वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

युगतीर्थ शांतिकुंज को शक्तिपुंज के रूप में कैसे विकसित किया गया, पार्ट 1 

12 अप्रैल 2023 का ज्ञानप्रसाद

हमारे सभी सहकर्मी कल के दिन के उल्लास से, जिसे अरुण जी ने एन्जॉय डे का  विशेषण देकर सम्मानित किया, बाहिर आ चुके होंगें और बुधवार  के दिव्य ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने को उत्साहित हो रहे होंगें।  अवश्य ही सभी परिजन इस कीर्तिमान से उत्साहित रहे।  कीर्तिमान के  विषय को यहीं रोककर ज्ञानप्रसाद की और रुख करते हैं। अगर परिस्थितियां अनुकूल हुईं तो शनिवार फिर कीर्तिमान की बात कर सकते हैं। 

मई 1972 की अखंड ज्योति के एक टॉपिक ने हमें इतना आकर्षित किया कि हम आपके समक्ष प्रस्तुत किये बिना न रह पाए। जैसा आज के ज्ञानप्रसाद का टॉपिक स्वयं ही बोल रहा है तो हमारा परम कर्तव्य बनता है कि देखा जाए कि यह तीर्थ शक्तिपुंज कैसे बन गया। आने वाले तीन लेख इसी विषय को छूते जायेंगें।  वैसे तो हमारे पाठक इसकी दिव्य शक्ति  से परिचित तो हैं, अनेकों परिजनों को समय-समय पर दिव्य अनुभूतियाँ भी हुई हैं लेकिन कुछ ऐसे तथ्य भी हैं जिन्हें जानना आवश्यक है। यही उद्देश्य है इन तीन लेखों का। 

तो आइए सब सामूहिक तौर से गुरु श्री चरणों का ध्यान करें, नमन करें और विश्वशांति की कामना के साथ आज की गुरुकुल पाठशाला का शुभारम्भ करें। 

“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥” 

हम पाठकों ने निवेदन कर रहे हैं कि “मुनि की रेती”, देवप्रयाग का  रघुनाथ मदिर, सप्त सरोवर आदि से सम्बंधित यूट्यूब वीडियोस को अवश्य देख लें जिससे इस  ज्ञानप्रसाद को  समझने में सहायता मिलेगी। इतना विस्तृत साहित्य उपलब्ध होने के कारण हमारे लिए इन सभी लिंक्स को देना संभव नहीं है जिसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। 

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सात ऋषियों की ऐतिहासिक तपोभूमि सप्त सरोवर वह स्थान है जहाँ तप करते हुए सातों ऋषियों की साधना में विघ्न उत्पन्न न होने देने के विचार से अवतरित हुई भगवती गंगा सात भागों में विभक्त हो गई थी। पुराणों में इस तथ्य का जगह-जगह वर्णन है। हरिद्वार – हिमालय का द्वार है।  भगवान् राम ने इसी क्षेत्र में अपने भाइयों समेत वृद्धावस्था में तप साधना की थी। देवप्रयाग में भगवान राम, लक्ष्मण झूला में लक्ष्मण जी, ऋषिकेश में भरत और “मुनि की रेती” में शत्रुघन के तप कुटीर हैं । 

यह क्षेत्र गुरुदेव को अधिक भाया । जीवन का अंतिम समय हिमालय पिता और गंगा माता की गोदी में खेलते हुए एकान्त तप साधना का आनन्द लेते हुए प्राचीन आश्रम व्यवस्था का पालन भी किया जा सकेगा और अपनी आकाँक्षा भी पूर्ण होगी। इस विचार को उनके मार्गदर्शक का समर्थन भी मिला और उन्होंने यह स्थान चुन लिया।

शांतिकुंज  बना। इस आश्रम का निर्माण वेदमाता गायत्री ट्रस्ट के अंतर्गत हुआ । 20 जून 1971 को परम पूज्य गुरुदेव वन्दनीय माता जी मथुरा से विदाई लेकर यहाँ आ गये। वन्दनीय माता के अनुसार उन्हें आदेश हुआ कि जिस प्रकार गुरुदेव ने 24-24 लाख के 24 महापुरश्चरण पूरे किये थे वह मैं भी पूरे करूं। गुरुदेव की  साधना व्यक्तिगत आत्मिक प्रखरता उत्पन्न करने के लिए थी, इसलिए वह छः घण्टे क्रम से धीरे-धीरे 24 वर्ष तक स्वयं ही चलाते रहे लेकिन मेरी अनुष्ठान श्रृंखला का उद्देश्य दूसरा था। माता जी के उद्देश्य में विशाल युग-निर्माण परिवार का गठन करना, उसके सदस्यों के लिए  भौतिक एवं आत्मिक सहायताएं उपलब्ध करना, इस कार्य के  लिए आवश्यक शक्ति और साधन जुटाना था। लक्ष्य और उससे सम्बंधित कार्यभार को देखते हुए वन्दनीय  माता जी  के लिए  संभव नहीं था कि वह भी 24 वर्ष  तक यह साधना जारी रखें। जैसा कि अक्सर होता है,अगर खर्चा बढ़ जाए तो आमदनी के और अधिक साधन ढूंढने पड़ते हैं ,जैसे कि overtime करके खर्चे  को नियोजित करना, वन्दनीय माता जी ने भी कुछ इसी प्रकार की स्कीम बनाई।   

