वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

“अपने सहकर्मियों की कलम” से का 29 अप्रैल 2023 का सेगमेंट।  Contributors: Arun Trikha and Sandhya Kumar

आज का  स्पेशल सेगमेंट बिना कवर पोस्टर के प्रकाशित किया गया है। 

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वैसे तो हमारे सहकर्मी सारा सप्ताह ही ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के contributions  की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं लेकिन शनिवार का स्पेशल सेगमेंट अपने साथियों के ह्रदय में कुछ अलग ही स्थान बनाये हुए है। इस स्पेशल स्थान का कारण परिवार के समर्पित साथियों के contributions होते हैं जिनका अमृतपान हम सब बड़े आदर सम्मान से करते हैं। 

आज के सेगमेंट में आप “अरुण त्रिखा गुरुदेव के डाकबाबू” और संध्या बहिन जी का selected कमेंट पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त करेंगें। 

विश्वशांति की कामना  के साथ आरम्भ करते हैं आज की वीकेंड पाठशाला। 

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

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1.हम तो गुरुदेव के मात्र डाकबाबू  हैं-अरुण त्रिखा 

हम एक दृष्टांत का चित्रण कर रहे  हैं जिसको समझने के लिए अपने साथियों के समर्पण और श्रद्धा का सहारा लिया गया है। जटिलता को सरल करने का प्रयास किया है, अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो हमारे साथी क्षमा कर देंगें, ऐसा हमारा विश्वास है। 

दृष्टांत 17 April का है जब हमने शुभरात्रि संदेश ( मैसेज) तो पोस्ट कर दिया लेकिन पिक्चर   अटैच करना भूल गए,पता तब चला जब हमारी छोटी बहिन राजकुमारी जी ने  हमें इस त्रुटि के लिए सचेत किया। जहां हम बहिन जी का सूचित करने के लिए धन्यवाद करते हैं, वहीं हमें समझ नहीं आ रहा कि उन सहकर्मियों का क्या करें जिन्होंने धड़ाधड़  हाथ जोड़ने वाला  emoji भेज कर अपनी ड्यूटी पूरी कर दी और निश्चिंत हो गए कि हमने गुरु का कार्य कर दिया। उन्होंने एक मानव की भांति नहीं बल्कि एक रोबोट की भांति कार्य किया जिनका ब्रेन  इस तरह tune किया हुआ  है कि केवल emoji अटैच करना है, जय गुरुदेव या धन्यवाद् लिखने का भी समय नहीं है। 

अरुण भाई साहिब की सुविधा के लिए व्हाट्सप्प पर हम शुभरात्रि सन्देश और पिक्चर अलग-अलग (दो मैसेज) पोस्ट करते हैं।  अरुण जी को अपने सर्किल में  शेयर करने में असुविधा होती है ।  इन दोनों मैसेज के बीच के समय में कुछ seconds का ही अंतर होता है, लेकिन इन seconds में कई लोग हमारे परिवार के प्रति, गुरुदेव के प्रति,अपनी ड्यूटी निभा जाते हैं। हो सकता है कि बहुत से परिजन इमोजी लगा कर यह साबित करना चाहते हों कि हमें आपका मैसेज मिल गया है और विस्तृत जानकारी बाद में देख लेंगें।  अगर इस तरह की बात है तो हम क्षमाप्रार्थी हैं और अपने लिखे हुए सभी शब्दों को वापिस लेते हैं, लेकिन ऐसी बात है नहीं क्योंकि उन कुछ seconds में जिन्होंने respond  किया, हमारे बार-बार  निवेदन करने के बावजूद उन्होंने बड़े कमेंट तो क्या कभी “जय गुरुदेव/ धन्यवाद्” लिखना भी उचित नहीं समझा। यह पंक्तियाँ हम जिन परिजनों के लिए लिख रहे हैं वह शायद अब भी न पढ़ें लेकिन जो पढ़ रहे हैं उन्हें तो हमारी भावनाओं का आभास हो ही  रहा होगा। 

