23 मई 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज का ज्ञानप्रसाद “भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा” की पृष्ठभूमि बनाने की दृष्टि से लिखा गया है। राष्ट्रिय स्तर की इस परीक्षा का क्या उद्देश्य है, परम पूज्य गुरुदेव का क्या vision था, शिक्षा और विद्या में क्या अंतर् है; ऐसे ही अनेकों प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं यदि हम 474 पन्नों के विशाल ज्ञान कोष (ग्रन्थ) “पंडित श्रीराम शर्मा- दर्शन एवं दृष्टि”, का सही मायनों में अध्ययन करें। इन्ही “सही मायनों” को ध्यान में रखते हुए, हम अपनी अल्प बुद्धि का प्रयोग करके, प्रतिदिन बिखरे हुए अमुल्य मोतियों को एक सुन्दर माला में पिरोकर आपके समक्ष प्रस्तुत करते जा रहे हैं। गुरुकुल पाठशाला के सभी समर्पित सहपाठियों से भी कुछ इसी तरह की आशा रख रहे हैं।
तो आइए ज्ञान की देवी, वीणा वादिनी का मधुर प्रज्ञा गीत अपनी अंतरात्मा में उतारें और सूर्य भगवान की प्रथम किरण की लालिमा से ऊर्जावान होकर आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करें।
हमारी सबकी व्यक्तिगत परिस्थितियां नियमितता के मार्ग में स्पीड ब्रेकर की भांति आती ही रहेंगीं, हमारी गति कम / अधिक करती ही रहेंगी लेकिन हमारा निवेदन वही है “ यथासंभव प्रयास- सांस लिए बिना भोजन नीचे नहीं उतरता”
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परम पूज्य गुरुदेव चार दीवारी में शिक्षा ग्रहण कराने वालों को ही शिक्षक नहीं कहते बल्कि संस्कृति व धर्म (कर्तव्य परायणता) का बोध कराने वाला व्यक्ति भी लोक शिक्षक की भूमिका निभाता है। आचार्य गणों ने हमेशा संस्कृति, धर्म व राष्ट्र की रक्षा तथा उनके निर्माण में पुरोहित बनकर अग्रगामी भूमिका निभायी है, इतिहास इस तथ्य का साक्षी है। गुरुदेव कहते हैं कि आधुनिक समय में शिक्षा में हो रही तोड़ मरोड़ को दूरकर सुसंस्कारिता के वातावरण में अध्यापकगण अपना दायित्व समझें, अपनी संस्कृति को समझें व समझाएँ और युग धर्म का पालन करें।
भारतीय संस्कृति अध्यात्म का पूरक है। “अध्यात्म अर्थात् जीवन जीने की कला ”, को संस्कृति कहते हैं। हमारी भारतीय संस्कृति जीवन को सुंदर बनाने व रहन-सहन के तरीके सिखाती है। भारतीय संस्कृति में “मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, तथा आचार्य देवो भव” की मान्यता रही है। विदेशों में इस संस्कृति का उतना महत्व नहीं है । वर्ष में एक बार फादर डे, टीचर डे मनाकर उनको याद किया जाता है जबकि भारत में हमेशा ही माता पिता को, गुरु को आदर- सत्कार से देखा व माना जाता है।
पश्चिम की सभ्यता आज व्यक्ति, परिवार और समाज पर हावी होती जा रही है। पश्चिम की सभ्यता में बाज़ारवाद (Consumerism) का बोलबाला है। इस बोलबाले का भारतीय संस्कृति पर भी प्रभाव पड़ा है, पड़े भी क्यों न globalization का युग है। विश्व के किसी भी कोने की घटना पालक झपकते ही हमारे इनबॉक्स में फ़्लैश हो जाती है।
