वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

हमारे जीवन में अशांति क्यों है ?

आज के प्रज्ञा गीत के स्थान पर यह 47 सेकंड का  गीता उपदेश लेख से मेल खाता है।

  गीता उपदेश

2 मई 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज का ज्ञानप्रसाद इतना सरल और बहुचर्चित है कि  शायद अधिकतर पाठक इसको पढ़े बिना ही  यह कहकर ही छोड़ दें कि “यह क्या बात बनी, क्या हमें पता नहीं  कि हमारा मन अशांत क्यों है, हमारी अशांति तो व्यक्तिगत है, ऐसे लेखों से, उपदेशों से तो इंटरनेट भरा पड़ा है” लेकिन उपदेश की जो बातें जनरल हैं सदैव मार्गदर्शन देती ही रहेंगीं। सब कुछ पता होने के  बावजूद अगर इस  लेख का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया गया  तो हो सकता है पाठक कहने को विवश हो जाएँ “ओह यह तो मेरे लिए ही लिखा है, मुझे मेरी अशांति का कारण मिल गया” हम तो यही कहेंगें कि अध्ययन के समय  कॉपी पैन पास रख लें और  अशांति की एक-एक स्थिति और उसका  निवारण साथ-साथ लिखते जाएँ।  हो सकता है अंतिम पंक्तियों तक पहुँचते आप एक शांत व्यक्ति हों, अगर ऐसा हो जाता है तो परम पूज्य गुरुदेव संतुष्ट हो जायेंगें कि 60 वर्ष पूर्व अखंड ज्योति के सितम्बर 1964 में दिया गया निर्देश सार्थक सिद्ध हो गया।

जीवन में असन्तोष और अशान्ति क्यों पैदा होते हैं? इसका कोई एक उत्तर नहीं दिया जा सकता। मानव जीवन में दृश्य-अदृश्य ऐसे बहुत से कारण होते हैं जो अशान्ति और असन्तोष पैदा कर देते हैं फिर भी मनुष्य की अनिश्चयता (uncertainty) भरी ज़िंदगी से, यथार्थ से आँखें मूँद कर कल्पना-लोक में विचरण करना, जीवन जीने का अस्वाभाविक मार्ग अपनाना, तृष्णा, स्वयं के  प्रति अनजान रहना, असन्तुलित मन, उद्देश्यरहित जीवन ऐसे मुख्य कारण हैं, जिनसे मनुष्य जीवन भर  अशान्त और असन्तुष्ट रहता है।

अशान्ति और  असन्तोष मनुष्य के जीवन में तब पैदा हो जाती हैं जब उसके “आन्तरिक और बाहरी मन” में एकसमता नहीं होती है। अन्तर मन कुछ और चाहे और बाहरी मन कुछ और करे। ऐसे लोग असन्तुष्ट और अशान्त ही रहते हैं, ऐसे लोग अक्सर दुविधा की स्थिति में पड़े रहते हैं। कई व्यक्ति अंतर्मन से बड़े आदर्शवादी होते हैं लेकिन बाहरी  मन की प्रेरणा से अपने आदर्श के विरुद्ध  कार्य कर बैठते हैं। कई बार मनुष्य आदर्शवादी होता है लेकिन कुछ असंस्कृत संस्कारों  के कारण अनैतिक कार्य  कर देता है जिससे संघर्षपूर्ण स्थिति पैदा हो जाती है। यह स्थिति ही  मनुष्य की अशान्ति और  असन्तोष का कारण बन जाती है। यही स्थिति होती है जो अनेकों शारीरिक एवं  मानसिक बीमारियों को जन्म  देती है। 

मन की शान्ति और सन्तोष के लिए सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रथम कदम है अन्तर और बाहरी मन में सामंजस्य पैदा करना। जैसा भीतर हो, वैसा बाहर इस तरह की एकरूपता जितनी होगी, उतनी ही मनुष्य में प्रसन्नता, शान्ति और  सन्तोष की वृद्धि होगी। लेकिन real life में तो मन को मार कर भी चाटुकारिता करते हुए प्रगति से शिखर पर चढ़ते देखा जा रहा है ??? 

