वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरू की महिमा अपरम्पार है 

9 मई 2023 का ज्ञानप्रसाद  

आज का ज्ञानप्रसाद अखंड ज्योति पत्रिका मई 2022 में प्रकाशित दिव्य लेख पर आधारित है। प्रकाशन से पूर्व आदरणीय सरविन्द पाल जी ने इसका स्वाध्याय किया, समझा और  फिर अपने शब्दों में लिख कर हमें एडिटिंग के लिए पोस्ट किया, हमने एडिटिंग करते समय रिसर्च करके अपने विचारों को शामिल करते हुए इस बात को सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि यह लेख जब पाठकों के  समक्ष प्रस्तुत किया जाये तो कुछ भी unexplained न रहे।  पाठकों को समझने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई न हो। अगर योगेश जी लिखते हैं कि “भाई साहिब आप मक्खन खिला रहे हैं” तो हमारा कर्तव्य बनता है कि उनकी आशाओं पर खरा उतरने का प्रयास करें। जब कोई सहकर्मी अपनी contribution पोस्ट करता है तो प्रकाशन से पूर्व उसका rigorous analysis करना हमारा परम कर्तव्य है।   

इन्ही शब्दों के साथ आज की गुरुकुल पाठशाला का शुभारम्भ होता है। आइए गुरुचरणों में नमन करें और विश्वशांति के लिए प्रार्थना करें :

 सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत। ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः

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परम पूज्य गुरुदेव ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में लिखा है कि भारतीय संस्कृति के पंचतत्व – गुरू, गायत्री, गीता, गंगा व गौ हैं और इन पंचततत्वों में गुरू का स्थान सबसे बड़ा व श्रेष्ठ है जिसकी महिमा का बखान करते हुए शास्त्र भी निशब्द हो जाते हैं l तभी तो संत कबीर ने कहा है कि 

“सब धरती कागद करूं, लेखनी  सब बनराय l सात समुद्र की मसि करूं,गुरू गुण  लिखा न जाए ll”

अर्थात् सम्पूर्ण धरती को कागज, सभी वनों वृक्षों  को कलम व सात समुद्र के जल की स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरू के गुणों का बखान नहीं लिखा जा सकता है l आखिर क्यों है गुरू की इतनी महिमा व गरिमा, इन दो अक्षरों से बने गुरू नामक एक शब्द की क्या विशेषता है जो कि गु और रू की  संधि से बना है l गु का अर्थ अंधकार व रू का अर्थ, दूर करने वाला व मिटाने वाला होता है l इस प्रकार गुरू का भावार्थ हुआ:  अंधकार को हटाने वाला, मिटाने वाला अर्थात अंधकार को मिटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को गुरु कहते हैं क्योंकि अज्ञान ही अंधकार है और ज्ञान ही प्रकाश है l अतः गुरू वह है जो शिष्य के अज्ञानरूपी अंधेरे को मिटाकर उसके जीवन को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर देता है। शिष्य की आत्मा को आत्मज्ञान से आलोकित करने वाला ही  सच्चा गुरू होता है जिसे हम सब  गुरुसत्ता के नाम से  जानते हैं l 