हम सभी ने एक ही संकल्प लिया हुआ है कि गुरु के साथ पानी और चीनी की तरह घुल कर, श्रद्धा और समर्पण के साथ गुरु का कार्य करना, किसी भी मूल्य पर गुरु के साहित्य का अनादर सहन नहीं करना, इस साहित्य को मस्तक पर धारण करके, श्रद्धापूर्वक अंतःकरण में उतार कर अपने कमैंट्स रुपी पुष्प गुरुचरणों में अर्पित करने और इन पुष्पों से अपने आसपास और विश्व रुपी उपवन (ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार) को सुगन्धित करना।   

हमने बार-बार अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए लिखा है कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के बैनर तले  जो भी साहित्य, वीडियो/ विचार प्रकाशित  किये जा रहे हैं वोह केवल  मेरे/हमारे गुरु  का ही  ज्ञानप्रसाद है। उन पर हमारा कोई भी अधिकार नहीं है।  हमारी इतनी पात्रता कहाँ कि उस महान  गुरु के विशाल साहित्य को समझ भी पाएं।  

हम तो केवल एक पोस्टमैन(डाक बाबू) की ड्यूटी निभा रहे हैं, पोस्टमैन भी उस स्तर का जिसका पोस्ट ऑफिस  हिमालय के छोटे से गांव में स्थित है। उस दिव्य वातावरण में सुबह सवेरे उठ कर पोस्टबाबू ऊबड़ खाबड़ पहाड़ियों में डाक लेकर घर-घर वितरण करता है। प्रत्येक घर के द्वार पर पोस्टबाबू  का जो आदर सत्कार  होता है,उसे चिट्ठी प्राप्तकर्ता  कमेंट करके व्यक्त करते हैं। हर कमेंट ऐसा होता है कि पोस्टबाबू  की आँखों से अश्रुधारा रुकते नहीं बनती। कई घरों में तो डाकबाबू का ठीक उसी तरह स्वागत होता है  जिस तरह एक नवविवाहिता करती है जिसका पति सीमा पर तैनात है l पति के  पत्र की प्रतीक्षा कर रही इस बेटी को पता  होता है कि कब उसके प्रियतम का पत्र आना है। पत्र पा कर उसे जो सकून  मिलता है वोह तो गूंगे का गुड़ है । बेटी  उस पत्र को बार बार चूमती है, पत्र लाने वाले के हाथों को भी लज्जावश  चूम लेती है। अगर किसी कारणवश पत्र मिलने में विलम्ब हो जाता है तो बेटी डाक बाबू से न जाने कितनी बार पूछ लेती है, चिंता व्यक्त करते कहती है – सब ठीक ही हो।

अक्सर इस तरह के समर्पण भरे सीन हमारी दृष्टि के आगे घूम जाते हैं जब कभी निर्धारित समय पर हमारे पाठकों को ज्ञानप्रसाद वितरित नहीं होता और भाई, बहिन,बेटियां हमें सूचित करती हैं। नमन है ऐसे समर्पण को, श्रद्धा को, जिसे देखकर हमें जो ऊर्जा प्राप्त होती है वोह हमारे अंदर प्राणशक्ति भरते हुए अतिरिक्त  यौवन प्रदान करती है।

जिस नवविवाहिता की बात हम कर रहे थे, वोह पत्र को बार बार पढ़ती है ठीक उसी तरह जैसे हमारे  पाठक ज्ञानप्रसाद का अमृत सेवन भी कई बार करते हैं। यही गुरुदेव का प्यार है।

हम अपनेआप को प्रतिदिन समझाने का प्रयास करते हैं कि अरे मूर्ख अरुण त्रिखा ज़्यादा हवा में उड़ने की कोई ज़रुरत नहीं, यह सब रिस्पांस तेरे गुरु को मिल रहा है,तेरी औकात ही क्या है।  हम बारम्बार उस गुरु के चरण स्पर्श करते हैं जिसने हमें कहाँ से कहां पहुंचा दिया, विश्व भर का  सारा प्रेम हम निर्धन की झोली में डाल  दिया।   