भारतीय संस्कृति को कायम रखने के लिए ही ‘भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा” को आरम्भ किया गया था। इस परीक्षा के शीषर्क में शामिल चार शब्दों ( 1.भारतीय, 2.संस्कृति, 3.ज्ञान और 4.परीक्षा) में छिपे भावों को समझना बहुत ही आवश्यक है।
भारतीय से तात्पर्य है, वह संस्कृति जिसकी उत्पति,पोषण व प्रचलन भारत की पावन भूमि पर भारतीय ऋषियों, तत्ववेत्ताओं द्वारा की गयी है। संस्कृति शब्द का अर्थ है ऐसी प्रक्रिया जो श्रेष्ठ व कल्याणकारी जीवन जीना सिखाती है। ज्ञान का अर्थ तो हम सब प्रतिदिन जीते आ रहे हैं। ज्ञान का होना तो अति आवश्यक है लेकिन उसे real life में कैसे प्रयोग करें ? ज्ञान की क्या विशेषताएँ हैं, क्या-क्या उपलब्धियाँ हैं आदि। यह प्रश्न समझ आए हैं या नहीं,इन प्रश्नों का मूल्यांकन किया है या नहीं; स्वयं के आत्मशोधन, आत्मनिर्माण व आत्मोन्नति के लिए ज्ञान का प्रयोग किया जाना बहुत ही कड़ी परीक्षा है । यह परीक्षा भारतीय संस्कृति का भली-भाँति ज्ञान कराने वाली शिक्षण व्यवस्था है।
आधुनिक संस्कृति बड़े-बड़े आलिशान भवनों, Banquet Halls में नाच गाने, पार्टियों को ही संस्कृति समझती है। अपने आस पास तेज़ी से पनप रही ऐसी संस्कृति को अपसंस्कृति कहें तो ज़्यादा ठीक रहेगा। आधुनिक युग के so called कल्चर में जहाँ प्रत्यक्षवाद, उपभोक्तावाद का बोलबाला है, संस्कृतिक मूल्यों, moral values की जो धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं वह किसी से छिपी नहीं हैं। आज के युग में संजना बेटी जैसे बच्चों के देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है “अरे किस दुनिया में रह रहे हो,अभी भी यज्ञ और मन्त्रों के पीछे पड़े हो, हम तो चाँद पर प्लाट खरीदने को तैयार हैं।”
संस्कृति उस विद्या को कहते हैं जो रोज़मर्रा जीवन में मूल्यों की स्थापना करने का ज्ञान कराती है। विनम्रता, आध्यात्मिकता के गुणों का अंतस्थ होना ही संस्कृति है। ज्ञान का विस्तार अध्यापकों में हो और उनकी सहायता से विद्यार्थियों में विनम्रता, सदाशयता, साहस एवं विवेक जैसे गुण तथा चिंतन, चरित्र व व्यवहार में उत्कृष्टता आए, यही इस परीक्षा का उद्देश्य है।
सद्गुणों की खेती करना ही भारतीय संस्कृति है। विचार क्रांति ऐसे आती है। विद्या अर्थात् विनम्रता का भाव ज्ञान का अनुपान संवेदना के साथ अंदर जाएगा, तभा व्यक्ति महान बनेगा। ज्ञान ही संस्कृति है। ज्ञान पवित्र होता है जैसा गीता में कहा है- “नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते अर्थात इस संसार में दिव्यज्ञान के समान कुछ भी शुद्ध नहीं है। सबसे बड़ा ज्ञान है अपनी आत्मा अर्थात स्वयं को जानना, स्वयं का सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है । ज्ञान के अभाव में जीवन तनावग्रस्त है। अगर कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की हानि (आर्थिक या व्यावसायिक) से परेशान है तो इस परेशानी का निवारण भी तो ज्ञान ही करेगा। ज्ञान यानि समझदारी ही समस्त समस्याओं का हल है। कल रात का शुभरात्रि सन्देश भी कुछ ऐसा ही कह रहा था। 90 % परेशानियां तो हमारे अज्ञान के कारण ही हैं क्योंकि हमने स्वयं को ही जानना,पहचानना बंद कर दिया है।
