4 मई 2023 का ज्ञानप्रसाद
युगतीर्थ शांतिकुंज में पूज्यवर ने विश्व के एकमात्र “भटका हुआ देवता” मंदिर की रचना करके हमें “दर्पण दर्शन साधना” करने को प्रेरित किया है। साथ में ही “मैं क्या हूँ” जैसे अमूल्य पुस्तिका से हमें स्वयं को जानने का मार्गदर्शन प्रदान किया है।
“अहमिंद्रो न पराजिग्ये” शीर्षक से अखंड ज्योति जुलाई 1986 में प्रकाशित आर्टिकल पर हमारी दृष्टि पड़ी, गूढ़ संस्कृत होने के कारण शीर्षक की तो समझ नहीं आयी लेकिन आरम्भ की कुछ ही पक्तियों ने मन मोह लिया। गूगल से ट्रांसलेट किया तो अर्थ मिला “मैं आत्मा हूँ मुझे कोई नहीं हरा सकता” यहीं है आज के लेख का विषय। जिसने इस जीवन रुपी गाड़ी को सही रूप से चलाना सीख लिया, उसको यह संसार “देवलोक के नंदनवन” जैसा प्रतीत होगा, वही नंदनवन जहाँ गुरुदेव की अपने मार्गदर्शक दादा गुरु से मुलाकात हुई थी।
तो आइए विश्वशांति की कामना के साथ आज की गुरुकुल पाठशाला का शुभारम्भ करें।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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हम टिकट काउंटर से टिकट लेकर बस में बैठते हैं। 2- 3 घंटे की यात्रा में साथ बैठे यात्री से उसका परिचय, नाम, गांव आदि सब कुछ जान लेते हैं, फ़ोन नंबर भी एक्सचेंज कर लेते हैं। कोई पता नहीं कब एक दूसरे की आवश्यकता पड़ जाए। उस अपरिचित व्यक्ति से, इतने कम समय के परिचय में इतना स्नेह और प्यार लेकिन उस आत्मा से जो 24 घंटे हमारे शरीर के साथ एक अंगरक्षक की भांति जुडी हुई कोई परिचय नहीं। कैसी विडंबना है ?
पति- पत्नी एक दूसरे के जीवन साथी कहे गए हैं, पत्नी को अर्धांगिनी( आधा अंग) कहा गया है, दो शरीर इक जान आदि विशेषणों से भी संबोधित करते हैं लेकिन पति-पत्नी कुछ घंटे ही साथ रह पाते हैं,वह भी कुछ गज/फीट दूर। बच्चे कभी-कभी किसी प्रयोजन से निकट आते हैं, प्रिय समझे जाते हैं। माता पिता उनके सुख-दुःख में साझेदार होते हैं, सदा उनके भविष्य की चिंता बनी रहती है और यथासंभव योजना व्यवस्था बनती रहती है। कितनी आश्चर्य की बात है कि हम ऐरे-गैरे रिश्तों के लिए तो दिन-रात मरते-खपते रहते हैं लेकिन शरीर और मन रूपी अंगरक्षकों जैसे साथियों के संबंध को ignore करते रहते हैं। कितने अचंभे की बात है कि हम इन अंगरक्षकों का न तो कभी परिचय पूछते हैं और न ही इनके अस्तित्व को जानने का प्रयास करते हैं।
ईश्वर ने हमारे शरीर में आत्मा को जन्म दिया,आत्मा को जीवन दिया। क्या हम इस बात को सुनिश्चित कर रहे हैं कि जिस प्रयोजन के लिए ईश्वर ने जीवन दिया, आत्मा दी, वह उसके निमित्त लग रहा है कि नहीं ? गवर्नमेंट अफसरों को सरकारी बंगला, वाहन आदि देती है, उन्हें बता दिया जाता है कि इन सुविधाओं का उपयोग केवल सरकारी कार्यों के लिए ही होना चाहिए, निजी कार्यों के लिए नहीं। कोई अफसर अपने बड़े से बंगले में से आधा भाग किराए पर दे दे और आधे में खुद रहे, सरकारी वाहन की जब जरूरत पड़े खुद इस्तेमाल करे और बाकी समय में उसे टैक्सी बनाकर प्रयोग करे और पैसे कमाए तो यह कार्य अनैतिक नहीं होंगे ? अवश्य होंगें और शिकायत होने पर ऐसे अफसरों को दंड का भागी भी बनना पड़ सकता है। ऐसी धारणा रखना कि हमारी कौन शिकायत करेगा, सरासर गलतफहमी है। इस स्थिति में सबसे अधिक सावधान तो उन्ही से रहना चाहिए जो हमारे सबसे नज़दीक( so called) हैं। शिकायत की बात तो एक तरफ छोड़ दें, चोरी तो चोरी है ,साथ पर्दों में भी छिप नहीं सकती। अरे मुर्ख ईश्वर से छिपा रहा है ? वोह तो तुम्हारे अंदर बैठ कर चौकीदारी कर रहे हैं ।
