हमारे समर्पित सहकर्मी आज के ज्ञानप्रसाद लेख के शीर्षक को देख कर चौंक तो उठे ही होंगें कि हमने कहीं गलती से 93.1 FM पर ब्रॉडकास्ट होने वाला सुपरहिट बहुचर्चित रेडियो प्रोग्राम को tune-in तो नहीं कर दिया। नहीं नहीं आप अपने परिवार में ही हैं, गुरुदेव के चरणों में ही हैं।
आज के ज्ञानप्रसाद के शीर्षक के पीछे 29 अप्रैल 2021 का लेख है, जो फेसबुक मेमोरी पर शेयर हुआ। इस शेयर को देख कर लेख को पुनः प्रकाशित करने की “फरमायश” आयी। जहाँ लेख की लोकप्रियता देखकर प्रसन्नता हो रही है, वहीँ फरमायश( अनुरोध) का पालन करते हुए कर्तव्यनिष्ठा का आभास भी हो रहा है। दो वर्ष पूर्व प्रकाशित इस लेख में समर्पण के उदाहरण दिए गए हैं जिन्हे पढ़कर आपको अवश्य की प्रेरणा मिलेगी। तो झट से विश्वशांति की प्रार्थना करते हैं और अमृतपान करते हैं दो वर्ष पुराने लेकिन अपडेटेड लेख का ।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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इस लेख में 1.गुरुदेव और पंडित लीलापत जी,2.गुरुदेव और श्रेध्य डॉ प्रणव पंड्या जी, 3.गुरुदेव और शुक्ला बाबा और 4.शुक्ला बाबा और मृतुन्जय तिवारी जी के उदाहरण तो दिए हैं लेकिन यह किसी भी गुरु-शिष्य, भक्त-भगवान की बात हो सकती है: समर्पण, समर्पण और केवल समर्पण।
केंद्रीय मंत्री श्री रवि शंकर प्रसाद जी ने एक वीडियो में गायत्री परिवार के सदस्यों की संख्या 15 करोड़ बताई है। देखकर गर्व तो बहुत हुआ लेकिन 15 करोड़ में लीलापत जी जैसे, शुक्ला बाबा जैसे, श्रद्धेय जी जैसे, मृतुन्जय भाई साहिब जैसे कितने हैं । ज़रा सोचिये
गुरु और माली का उत्तरदाईत्व :
एक शिष्य के जीवन को सजाने-संवारने में गुरु की वही भूमिका है, जो किसी पौधे के विकास में एक माली की होती है। किस पौधे को कब और कितना खाद,पानी चाहिए,माली को इसका पूर्ण ज्ञान होता है। माली एक नन्हे से पौधे को लगाता है,सींचता है, कीड़ों से, पशुओं से, रोगों से बचाता है। तभी तो एक दिन यह नन्हा-सा पौधा विराट वृक्ष बनकर आकाश को छूने लगता है।
माली के संरक्षण से ही तो सारा गुलशन महक उठता है। ठीक उसी तरह गुरु भी शिष्य में एक नई चेतना को जन्म देता है,शिष्य की चेतना को अपने ज्ञानामृत से सींचता है, भवरोगों से ,दुर्गुणों से बचाता है। तभी तो वह शिष्य एक दिन चेतना के शिखर को छू पाता है, ब्रह्म साक्षात्कार कर पाता है। एक दिन शिष्य का जीवन भी गुलशन की तरह महक उठता है। ऐसे शिष्य को देखकर गुरु को जो आनंदानुभूति होती है उसे शब्दों में बांध पाना असंभव होता है क्योंकि यह भावनाओं के स्तर की बात है।
समर्पण :
इस समय जिस चेतना के शिखर की बात हो रही है उसके लिए शिष्य को स्वयं को पूर्णतः अपने गुरु के हवाले करना होता है,अपनी इच्छाओं-कामनाओं का सर्वथा त्याग करना होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है जैसे कोई रोगी स्वयं को पूर्णतः चिकित्सक के हवाले कर देता है वैसे ही शिष्य को भी स्वयं को गुरु के हवाले कर देना होता है; तभी गुरु एक कुशल चिकित्सक की भांति शिष्य की चेतना में अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार कर पाता है। उसके चित्त की वृत्तियों के कारणरूप उसके कर्म-संस्कारों के समूल विनाश का मार्ग प्रशस्त कर पाता है।
” पूज्य गुरुदेव ने कितने ही जन्मों तक स्वयं को दादा गुरु के हवाले किया “
यदि चिकित्सक रोगी की आवश्यक सर्जरी करने के बजाय उसकी इच्छापूर्ति करने में लग जाए, उसे उसकी इच्छानुसार खाने-पीने की छूट दे दे तो फिर न तो रोगी की सही चिकित्सा हो पाएगी और न ही रोगी रोगमुक्त हो सकेगा। रोगी को रोगमुक्त होने के लिए चिकित्सक के अनुसार तो चलना ही पड़ेगा ,चिकित्सक के परामर्श को मानना ही होगा।
“शिष्य को अपनी इच्छा से नहीं, गुरु की इच्छा से चलना होता है,गुरु की इच्छा को ही अपनी इच्छा बनाना होता है, इसके बाद ही शिष्य चेतना के शिखर को छू पाता है,”
इसीलिए जब पंडित लीलापत शर्मा जी गुरुदेव के संरक्षण में आए तो वह सब कुछ वही करते गए जैसे गुरुदेव करवाते गए। कई बार गुस्से भी हुए लेकिन माता जी-गुरुदेव ने अपने आज्ञाकारी बेटे को मना ही लिया। बिल्क़ुल ऐसा ही विवरण श्रद्धेय डॉक्टर प्रणव पंड्या जी के बारे में भी मिलता है। उनको तो गुरुदेव बार-बार यही कहते सुने गए हैं :
“तू यहाँ मेरे काम के लिए आया है यां अपने ?”