गुरुदेव “गुरू” शब्द का बहुत ही सुन्दर शब्दों में विश्लेषण करते हुए लिखते हैं  कि गुरू ही तो हैं, जो मोहमाया की निद्रा में सोए हुए शिष्य को जगाते हुए कहते  हैं, “बेटे ! अब बहुत सो लिया,और कितना सोओगे, कितने जन्मों तक तुम ऐसे ही सोते रहोगे? बेटे  न जाने अब तक तुम्हारा कितनी बार जन्म-मरण हुआ हो? अब तो जाग जाओ, कब तक जीवन-मरण के चक्रव्यूह में पड़े घिसते, पिटते रहोगे?  कब तक दुःख , कष्ट, क्लेश के मारे रोते, बिलखते व सिसकते रहोगे? कब तक विषय-भोगों को भोगकर सुख पाने के भ्रम में भटकते रहोगे?” बेटे तुम तो अजर,अमर,अविनाशी आत्मा हो, कोई भौतिक शरीर नहीं हो l यह भौतिक शरीर तो तुम्हारी आत्मा का आवरण मात्र है, इसलिए तुम भौतिक शरीर से जुड़े सुख-सुविधा व सगे-संबधियों तक ही स्वयं को सीमित न करो क्योंकि आत्मा के रूप में तुम  परमात्मा के दिव्य अंश हो l अतः तुम शरीर की नहीं, आत्मा की उपासना, साधना व आराधना करो, उसी में तुम्हारा कल्याण है। इसी से शाश्वत सुख, सौन्दर्य, आनंद व मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा l बेटे इस दुर्लभ मानव जीवन का पल-पल बीता जा रहा है यानि कि तुम्हारी आयु निरंतर कम हो रही है l इसलिए बेटे अब तो जाग जाओ l तुम उठो, जागो और लक्ष्य की  ओर चल पड़ो। इसी से तुम्हारा दुर्लभ मानव जीवन सार्थक हो सकेगा। ऐसा करने पर तुम्हें  परमात्मा के पास  लज्जित नहीं पड़ेगा।

इसी भावना को उजागर कर रहा है आज का प्रज्ञा गीत “ उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है” 

परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि सद्गुरू के इस “जागरण संदेश” को सुनकर भौतिक जगत के असंख्य लोग मोहमाया की चिर निद्रा से उठ पढ़े जिन्होंने  स्वयं को ही नहीं बल्कि अपने साथ असंख्य लोगों को जगाकर निहाल कर दिया l सद्गुरू के इसी आवाहन, आश्वासन एवं जागरण संदेश को सुनकर ही तो इस धरा धाम पर असंख्य बुद्धपुरुष हुए, जिनमें महावीर, गौतम, तुलसी, मीरा, कबीर, रैदास, शंकर व नानक आदि के  नाम  विशेष हैं  जिन्होंने गुरूकृपा से सम्पूर्ण संसार में सद्ज्ञान का पावन प्रकाश फैलाने का, ज्ञान का अमृत बाँटने का परमार्थ परायण कार्य करके पुरुषार्थ कमाने का सराहनीय व प्रशंसनीय कार्य किया है l कालांतर में महर्षि दयानंद सरस्वती, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि रमण , श्री अरविंद, स्वामी शिवानंद व युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी जैसे अनगनित शिष्य और सद्गुरू हुए, जिन्होंने गुरू-शिष्य की महान परंपरा को आगे बढ़ाने की दिशा में वोह कार्य किया जिससे हमारा मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है l 

गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर : 

भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म में गुरू का स्थान ईश्वर से भी से ऊपर रखा गया है और गुरू को परमात्मा के विभिन्न रूपों-जैसे ब्रह्मा, विष्णु व महेश ( त्रिमूर्ति)  के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि गुरु का सूक्ष्म संरक्षण व दिव्य सानिध्य तथा ज्ञान पाकर शिष्य में एक नए मनुष्य का जन्म होता है और ज्ञान पाते ही शिष्य की जीवन-दृष्टि ही परिष्कृत हो जाती है ,जीवन और जगत के प्रति उसका नजरिया ही बदल जाता है l

आने वाली पंक्तियों में ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तीन उपाधियों से गुरु को सम्मानित किये जाने को explain किया गया है। गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरा विषय पर अनेकों वीडियोस उपलब्ध हैं, पाठक साथ साथ में इस मन्त्र को  गुनगुनाते हुए लेख को और भी रोचक बना सकते हैं।

गुरु की प्रथम उपाधि “ब्रह्मा”       

