वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

पूज्य गुरुदेव का आदर्श  दाम्पत्य जीवन 

26 मार्च 2021 का ज्ञानप्रदसाद 

स्नेहिल आत्मस्वरूप  ऑनलाइन ज्ञानरथ परिजनों को ह्रदय से नमन, सुप्रभात एवं शुभदिन। हर लेख लिखते समय  हमारा यही प्रयास रहता है कि जैसे-जैसे हमारे परिजन लेख पढ़ते  जाएँ उन्हें आभास होता जाये  कि वह उसी स्थान पर ,उसी वातावरण में हमारे साथ ,गुरुदेव के साथ -साथ चल रहे हैं।  इसीलिए हमारे लेख के साथ एक चित्र भी लगा होता है जिससे आपको ,उन परिजनों को जिन्हे  शांतिकुंज,मथुरा तपोभूमि एवं जन्मभूमि आंवलखेड़ा में जाने का सौभाग्य न प्राप्त हो सका, हमारे लेखों द्वारा इस पावन ,पवित्र वातावरण  को हृदयंगम कर सकें।  आखिर सारा  चक्र ह्रदय का ही तो है, ह्रदय से उस परमपिता परमात्मा को पुकारें तो भगवान  भागते हुए आयेंगें। द्रौपदी चीरहरण के समय जब भगवान कृष्ण से द्रौपदी ने प्रश्न किया कि मैं तो कितनी देर से फरियाद कर रही थी आपने इतनी देर क्यों लगा दी ,तो भगवान ने यही तो कहा  था ,”तुमने ह्रदय से अभी तो बुलाया है “ 

मित्रो आज के लेख में गुरुदेव के आदर्श  दाम्पत्य जीवन  का एक उदाहरण है।  यह चर्चा उस अखंड ज्योति संस्थान वाली बिल्डिंग की है जहाँ गुरुदेव ने अपने परिवार सहित लगभग 30  वर्ष व्यतीत किये।  दादा गुरु के निर्देश अनुसार आंवलखेड़ा से  मथुरा आने पर  गुरुदेव  इस  भूतों वाली बिल्डिंग में आने से पूर्व किसी और मकान  में रहे लेकिन वहां जगह कम होने के कारण इस 15 कमरों वाली बिल्डिंग में शिफ्ट हुए थे। इस विवरण को हम अधिक आगे नहीं लेकर जाना चाहते क्योंकि लेख लम्बा हो जाता है और हमें अपने परिजनों के समय का  ख्याल भी रखना होता है। 

दूसरी चर्चा ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान  की है ,जो  गायत्री तीर्थ शांतिकुंज के बिल्कुल पास है।  जैसा कि लेख में भी विवरण है  उन दिनों शांतिकुंज में आवास की इतनी व्यवस्था नहीं थी तो ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में ही आवास थे।  अब तो शांतिकुंज में दो दर्जन से अधिक तो आवास घर ही हैं।  दो  अत्यंत आधुनिक आवास बिल्डिंग तो केवल विदेशी परिजनों के लिए हैं। 

आज के लेख में कुछ चर्चा शांतिकुंज भी हैं। 

हर बार की तरह आज भी हम आग्रह करेंगें कि परिजन हमारे चैनल पर विस्तृत videos  देख लें  और लेख को और भी हृदयंगम कर लें।     

पूज्य गुरुदेव का आदर्श  दाम्पत्य जीवन 

गुरुजी माताजी का दाम्पत्य जीवन एक आदर्श दाम्पत्य जीवन था। हर एक के लिये प्रेरणा देता हुआ कि परस्पर एक दूसरे का सहयोग ही जीवन के बड़े उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होता है। इसी में जीवन का असली आनंद है। परिजन तो बताते ही हैं, पर माताजी भी गोष्ठियों में बताया करती थीं कि मथुरा में प्रारंभ के दिनों में जब माताजी सबको भोजन आदि कराकर बरतन साफ करने बैठतीं तो गुरुजी भी उनकी मदद करने लगते। तब माताजी उन्हें कहतीं, “आचार्य जी, आप रहने दीजिये।” 

इस पर गुरुजी कहते, 

“माताजी, हमारे बच्चे कैसे सीखेंगे कि पत्नी का सहयोग कैसे करना चाहिये?”

गुरुजी कभी- कभी गोष्ठी में कहते, 

“बेटा, दाम्पत्य जीवन कैसा होना चाहिये, इसे हमारे जीवन से सीखना।”

माताजी की आँख का आप्रेशन हुआ था। मैं माताजी से मिलने गई। उस समय लगभग 11 बज रहे थे। गुरुजी उन दिनों सूक्ष्मीकरण साधना में थे। गुरुजी भी माताजी को देखने आये थे। मुझे पता नहीं था कि गुरुजी  माताजी के पास बैठे हैं। दरवाजा हल्का सा खुला था। मैं जैसे ही भीतर जाने लगी देखा, गुरुजी, माताजी के पास बैठे हैं। मैं पीछे हट गई। गुरुजी के दर्शनों का लोभ करके मैं बाहर ही खड़ी रही, लौटी नहीं। मैंने देखा वे माताजी का हाथ थाम कर बैठे हैं। लगभग एक घण्टा गुरुजी,माताजी का हाथ कर बैठे रहे पर दोनों में बातचीत कुछ भी नहीं हुई। 

माताजी अक्सर गुरुजी को याद कर प्रवचन में बताया करती थीं, 

“बेटा, दिन भर काम करके थक कर जब मैं ऊपर जाती तो गुरुजी पानी का गिलास भर कर रखते और सीढ़ियों के मध्य तक आते थे। मेरा हाथ थाम कर ऊपर ले जाते और बिठाते, फिर अपने हाथ से पानी का गिलास उठा कर देते।” यह बताते हुए वे अक्सर रो पड़ती थीं।