मैं क्या हूँ ?

असन्तोष का एक मुख्य कारण है:  अपनी यथार्थ स्थिति को भूल जाना, वास्तविकता से आँखें मूँद कर किसी के कहे, सुने या कल्पना से भरे  स्वरूप में स्वयं को  समझने, देखने की भूल कर बैठना। बहुत से लोगों को इसी कारण जीवनभर अशान्ति और असन्तोष का सामना करना पड़ता है। अपनी सहज स्वाभाविक स्थिति को भुलाकर लोग जब जीवन का अस्वाभाविक मार्ग अपनाते हैं, अपनी सीमा से कुछ अधिक की आशाएं  रखते हैं तो उन्हें असन्तुष्ट ही रहना पड़ता है। इस असंतुष्टि का केवल एक ही कारण है जो शत प्रतिशत प्राकृतिक है। अगर हम प्रकृति के नियम के विरुद्ध जायेंगें तो क्या प्रकृति सहन कर लेगी, कदापि नहीं। प्रकृति का प्रकोप तो हम आए दिन देखते आ रहे हैं। कोरोना, भूकंप, Nuclear war इत्यादि तो एक तरफ रह जाते हैं जब हम अपने ह्रदय में उठ रहे युद्ध की बात करते हैं।    

प्रकृति का एक नियम है कि सभी कार्य step by step सम्पन्न होते हैं/ होने चाहिएं। बचपन से कोई अचानक वृद्धावस्था में नहीं पहुँच जाता। उगते हुए पौधे  में ही फल नहीं आ जाते। अभी किशोरावस्था में ही पहुँचे हैं और आस पास के लोगों के कहे-सुने अनुसार लोग बड़े ही  दार्शनिक, धार्मिक बन जाने की धारणा बना बैठते हैं। ऐसे किशोरों की प्राकृतिक स्थिति इस स्थिति से बिल्कुल ही भिन्न होती है। प्रकृति तो चाहती है कि इस आयु में वह उछल-कूद सीखें, सृजन करें,अपनी प्रवृति के अनुसार कार्यों में ही मन लगाएं और उसी में अपने श्रम और ऊर्जा का सदुपयोग करें। इस तरह के ज़बरदस्ती निर्णयों के कारण उनकी प्रकृति और अस्वाभाविक प्रवृत्तियों में संघर्ष पैदा हो जाता है। यह एक ऐसा संघर्ष है जिससे केवल वोह किशोर ही प्रभावित नहीं होता, उसका सारा परिवार क्या distant  relations भी प्रभावित होता है। प्रकृति के विरुद्ध लिया गया एक गलत निर्णय ही  अशांति और असन्तोष का कारण बन बैठता है।

दूसरी स्थिति बिल्कुल ही इस स्थिति से विपरीत होती है। इस स्थिति में  लोग बड़ी उम्र में पहुँचकर भी युवकों, किशोरों जैसे प्रवृत्ति प्रधान कार्यक्रमों में लगे रहते हैं, जब कि प्रकृति उन्हें निवृत्ति ( Retirement)  की ओर लगाना चाहती है। प्रकृति चाहती है कि  इस अवस्था में भौतिक कार्यक्रमों से छुट्टी ली जाए और धर्म, संस्कृति, समाज के चिन्तन में लीन हुआ जाए। जब मनुष्य ऐसा नहीं करता, तब भी असन्तोष पैदा हो जाता है जो अन्य प्रकार का असंतोष होता है। 

जब हमारे पाठक इन पंक्तियाँ को पढ़  रहे हैं तो अनेकों  ऐसे भी हो सकते हैं जो  इन स्थितियों को अपने ऊपर लागू करने का प्रयास कर रहे होंगें। अनेकों ऐसे भी होंगें जो हमसे असहमत भी होंगें ,असहमत होना उनका अधिकार है लेकिन परम पूज्य गुरुदेव  जिस बात को समझाने को प्रयास कर रहे हैं वोह 1964 में, आज से लगभग 60 वर्ष पूर्व की बात है। इन 60 वर्षों में मनुष्य कहाँ से कहाँ पहुंच गया,किसी से छिपा नहीं है। प्रगति के नाम पर क्या कुछ सर्वनाश हुआ है, उससे हम आँख नहीं मूँद सकते।   