अगर शिष्य अपनी इच्छा के चक्कर में पड़ा रहे तो वह छोटा ही बना रह जाता है, फिर वह बीज से वृक्ष नहीं बन पाता,जीवन के शीर्ष को नहीं छू पाता और घिसी-पिटी जिंदगी जीकर एक दिन संसार से विदा हो जाता है। पंडित जी के शीर्ष व्यक्तित्व के कारण ही हम आज उनकी चर्चा कर रहे हैं। हम इस महान आत्मा के ऊपर कितने ही लेख लिख चुके हैं। जब से उनके द्वारा लिखित पुस्तकें हमारे हाथ में आयी हैं उनके बारे में जानने की जिज्ञासा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। उन्ही दिनों शुक्ला बाबा का पता चला तो उसमें ही डूबते गए।
क्या हम भगवान के सच्चे भक्त हैं ?
कहने को तो हर कोई स्वयं को गुरु का सच्चा शिष्य मानता है, स्वयं को ईश्वर का उपासक मानता है, ईश्वरदर्शन के लिए मंदिरों-आश्रमों में भी जाता है। लेकिन क्या उसे सचमुच में ईश्वर के दर्शन हो पाते हैं ? क्या वह गुरु के दरबार में, ईश्वर के दरबार में उपासक बनकर जा पाता है? शायद नहीं, क्योंकि वह ईश्वर का उपासक नहीं याचक (भिखारी) बन कर जाता है।
ईश्वर के समीप बैठकर भी हम उपासना से दूर ही रहते हैं क्योंकि हमें तो अपनी छोटी -छोटी, तुच्छ सी इच्छाओं की टोकरी सामने दिख रही होती है। हम रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, लड़ते हैं, ढेर सारी याचनाएँ करते हैं। यही वोह स्टेज होती है जब गुरु की आवश्यकता पड़ती है। गुरु ही ईश्वर से साक्षात्कार का मार्ग दिखाता है। ईश्वर के समीप जाने का, पास बैठने का वास्तविक उद्देश्य गुरु ही बता पाता है । उपासना का असली मर्म तो हमारे गुरु ही बता पाते हैं। हमारे आराध्य, हमारे गुरु ही हैं, जो हमें बताते हैं कि ” उपासना याचना नहीं और याचना उपासना नहीं।”
हम ईश्वर के पास जाएँ लेकिन याचक बनकर नहीं, उपासक बनकर, दर्शक बनकर नहीं, द्रष्टा बनकर जाएँ । द्रष्टा का अर्थ है कि हम केवल देख नहीं रहे हैं,अंदर तक देख रहे हैं,गहराई में जा रहे हैं। तभी तो उनके पास जाने की, उनके पास बैठने की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।
हमारी वीडियोस में आप मृतुन्जय तिवारी जी का समर्पण भी देख सकते हैं। बच्चे,पत्नी ,माता पिता, व्यापार कोलकाता महानगर में था, स्वयं सारा जीवन मस्तीचक जैसे छोटे से ग्राम के कायाकल्प में लगा दिया जहाँ केवल 12 घंटे बिजली आती थी। शुक्ला बाबा के प्रति उनके समर्पण से हमारे साथी परिचित हैं।
ईश्वर की विराट प्रतिमा के समक्ष खड़े होकर, अपने ब्रह्मज्ञानी गुरु के समक्ष खड़े होकर भी स्वयं को बंधन में बंधने वाली याचनाएँ क्यों करना? वहाँ तो उनकी विराटता की अनुभूति करनी चाहिए। उनकी विराटता को स्वयं के अंतःकरण के आकाश में उतरते हुए देखना चाहिए। हमें देखना चाहिए कि जैसे हमारे आराध्य, हमारे भगवान, हमारे गुरु के हृदयाकाश में कोटि-कोटि सूर्य, चंद्र व तारे जगमगा रहे हैं, वैसे ही क्या हमारे हृदयाकाश में भी ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि के रूप में सूर्य, चंद्र व तारे जगमगाने लगे हैं? क्या हमारे अंतःकरण से अज्ञान का अँधेरा मिटने लगा है? जैसे आकाश में हज़ारों सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो प्रकाश उत्पन्न होता है, वो दिव्य अनुभूति हमें उपासना में करनी है। भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अर्जुन को विराट रूप दिखाया तो उसकी आँखें चुंदीआं गयी थीं। इतना प्रकाश,इतना तेज़ उससे सहन नहीं हो रहा था
क्या हम भगवान में अपना रूप देखते हैं ?
