वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परमपिता परमेश्वर ही हैं, परमानंद के स्रोत का तृतीय एवं अंतिम भाग

27   अप्रैल 2023 का ज्ञानप्रसाद

अक्टूबर  2022 की अखंड ज्योति पत्रिका पर आधारित लेख शृंखला का अंतिम  भाग प्रस्तुत तो कर रहे हैं लेकिन इसे अंतिम कहना उचित नहीं होगा क्योंकि ईश्वर तो अनंत हैं।  सच में यह विषय इतना रोचक है कि क्या कहें।  आदरणीय सरविन्द भाई साहिब ने इस लेख का स्वाध्याय किया, समझा, अपने शब्दों में लिख कर हमें भेजा। जब हम इस कंटेंट की  एडिटिंग कर रहे थे तो विचारों का बवंडर इस प्रकार उमड़-उमड़ कर आ रहा था कि हमारे लिए अपनी लेखनी को रोक पाना असंभव हो गया। हमारे सहकर्मी इस तथ्य से भलीभांति परिचित होंगें  कि डांस-भंगड़े के शो में नाचने वाले दर्शकों के कदम अपनेआप ही थिरकना आरम्भ कर देते हैं। यही स्थिति हमारी भी  थी। माँ सरस्वती का हाथ जब सिर पर पड़ा  तो हम भी अपने विचार शामिल करते गए। 

साथियों से करबद्ध  निवेदन है कि समय निकाल कर अमूल्य ज्ञानप्रसाद का अमृतपान नियमितता से करें और रेडियो एंकर वाली बात “खाना खाते समय  सांस लेते हैं कि नहीं” हमेशा याद रखें। आइए  विश्व शांति के लिए प्रार्थना  करें और आरम्भ कर दें आज की दिव्य पाठशाला। 

“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥”

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परमात्मा के स्पर्श के बारे में गुरुदेव  लिखते हैं कि “आत्मा और परमात्मा” के मिलन  को ही परमानंद ( परम-आनंद)  कहा गया है l विषयों ( पदार्थों)  से मिलने वाले आनंद से मनुष्य कभी संतुष्ट हो ही नहीं सकता, तृप्ति मिल ही नहीं सकती। विषयों और पदार्थों से उसकी शक्ति नष्ट होती है जबकि परम आनंद से शक्ति बढ़ती ही चली जाती है। मनुष्य आनंद की उस  पराकाष्ठा को प्राप्त करते हुए तृप्ति, तुष्टि व शांति पाता जाता  है जो अपनी आत्मा में परमात्मा की अनुभूति करने का बहुत ही योगजन्य मार्ग व विकल्प है l इस दिव्य आनंद की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब मन की वृत्तियाँ, चित् की वृत्तियाँ, चंचलता आदि  पूर्णतया अंत व शांत हो गई हों और ऐसा उसी के साथ हो पाना सम्भव है, जिसने ब्रह्म का चिन्तन करते-करते अपनेआप को “ब्रह्ममय” बना लिया हो अर्थात वह ब्रह्म के स्वरूप को ही प्राप्त हो गया हो l 

परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि श्री रामकृष्ण परमहंस जी कहा करते थे, “जिसने ब्रह्मरस, अमृतरस की एक भी बूँद  का स्वाद चख लिया तो समझो कि उसे रंभा और तिलोत्तमा जैसी स्वर्ग की अप्सराएं भी चिता की भस्म के समान लगती  हैं l” उसका अंतःकरण  पावन और पवित्र  हो जाता है, मलीनता समाप्त  हो जाती है कि वह इन विकारों से हमेशा के लिए कोसों दूर हो जाता है l 

