वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परमपूज्य गुरुदेव के पत्र बहुमूल्य हीरे

 

5  मार्च 2021  का ज्ञानप्रसाद 

  ” पत्र  पाथेय शीर्षक ”  वाली 183   पन्नों की पुस्तक  एक बहुत ही अद्भुत पुस्तक है। पाथेय का अर्थ है -वह खाने -पीने वाली वस्तुएं जो कोई यात्री अपने साथ रखता है।  आपकी जीवन यात्रा में इस पुस्तक में  दिया गया ज्ञान किसी भी खाद्य पदार्थ की तुलना नहीं कर सकता। यह पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध है। सारे पत्रों को इन लेखों में वर्णित करना शायद संभव न हो सके परन्तु पाठकों को सभी पत्र एक के बाद एक पढ़ कर कड़ी स्थापित करनी चाहिए और लीलापत जी की चयन प्रक्रिया ( selection  process ) को समझना चाहिए। 

आदरणीय लीलापत शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक में परमपूज्य गुरुदेव द्वारा 89  पत्र गुरुदेव के अपने  handwriting  में हैं।  जिन्हें लीलपत जी के बारे में पता नहीं है हम इतना ही कह सकते हैं की ऐसे  व्यक्तित्व के पुरष की  कोई भी introduction नहीं होती। वंदनीय माता जी अक्सर कहा करती थीं :

” अगर मेरा बड़ा बेटा देखना है तो  तपोभूमि में जाकर देखो “

लीलापत जी को  गुरुदेव का सानिध्य बीस वर्ष  मिला लेकिन आखिर के सात  वर्ष  तो रात दिन गुरुदेव के साथ ही रहे। इन सात  वर्षों ने   सैंकड़ों यज्ञ करवा लिए थे।  इन आयोजनों में लीलापत जी एक -दो दिन पहले पहुँच जाते थे, कार्यकर्मों की  देख रेख में योगदान देते  और अगर कुछ फेर -बदल करनी हो तो कर लेते।  लीलापत जी का समर्पण और गुरुदेव का सानिध्य एक ऐसी  अटूट कड़ी थी जिसको हम आज  इस लेख  में  वर्णित कर रहे हैं। 

लीलापत जी इस पुस्तक के preface में लिखते हैं कि गुरुदेव ने हम में पता नहीं क्या देखा जो इस स्नेह और अनुकम्पा के योग्य समझा। एक सामान्य परिवार में जन्म ,कोई बड़ी शिक्षा नहीं ,कोई बड़ी उपलब्धि भी नहीं कि युग निर्माण के इस विश्व्यापी अभियान में लगाया जा सके। पूज्य गुरुदेव ने इसके बावजूद  हमें अपनाया , यह उनका स्नेह  और अपनत्व ही हो सकता है। स्वजन- परिजन कहते हैं समर्पण और साहस ही था जिसने हमें गुरुदेव के इतने निकट पहुँचाया।  हो सकता है इसमें कोई सच्चाई हो परन्तु अपना मन तो उनके स्नेह को ही “कारण”  मानने में प्रसन्न और संतुष्ट हो जाता है। 

जो कोई भी इन पंक्तियों को पढ़ रहा है अनुमान लगा सकता है कि लीलापत जी किस व्यक्तित्व के इंसान थे।  हमने यह पंक्तियाँ उनकी पुस्तक से बिल्कुल वैसे ही कॉपी की  हैं । कितने down -to -earth  इंसान थे। Down -to -earth  का हिंदी अनुवाद करें तो सादा,सर्वोपयोगी होता है।  ऐसा इंसान जो सब लोगों के लिए उपयोगी हो।  उन्होंने लोगों की बातों को नकारा तो नहीं लेकिन गुरुदेव के निकट आने का संकेत और श्रेय अपने ऊपर न लेते हुए बहुत ही शालीनता  से मान लिया था।  

यह व्यक्तित्व ही है जिसने हमें यह सब लिखने को प्रेरित किया।  हमने तो उनको देखा तक नहीं। केवल अपने परिजनों से कभी -कभार नाम अवश्य सुना था।  भला हो  तपोभूमि मथुरा के योगेश जी का जिन्होंने लीलापत जी के दो पन्ने व्हासप्प करके हमें भेजे और हमारे ह्रदय में उनके प्रति स्नेह और आदर की  चिंगारी भड़काई। 

तो आइये चलें आगे। 

89  पत्रों के अध्यन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरुदेव पात्रता की परख कैसे करते थे। कैसे एक -एक गुण को देख-परख कर ही लीलापत जी के कन्धों पर तपोभूमि मथुरा का भार डाला था।  

