3 मई 2023 का ज्ञानप्रसाद
परम पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना है कि साथियों को नियमितता का अनुदान प्रदान करें।
आज का ज्ञानप्रसाद भी कल के ज्ञानप्रसाद की भांति पूरी तरह प्रैक्टिकल है। जब हर कोई व्यक्ति शांति की तलाश में भटक रहा है,अनेकों को अकेलेपन ने ग्रस्त किया हुआ है। विशेषकर वर्तमान समय में जब joint family system अधिकतर समाप्त ही है तो अकेलापन अनेकों के लिए अभिशाप बन चुका है। इस स्थिति में भी अखंड ज्योति सितम्बर 1964 का लेख हमें मार्गदर्शन दे रहा है जिसके अनुसार अकेलापन वरदान है न कि अभिशाप। ज्ञान की ज्योति दर्शाता आज का प्रज्ञा गीत लेख से पूरी तरह मेल खा रहा है।
तो आइए चलें गुरुकुल की पाठशाला में :
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क्या आप उस स्थान पर खड़े हैं जहाँ सभी ने आपका साथ छोड़ दिया है, आप से मुंह मोड़ लिया है, आपसे नाता तोड़ लिया है? तो निराश होने अथवा घबराने की आवश्यकता नहीं है। आपसे पहले भी अनेकों ऐसे लोग हैं जो अकेले चल चुके हैं। स्वयं के पैरों पर जीवन की यात्रा तय कर चुके हैं। अगर आप उन अनेकों लोगों की तरह सोचना शुरू कर देते हैं तो आपको अकेलापन अभिशाप के बजाए एक वरदान सिद्ध होगा और आप इसका सदुपयोग भी करेंगें।
सुप्रसिद्ध चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने कहा है- “महान् व्यक्ति वोह हैं जो उस चीज़ को ढूँढ़ते हैं जो उन्हें स्वयं के अन्दर ही मिलती है, कमजोर ही दूसरों का मुँह ताका करते हैं।” अपने ऊपर निर्भर रहकर ही मनुष्य जीवन में किसी “सत्य का साक्षात्कार” कर सकता है, कुछ प्राप्त कर सकता है। ऐसे लोग अपने में ही व्यस्त रहते हैं,उन्हें स्वयं से ही फुरसत नहीं। जो मनुष्य इस स्थिति में है, इतना व्यस्त हैं, उन्हें कोई भी फज़ूल की बातें सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ती। दूसरों का मुँह ताकने वाले व्यक्ति को अपनी सफलता, आशा आकाँक्षाओं के लिए निराश ही रहना पड़े तो कोई नई बात नहीं है। किसी भी क्षेत्र में सच्ची और स्थाई सफलता मनुष्य अपने ही प्रयासों से प्राप्त कर सकता है। महान् बनने वाले और साधारण व्यक्तियों में यही अन्तर है कि एक अपनी शक्ति एवं क्षमता पर भरोसा रखकर अपने बल पर जीवन यात्रा पूरी करता है जबकि दूसरा अन्य लोगों का पिछलग्गू बनकर दूसरों का सहारा पकड़ता है। नतीजा यह होता है कि जब महान् व्यक्ति जीवन की उच्च मंजिल तक पहुँच जाते हैं तो अन्य परावलम्बी लोग बीच में ही लटके रह जाते हैं। वे कहीं के भी नहीं रहते।
प्रसिद्ध विद्वान इब्सन ने कहा है- “संसार में सबसे शक्तिशाली मनुष्य वही है जो अकेला है, आत्मनिर्भर( self dependent) है।” कमजोर वही हैं जो दूसरों का मुँह ताका करता है, दूसरों के ऊपर आशा लगाए बैठे रहता है। साथ ही परावलम्बी व्यक्तियों को, दूसरों के सहारे चलने वाले लोगों को अपने जीवन का बहुत अधिक समय नष्ट करना पड़ता है जबकि नेपोलियन के शब्दों में “जो अकेले चलते हैं वे तेजी से बढ़ते हैं।”