भोगवाद के आधुनिक समय में एवं विषम परिस्थितियों में भी अगर हम सकारात्मक रहते हैं,नकारात्मक सोच से प्रभावित हुए बिना,आध्यात्मिकता ( आशा-विश्वास) की ओर बढ़ते जाते हैं तो क्या नहीं हो सकता। यही आशा की किरण, ज्ञान प्राप्ति के साथ तनाव, अवसाद व भटकाव से बचाती है। न जाने कितनी बार निम्लिखित प्रज्ञा गीत गा चुके हैं ; केवल गा ही रहे हैं या अंतरात्मा में भी उतार पाए हैं :
वीना वादिनी, ज्ञान की देवी,अपनी दया बरसा देना,
मेरे सिर पर हाथ धरो माँ , ज्ञान की ज्योति जगा देना।
वीना वादिनी, ज्ञान की देवी, अपनी दया बरसा देना,
मेरे सिर पर हाथ धरो माँ , ज्ञान की ज्योति जगा देना।
तू सारे संगीत संवारे ,रागों में आभास तेरा,
सांसों की आवाज तुझी से, सारे सुरों में वास तेरा,
राग रागिनी मेरी सरगम,इनको और खिला देना ,
मेरे सिर पर हाथ धरो मान, ज्ञान की ज्योति जगा देना।
तो फिर अनुत्तीर्ण, असफल या कम अंक प्राप्त होने पर आत्महत्या जैसी हरकतों का क्या औचित्य । इसी स्थिति से बचने के लिए “ सही ज्ञान” की आवश्यकता है, व्यवहारिक ज्ञान की आवश्यकता है। शिक्षक व अभिभावक दोनों को इस स्थिति का ध्यान रखना है। शिक्षा ऐसी हो जो बच्चों के अंदर सोये अर्जुन को जगाने का कार्य करे। बच्चों में “हरिए न हिम्मत” जैसी पुस्तकें पढ़ा कर,असफलता के बाद सफलता के लिए पूर्ण मनोयोग से कार्य करने को प्रेरित करने में अध्यापकों और अभिभावकों का बहुत बड़ा हाथ है। बच्चों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है न कि डराने की या अपशब्द कहकर अपमानित करने की। भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय कलाम साहब का कथन है कि बच्चों को सपना देखने को प्रोत्साहित करें; अच्छा व्यक्ति, श्रेष्ठ मानव, अच्छा शिक्षक, अच्छा पिता बनने की चाह जगाएँ । शिक्षक वही है, जो वाणी के साथ-साथ आचरण से शिक्षा दे। वही जो ज्ञान अर्जित करे, ज्ञान बाँटे और ज्ञान से जिए।
आधुनिक युग की पढाई शिक्षा प्राप्त करके, बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर multinational कंपनीओं में बड़े बड़े pay-package हासिल करना है न कि विद्या अर्थात् सद्गुण सीखना। आधुनिक शिक्षा अनेकों विषयों की जानकारी देती है, जबकि विद्या “ज्ञान” देती है; अध्यात्म, संस्कृति एवं उच्चस्तरीय गुणों को जीवन में उतारने की मनःस्थिति देती है।
भारत का इतिहास, ऋषियों और संतों का तथा गुरू-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाने का इतिहास रहा है। “भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा” के माध्यम से निकली प्रतिभाएँ आने वाले भविष्य के महामानव हैं। ईश्वर जब मानव को इस धरती पर अवतरित कराते हैं तो सभी को अलग-अलग वृत्तियाँ देकर ही भेजते हैं, उन्ही वृतियों को विकसित करना हम सब का कर्तव्य है ; यह केवल और केवल ज्ञान अर्जन से ही सम्भव है।
