26 अप्रैल 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज का प्रज्ञा गीत बहिन सुमन लता जी के आदरणीय माता जी की स्मृति में प्रस्तुत किया जा रहा है। आँख खुलते ही जब बहिन जी का कमेंट पढ़ा तो यह भजन ढूंढते ज़रा भी देर न लगी।
अक्टूबर 2022 की अखंड ज्योति पत्रिका पर आधारित लेख शृंखला का द्वितीय भाग प्रस्तुत करते बहुत ही आनंद आ रहा है। सच में यह विषय इतना रोचक है कि क्या कहें। आदरणीय सरविन्द भाई साहिब ने इस लेख का स्वाध्याय किया, समझा, अपने शब्दों में लिख कर हमें भेजा। जब हम इस कंटेंट की एडिटिंग कर रहे थे तो विचारों का बवंडर इस प्रकार उमड़-उमड़ कर आ रहा था कि हमारे लिए अपनी लेखनी को रोक पाना असंभव हो गया। हमारे सहकर्मी इस तथ्य से भलीभांति परिचित होंगें कि डांस-भंगड़े के शो में नाचने वाले दर्शकों के कदम अपनेआप ही थिरकना आरम्भ कर देते हैं। यही स्थिति हमारी भी थी। माँ सरस्वती का हाथ जब सिर पर पड़ा तो हम भी अपने विचार शामिल करते गए।
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हम मन और बुद्धि के इशारे पर नाचते रहते हैं और संसार की भेड़चाल में चलते रहे हैं जिसके परिणाम स्वरूप हमारे अंतःकरण में “आत्मा के रूप में विराजमान परमात्मा” की उपस्थिति का आभास ही नहीं हो सका l भेड़चाल का विषय इतना विस्तृत और विशाल है कि क्या कहा जाए । एक बुज़दिल, कायर मनुष्य की भांति जो सभी कर रहे हैं, हम भी उनको follow करते हुए जीवन का अमूल्य समय नष्ट कर रहे हैं। औरों की नक़ल करते हुए, बिना कुछ सोचे समझे, बिना कोई प्रश्न किये follow किये जा रहे हैं। आखिर हम वानर की औलाद जो ठहरे, नक़ल करना हमारी प्रवृति है। बचपन में पढ़ी Monkey and the cap seller वाली कहानी हम में से बहुतों को याद होगी। Cap seller ने बुद्धि और ज्ञान का प्रयोग किया और सारी टोपियां वापिस प्राप्त कर लीं।
बुद्धि, विवेक, judgment आदि का प्रयोग किये बिना हम वही करना आरम्भ कर देते हैं जो सभी कर रहे हैं। हम इस बात पर कभी प्रश्न ही नहीं करते कि “जो हम कर रहे हैं वोह क्यों कर रहे हैं।” लेकिन ऐसा हम सबके साथ नहीं है, Exceptions are always there. अभी कुछ थोड़ी देर पहले ही उपासना बेटी का मैसेज आया। बेटी गीता का अध्याय सुन रही थी और उसका प्रश्न था कि “क्यों सुन रही हूँ” किसी भी बात को समझने के लिए “क्यों” ही तो सबसे बड़ा प्रश्न है। कहाँ से मिलेगा इस “क्यों” का रिप्लाई ? इसके लिए समय निकालना पड़ेगा और समय किसी के पास तो है ही नहीं। भौतिकवाद की अंधी दौड़ ने मनुष्य का सारा समय जैसे खा ही लिया हो। बड़ी खीज होती है जब आठ-आठ घंटे लगातार ताश और शतरंज जैसे मनोरंजन में समय व्यतीत करने वाले भी कहते-सुने गए हैं “समय किसके पास है ?” ऐसी स्थिति में Introspection की आवश्यकता है, अपनी बुद्धि और विवेक के मूल्यांकन की आवश्यकता है। जब तक हम यह मूल्यांकन नहीं कर पायेंगें, भौतिकवाद हमारा गला दबाता रहेगा और आत्मा की आवाज़ दबती रहेगी, परमात्मा की अनुभूति हमसे कोसों दूर भागती जाएगी।
मनुष्य की आत्मा में परमात्मा को प्रकट करने की प्रक्रिया एक बहुत ही गहन विषय है। योग- अध्यात्म का सारा उपक्रम ही आत्मा में परमात्मा को अनुभव करने पर केंद्रित है जिसका हमें पूर्णतया पालन करना चाहिए और तभी हम अपनी आत्मा में परमात्मा की अनुभूति कर सकते हैं।