महत्वाकाँक्षायें रखना बुरी बात नहीं है। इन्हीं के सहारे मनुष्य आगे बढ़ता है, उच्च सफलतायें अर्जित करता है लेकिन महत्वाकाँक्षाओं के साथ-साथ मनुष्य को  अपनी स्थिति, योग्यता, परिस्थितियाँ, क्षमता आदि पर भी दृष्टि रखनी चाहिए। जो व्यक्ति महत्वकाँक्षाओं और अपनी परिस्थितियों में तालमेल बैठाकर प्रयास करता रहता है, वह सफल भी हो जाता है। दूसरी स्थिति में जो व्यक्ति अपनी स्थिति को भूलकर जब  महत्वाकाँक्षाओं के पीछे अन्धा हो जाता है, उसे अशान्ति का ही सामना करना पड़ता है।

आप क्या हैं, आपकी परिस्थितियाँ कैसी हैं, इन्हें जाने,समझे बिना महत्वाकाँक्षाओं के पीछे दौड़ने से असंतोष ही हाथ लगता है। सफल  व्यक्तियों के उपदेशों को जीवन में उतारें लेकिन उन जैसा बनने का अन्धा प्रयत्न न करें। स्मरण रखिए प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक प्राकृतिक बनावट होती है। उसी की सीमा में बढ़ते रहने पर वह स्वयं  में पर्याप्त विकास प्राप्त कर सकता है। जब मनुष्य अपने प्रकृतिक बनावट  को भुला कर दूसरों  की नकल करता है, तब उसे internal  fight  का सामना करना पड़ता है। जो मनुष्य वास्तविकता को भुलाने का असफल प्रयत्न करता है, वह उतना ही अशान्त और असन्तुष्ट रहता है।

सन्तोष के साधन के लिए आपके पास वर्तमान में जो कुछ है, उस पर सन्तोष करें, उसका लाभ उठावें । इसका अर्थ यह नहीं कि भावी प्रगति के लिए प्रयत्न ही न किया जाय। सन्तोष का अर्थ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना नहीं है। 

“वर्तमान से सन्तुष्ट रहकर भावी उन्नति के लिए धैर्यपूर्वक प्रयत्नशील रहना शान्ति के लिए आवश्यक है।”

मनुष्य की अशान्ति और असन्तोष का कारण “उसका अपना मन” ही  है। असन्तुलित, बिना साधा हुआ मन, मनुष्य को ऐसी परिस्थितियों में घसीटता रहता है  जिससे अशान्ति और असन्तोष की आग सुलगती रहती है। जिस तरह बिना सधा हुआ घोड़ा सवार को दुःखद परिस्थितियों में डाल देता है, उसी तरह असंस्कृत, असन्तुलित मन मनुष्य को कई दोष चक्रों में फंसाता रहता है, जहाँ परिणाम में  असफलता, अशान्ति, असन्तोष ही परिणाम में मिलते हैं।

भले ही मनुष्य इनका दोष भाग्य पर या किसी अन्य व्यक्ति पर मढ़ता रहे लेकिन बेसिक  दोष उसके “बिना सधे हुए मन” का ही होता है। जिसका मन सधा हुआ नहीं है, वह व्यक्ति सदैव अपनी परिस्थितियों, दूसरे व्यक्तियों के पराधीन, परावलम्बी, परमुखापेक्षी रहता है। स्वावलम्बी, सधे हुए मन वाला व्यक्ति ही सन्तुष्ट और शान्त रह सकता है। सधे हुए मन के बारे में गुरुदेव के अनमोल वचन के लिए यह वीडियो अवश्य देखें।  