गुरू जिन्हें हम सद्गुरू कहते हैं वह शिष्य के जीवन में एक नए मनुष्य का सृजन करता है, एक नए मनुष्य की रचना करता है जिसकी दशा व दिशा दोनों ही बदल जाते हैं । गुरु का संरक्षण एवम मार्गदर्शन मिलने से पहले मनुष्य चाहे जितने भी निम्न स्तर का  रहा हो, गुरू का ज्ञान प्राप्त करते  ही उसके  अंतःकरण में निरंतर बदलाव आता ही जाता है । इस बदलाव के कारण मनुष्य हर  जगह प्रेमास्पद एवम  पूज्यास्पद हो जाता है । यह एक ऐसा अविश्वसनीय बदलाव होता है जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की होती l इस अद्भुत बदलाव के कारण ही गुरू की उपमा ईश्वर से की गई है, ईश्वर का ही एक रूप ब्रह्मा हैं जो इस सृष्टि के रचनाकार हैं, यही है गुरु की प्रथम उपाधि। मनुष्य की इस “नई रचना” के रचियता गुरु ही हैं।

गुरु की द्वितीय  उपाधि “विष्णु” 

परम पूज्य गुरुदेव ने गुरू के विषय में बहुत ही सुन्दर शब्दों में विश्लेषण किया है कि गुरु अपने शिष्य पर निरंतर दृष्टि बनाए रखता है । इस दृष्टि से गुरु की तुलना  ठीक एक माँ  से की जा सकती है, एक ऐसी दृष्टि  जो सदैव अपने बच्चों पर बनी रहती  है । मां अपने बच्चों का ध्यान रखती है  कि उसका  बच्चा कहीं आग या पानी में न कूद पड़े l गुरू भी एक माँ की भांति अपने शिष्यों पर 24 घंटे निरंतर, नियमित रूप से दृष्टि  बनाए रखते हैं ताकि कहीं ऐसा न हो कि उनका प्रिय  शिष्य उपासना-साधना-आराधना से कहीं डगमगा न  जाए यां भटक न  जाए l इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए  गुरू अपने  शिष्य का निरंतर, नियमितता से साधनात्मक पोषण व संवर्धन करते रहते हैं l माँ की भांति पालन करने के कारण गुरु को द्वितीय उपाधि भगवान विष्णु के रूप में दी गई  है, वहीँ तो पालनहार हैं।

गुरु की तृतीय उपाधि “महेश”   

गुरुदेव लिखते हैं कि बहुत से शिष्य ऐसे होते हैं जो अपने पूर्व संस्कारों के कारण उपासना साधना व आराधना में शीघ्र ही रम  जाते हैं और उन्नति करने लगते हैं जबकि कुछ शिष्य ऐसे होते हैं जो लगातार पिछड़ते ही जाते हैं। बार-बार परिश्रम करने के बावजूद कोई प्रभाव दिखाई नहीं देता। इस स्थिति को  गुरू अपनी दिव्य दृष्टि से स्वयं ही तुरंत पहचान लेते  हैं। गुरु जान जाते हैं कि शिष्य के पूर्वजन्म या वर्तमान जन्म के शुभ-अशुभ कर्मो के संस्कार उसे उपासना, साधना व आराधना से विचलित कर रहे हैं। इन्ही अशुभ संस्कारों के कारण शिष्य की प्रगति पथ पर बाधा उत्पन्न हो रही है और प्रगति रुकी हुई है l इस परिस्थिति में गुरू अपने  शिष्य के कर्म-संस्कारों का एवं अन्यान्य दोषों का “संहार” करते हैं और शिष्य के चित्त को कर्म-संस्कारों से शुन्य व मुक्त कर देने का कारगर उपाय बताते हैं l इसलिए शिष्य के दोषों व कर्म-संस्कारों के संहार का मार्ग बताने के कारण गुरू को तृतीय उपाधि शिवरूप के रूप में मिली है l भगवान शिव को संहारक के रूप में भी तो पूजा जाता है  आनलाइन ज्ञान रथ गायत्री परिवार के सभी सदस्य तीनों उपाधियों से समझ गए होंगे कि गुरू का स्थान कितनी उच्चकोटि का होता है l

परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि मनुष्य जब अज्ञानतावश अपने कर्म-संस्कारों के प्रभाव से वशीभूत होकर  कामना, वासना, लोभ और मोह के  दलदल में फँसकर घृणित,अशुभ कर्म एवं बुरे कर्मों  में लिप्त हो जाता है। इस स्थिति के कारण वह सारे संसार की दृष्टि  में  घृणा और मज़ाक का पात्र बन जाता है। कई बार यह स्थिति इतनी भयानक हो जाती है कि मनुष्य अंदर ही अंदर  हीन भावना ( Inferiority complex) से भर जाता है, बैचैन रहता है, चिड़चिड़ा हो जाता है, बात-बात पर लड़ना-झगड़ना उसकी प्रवृति बन जाती है। इस स्थिति में कईं बार ऐसा होता है कि उसे कोई भी अपना नहीं लगता, सब पराए ही प्रतीत होते हैं, उसके अपने सभी पराए होते  जाते हैं, वह दर-दर की ठोकरें खाते इधर-उधर भटकता फिरता है। ऐसे मनुष्य का मानसिक संतुलन तक  बिगड़ता जाता है और एक ऐसी स्थिति भी  बन जाती है कि कोई भी आशा की किरण दिखाई नहीं देती, चारों ओर  अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देने लगता है और  फिर दुःखी होकर  आत्महत्या करने तक  की सोचने लगता है l 

परम पूज्य गुरुदेव  लिखते हैं कि इस परिस्थिति में मनुष्य “दुर्लभ मानव जीवन” को पेट-प्रजनन में ही लगाए रखता है ,परिवार की संकीर्ण और सीमित  परिधि में रखकर जीवन को  बरबाद कर देने की स्टेज तक  पहुंच जाता है। ऐसे मनुष्य को  आत्मग्लानि होती है, वह अपने आपको एक दोषी, एक अभियुक्त समझना शुरू कर देता है  और उसे कहीं कोई सहारा दिखाई नहीं देता।

यह एक ऐसी स्थिति  होती है जब मनुष्य  हर तरफ से थक हार कर, भटक कर, ठोकरें खाने के बाद गुरु की शरण में, ईश्वर की शरण में आता है। इस स्थिति में वह ईश्वर के समक्ष आकर याचना करते हुए कहता है:

“हे प्रभु! अब इस दुनियाँ में मेरा कोई नहीं रहा l अब तो आपने भी मुझ जैसे पापी से  मुँह फेर लिया है, प्रभु , कृपया मुझे मार्ग दिखाएँ, बताएं अब मैं क्या करूं? मुझे तो अब जीने में भी कोई रूचि नहीं लग रही, मैं जी कर करूंगा भी क्या क्योंकि इस दुनियाँ में मेरे जैसा अभागा और कोई है ही नहीं। ” 

इस प्रकार जब मनुष्य आत्मग्लानि व हीन-भावना से ग्रसित हो जाता है तब सचमुच में उसे उबारने के लिए सद्गुरू ही सामने आते हैं या फिर यों कहें कि शरणागतवत्सल ईश्वर उसे अपनी शरण में लेने  हेतु गुरू रूप में प्रकट होते हैं और उसकी मदद करते हैं l जहाँ सारी  दुनिया उसे घृणा व उपहास का पात्र समझती  है वहीं परम पूज्य गुरुदेव जैसे सद्गुरू उसे अपनी शरण में ले लेते हैं। यह दृश्य की तुलना उस दृश्य से की जा सकती जब चारों ओर से निराश,भटका हुआ बेटा माँ की गोद में आते ही सुखद आनंद का  अनुभव करता है।    