गुरुदेव हमारे जैसे मूढ़मतियों को समझाते हुए कहते हैं कि सही मायनों में ब्रह्मरस के समान कोई दूसरा रस है ही नहीं, इस दिव्य रस के आगे  दूसरे सभी रस फीके हैं l जिसने एक बार इस दिव्य रस का स्वाद ले लिया वह  विषयों के रस  की ओर कभी आकर्षित  हो ही नहीं सकता  l संसारिक रसों व विषयसुखों  के प्रति मनुष्य की  आसक्ति इसलिए बनी हुई है कि मनुष्य की आत्मा ने ब्रह्मरस  का स्वाद चखा ही नहीं है l इसी तथ्य को समझाते हुए गुरुदेव तामिलनाडु स्थित सुप्रसिद्ध श्रीरंगम मंदिर  की एक कथा सुनाते हैं। 

श्रीरंगम मंदिर  में प्रत्येक वर्ष एक बहुत बड़ा मेला लगता था l उसमें आचार्य श्री रामानुजाचार्य जी अपने शिष्यों के साथ जाते थे l दुर्दम नामी एक  क्रूर डाकू भी उस मेले में आता था लेकिन  उसका उद्देश्य श्रीरंगम की छवि का दर्शन करना नहीं बल्कि कुछ अलग ही था l वह एक महिला के प्रति बहुत ही आकर्षित था और उसी के लिए श्रीरंगम  जाता था। जिस महिला की  ओर वह आकर्षित था वह थी तो एक वैश्या लेकिन बहुत ही सुन्दर l डाकू उस सुन्दरी के पीछे छाता लगाकर चलता था l मेले में आए भक्तजनों का ध्यान तो श्रीरंगम की मधुर-मनोहर छवि की ओर रहता लेकिन डाकू का ध्यान उस सुन्दर युवती में ही रमा रहता। डाकू के आतंक के कारण कोई भी उसकी इस बुरी हरकत को लेकर कुछ कह पाने का साहस नहीं कर पाता था l जब आचार्य श्रीरामानुजाचार्य जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि उस डाकू को मेरे पास बुलाओ l आचार्य जी की आध्यात्मिक शक्ति के बारे में डाकू ने बहुत  कुछ सुन रखा था l अतः वह भयभीत था कि कहीं वे शाप न दे दें l न चाहते हुए भी वह  शिष्यों के कहने पर आचार्य जी के पास पहुँचा। आचार्य जी डाकू से बोले, “हमें बड़ा अचरज है कि सभी भक्त  भगवान के  सौन्दर्य का दर्शन कर रहे हैं और तुम हो कि एक स्त्री में ही आसक्त हो l” यह सुनकर डाकू बोला, “यह सुन्दरतम स्त्री है, इसमें  मेरी आसक्ति है और  मैं उसे चाहता भी हूँ l” आचार्य श्री बोले, “हम इससे भी सुन्दर कुछ दिखा दें तो क्या तुम इस महिला को ओर आकर्षित होना छोड़ दोगे?” इतना कहकर वे उसे श्रीरंगम की छवि के दर्शन को ले गए l मूर्ति में श्रीरंगम के रूप में भगवान श्रीकृष्ण की अपूर्व सुन्दर झलक देखकर डाकू भावविह्वल हो गया l आचार्य जी की प्रार्थना पर भगवान ने डाकू को अपने अप्रतिम सौन्दर्य की एक झलक दिखाई। अपूर्व सौन्दर्य को देखकर वह डाकू भावविह्वल होकर आचार्य श्री रामानुजाचार्य जी के श्री चरणों में गिर पड़ा और बोला, “महात्मन् ! अब तो मुझे इन्हीं भगवान को प्राप्त करना है l” इस पर आचार्य  श्री ने कहा कि यदि तुम निर्दिष्ट तप, उपासना साधना व आराधना करोगे, भगवान का अपूर्व सौन्दर्य दर्शाता रूप तभी  तुम्हारे मन में टिकेगा और तुम्हें सदैव  दिखता रहेगा l” वह डाकू तप, ध्यान, उपासना, साधना व आराधना करने को सहर्ष तैयार हो गया l ऐसा करते-करते  डाकू का अंतःकरण परिष्कृत होने लगा और उसकी सम्पूर्ण जीवन-दृष्टि ही परिवर्तित हो गई।  धीरे-धीरे चित्तशुद्धि होने लगी तथा उसके हृदय में, आत्मा में, भगवान की मनोहर छवि स्थिर होने लगी l इस तरह से डाकू की दिशा व दशा सब बदल गई और वह एक अच्छा इंसान बन गया l डाकू को  भगवान की मनोहर छवि के दर्शन होने लगे l 

