वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

तप शक्ति के कुछ और उदाहरण

17 जुलाई 2021 का ज्ञानप्रसाद – तप शक्ति के कुछ और उदाहरण

पिछले लेख में हमने परमपूज्य गुरुदेव द्वारा दिया गया तपशक्ति का विवरण आपके समक्ष रखा।  आदरणीय शुक्ला भाई साहिब और सविंदर भाई साहिब का वृक्षारोपण अभियान में सभी आत्माओं  को प्रेरित करना ,छोटे छोटे बच्चों का अपनी  व्यस्त दिनचर्या में से  समय निकाल कर अनवरत  सहकारिता करना, रेणुका गंजीर बहिन जी का  गर्भसंस्कार प्रोग्राम से शिक्षित करना, संजना बेटी का अपनी कविताओं /वीडियो /चित्रकारी से प्रेरित करना ,प्रेरणा -पिंकी-धीरप बेटे – बेटियों का सहयोग देना , क्या यह सब किसी तप से कम है -बिल्कुल नहीं। और क्या हम इन प्रयासों से  शक्ति प्राप्त कर रहे हैं -अवश्य ही कर रहे हैं  । जितनी शुभकामनायें और आशीर्वाद हम सबको मिल रही हैं यह शक्ति ही तो है। प्रज्ञा बहिन जी ने तो हम सबको बहुत ही  बड़ा आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया है -”हमारी आयु आपको लगे” धन्यवाद बहिन जी।  तो यह है तपशक्ति का बल। इसी शक्ति पर आधारित है आज का ज्ञानप्रसाद।  कुछ और उदाहरण देकर तप शक्ति की validity को और भी अधिक परिपक्व करने का प्रयास करेंगें। लेख आरम्भ करने से पहले हम सूचित करना चाहेगें कि रविवार को अवकाश रहेगा और सोमवार का ज्ञानप्रसाद हमारी संजना बेटी की प्रकृति पर  लगभग 3 मिंट की वीडियो होगी। 23  जून वाली वीडियो को जितना प्यार आपने दिया उससे कहीं अधिक देने का हम सब संकल्प लेते हैं।  युवा- शक्ति, भविष्य- शक्ति, विश्व -शक्ति को नमन। 

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साधारण अन्न और दाल-सब्ज़ी  जो कच्चे रूप में न तो सुपाच्य होते हैं और न स्वादिष्ट। वे ही अग्नि संस्कार से पकाये जाने पर सुरुचि पूर्ण व्यंजनों का रूप धारण कर लेते हैं। धोबी की भट्टी में चढ़ने पर मैले-कुचैले कपड़े निर्मल एवं स्वच्छ बन जाते हैं। पेट की पाचन-अग्नि  द्वारा पचाया हुआ अन्न ही रक्त का रूप धारण कर हमारे शरीर का भाग बनता है। यदि यह अग्नि संस्कार की, तप की प्रक्रिया बन्द हो जाय तो निश्चित रूप से विकास का सारा क्रम ही बन्द हो जायगा।

प्रकृति तपती है तो  सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चलती  है। जीव तपता है तो उसके अन्तराल में छिपे हुए पुरुषार्थ, पराक्रम, साहस, उत्साह, उल्लास, ज्ञान, विज्ञान प्रकृति रत्नों की श्रृंखला उभर कर बाहिर आती है। माता अपने अण्ड एवं गर्भ को अपनी पेट की  गर्मी  से पका कर शिशु का  प्रसव करती है। जिन जीवों में  मूर्च्छित स्थिति से ऊंचे उठने की, खाने-सोने से कुछ अधिक करने की आकांक्षा की है, उन्हें तप करना पड़ा है। संसार में अनेकों पराक्रमी  इतिहास के पृष्ठों पर अपनी छाप छोड़ने वाले महापुरुष  हैं जिन्हे   किसी न किसी रूप में अपने-अपने ढंग का तप करना पड़ा है। किसान , विद्यार्थी, मेहनतकश , वैज्ञानिक, शासक, विद्वान, उद्योगी, कारीगर आदि सभी महत्वपूर्ण  व्यक्ति तभी   बन सके  जिन्होंने कठोर श्रम एवं तपश्चर्या की नीति को अपनाया है। यदि इन लोगों ने आलस्य, प्रमाद अकर्मण्यता, शिथिलता एवं विलासिता की नीति अपनाई होती तो वे कदापि उस स्थान पर न पहुंच पाते  जहाँ पर वह  अपने जीवन को कष्टदायी  बनाकर पहुंचे। 

