह तीन गुण   हैं सत -चित -आनंद। सत् का अर्थ है- टिकाऊ, न बदलने वाला, न समाप्त होने वाला। चित् का अर्थ है – चेतना। हमारी विचारधारा, जानकारी, मान्यता, भावना आदि और आनंद तो आनंद ही है। 

धन्यवाद् जय गुरुदेव


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