मनुष्य को दो प्रकार से शिक्षा मिलती है : एक दूसरों के कहने सुनने, अथवा पुस्तकों के पढ़ने से और दूसरी वोह शिक्षा जो मनुष्य स्वयं जीवन और जगत की खुली पुस्तक से, अपने अनुभवों से सीखता है। दूसरे प्रकार की शिक्षा ही स्थायी और ठोस होती है। पहले प्रकार की शिक्षा केवल ऊपरी सहायता ही कर पाती है। यही कारण है कि आजकल ऊँची से ऊँची बातें कही जाती हैं, पुस्तकों में पढ़ाई जाती हैं। लेकिन लोगों का उससे कोई विशेष भला नहीं होता। इन ऊँची ऊँची बातों से भी वही व्यक्ति लाभ उठा सकता है जो स्वयं “निर्माण की बुद्धि” का प्रयोग करता है। कई बार तो यह ऊपरी शिक्षा मनुष्य को भ्रम में डालने का कारण भी बन जाती है।
व्यापार,शिक्षा,उद्योग,आविष्कार आदि के सभी क्षेत्रों में वही मनुष्य आगे बढ़ सकता है जिसमें स्वयं को समझने की क्षमता होती है। अकेलेपन को प्रयोग करने की क्षमता होती है। जो व्यक्ति अकेलेपन का रहस्य समझ लेता है वही आगे बढ़ सकता है। यह तो आप पर निर्भर करता है कि आप वरदान के रूप में प्राप्त हुए अकेलेपन को ताश, शतरंज आदि खेल कर नष्ट करना चाहते हैं यां कुछ सार्थक रिसर्च करके नवीन आविष्कार करना चाहते हैं।
कभी आपने विचार किया है कि आपके अकेले में भी एक “महान शक्ति” निवास करती है ऐसी महान शक्ति जो संसार को हिला सकती है और इसी के बल पर अकेला व्यक्ति शक्तिमान रह सकता है। वह है “आत्मा की शक्ति” और जब हमें परमात्मा की शक्ति मिल जाती है तो कुछ भी संभव हो सकता है है क्योंकि आत्मा ही तो परमात्मा है।
वेदों में वर्णन आता है कि मैं आत्मा हूँ, मुझे कोई हरा नहीं सकता। “आत्मशक्ति पर विश्वास रखने वाले व्यक्ति को मृत्यु भी डरा नहीं सकती। आत्मा को जान लेने पर मनुष्य मृत्यु से भी नहीं डरता। मनुष्य की मृत्यु तो तभी होती है जब उसकी आत्मा मर जाती है। अगर हम अपने आसपास दृष्टि दौड़ाएं तो हमें कितने ही मनुष्य दिख जायेंगें जिनकी आत्मा मर चुकी है, वास्तव में ऐसे मनुष्य, मनुष्य न होकर एक मृत शरीर का भार ढो रहे हैं। कहने को वोह जितनी भी ढींगें मारे, कुछ भी कहें लेकिन वास्तव में वोह एक लाश ही हैं।
जब आपको इस बात का आभास हो जायेगा कि आप अकेले हैं और सब कुछ स्वयं ही करना है तो आप संसार के सभी सहारों की आशा छोड़करअपनी आत्मा को धारण करेंगें । आप स्वयं कहेंगें “जब ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डर।” यह स्थिति उस व्यक्ति की होती है जिसे तैरना तो आता नहीं और समुद्र में उतार दिया जाता है।