“सूक्ष्मीकरण साधना में जब वे गये तो मिशन के सब कार्यों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर सौंप दी। मैंने कहा, “आचार्यजी, यह सब मैं कैसे कर पाऊँगी?” तो बोले, “मैं जो तुम्हारे साथ हूँ।” जब कभी मथुरा आदि जाना पड़ता तो वे ऊपर से खिड़की में से देखते रहते थे।”

कभी- कभी मथुरा के दिनों को  याद कर बतातीं, 

“बेटा, इस गायत्री परिवार को हमने और आचार्य जी ने अपने खून- पसीने से सींचकर खड़ा किया है। मथुरा में बंदर खूब परेशान करते थे। मैं खाना बनाती। गुरुजी परोसने में मदद करते। हाथ में लाठी भी रखते और बंदरों को धकेलते रहते। मथुरा में घर छोटा ही था। लैट्रिन- बाथरूम भी कम थे। कभी- कभी, कोई- कोई बहन अपने छोटे बच्चों को छत पर ही टट्टी- पेशाब करा देती। अक्सर हमें धुलाई करनी पड़ती थी। गुरुजी पानी डालते थे और मैं झाडू लगाती थी। कभी- कभी मैं पानी डालती और गुरुजी झाडू लगाते थे। झाडू की रगड़ से हाथों मे छाले पड़ जाते और कभी- कभी खून भी आ जाता। बेटा, इस प्यार से हमने परिवार को जोड़ा है। 

“मैं जल्दी- जल्दी घर का सब काम निबटा कर गुरुजी के काम में मदद करने तपोभूमि पहुँच जाती थी। गुरुजी को पत्र व्यवहार में भी मदद करती थी। मैं पत्र पढ़ती जाती और गुरुजी जवाब लिखते जाते।”

एक बार  कार्यकर्ताओं की गोष्ठी थी। गुरुजी ने कहा, “बेटा, तुम सब लोग परस्पर प्रणाम करते हो कि नहीं। रोज सुबह अपने पति के चरण स्पर्श किया करो।” फिर भाईयों की ओर उन्मुख होकर बोले, “तुम लोग भी पत्नी को प्रणाम किया करो। परस्पर एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। तुमको देखकर बच्चे स्वयं ही सीख जायेंगे।”

अन्न को बरबाद नहीं करना चाहिये।

1978 में  शांतिकुंज में बाढ़  आई और  तब ब्रह्मवर्चस में पानी भर गया था। उस समय अधिकांश परिवार ब्रह्मवर्चस में ही रहते थे। दाल चावल के कुछ बोरे आधे- आधे भीग गये। जब माताजी तक सब जानकारी पहुँची तो माताजी ने कहा, “बेटा! सबको कह दो कि कुछ दिन तक अपने-अपने घर में कोई खाना नहीं बनायेगा। सब खिचड़ी ही खायेंगे। घी मैं यहाँ से भेज देती हूँ।”

एक दिन चौके की एक बहन से चावल धोते समय हाथ से बाल्टी फिसल गई और बहुत सारा चावल, लगभग बाल्टी भर चावल नाली में बह गया। माताजी को पता चला तो उन्होंने देखा और सारा चावल इकट्ठा करके भर कर लाने को कहा। फिर बोलीं, “अब इसे अच्छी तरह से धो  लो  फिर पकाओ। आज चौके की सब बहनें इसे ही खाएँगी।  माताजी का आदेश भला कौन टाल सकता था? उस चावल को अच्छे से धोया गया और पकाया गया। बहनें सोच रही थीं कि आज नाली का चावल खाना पड़ेगा। माताजी ने देखा चावल पक गया है। बोलीं, “छोरियो, एक थाली में थोड़ा भात परोस कर लाओ तो।” माताजी को वह भात परोस कर दिया गया तो वे बड़े चाव से उसे खाने लगी और बोलीं, “बेटा! अन्न को बरबाद नहीं करना चाहिये। उसका अपमान नहीं करना चाहिये। इसे खाने से कोई बीमार नहीं पड़ेगा। अब तुम लोग भी भोजन कर लो।”

किसी के मन में कोई गलत भावना न आये, इसलिये माताजी ने पहले स्वयं उस भात को खाया, फिर सबको खिलाया।

माताजी सबके मन की बात जान जाती थीं। एक दिन दोपहर में माताजी आराम कर रही थीं। एक बहन के मन में आया, “माताजी मोटी हैं।” इतने में माताजी बोली, “तू सोचती है, माताजी मोटी हैं? कुछ काम नहीं कर पायेंगी? बेटा, मैं अभी भी 100 लोगों का खाना बना सकती हँ।” वह बहन बेचारी हैरान रह गई कि मेरे मन में विचार बाद में आया और माताजी ने जवाब उसके पहले ही दे दिया।

पहले सुबह- शाम की चाय- प्रज्ञा माताजी के चौके में ही मिलती थी। जब भीड़ बढ़ने लगी तब परिजनों की आवश्यकता को समझते हुए छोटी सी कैंटीन बना दी गई। उसमें चाय के साथ पकौड़ी व जलेबी आदि भी बन जाती थी। माताजी को पता चला कि लोग अनुष्ठान में भी भोजनालय से प्रसाद ग्रहण न कर कैंटीन में ही डटे रहते हैं। तब माताजी ने कहा था- “बेटा, यह प्रसाद है। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर प्रसाद से बनता है। इसे जिस भाव से खाओगे, वही मिलेगा।”

इन्ही शब्दों के साथ अपने लेख को विराम देने की आज्ञा लेते हैं और आपको सूर्य भगवान की प्रथम किरण में सुप्रभात कहते हैं। 

परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित  

जय गुरुदेव 


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