हम बार-बार इस तथ्य को दोहराते आ रहे हैं कि मनुष्य जीवन बहुमूल्य है और सृजेता की अनुपम कलाकृति है। ऐसा अनुपम एवं दुर्लभ साधनसंपन्न सुयोग सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को नहीं मिला। सृजेता ने मनुष्य को जैसा बुद्धिमत्ता का पिटारा, कल्पनाशील मस्तिष्क दिया है वैसा अन्य किसी प्राणी के भाग्य में नहीं है। दस अँगुलियों वाले हाथ किसको मिले हैं? सीधा खड़ा होकर पैरों के बल चलने जैसी सुविधा और किस प्राणी को मिली है?नियमपूर्वक स्वादिष्ट भोजन किसे उपलब्ध होता है? आजीविका उपार्जन की क्षमता तो है ही, उससे भी बढ़कर संग्रह रख सकने की क्षमता किस प्राणी तो उपलब्ध कराई है? कौन सा ऐसा प्राणी है जिसे वस्त्र, गाड़ी, बंगला, सुख सुविधाओं का उपयोग करने की छूट है ? संस्कारवान, सुव्यवस्थित परिवार बना पाने की बुद्धिमत्ता किसी और प्राणी को उपलब्ध है क्या ? ज्ञानेंद्रियों की इतनी संवेदनशीलता किसी और में है क्या ? प्राणियों में सर्वोत्तम स्तर का कलेवर किसी और को उपलब्ध है क्या ? ईश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान किये गए अनुदानों की सूची बनाते बनाते जीवन समाप्त हो जायेगा, यह सूची बढ़ती ही जाएगी।
मनुष्य को इतनी सारी सुविधाएँ देकर ईश्वर ने अन्य प्राणियों के साथ पक्षपात नहीं किया हुआ है ? बचपन से सुनते आये हैं कि ईश्वर सभी को एक ही दृष्टि से देखते हैं और न्यायकारी हैं। मनुष्य को इतनी सुविधा मिले और अन्य प्राणी उससे वंचित रहें तो विचार आना स्वाभाविक है कि सृष्टा न्यायकारी नहीं है। जब कोई माता पिता अपने किसी एक बच्चे को अधिक प्यार देते हैं, उसी पर अपना सब कुछ लुटा देते हैं तो प्रश्न उठने स्वाभाविक ही हैं। दूसरे बच्चे इस पक्षपात को देख कर यही कह उठते हैं कि क्या हम सौतेले हैं ? यह आपका स्पेशल बच्चा है ? आपका राजकुमार है ?
यही बात ईश्वर भी कहते हैं, “ बेटे तू मेरा राजकुमार है। यह सभी सुविधाएँ मैंने किसी विशेष इच्छित प्रयोजन के लिए दी हैं।” ईश्वर बताते हैं कि बेटा सरकारी अफसरों को अनेक सहायक सुयोग्य कर्मचारी मिलते हैं, गाड़ी, टेलीफोन आदि साधनों की सुविधा दी जाती है ताकि वह निष्ठापूर्वक कार्य करते बॉस की आशाओं पर पूरा उतरें। इन्ही आशाओं की पूर्ति ही प्रमोशन का मापदंड होता है। आशाएं पूर्ण होती जाएँ, एक के बाद एक प्रोमशन मिलती ही जाती है। बिल्कुल यही प्रक्रिया ईश्वर के दरबार में भी है जिससे मानव से महामानव और देवमानव जैसी प्रमोशन होती जाती है।
जब कोई अफसर निर्धारित जॉब में समुचित प्रयास न करे,आलस्य प्रमाद में, दिन भर मनोरंजन में ही बिता दे, टारगेट पूरा न कर पाए तो बड़ा अफसर लेखा-जोखा तो माँगेगा ही। इस स्थिति में जब कोई उत्तर न मिल पाए तो दंड का भागी ही बनना पड़ता है,आज के युग का सबसे बड़ा दंड तो Fire ही है ,सीधा यही वाक्य “ You are fired.”
समुचित दायित्वों के निर्वाह के संबंध में हमें स्वयं का परिचय प्राप्त करना चाहिए और साथ ही समुचित कर्म-निर्वाह के लिए जो मिला है उसका संचालन करना भी आना चाहिए। इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें आत्मविस्मृति ( स्वयं को भूल जाना) से उबरना चाहिए। यह आत्मविस्मृति ही मायाजाल है, एक ऐसा मकड़ी का जाल जो मनुष्य स्वयं ही बुनता है और उसी में उलझ जाता है। इस जाल से बाहिर निकलना ही यथार्थता ( Reality ) है और उसे समझ लेना ही आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान के बाद माया की बेहोशी से स्वयं को उबार लेने पर मनुष्य परम ज्ञान का अधिकारी बन जाता है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सभी प्रयास परम पूज्य गुरुदेव के साहित्य को स्वयं जानना, औरों को समझाने की दिशा में हैं, आत्मज्ञान की दिशा में हैं।
ईश्वर ने जिसे जीवन जैसा अमूल्य उपहार सौंपा है, वह असाधारण जीवात्मा है। यही जीवात्मा ईश्वर का एक अंश एवं युवराज है। ईश्वर ने मनुष्य को वरिष्ठता एवं विशिष्टता इसलिए दी है कि वह अपनी त्रुटियों का निष्कासन करते हुए ईश्वर द्वारा निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचे।
ईश्वर ने कौनसा लक्ष्य निर्धारित किया है ?