जिस प्रकार दर्पण में हम अपने रूप को भली भाँति देख पाते हैं, वैसे ही ईश्वर की, गुरु की प्रतिमाओं में, हम अपने वास्तविक स्वरूप को देख पाते हैं? अपने सोऽहम्, शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् रूप को देख पाते हैं, निहार पाते हैं ? उपासना में ईश्वर के पास बैठकर या गुरु के पास बैठकर हमें स्वयं वैसा ही होना है जैसे हमारे आराध्य हैं, भगवान हैं, गुरु हैं। उस विराट ब्रह्मसमुद्र के समीप होकर भी उससे बूंद, दो बूंद जल पाने की याचना क्या करना? उस विराट ब्रह्मसमुद्र में उतरकर, डूबकर, उसमें घुल-मिलकर हम स्वयं भी बिंदु से सिंधु, सरिता से सागर क्यों नहीं हो जाते ? हम उस ब्रह्मसमुद्र के समीप होकर भी स्वयं के अंतस् में भी प्रेम, पवित्रता, करुणा, संवेदना आदि दिव्य गुणों की रसधार क्यों नहीं प्रवाहित कर पाते ? अपनी आत्मा में ही परमात्मा के सत्-चित्-आनंद स्वरूप की अनुभूति क्यों नहीं कर पाते ।
समुद्र के पास बैठकर उसकी गहराई, उसकी विराटता की अनुभूति, गंगा के पास बैठकर उसकी शीतलता की अनुभूति, ईश्वर के पास एवं गुरु के पास बैठकर उसकी ब्रह्मानुभूति करना ही तो उपासना है। यही तो सच्ची उपासना है ,सच्ची भक्ति है ,सच्चा समर्पण है ,सच्चा योग है ,ईशदर्शन है और हम स्वयं भी तो ईश्वर अंश ही है। हम स्वय भी तो सुख की राशि हैं तो फिर गुरु से, ईश्वर से याचना क्या करना। अपना जो कुछ भी है, सो उनका अर्थात परमात्मा का है और उनका जो कुछ है, सो अपना ही तो है। इसीलिए तो हम कहते हैं : ” तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा “
हमें तो बस, ईश्वर के समीप बैठकर, गुरु के समीप बैठकर उनकी ईश्वरीय विराटता का बार-बार स्मरण करना है। उनके दिव्य गुणों का बार-बार स्मरण करना है। तभी तो हमें स्वयं की विराटता का, अपने सत्-चित्-आनंद रूप का स्मरण हो सकेगा, उसी रूप का बार-बार स्मरण ही उपासना है। ऐसी उपासना से हम स्वयं भी ईश्वरमय हो सकते हैं। हम वो बन सकते हैं जो हमारे गुरु बनाना चाहते हैं। ऐसे में, उपासना करते समय, ईश्वर या गुरु के समीप होकर स्वयं को भी उनके ही रंग में क्यों न रँग लें? ईश्वर की विराटता का, ईश्वर की दिव्यता का बार-बार स्मरण कर हम स्वयं भी विराट क्यों न बन जाएँ, दिव्य बन जाएँ, मानव से माधव बन जाएँ?
इन्ही शब्दों के साथ हम आज के ज्ञानप्रसाद को विराम देते हैं इस आस्था के साथ कि हम किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होंगें क्योंकि हमने स्वयं को उस परमपिता के हवाले कर दिया है।
परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 17 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है और अरुण जी सबसे अधिक अंक प्राप्त करके स्वर्ण पदक विजेता घोषित हुए हैं ।
(1) अरुण वर्मा-59,(2)रेणु श्रीवास्तव-41,(3)संध्या कुमार-36,(4 )सुजाता उपाध्याय-40,(5 ) सुमन लता-34,(6)सरविन्द पाल-31,(7 )पूनम कुमारी-25,(8) निशा भारद्वाज-25,(9) चंद्रेश बहादुर-37,(10) वंदना कुमार-35,(11) पुष्पा सिंह-26,(12) स्नेहा गुप्ता-31,(13) अनुराधा पाल-25,(14) पिंकी पाल-37, (15)राधा त्रिखा-26,(16) प्रेरणा कुमारी-26,(17) संजना कुमारी-24
सभी विजेताओं को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।