परम पूज्य गुरुदेव ने विद्यालयों को आदर्श बनाने के लिए 10 कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं, जिनकी आज महती आवश्यकता है। यह कार्यक्रम देखने को तो बहुत ही साधारण से दिखते हैं लेकिन प्रत्येक के पीछे छिपी हुई भावना सही मायनों में विद्या का अर्जन है। यह दस कार्यक्रम निम्लिखित हैं :
(1) आदर्श सद्वाक्यों का प्रचलन: सद्वाक्य जीते जागते स्वाध्याय के माध्यम हैं। घरों में, विद्यालयों में सद्वाक्य लगाए जाने चाहिए, ताकि एक दिव्य वातावरण बने। गुरुदेव के सत्साहित्य से आदर्श वाक्य निकाले जा सकते हैं। उसी साहित्य से हम और आप शुभरात्रि सन्देश को जन्म दे रहे हैं।
(2) जन्म दिन मनाना विद्यालयों में गुरुजनों एवं विद्यार्थियों के जन्म दिन मनाए जाते हैं। एक सप्ताह या एक माह में एक बार 30 मिनट में जिनका जन्मदिन आता है उन सभी का तिलक कर स्वस्तिवाचन / आशीर्वाद एवं एक अच्छाई ग्रहण करना एवं एक बुराई छोड़ने का संकल्प लिया जाता है।
(3 ) स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता : देव संस्कृति विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं ने बच्चों एवं युवाओं में योग के प्रति क्रांति पैदा की है। बच्चों को कैसे आसन, प्राणायाम एवं ध्यान कराने से रोग दूर रहते हैं तथा स्वास्थ्य लाभ होता है ।
(4) गमलों में स्वास्थ्य : कुछ जड़ी बूटियाँ गमलों में लगाई जा सकती हैं, जिनमें तुलसी आदि लगावें तथा विभिन्न बीमारियों के समय काम में लाई जा सकती हैं।
(5) वाटिका एवं वृक्षारोपण: विद्यालय में वृक्षारोपण करने एवं वाटिका लगाने से एक तरफ तो वातावरण सुरम्य एवं प्रदूषण मुक्त बनेगा और दूसरी तरफ पेड़- पौधों को बड़े होता देख सृजनात्मक दृष्टि से सभी प्रसन्न होंगे।
(6) माह में एक दिन सामूहिक श्रमदान करें। श्रम से अहंकार घटता है। श्रमदान का उद्देश्य “श्रम नौकर करता है” वाली वृत्ति से छुटकारा दिलाना है। श्रमदान से छात्रों के मन में विद्यालय के प्रति “गुरुकुल” की भावना उभरती है।
(7) आध्यात्मिक मंडल/संस्कृति मंडल/स्वाध्याय मंडल का गठन करें। इसके अंतर्गत सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संचालन प्रति सप्ताह किया जाना है।
(8 ) शिविर वर्ष में एक बार तीन या एक दिवसीय शिविर का आयोजन करने से बच्चों में आत्मीयता एवं सहयोग की भावना का विकास होता है ।
(9) पुस्तकालय / वाचनालय में छोटी-छोटी पुस्तकें तथा क्रांतिधर्मी / विद्या विस्तार योजना एवं अन्य साहित्य जो बालोपयोगी, चरित्र निर्माण संबंधी हो रखना चाहिए जिससे बालकों में सद्गुणों का विकास होगा, स्वाध्याय के प्रति रूचि जाग्रत होगी।
(10) चार्ट एवं पोस्टर – महामानवों, वैज्ञानिकों, संतों, ऋषियों, वीरों आदि के चित्र, पूर्ण विवरण / व्याख्या सहित लगाए जाएँ। साथ ही आसन एवं ध्यान से संबंधित चार्ट्स भी लगाये जाएँ।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 6 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज का स्वर्ण पदक संध्या बहिन जी को जाता है।
(1)चंद्रेश बहादुर-24,(2 ) रेणु श्रीवास्तव-29 ,(3 )सरविन्द कुमार-27,(4) संध्या कुमार-36 (5 ) पिंकी पाल-24,(6) सुजाता उपाध्याय-33
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।