ऐसे मनुष्य ही “आत्मा की ज्योति” को अपना पथ प्रदर्शक बना पाने में समर्थ होते हैं । शास्त्रकार कहते आए हैं कि “अंतरात्मा में विराजमान ज्योतिर्दीप ही मनुष्य का पथ-प्रदर्शन करता है, अपना दीपक स्वयं बनें,उस आत्मज्योति पर विश्वास रक्खें जो आपके अंदर अखण्ड रूप से जल रही है। इस ज्योति के सिवा अन्य कोई आपको सही प्रकाश नहीं दे सकती।” जब भी आप अकेले हों, आप किसी कठिनाई में भटक रहे हों, समस्या में उलझ रहे हों तो स्वयं की आत्मा की ज्योति के प्रकाश में जीवन का पथ ढूंढ़ें। इधर-उधर न भटकें। आपके लिए अनुकूल, हितकर, श्रेयस्कर मार्गदर्शन आपकी आत्म-ज्योति से ही मिल सकेगा, बाहर से नहीं। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि किसी व्यक्ति का सबसे बड़ा जानकार वह व्यक्ति स्वयं ही होता है। किसी बाहिर वाले को आपके बारे में, आपकी समस्या के बारे में आपसे अधिक ज्ञान कैसे हो सकता है। इसी तथ्य पर ज़ोर देते हुए गीतकार भी कहते हैं कि अपना उद्धार हम स्वयं ही कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। इसे हृदय में पक्की तरह अंकित कर लें कि अकेले आगे बढ़ने के लिए, पथसंधान ( अनुसंधान !) करने के लिए आपको अपनी आत्मा पर विश्वास करना होगा, उसे ही अपना सर्वस्व समझना होगा। अपने आत्म व्यक्तित्व को भुला देने वाला व्यक्ति अधिक दिन नहीं चल सकता, उसे संसार नष्ट कर डालता है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वावलम्बी ( Self- dependent) बनने का प्रयत्न करें। कर्मक्षेत्र में, व्यावहारिक जीवन में आप स्वयं जितना अधिक अपना बोझ उठायेंगे उतनी ही आपकी “अकेले की” शक्ति बढ़ती जायगी, उतनी ही आपकी क्षमतायें fertile होंगी। आपका दिमाग और अधिक काम करेगा, और अधिक उपजाऊ होगा। अधिकतर दार्शनिक कहते रहे हैं कि सही अर्थों में मनुष्य की मृत्यु तभी होती है जब उसका मस्तिष्क मर जाता है। अपने प्रत्येक कार्य को स्वयं पूर्ण करें। किसी भी काम के लिए किसी दूसरे पर निर्भर न रहें । दूसरे के सहारे की आशा तनिक भी न रखें। अपने लिये ऐसे कार्यों का चुनाव करें जिन्हें आप स्वयं अपने बलबूते पर, अपनी क्षमता के अनुसार पूरा कर सकें। दूसरों के भरोसे कल्पना के बड़े-बड़े हवाई किले बनाने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता । बालकों की तरह दूसरों के कंधे पर चढ़कर चलने की प्रवृति का त्याग करना ही उचित है।
दूसरों के बलबूते आपको स्वर्ग का राज्य, अपार धन सम्पत्तियों का अधिकार, उच्च पद प्रतिष्ठा भी मिले तो उसे ठुकराना ही उचित है। अपने आत्म सम्मान के लिए, अन्तर्ज्योति को प्रज्ज्वलित रखने के लिए, स्वावलम्बी बनना ही उचित है। अपने प्रयत्न से आप स्वयं के लिए छोटी सी झोंपड़ी में रहकर, धरती पर विचरण करके, मिट्टी खोदकर कड़ा जीवन भी बिता लेंगे तो वह बहुत बड़ी सफलता होगी। ऐसा करने से आपके अंदर वह शक्ति-क्षमता पैदा होगी जो किसी भी वरदान प्राप्त शासक, पदाधिकारी, सम्पत्तियों के स्वामी को दुर्लभ होती है।
संसार के कोलाहल के बीच, तथाकथित अपने कहाने वालों के बीच, साथियों के बीच भी अपने अकेलेपन को न भूलिए। जगत के व्यवहार के बीच भी अपने को अकेला समझने का अभ्यास अवश्य करते रहें। इसे ही Introspection ,आत्मनिरिक्षण यां अंतर्दर्शन कहते हैं। आप नियमित रूप से ऐसा समय निकाल सकते हैं जब अपने अकेलेपन पर विचार कर सकें,अपनी अन्तर्ज्योति से सान्निध्य प्राप्त कर सकें एवं उस पर विश्वास कर सकें।