योग-अध्यात्म अपनेआप में एक full-fledged सब्जेक्ट है जिसे समझने के लिए specialised बैकग्राउंड की आवश्यकता होती है। योग का अर्थ जोड़ होता है, जीव का आत्मा से जुड़ना। बचपन से पढ़ते आए हैं 2 और 3 का योग 5 होता है, sum of 2 and 3 is 5. सही मायनों में यही योग है, मनुष्य(जीव) का अपनी आत्मा से जुड़ना। अध्यात्म शब्द, दो शब्दों के जोड़ से बना है- अधि+आत्म, आत्मा का अधिपत्य। जब मनुष्य के ऊपर आत्मा का अधिपत्य हो जाता है, स्वामित्व हो जाता है, अधिकार हो जाता है, कण्ट्रोल हो जाता है तो आत्मा में परमात्मा को प्रकट करने का प्रवेश द्वार खुल जाता है।
जिस प्रकार समुद्र की गहराई को नापने के लिए यां लहरों से आनंद प्राप्त करने के लिए समुद्र में उतरना ही पड़ता है ठीक वैसे ही परमात्मा के ध्यान में उतरकर, डूबकर ही परमात्मा की अनुभूति की जा सकती है l इधर-उधर भागते-फिरते रहने के बजाए हमें स्वयं के अंतःकरण में गहनता से उतरना होगा क्योंकि जीवन अमूल्य (priceless) है और इस अमूल्य जीवन का समय पल-पल बीतता जा रहा है, पता नहीं कब इस काया का अंत हो जाए l अतः यही समय है शांति से बैठकर अपनेआप में समाहित होने का, अपने आपको एकाग्र करने का, अपने हृदय में स्थित आत्मा में उतरकर परमात्मा का दर्शन पाने का l यही समय है उस आंतरिक द्वार को खोलने का, उस दिव्य स्रोत तक पहुँचने का, जहाँ से “आत्मज्ञान की अमृत गंगा” हमारे अंतःकरण में प्रस्फुटित होने को, प्रकट होने को और हमारे भीतर प्रवाहित होने की प्रतीक्षा में रुकी पड़ी है और यही समय है उस “ब्रह्मसागर” में उतरकर, उस सागर में उठ रही आनंद की लहरों से खेलने का और अपनेआप को आनंदित करने का l
गंगा की बहती हुई शीतल व पावस रसधार, जलधार में उतरकर ही, भीगकर ही हम सब उसकी शीतलता की अनुभूति कर सकते हैं l बर्फ से ढके हुए हिमालय के बीच बैठकर ही तो हम सब हिमालय के स्वर्गीय सौन्दर्य व शीतलता को अपने अंतःकरण में उतार सकते हैं और उस सौन्दर्य सुख की अनुभूति कर सकते हैं l जलती हुई अग्नि से उठती हुई लपटों की गर्मी को हम उसके पास जाकर, बैठकर ही तो महसूस कर सकते हैं l इसीलिए तो उपासना (पास बैठना), साधना( अपनेआप को सीधा करना) व आराधना के द्वारा आत्मा में परमात्मा की अनुभूति होती है l
परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि बार-बार परमात्मा का मनन-चिन्तन करने से, परमात्मा की उपासना, साधना व आराधना करने से, परमात्मा का ध्यान करने से हमारी आत्मा में ही सत् स्वरूप, ज्ञान स्वरूप, प्रेम स्वरूप व परमानंद स्वरूप परमात्मा की अनुभूति स्वयं ही होने लगती है। हमें परमात्मा का स्पर्श ध्यान में, उपासना साधना, व आराधना में ही प्राप्त होने लगता है l साधक को अपनी आत्मा में ही परमात्मा के स्पर्श की अनुभूति होती है और उस स्पर्श से ही परमानंद की अनुभूति होती है। यह एक ऐसी अनुभूति होती है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
इन पंक्तियों को लिखते समय लगातार एक प्रश्न मन में उठे जा रहा था कि आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध तो अवश्य है लेकिन इसका प्रमाण कहाँ है। हमारे लेख के टाइटल को समझने के लिए इस सम्बन्ध को समझना बहुत ही आवश्यक है, तभी परमानन्द की प्राप्ति हो सकती है।
आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध :
अधिकतर लोग परमात्मा को जानते ही नहीं हैं। इसीलिए बिना कोई प्रश्न किये, जैसे कोई कहता है करे जा रहे हैं। कोई कहता है अनुष्ठान कर लो , यह लाभ होगा। हम अनुष्ठान के पीछे पड़ जाते हैं ,कोई कहता गायत्री की 100 माला जप लो, सब दुःख-कष्ट दूर हो जायेंगें, हम वोह करना आरम्भ कर देते हैं।