मनुष्य की अशान्ति का एक और कारण होता है, उसका निरुद्देश्य जीवन । प्रत्येक व्यक्ति संसार में कदम रखने के साथ ही अपनी जीवन यात्रा का एक विशेष लक्ष्य लेकर आता है लेकिन संसार में आते ही यहाँ उपलब्ध अनेकों प्रकार के आकर्षणों में, वस्तु पदार्थों में ऐसा उलझ जाता है, ऐसा लिप्त हो जाता है कि उसके अंतकरण में बैठी हुई चेतना उसे बार-बार कचोटती है और वह तब तक छटपटाती रहती है जब तक मनुष्य एक निर्दिष्ट लक्ष्य निर्धारित नहीं कर लेता। यह लक्ष्य ऐसा होता है जो उसकी अन्तरात्मा को स्वीकृत हो। आत्मा की आवाज़ सुनते ही, स्वीकृति मिलते ही मनुष्य को शांत होने में कोई समय नहीं लगता। 

लक्ष्य-विहीन मनुष्य: 

निरुद्देश्य, लक्ष्य-विहीन जीवन में  जिसमें मनुष्य परिस्थितियों, वातावरण एवं दूसरों के द्वारा धकेला  जाता है,कभी भी शान्ति और सन्तोष की आशा नहीं की जा सकती । आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य अपना लक्ष्य निर्धारित करे और उसके अनुसार आगे बढ़े। निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ने पर मनुष्य को एक तरह का सन्तोष मिलता है। इस सम्बन्ध में एक और महत्वपूर्ण बात है यह है  कि स्वार्थपूर्ण जीवन में मनुष्य को स्थायी शान्ति कभी नहीं मिल सकती और  न ही  ऐसे जीवन में सन्तोष  मिलता है । परमार्थ प्रधान कार्यों से ही मनुष्य शान्ति अनुभव करता है। इस परमार्थ में, दूसरों के हित, में मनुष्य के प्रयास जितने बढ़ते जायेंगे, वह उतना ही सन्तुष्ट और शान्त होता जायेगा।

एक व्यक्ति की घड़ी खो गई। वह खोजते- खोजते परेशान हो गया, लेकिन उसे कहीं घड़ी नहीं मिली। एक बच्चे ने उन्हें इस तरह परेशान देखा तो उसने बड़े इत्मीनान से कहा, आप चिंता न करें, मैं दो मिनट में आपकी घड़ी खोज दूंगा। बच्चे की इस बात पर उन सच्जन को गुस्सा आया, फिर उन्होंने सोचा कि देखते हैं बच्चा क्या करता है। खैर जिस कमरे में घड़ी खोई थी, बच्चे ने उसे खाली करने का निर्देश जारी कर दिया। इसके बाद बच्चा उस कमरे में गया और कुछ ही मिनट में घड़ी खोज लाया। उस बच्चे ने कहा, मैंने कुछ नहीं किया। बस मैं कमरे में गया और चुपचाप बैठ गया, घड़ी की आवाज पर ध्यान केंद्रित करने लगा, कमरे में शांति होने के कारण मुझे  घड़ी की टिक-टिक सुनाई दी  जिससे मैंने उसकी दिशा का अंदाजा लगा लिया और अलमारी के पीछे गिरी घड़ी को खोज निकाला। 

कितनी आश्चर्य की बात है कि इस छोटे से बच्चे को घड़ी की टिकटिक सुनाई दे गयी लेकिन हमें अपने मन की टिकटिक सुनाई नहीं  देती।

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आज  की  24 आहुति संकल्प सूची  में 13   युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है।  सरविन्द जी, अरुण जी और रेणु जी तीनों लगभग bracketed होकर  स्वर्ण पदक विजेता घोषित हुए हैं । 

(1) अरुण वर्मा-52 ,(2)रेणु  श्रीवास्तव-53,(3)संध्या कुमार-47,(4 )सुजाता उपाध्याय-25,(5 ) सुमन लता-29,(6)सरविन्द पाल-56,(7) चंद्रेश बहादुर-33,(8) वंदना कुमार-35,(9) स्नेहा गुप्ता-30,(10)पिंकी पाल-25,(11) विदुषी बंता-25,(12) कुमोदनी गौराहा-24,(13) मंजू मिश्रा-25                

सभी विजेताओं को हमारी  व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।

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