परम पूज्य गुरुदेव ने इसी  भटकन को दूर करने के लिए, सुखद आनंद का अनुभव कराने  के लिए  युगतीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार उत्तराखंड में विश्व के एकमात्र विलक्षण मंदिर “ भटका हुआ देवता मंदिर” की रचना करके हमें आत्मज्ञान की अनुभूति कराने का अद्भुत प्रयोग किया है। हम अपने व्यक्तिगत अनुभव से certify कर सकते हैं कि पांच दर्पणों और उनके  साथ अंकित अमृत वाक्यों को समझने के बाद मनुष्य की सारी चिंताओं का निवारण होना  सुनिश्चित है, यह पूरी तरह से प्रैक्टिकल है और  सभी को इसे समझने की आवश्यकता है।   

भटके हुए मानव को सही मार्ग पर लाने का, उसे उसकी पहचान बताने का, उसे स्वयं से परिचित कराने का इससे सरल तरीका कोई हो ही नहीं सकता। जब तक इस मंदिर की विलक्षणता का ज्ञान नहीं होता, युगतीर्थ  शांतिकुंज आने वाले अधिकतर साधक एवं पर्यटक इस मंदिर में लगे पांच फुल साइज दर्पणों के आगे अपने चेहरे देखकर, कंघी करके ही चलते बनते हैं। हाँ कुछ एक साधक अवश्य ही हर दर्पण के साथ दिए गए explanation को समझने का प्रयास भी करते हैं। पाठकों की सुविधा के लिए श्रद्धेय डॉ प्रणव पंड्या जी के शब्दों में सरलता से समझने के लिए हम यह वीडियो  लिंक दे रहे हैं, आशा करते हैं कि आठ मिंट से भी कम  इस वीडियो को देखने के बाद किसी को भी स्वयं से  परिचित होने में कोई कठिनाई नहीं होगी। 

हम सब जानते हैं कि गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण से पहले मन की भटकन का निवारण होना  बहुत ही आवश्यक है क्योंकि अस्थिर मन पात्रता विकसित करने में बहुत ही बड़ा बाधक है। इस प्रयास को सरल बनाने के लिए इसी मंदिर प्राँगण में पूज्यवर की जीवंत प्रतिमा स्थापित की गयी है ताकि भटके हुए मनुष्य को आभास हो कि गुरुदेव उसके साथ हैं, उसे देख रहे हैं। गुरुदेव की प्रतिमा की स्थापना इस वीडियो को शूट करने के बाद की गयी थी इसलिए इस वीडियो में दर्शक प्रतिमा नहीं देख रहे हैं।    

परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “मैं क्या हूँ” भटकन के निवारण एवं स्वयं को पहचानने के लिए एक जन्म घूंटी की तरह है। यह पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध है, हमारे साथी इसे गूगल सर्च करके डाउनलोड कर सकते हैं।  

भटके हुए मानव को सही रस्ते पर लाने के लिए  गुरुदेव सम्पूर्ण विश्व को यह शिक्षा देते हैं कि अगर किसी का सुधार करना है तो सबसे पहले उसके प्रति उपहास की धारणा का त्याग करना होगा। भटके हुए मनुष्य को नए सिरे से सोचने और समझने का अवसर देना होगा।  ऐसा अवसर सद्गुरू के इलावा भला कौन दे सकता है l दुनिया में प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने का  सामर्थ्य सद्गुरू के श्रीचरणों में  ही संभव है l 

पूज्यवर  ने गायत्री-उपासना, सविता ध्यान व यज्ञ को सार्वभौम, सर्वसुलभ व सरलतम रूप में हम सबके समक्ष प्रस्तुत करके विश्व मानवता पर सचमुच में बहुत बड़ा उपकार किया है और अध्यात्म के विशाल महासागर को उपासना, साधना व आराधना की त्रिवेणी के रूप में प्रस्तुत व प्रवाहित कर जनमानस को उसमें नित्य स्नान कर अपने जीवन को सुख एवं सौन्दर्य से भर लेने  का सौभाग्य प्रदान किया है l 