हम जब गुरुदेव के साहित्य के अनादर की बात करते हैं तो उनके शब्द  स्मरण हो आते हैं। मेरा गुरु कहता है “यह साहित्य मैंने अपने रक्त के आंसुओं से  सींचा है। ” 

हमारे सहकर्मी समझ सकते हैं कि परम पूज्य गुरुदेव के बारे में  इतना कुछ जान लेने के बाद हम अपने गुरु का अनादर कैसे  सहन कर सकते हैं। हम इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हैं ?

अधिकतर साथी  गुरुदेव के साहित्य के साथ नवविवाहिता-पोस्टमैन, भक्त-ईश्वर जैसा सम्बन्ध स्थापित  कर चुके हैं, उनकी सराहना में  हम कई बार लिख चुके हैं, और अधिक लिखेंगें तो चापलूसी/ चाटुकारिता होगी। जिनका मन अभी भटक रहा है, अस्थिरता उन्हें छोड़ ही नहीं रही, बार-बार अनेकों गुरुद्वारों से भटक कर, कभी-कभार ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार को टेस्ट करने आ जाते हैं, समय अभाव का बहाना बनाते रहते हैं, उन्हें निवेदन है कि मन को  स्थिर करके बिना किसी भटकाव के  समयदान करें और फिर परिणाम  देखें । सबूत चाहिए तो अनेकों साथियों की अनुभूतियां की काफी हैं। शर्त केवल एक ही है: यह कोई जादू की छड़ी नहीं है, इस कार्य में पात्रता विकसित करनी पड़ती है, जब उस स्तर का विकास हो जाता है तो शिष्य को लेने गुरु स्वयं भागा हुआ आता है। हमारे परिवार में जितने भी सहकर्मी सक्रिय होकर दिन रात गुरुकार्य कर रहे हैं, उन्हें गुरु स्वयं लेकर आए हैं ।गुरुदेव ने उनसे संकल्प लिया हुआ है “तू मेरा कार्य कर,बाकी सब मुझ पर छोड़ दे।”

ऐसे Flickring mind वालों को बता दें कि हमारा  परिवार प्रतिभा का जमावड़ा है, उनसे सम्बन्ध बनाएं, विश्वास और अपनत्व का संबंध बनाएं।  हमारा अटूट विश्वास है कि “कायाकल्प होते देर नहीं लगेगी”  हाथ कंगन को आरसी क्या, प्रतक्ष्य को प्रमाण क्या ।  हमारा परिवार आपको स्वयं ही गुरुदेव की शक्ति से अवगत करा देगा। लेकिन साहित्य  के साथ अनादर, मेरे गुरु का अनादर, No No, Never, कदापि सहन नहीं किया जायेगा। यह तो आपको ही, केवल आपको ही  प्रमाणित करना होगा कि आपने इस दिव्य साहित्य  को पढ़ा है कि नहीं, पढ़ने के बाद कितना अंतरात्मा में उतारा है। अंतरात्मा में उतरते ही, उसी क्षण कायाकल्प  आरम्भ हो जायेगा।

यहीं पर हम अपनी रामकहानी का समापन करते हैं, आप निम्लिखित कमैंट् को ज़रा ध्यान से पढ़कर स्वयं ही संध्या जी की प्रतिभा का मूल्यांकन करें  और फिर बात कीजिए।

2.संध्या कुमार जी : 

आपने ठीक ही कहा है कि मानव वानर की संतान है , नकल करना उसकी प्रवृत्ति है।  दूसरों की नकल करते हुए भौतिक उपलब्धी में लिप्त मानव  अपनी आत्मा में विराजमान परमात्मा को विसार  देता है।  घोर आश्चर्य की बात है कि जो परमात्मा हर पल, हर क्षण मनुष्य की देखभाल करता है, मानव उसे ही  भूला बैठता है। आपने  माँ-बच्चे के उदाहरण द्वारा इस संबंध को स्पष्ट कर दिया है।