जब आचार्य जी ने देखा कि अब विषयरस में उसकी आसक्ति नहीं रही तो एक दिन आचार्य जी ने उस दुर्दम डाकू को उसी सुन्दर स्त्री से परिणय-सूत्र में बंधने का निर्देश दिया तो उस  डाकू दुर्दम एवं  सुन्दर स्त्री जो एक वैश्या थी, दोनों ने  एक परिणय-सूत्र में बंधकर सारा जीवन सद् गृहस्थ के रूप में जिया। दोनों एक लोकसेवी के रूप में जीवन जीने लगे l 

आचार्य जी प्रतिदिन  कावेरी नदी में स्नान करने जाते और वहाँ से लौटते हुए दुर्दम के कंधे पर हाथ रखकर आते l यह देखकर सभी आश्चर्य करते कि आचार्य जी डाकू को साथ लेकर क्यों आते-जाते हैं।  इस पर आचार्य जी बोले, “अब दुर्दम क्रूर डाकू नहीं रहा l अब वह बदल चुका है l आप सभी लोग उसका हृदय देखो, अब उसमें भगवान बसते हैं l”

वास्तव में परमात्मा के दिव्य सौन्दर्य का दर्शन मनुष्य में कितना बड़ा परिवर्तन ला सकता है l सचमुच इस दर्शन से प्राप्त होने वाले आनंद को ही दिव्यानंद,परमानंद एवं ब्रह्मानंद कहा गया है। 

परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि अगर हमने भी परमानन्द की अनुभूति प्राप्त करनी है तो  “नित्य जप, तप, ध्यान, उपासना साधना व आराधना, दैनिक स्वाध्याय” का सरल किन्तु  नियमित मार्ग चुना जा सकता है l 

श्रीमद्भगवत गीता में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं  कि “मन को आत्मा के साथ सदैव  युक्त करके पापरहित योगी सहज ही  परब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूपी अनंत आनंद की अनुभूति करता है l” भगवान हमें स्पष्ट करना चाहते हैं कि “बारंबार” ब्रह्म का चिन्तन व मनन, ध्यान  करने पर ही, जीव का ब्रह्म से मिलन होता है। जीवात्मा का परमात्मा से मिलन होने पर ही जीव को, जीवात्मा को ब्रह्म संस्पर्श की दिव्य अनुभूति होती है और यही सबसे बड़ा व सच्चा सुख है l

यदि हम इंद्रिय सुख को सबसे बड़ा व सच्चा सुख मानते हैं तो इसका अर्थ यही निकलता है  कि हमारी जीवात्मा को अभी  परमात्मा का संस्पर्श प्राप्त ही नहीं हो पाया है, क्योंकि जीवात्मा परमात्मा से दूर हो गई है, बिछुड़  गई है। इस दूरी, बिछड़ेपन व वियोग के दूर होते ही हमें प्रभु का संयोग प्राप्त होगा, सानिध्य प्राप्त होगा, संस्पर्श प्राप्त होगा और संस्पर्श पाते ही ब्रह्मानंद भी प्राप्त होगा, क्योंकि परमपिता परमेश्वर ही हैं परमानंद के स्रोत l अतः हम सबका सर्वशक्तिमान परमपिता परमेश्वर से जुड़ना अति आवश्यक है और हमारे जीवन का यही लक्ष्य होना चाहिए। इसी से जीवन का कायाकल्प होता है और सही मायनों में  वास्तविक सुख की अनुभूति होती है। 