ईश्वर ने सभी विशेषताएँ व विभूतियाँ मनुष्य के अंतराल में बीजरूप में छिपाकर रखी हैं। इन विभूतियों के प्रदान करते समय ईश्वर हमसे आशा करते हैं कि मनुष्य पात्रता के अनुरूप इनका महत्त्व समझे और प्रयत्नपूर्वक उन्हें खोजने का पुरुषार्थ करे। इन विभूतियों को समझने के लिए स्वस्थ मन की बड़ी ही आवश्यकता है। मन को स्वस्थ, समर्थ एवं तत्पर रखना भी एक कला है। स्वस्थ मन ही संकल्पबल एवं मनोबल के सहारे अपने तथा दूसरों के लिए बहुत कुछ कर सकता है। यही बात शरीर के संबंध में है। शरीर के साथ अनुचित छेड़-छाड़ न की जाए तो स्वस्थ, समर्थ, निरोग एवं बलिष्ठ रहकर वह दीर्घ जीवन का आनंद ले सकता है तथा इस समर्थ साधन के सहारे मन की प्रेरणाओं को प्रत्यक्ष चरितार्थ करके दिखा सकता है। इसके विपरीत यदि अनाड़ीपन से काम लिया जाए तो शरीर और मन दोनों ही बीमार रहने लगते हैं और ऐसे करतब कर बैठते हैं जिनके कारण जीवन बोझ लगता है, इसका निर्वाह बोझ लगता है।मनोविकारों से ग्रसित व्यक्ति, शरीर और संबंधियों के साथ अपने ही कारनामों के कारण दुर्व्यवहार करने लगता है। इन्ही कारनामों के कारण जीवात्मा अपने उत्तरदायित्वों को निभाना यां हाथ बँटाना तो दूर, बीमारी, चिड़चिड़ापन और क्रोध से ग्रसित हो जाती है ।
इस स्थिति से हमें बचना चाहिए। अनाड़ी ड्राइवर अच्छी-खासी मोटर को किसी पेड़ से टकराकर खाई में पटक देता है और न केवल वह बहुमूल्य वाहन का बल्कि बैठी हुई सवारियों का भी कचूमर निकाल देता है। ऐसी दशा में उसका लाइसेंस भी जब्त हो जाता है।
इन पंक्तियों का सन्देश यही है : हे मानव, जीवनरुपी बहुमूल्य गाड़ी को चलाने की कला सीख ले, लाइसेंस renew करवा ले।
माली और अध्यापक की दोहरी भूमिका :
ईश्वर ने मनुष्य को माली और अध्यापक की दोहरी भूमिका निभाने के लिए ही यह सारी विभूतियाँ प्रदान की हैं। ईश्वर चाहते हैं कि विश्व उद्यान को सुरम्य समुन्नत बनाने के लिए उनका युवराज एक कुशल माली की भूमिका निभाए और मानव समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए एक भाव भरे अध्यापक की भूमिका निभाए। माली और अध्यापक की डबल ड्यूटी निभाने वाले को इतना वेतन तो आसानी से ही मिल जाता है कि वह ठीक से एक औसत नागरिक जैसा निर्वाह कर सके ताकि उसे किसी अनीति, अनाचार का आश्रय न लेना पड़े।
ऐसा जीवन एक हाईवे है, राजमार्ग है, जिस पर स्पीड भी निर्धारित है,लक्ष्य भी निर्धारित है और परिणाम की भी जानकारी है। ऐसे राजमार्ग पर चलने के लिए “आत्मोपासना” करनी पड़ती है। आत्मोपासना के अभ्यास के लिए हमें एक बड़े से दर्पण में अपनी छवि देखते हुए ईश्वर के इस राजकुमार को उसको दिए गए सौभाग्य और उत्तरदायित्व का स्मरण करना चाहिए। यह “आत्मस्वरूप” ही सबसे बड़ा देवता है। यदि यह अपने निर्धारित उत्तरदायित्वों को समझ ले और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाकर राजमार्ग पर चले तो अपना और समस्त संसार का भला कर सकता है। यह “दर्पण-दर्शन साधना” नित्य करने से आत्मजागरण का लाभ मिल सकता है क्योंकि जिसकी आत्मा जग पड़ी उसके लिए यह संसार “देवलोक के नंदनवन” से कम आनंददायक नहीं रहता ।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 12 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। कुमोदनी जी स्वर्ण पदक विजेता घोषित हुए हैं ।
(1)रेणु श्रीवास्तव-24 ,(2 )संध्या कुमार-29,(3 )सुजाता उपाध्याय-24,(4 )सरविन्द पाल-29 ,(5 ) चंद्रेश बहादुर-25,(6) वंदना कुमार-24, (7) पिंकी पाल-33,(8) कुमोदनी गौराहा-53, (9) अनुराधा पाल-24,(10)सुमन लता-24,(11) स्नेहा गुप्ता-24,(12) मंजू मिश्रा -24
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।