शिक्षा को अंतर्ज्योति कहा जाता है क्योंकि यही वह ज्योति है जिसे प्राप्त करके मनुष्य पग-पग पर अन्धकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होता है। इस ज्योति के तेज ( Aura) से मनुष्य अपने आसपास के वातावरण को भी प्रकाशमय करता है जिसका जीवंत उदाहरण हमारा ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार है। हमारा परम सौभाग्य है कि गुरुदेव ने चुन-चुन कर ऐसी विभूतियाँ इस परिवार को उपहार स्वरूप प्रदान कीं जो अपनी शिक्षा की ज्योति से प्रकाश जगमग कर रही हैं। गुरुकुल का अर्थ होता है गुरु का कुल। हम उस महान गुरु के वंशज हैं जिसकी महानता का वर्णन शब्दों में अस्मभव है। गुरुकुल में शिष्य गुरु के सानिध्य में रह कर शिक्षा प्राप्त करता है। हम भी प्रतिदिन नियमितता एवं अनुशासन का पालन करते हुए “गुरुकुल की पाठशाला” में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।
अकेले चलने का अर्थ न तो व्यक्तिवादी (Individualism) है, न ही स्वार्थी होना है और न ही अहंकारी बनना है। जहाँ व्यक्तिवाद और अहंकार पैदा हुआ कि मनुष्य अपने श्रेयपथ से भटक जाता है गलत काम कर बैठता है जिससे उसका पतन निश्चित है । अकेलेपन का अर्थ लोक- व्यवहार को तोड़ बैठना,सामाजिक उत्तरदायित्व से आँख मूँद लेना, परस्पर सहयोग सहायता मेलजोल से हाथ धो बैठना भी नहीं है।
Individualism का अर्थ है कि हम जीवन यात्रा और जगत विचरण के लिए दूसरे लोगों की सहायता पर ही आश्रित न रहें बल्कि इस यात्रा का शक्ति स्रोत स्वयं के अंदर ही तलाशें क्योंकि अन्तःप्रेरणा पर चलने वाले ही सफल होते हैं। किसी बात को आँख मूँद कर न मानने वाला व्यक्ति ही स्वतन्त्र निर्णय करके सही तथ्य तक पहुँच सकता है। ऐसा करने की स्थिति में अगर असफलता हाथ लगती है तो उसका आरोप व्यक्ति स्वयं पर ही लेगा। दूसरी स्थिति में अपनी असफलता का ठीकरा किसी दूसरे पर ही फोड़ेगा। सफलता का श्रेय तो सहायता करने वाला स्वयं लेता रहेगा।
ईश्वर ने हमें स्वतन्त्र बुद्धि दी है, स्वतन्त्र शरीर दिया है। ऐसी शक्तियाँ दी हैं जो किसी दूसरे के सहारे काम नहीं करती। इन मौलिक शक्तियों, क्षमताओं का उपयोग करते हुए स्वतन्त्र जीवन बिताया जा सकता है, स्वावलम्बी बना जा सकता है। इसी में हमारा गौरव है, शान है।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 9 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। अरुण जी स्वर्ण पदक विजेता घोषित हुए हैं ।
(1) अरुण वर्मा-56,(2)रेणु श्रीवास्तव-34 ,(3)संध्या कुमार-36,(4)सुजाता उपाध्याय-24,(5 )सरविन्द पाल-37 ,(6) चंद्रेश बहादुर-24 ,(7) वंदना कुमार-24 ,(8) पिंकी पाल-24,(9 ) कुमोदनी गौराहा-45
सभी विजेताओं को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।