हमारे पाठक देख रहे होंगें कि हम नित्य और  बारंबार को commas में enclose किये जा रहे हैं। ऐसा हम उन साथियों को निवेदन करने हेतु कर रहे हैं  जिनके लिए  गुरुदेव से  “नियमितता का दान” मांग रहे हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्लेटफॉर्म पर कभी कभार आकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने से कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि यहाँ  सब कुछ एक श्रृंखला की भांति, कड़ी की भांति connected है। कभी कभार आने का अर्थ है ,काम चलाऊ  प्रक्रिया, कुछ करने को नहीं है तो चलो यहीं पर टाइम पास कर लें। ऐसी प्रवृति वालों के साथ  भगवान ( गुरुदेव)  भी टाइम पास ही करते हैं। Out of sight, out of mind वाली proverb तो बहुतों ने सुनी होगी। ईश्वर का स्पर्श उन्ही को प्राप्त होता जो एक नवजात शिशु की भांति (जिसे माँ से  गले लग कर सकून मिलता है) ईश्वर से प्रेम करते हैं। जो ईश्वर से उसी तरह बातें करते हैं जैसे  माँ का हाल चाल पूछते हैं, उसके पास (उपासना) आकर उसके bed पर बैठते हैं। जो महीने, दो महीने में कभी कभार फ़ोन करके सांसारिक ड्यूटी पूरी कर देते हैं, माँ भी उनसे दूर हुए जाती है। हालाँकि ऐसा नहीं है लेकिन कब तक माँ one-sided स्नेह के लिए मरती रहेगी। आदरणीय सुमन लता बहिन जी ने रेडियो एंकर की बात उन्ही को direct की है  जिनके पास समय नहीं है।  क्या बात कही है “खाना खाते समय सांस लेना भूल सकते हैं ?, नहीं न, तो फिर ईश्वर को कैसे भूल जाते हैं।” वाह वाह बहिन जी।     

आनलाइन ज्ञान रथ गायत्री परिवार का दैनिक ज्ञानप्रसाद और शुभरात्रि सन्देश इसी दिशा में हो रहे प्रयास हैं। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव के अनमोल साहित्य पर आधारित हमारा प्रत्येक कृत्य  अपने सहकर्मियों की आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का प्रयास है। यह एक ऐसा प्लेटफार्म है जिसमें सुप्त प्रतिभाओं को जागरण के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का परम सौभाग्य है कि आए दिन विश्व के कोने कोने से प्रतिभाएं जुड़ रही है, अपना योगदान दे रही हैं। सभी से हमारा करबध्द अनुरोध है कि इस पुनीत व पवित्र प्लेटफार्म से जुड़े और अधिक से अधिक लोगों को जुड़ने के लिए  प्रेरित करें। 

आज  की  24 आहुति संकल्प सूची  में 16   युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है और संध्या बहिन जी सबसे अधिक अंक प्राप्त करके स्वर्ण पदक विजेता घोषित हुए हैं । 

(1) चंद्रेश बहादुर-32,(2)अरुण वर्मा-46 ,(3)रेनू श्रीवास्तव-34,( 4)पुष्पा  सिंह-26,(5)संध्या कुमार 42,(6)  सुजाता उपाध्याय-27 ,(7 ) सुमन लता-35,(8) विदुषी बंता-34 ,(9 ) निशा भारद्वाज-39,(10) सरविन्द पाल-50 ,(11) वंदना कुमार-24,(12) स्नेहा गुप्ता-26,(13) मंजू मिश्रा-33,(14) प्रेरणा कुमारी-24,(15) पिंकी पाल-24,(16) संजना कुमारी-24        

सभी विजेताओं को हमारी  व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सूची को फिर से पटड़ी पर लाने के लिए योगदान देने के लिए धन्यवाद्।

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