सभी पुरुषार्थों में आध्यात्मिक पुरुषार्थ का मूल्य और महत्व अधिक है  ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि सामान्य सम्पत्ति की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति सम्पदा की महत्ता अधिक है। धन, बुद्धि, बल आदि के आधार पर अनेकों व्यक्ति उन्नतिशील, सुखी एवं सम्मानित बनते हैं पर उन सबसे अनेकों गुना महत्व वे लोग प्राप्त करते हैं जिन्होंने आध्यात्मिक बल का संग्रह किया है। पीतल और सोने में, कांच और रत्न में जो अन्तर है वही अन्तर सांसारिक सम्पत्ति एवं आध्यात्मिक सम्पदा” के बीच में भी है। इस संसार में धनी, सेठ, अमीर, गुणी, विद्वान  बहुत हैं पर उनकी तुलना उन महात्माओं के साथ नहीं हो सकती जिन्होंने  अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ के द्वारा अपना ही नहीं सारे संसार का कल्याण  किया। प्राचीनकाल में सभी समझदार लोग अपने बच्चों को जीवन के कष्ट सहने योग्य बनाने के लिए  एवं तपस्वी बनाने के लिये छोटी आयु में ही गुरुकुलों में भर्ती करा देते थे ताकि आगे चलकर वे कठोर जीवन यापन करके महापुरुषों की महानता के अधिकारी बन सकें।

संसार में जब भी  कभी कोई महान कार्य सम्पन्न हुए हैं तो उनके पीछे तपश्चर्या की शक्ति” अवश्य रही है। हमारा देश देवताओं और नररत्नों का देश रहा है। यह भारतभूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है।   संस्कृत के इन दो शब्दों का अर्थ है कि  मातृ भूमि/जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।  ज्ञान, पराक्रम और सम्पदा की दृष्टि से यह राष्ट्र सदा से विश्व का मुकुटमणि रहा है। उन्नति के इस उच्च शिखर पर पहुंचने का कारण यहां के निवासियों की प्रचण्ड तप निष्ठा ही रही है, आलसी और विलासी, स्वार्थी और लोभी लोगों को यहां सदा से घृणित एवं घटिया   श्रेणी का जीव माना जाता रहा है। तप शक्ति की महत्ता को यहां के निवासियों ने पहचाना, उसके उपार्जन में पूरी तत्परता दिखाई तभी यह संभव हो सका कि “भारत को जगद्गुरु”, चक्रवर्ती शासक एवं सम्पदाओं के स्वामी होने का इतना ऊंचा गौरव प्राप्त हुआ।

पिछले इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत बहुमुखी विकास तपश्चर्या पर आधारित एवं अवलंबित रहा है। सृष्टि के उत्पन्न कर्ता प्रजापति ब्रह्माजी के सृष्टि निर्माण के पूर्व विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पुष्प पर अवस्थित होकर सौ वर्षों तक गायत्री उपासना के आधार पर तप किया तभी उन्हें सृष्टि निर्माण एवं ज्ञान विज्ञान के उत्पादन की शक्ति उपलब्ध हुई। भगवान मनु ने अपनी रानी शतरूपा के साथ प्रचण्ड तप करने के पश्चात् ही अपना महत्व पूर्ण उत्तरदायित्व पूर्ण किया था, भगवान शंकर स्वयं तप रूप हैं। उनका प्रधान कार्यक्रम सदा से तप साधना ही रहा। शेष जी तप के बल पर ही इस पृथ्वी को अपने शीश पर धारण किए हुए हैं। सप्त ऋषियों ने इसी मार्ग पर दीर्घ काल तक चलते रह कर वह सिद्धि प्राप्त की जिससे सदा उनका नाम अजर अमर रहेगा। देवताओं के गुरु बृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्राचार्य अपने-अपने शिष्यों के कल्याण मार्ग दर्शन और सफलता की साधना अपनी तप शक्ति के आधार पर ही करते रहे हैं।

नई सृष्टि रच डालने वाले विश्वामित्र की, रघुवंशी राजाओं का अनेक पीढ़ियों तक मार्गदर्शन करने वाले वशिष्ठ की क्षमता तथा साधना इसी में ही अन्तर्हित थी। एक बार राजा विश्वामित्र जब वन में अपनी सेना को लेकर पहुंचे तो वशिष्ठजी ने कुछ सामान न होने पर भी सारी सेना का समुचित आतिथ्य कर दिखाया तो विश्वामित्र दंग रह गये। किसी प्रसंग को लेकर जब निहत्थे वशिष्ठ और विशाल सेना सम्पन्न विश्वामित्र में युद्ध ठन गया तो तपस्वी वशिष्ठ के सामने राजा विश्वामित्र को परास्त ही होना पड़ा। उन्होंने “धिग् बलं आश्रम बलं ब्रह्म तेजो बलं बलम् ।” की घोषणा करते हुए राजपाट छोड़ दिया और सबसे महत्वपूर्ण शक्ति की तपश्चर्या के लिए शेष जीवन समर्पित कर दिया।