मनुष्य की आत्मा में परमात्मा को प्रगट करने की प्रक्रिया बहुत गहन विषय है, योग-अध्यात्म का सारा उपक्रम ही आत्मा में परमात्मा को अनुभव करने पर केंद्रित है, जिसका हमें पूर्णतः पालन करना चाहिए और तभी हम आत्मा में परमात्मा की अनुभूति कर सकेंगे परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि  बार-बार परमात्मा का मनन चिंतन करने से परमात्मा की उपासना, साधना, एवं आराधना करने से, परमात्मा का ध्यान करने से हमारी आत्मा में ही सत्त स्वरूप, ज्ञान स्वरूप, प्रेम स्वरूप एवं परमानन्द स्वरूप परमात्मा की अनुभूति स्वयं होने लगती है, साधक को अपनी आत्मा में ही परमात्मा के स्पर्श की अनुभूति होती है। 

भटका हुआ मानव शरीर को ही “स्वयं” मान बैठता है, जबकि सत्य यह है कि वह “आत्मा” है, शरीर तो एक जन्म का साथी होता है, वह तो नश्वर है, शरीर तो आत्मा का आवरण, वस्त्र मात्र होता है, जन्म-मरण के चक्र में इस जीव ने ना जाने कितने शरीर धारण किए, किंतु इस जीव की आत्मा एक है और अनंतकाल तक रहेगी, वस्तुतः मनुष्य शरीर नहीं आत्मा ही है,किंतु स्वयं को शरीर मान लेने के कारण वह शारीरिक सुख- दुख में ही उलझा रहता है।  जप, तप, ध्यान, स्वाध्याय, ज्ञान, कर्म, भक्ति के नित्य-निरन्तर अभ्यास से जब आत्मा पर छाए अज्ञान  का, अविद्या का, माया का आवरण हट जाता है तब आत्मा अपने वास्तविक सत्त-चित्त आनन्द स्वरूप में सदा के लिये स्थिर हो जाता है जिसके  फलस्वरूप उसे लोक-परलोक के सभी भोगों से वैराग्य हो जाता है।  यही वोह अवस्था है जिसमें मनुष्य की आत्मा से परमज्ञान, परमानन्द प्रगट होने लगता है, उसकी आत्मा परमात्मज्ञान,परमात्मा के प्रकाश से जगमगा उठती है।  ऐसी अवस्था में वह शरीर को आत्मा मानकर निष्काम भाव से अपने कर्तव्य कर्म करता है।  यही मोक्ष की स्थिति है, क्योंकि जीवात्मा शरीर में होते हुए भी वह “विदेह” याने देह से परे हो जाता है और भौतिक शरीर छूटने पर जन्म -मरण  के बंधन से मुक्त होकर परमानन्द की अवस्था में स्थिर हो जाता है। मुक्ति और आनन्द का यह मार्ग हर सच्चे साधक के लिये उपलब्ध है।  मार्ग कठिन तो अवश्य  है किंतु असम्भव नहीं है।  इस मार्ग पर श्रद्धा, भक्ति और धैर्य के साथ नित्य निरन्तर चलते हुए सच्चा साधक अपने साध्य को प्राप्त कर सकता है।

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आज  की  24 आहुति संकल्प सूची  में 9  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है और संध्या बहिन  जी सबसे अधिक अंक प्राप्त करके स्वर्ण पदक विजेता घोषित हुए हैं । 

(1) अरुण वर्मा-27,(2)रेणु  श्रीवास्तव-27,(3)संध्या कुमार-48,(4 )सुजाता उपाध्याय-30,(5  ) सुमन लता-24,(6)सरविन्द पाल-38,(7 ) मंजू मिश्रा-25,(8 )पूनम  कुमारी-24,(9) निशा भारद्वाज-29        

सभी विजेताओं को हमारी  व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।

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