ऐसा बिल्कुल नहीं है। यदि हम आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझ सकें, यदि हम जीव और ईश्वर के संबंध को समझ सके तो फिर देखिये जीवन कितना आसान हो जाता है । बस समझ का फेर है । हम अक्सर बड़ी बड़ी-बातों के पीछे पड़े रहते हैं, बेसिक बात को समझने का प्रयास ही नहीं करते। पीएचडी करने से पहले LKG,UKG तो करनी ही पड़ेगी।
लगभग सभी “मानते” है कि ईश्वर है लेकिन सभी “जानते” नहीं । मानने और जानने का ही सारा चक्र है
जब हम दुनिया में आये तो हमारा सबसे पहला संबंध माँ से था। माँ से सम्बन्ध तो इस दुनिया में आने से 9 महीने पहले से ही था।ईश्वर की बात की जाये तो इस माँ से भी पहले हमारा संबंध उस ईश्वर से था । उसे आप माँ कह लो या पिता कह लो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आत्मिक (आत्मा ) स्तर पर स्त्री–पुरुष जैसा कोई अंतर् नहीं होता। जिस तरह माँ हमेशा अपने बच्चों से प्रेम करती है उसी तरह ईश्वर भी हमेशा हमसे प्रेम करते हैं । जिस तरह माँ को अपने बच्चों की चिंता लगी रहती है, उसी तरह ईश्वर को भी हमारी चिंता रहती है। अब यहाँ कुछ लोग पूछ सकते हैं कि अगर ईश्वर को हमारी इतनी ही चिंता है तो फिर हमारी चिंताओं को दूर क्यों नहीं करते।
जब तक बच्चा माँ के पेट में रहता है, तब तक उसकी हर परेशानी माँ की परेशानी होती है। बाहर आकर बच्चा धीरे–धीरे बड़ा होने लगता है तो माँ से दूर होने लगता है । एक दिन दुनिया की मोहमाया उसे इतनी प्रिय लगने लगती है कि वोह माता–पिता को भूल जाता है। कभी–कभी तो वह बच्चा माँ को दुत्कार भी देता है और प्रताड़ित भी करता है । ऐसा कृतघ्न बच्चा चिंताओं से नहीं घिरेगा तो क्या होगा ? हम सांसारिक माँ की बात नहीं कर रहे, ईश्वर की बात कर रहे हैं।
ईश्वर भी इसी माँ की तरह है । जब तक हम ईश्वर के पेट में अर्थात उसमें स्थित रहते है तब तक हमारी परेशानी उसकी परेशानी होती है । उसे हमारी बराबर चिंता लगी रहती है । जो भी उसकी शक्तियों है, हममें व्याप्त रहती है । हमें उससे सीधा पोषण मिलता रहता है । लेकिन जैसे ही हम इस दुनिया मैं आते हैं, ईश्वर रूपी माँ से दूर होते चले जाते है और एक समय ऐसा आता है जब हम मकड़ी की तरह अपने ही बनाये हुए जाल में बुरी तरह से फँस जाते हैं । यहीं शुरू होता है हमारा रोना चिल्लाना, देवी–देवताओं के आगे नाक रगड़ना। सांसारिक माँ तो बिचारी दूर होने पर मदद भी नहीं पाती है किन्तु ईश्वर मदद करना तो चाहता है लेकिन हम अपने अहम् के कारण उसकी मदद से भी वंचित रह जाते है ।
जिस तरह माँ को खुश करने के लिए आपको उसकी पूजा नहीं करनी होती, केवल प्रेम करना होता है, सम्मान करना होता है, आदर करना होता है । बस यही हमें ईश्वर के लिए करना है। माँ को कोई उपहार दे न दे, यदि माँ का आदर करते है तो वह खुश होगी। अगर यह समझ आ गया तो ईश्वर को जानना बहुत सरल है। ईश्वर को वह सब पसंद है जो आपको दिल से पसंद है, जो आपको आत्मा से पसंद है क्योंकि आत्मा ही तो ईश्वर है। इन्द्रिय सुख और आत्मिक सुख ( आनंद ) में अंतर है। जो असीमित आनंद हो वह ईश्वर का आनंद, जो सीमित हो वह इन्द्रियों का सुख है।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 10 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है और संध्या बहिन जी सबसे अधिक अंक प्राप्त करके स्वर्ण पदक विजेता घोषित हुए हैं ।
(1) चंद्रेश बहादुर-37,(2)अरुण वर्मा-41,(3)रेनू श्रीवास्तव-42,( 4)पुष्पा सिंह-26,(5)संध्या कुमार 49,(6) पूनम कुमारी-27,(7) सुजाता उपाध्याय-30,(8) सुमन लता-29,(9) विदुषी बंता-30,(10) निशा भारद्वाज-39
सभी विजेताओं को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सूची को फिर से पटड़ी पर लाने के लिए योगदान देने के लिए धन्यवाद्।