अपने नरक गामी पूर्व पुरुषों का उद्धार करने तथा प्यासी पृथ्वी को जलपूर्ण करके जन-समाज का कल्याण करने के लिए गंगावतरण की आवश्यकता थी। इस महान उद्देश्य की पूर्ति लौकिक पुरुषार्थ से नहीं वरन् तपशक्ति से ही सम्भव थी। भागीरथ कठोर तप करने के लिये वन को गये और अपनी साधना से प्रभावित कर गंगा जी को भूलोक में लाने एवं शिवजी को उन्हें अपनी जटाओं में धारण करने के लिए तैयार कर लिया। यह कार्य साधारण प्रक्रिया से सम्पन्न न होने वाले थे ,तप ने ही उन्हें सम्भव बनाया। च्यवन ऋषि इतना कठोर दीर्घ-कालीन तप कर रहे थे कि उनके सारे शरीर पर दीमक ने अपना घर बना लिया था और उनका शरीर एक मिट्टी के टीला जैसा बन गया था। राजकुमारी सुकन्या को दो छेदों में से दो चमकदार चीजें दीखीं और उनमें उसने कांटे चुभो दिए। यह चमकदार चीजें और कुछ नहीं च्यवन ऋषि की आंखें थीं। च्यवन ऋषि को इतनी कठोर तपस्या इसीलिए करनी पड़ी कि वे अपनी अन्तरात्मा में सन्निहित शक्ति केन्द्रों को जागृत करके परमात्मा के अक्षय शक्ति भण्डार में भागीदार मिलने की अपनी योग्यता सिद्ध कर सकें।

तपस्वी ध्रुव ने कुछ भी खोया  नहीं। यदि वे साधारण राजकुमार की तरह मौज का जीवन यापन करता तो समस्त ब्रह्माण्ड का केन्द्र बिन्दु ध्रुवतारा बनने और अपनी कीर्ति को अमर बनाने का लाभ उसे प्राप्त न हो सका होता। उस जीवन में भी उसे जितना विशाल राज-पाट मिला उतना अपने पिता की अधिक से अधिक कृपा प्राप्त होने पर भी उसे उपलब्ध न हुआ होता। पृथ्वी पर बिखरे अन्न कणों को बीन कर अपना निर्वाह करने वाले कणाद ऋषि, वट वृक्ष के दूध पर गुजारा करने वाले बाल्मीकि ऋषि भौतिक विलासिता से वंचित रहे पर इसके बदले में जो कुछ पाया वह बड़ी से बड़ी सम्पदा से कम न था। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने अपने काल की लोक दुर्गति को मिटाने के लिए तपस्या को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में योग्य किया। व्यापक हिंसा और असुरता के वातावरण को दया और अहिंसा  के रूप में परिवर्तित कर दिया। 

दुष्टता को हटाने के लिये यों तो अस्त्र-शस्त्रों का मार्ग सरल समझा जाता है लेकिन  सेना एवं आयुधों की सहायता से वह  नहीं प्राप्त किया जा सकता जो तपोबल से। सम्पूर्ण  पृथ्वी से  अत्याचारी शासकों का खत्म  करने के लिए परशुरामजी का फरसा अभूतपूर्व अस्त्र सिद्ध हआ। उसी की सहायता से  उन्होंने बड़े-बड़े राजाओं को परास्त करके 21 बार पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया। देवता जब किसी प्रकार असुरों को परास्त न कर सके, लगातार हारते ही गये तो तपस्वी दधीचि की तेजस्वी हड्डियों का वज्र प्राप्त कर इन्द्र से देवताओं की नाव को पार लगाया।

यह पौराणिक युग के कुछ एक उदाहरण हैं, इनके इलावा  और कितने ही अनगिनत हैं जिनसे इतिहास भरा पड़ा है। लेख की लंबाई को देखते हुए  उन सभी का वर्णन करना मुमकिन नहीं है  

वर्तमान युग में महात्मा गांधी, सन्त विनोबा, ऋषि दयानन्द, मीरा, कबीर, दादू, तुलसीदास, सूरदास, रैदास, अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ आदि आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जो कार्य किए गये हैं वे साधारण भौतिक पुरुषार्थी द्वारा पूरे किए जाने  सम्भव नहीं  थे। हमारे परमपूज्य गुरुदेव ने  भी अपने जीवन के आरम्भ से ही  तपश्चर्या का कार्य अपनाया है। उनके  पहले तीन जन्मों की  कथा भी  हम सभी को मालुम  है , उन जन्मों में भी परमपूज्य गुरुदेव एक तपस्वी का जीवन व्यतीत कर गए। 

जय गुरुदेव   

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं  कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव


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