ईश्वर  की प्रेरणा व इच्छा से ही ऐसे दिव्य पुरुष “सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय” की दिव्य भावना लिए समय-समय पर  इस धरती  पर अवतरित होते आए हैं और सबका कल्याण करने के साथ ही  पापियों को भी भवसागर से पार लगाते आए  हैं l ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का प्रत्येक सदस्य  ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी गुरू का  शिष्य है  जो शरणागतवत्सल व भक्तवत्सल हैं और अपने साधकों, शिष्यों व भक्तों  के लिए मोक्ष, मुक्ति एवं भगवत्दर्शन  का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ हैं। हमारा परम सौभाग्य है  कि हमें  ऐसे गुरु मिले l 

अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक व संचालक परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के स्तर की  चेतना को अनुभव करने के लिए  शिष्य में शिष्यत्व का होना और सही मात्रा में समर्पण एवं पात्रता  का होना अति आवश्यक है। इन गुणों की अनुपस्थिति में गुरु के समीप  होकर भी गुरु को पहचान पाना संभव नहीं हो पाता ; गुरुदेव जैसे विशाल व्यक्तित्व को समझ पाना संभव नहीं हो पाता  l इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि बिना किसी शंका के, निर्मल ह्रदय से, बिना किन्तु-परन्तु किये, सम्पूर्ण श्रद्धा और समर्पण विकसित किया जाए क्योंकि  यही  वह पात्रता है  जिसके बल पर शिष्य को ऐसे सद्गुरू की कृपा दृष्टि प्राप्त हो पाती है। गुरू कृपा की अनवरत वर्षा होना ही भगवत्कृपा है। गुरु के प्रति पवित्र प्रेमदृष्टि विकसित होते ही सामान्य सा,साधारण सा दिखने वाला शिष्य गुरु में ब्रह्म को देखने लगता है, गुरु को समझने व पहचानने लगता है। ऐसी स्थिति आते ही  आज्ञाकारी शिष्य गुरू के प्रत्येक आदेश का पालन करने को तैयार हो जाता है l 

यही कारण है कि हम बार-बार इस प्लेटफॉर्म के माध्यम से स्मरण कराते रहते  हैं कि हम सबका परम कर्त्तव्य बनता है कि गुरूसत्ता के बताए हुए नियम-अनुशासन का सदैव पालन करें,अपने जीवन में उतारकर अनवरत पालन करें और हम  गुरूसत्ता के आदर्शों और अनुशासन को अंतःकरण में उतारकर उन्ही के स्तर  का जीवन जिएं l हम अपनी  गुरुसत्ता की महिमा का केवल  बखान ही न करें बल्कि उनके  बताए मार्ग पर चलकर उनकी महिमा को धारण कर स्वयं भी महान बनें और गुरू कार्य में पूर्ण श्रद्धा व समर्पण के साथनिरंतर, नियमितता से  समयदान करते  रहें, यही हम सबकी सच्ची व पवित्र गुरू भक्ति होगी। इसी तरह की भगवत्भक्ति  से ही हम सबका कायाकल्प होना सुनिश्चित है इसमें तनिक भी संशय नहीं है l सचमुच में गुरू की महिमा अपरंपार है l धन्यवाद l जय गुरुदेव 

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आज  की  24 आहुति संकल्प सूची  में 10   युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। अरुण  जी स्वर्ण पदक विजेता घोषित हुए हैं । 

(1)संध्या कुमार-49 ,(2 )सुजाता उपाध्याय-36,(3 )सरविन्द पाल-49,(4) चंद्रेश बहादुर-27,(5 )सुमन लता-25 ,(6 ) स्नेहा गुप्ता-28 ,(7) अरुण कुमार-55, (8 )वंदना कुमार-29,(9 ) निशा भारद्वाज-26,(10)  रेणु श्रीवास्तव-32                    

सभी को हमारी  व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।

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