लीलापत जी लिखते हैं :

” जहाँ कहीं भी जाते  ,गुरुदेव हमारा परिचय इस प्रकार  देते – परिजन इसे अपना  बड़ा भाई ही समझें।  हमारे बाद गायत्री तपोभूमि और युग निर्माण आंदोलन का संगठन पक्ष यही संभालेंगें।  यह परिचय सुन कर हमें संकोच होता।  एक-आध बार अपना संकोच बताया भी लेकिन गुरुदेव यह कर समझाते :

” व्यक्ति कुछ नहीं होता।  ईश्वरीय शक्ति उससे जो कार्य करवाना चाहती है  उस कार्य के योग्य वह व्यक्ति को  स्वयं ही गढ़ लेती है।आज से अपने आप को छोटा मत कहना यां करना। ”   

यह आश्वासन देने के बाद पूज्य गुरुदेव ने हमें कहाँ से ,कैसे गढ़ा,कितना कांटा ,छांटा और क्या स्वरूप दिया हम नहीं जानते लेकिन परिजन कहते हैं कि हमें जो भी दायित्व सौंपा उसे हमें भली भांति निभाया। उनकी लेखनी और वाणी से बुद्धि ने युग निर्माण आंदोलन की philosophy  सीखी और समझी। लेकिन मिशन की सेवा में हमने जो कुछ भी किया है वह  सब गुरुदेव का ही हाथ पकड़कर सिखाया हुआ है।  इस पुस्तक में दिए गए पत्र गुरुदेव द्वारा दिए गए  शिक्षण का एक छोटा सा  भाग हैं। ज्ञानरथ के सहकर्मी पायेंगें कि गुरुदेव किस प्रकार सैनिकों को तैयार करते हैं और महाकाल का आवाहन सुनने के लिए जगाते हैं।   

यह सब लिखने का कारण क्या था ?

कारण सिर्फ यही है कि पूज्य गुरुदेव से जो दिशा मिली ,उन्होंने एक दायित्व निभाने के लिए हमें जिस प्रकार तैयार किया यह  उनके प्रत्यक्ष सानिध्य  में ही सम्पन्न हुई। वह कह सुन कर ,प्रयोग -परीक्षण द्वारा अपनी देख -रेख में ही सिखाते चले गए। 

आजका युग जिसमें हम सोचते हैं गूगल सब कुछ सिखा देगा गलत सा लगता है। महापुरषों  का सानिध्य ,देख-रेख का बहुत बड़ा योगदान है। गायत्री परिवार के सभी परिजन इसी व्यक्तित्व के हैं। सब कोई श्रेय उस परमसत्ता को ही देते हैं। 

लीलापत जी आगे लिखते हैं :

यह सारे पत्र व्यक्तिगत और निजी हैं।  इनको सार्वजनिक करवाने का मतलब है अपनी बढ़ाई और लोगों के आगे जगहंसाई।  लोग उपहास उड़ाने लगते हैं। पिता -पुत्र ,गुरु-शिष्य ,पति-पत्नी ,प्रेमी -प्रेमिका सभी में बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो अपने में ही सीमित रहनी चाहिए ,किसी तीसरे के सामने प्रकट नहीं होनी चाहिए। वर्षों तक हमने इन पत्रों को बहुमूल्य हीरे मोतियों की भांति संभाल कर  रखा लेकिन पिछले कुछ महीनो में चिंतन उभरा कि अब इनको सार्वजानिक कर ही देना चाहिए।   

इन पंक्तियों को लिखते समय हमें  एक  पति-पत्नी कपल का स्मरण हो आता है जिनको व्यवसाय के कारण एक दूसरे से  लगभग पांच वर्ष अलग रहना पड़ा।  दोनों ने बहुत पत्र -व्यव्हार  किया और अपनी दिनचर्या से लेकर सब छोटी -बड़ी बातें इन पत्रों में लिख डालीं। पांच वर्ष बाद जब मिलन हुआ तो दोनों फूट -फूट कर रोये तो थे ही लेकिन अपने -अपने पत्र लेकर आ गए।  एक दूसरे को दिखाने लगे।  दोनों ने date -wise  एक -एक पत्र को  ऐसे संभाल कर रखा था जैसे हीरे -मोती हों।  इससे बड़ा  समर्पण और निष्ठां का  उद्दाहरण  और कौन सा हो सकता 

इति श्री 

परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी श्री चरणों में समर्पित


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