माता जी ने गुरुदेव की भांति 6 घंटे प्रतिदिन के बजाए इस अनुष्ठान श्रृंखला को अखण्ड जप के रूप में परिणत कर दिया। इस स्कीम के अंतर्गत  24 वर्ष वाली साधना 6  वर्ष में सम्पन्न करने की बात निश्चित हुई। 

वन्दनीय माता जी यह चर्चा 1972 की  अखंड ज्योति के मई अंक में कर रही हैं। वह बता रही हैं कि  1926 से अनवरत जल रहा अखण्ड दीपक अपने 46वें वर्ष में भी  मार्गदर्शन दे रहा है । देखने में यह मात्र बाहरी प्रकाश देने वाला लगता है लेकिन इसके माध्यम से  हम लोगों ने जितना अन्तः प्रकाश पाया है, इसको लिखना या बताना संभव नहीं है।

हमारे पाठक जानते ही होंगें कि “महापुरश्चरण” का क्या अर्थ है लेकिन फिर भी कुछ संक्षिप्त चर्चा करना कोई अनुचित नहीं होना चाहिए। 24 लाख गायत्री मन्त्रों की साधना को गायत्री महापुरश्चरण कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर एक वर्ष में 2400000 मन्त्र उच्चारण करने हैं तो बेसिक  गणित के अनुसार  एक दिन में (2400000/365 = 6575) छः हज़ार पांच सौ पचहत्तर मन्त्र उच्चारण करने चाहियें, यानि लगभग 60-61  मालाएं प्रतिदिन (108 x 60 =6450). 

माता जी बता रहीं थीं कि गुरुदेव ने यह महापुरश्चरण छः घंटे प्रतिदिन करके 24 वर्षों में स्वयं  पूर्ण किये लेकिन माता जी ने अखंड ( लगातार 24 घंटे ) करके कन्याओं की सहायता लेकर 6 वर्षों में पूर्ण कर लिए क्योंकि माता जी के कन्धों पर अतिरिक्त बोझ था।        

कुमारी कन्याएं देवता स्वरूप मानी गई हैं। शास्त्रों में उन्हें प्रत्यक्ष देवी का स्थान दिया गया है। शक्ति साधना में “कुमारी ( कुंवारी -unmarried) पूजा का अद्भुत महात्म्य वर्णित है। माता जी जिस समय की बात कर रही हैं तब  कन्याओं का  स्थान साधु ब्राह्मण से भी आगे था  क्योंकि साधु ब्राह्मण तो  केवल वेश और वश मात्र भर ही रह गये थे, वे लोग  तात्विक महानता तो लगभग गँवा ही बैठे थे । कुमारी कन्याओं में  देव तत्व जन्मजात  होते हैं। ऐसी भी धारणा है कि नर की तुलना में आत्मिक दृष्टि से नारी सदा ही आगे होती है लेकिन  कन्याओं में उनका भोला बचपन, सहज ब्रह्मचर्य जैसे कारणों से उनकी गरिमा और भी अधिक बढ़ जाती है। परम्परा कुछ भी रही हो तात्विक दृष्टि से देखा जाये तो आज की स्थिति में औसत कन्या औसत ब्राह्मण से कहीं आगे है। उनके द्वारा की हुई या कराई हुई साधना तथा कथित ब्राह्मणों की तुलना में कम नहीं बल्कि अधिक ही फलप्रद बैठती है। 

इसी तथ्य को ध्यान में रखकर शांतिकुंज में संकल्पित 24 लाख  गायत्री महापुरश्चरण 24 की संख्या में अखण्ड दीपक पर अखण्ड जप के रूप में  सम्पन्न करने का जो निश्चय किया गया उसके लिए कन्याएं ही उपयुक्त माध्यम चुनी गईं और इसी अनुसार 1971 से ही वह साधना चल पड़ी जो  बराबर निर्बाध गति से चलती रही। इस साधना से उत्पन्न हुई शक्ति का अंश निरन्तर परिवार की भौतिक एवं आत्मिक सहायता के लिये वितरित किया जाता रहता है।

आरम्भ में छः कन्याएं, दो घण्टा रात्रि और  दो घण्टा दिन की शिफ्ट लगाकर 24  घंटे का   अखण्ड जप करती रहीं । बाद में जब वन्दनीय माता जी ने महसूस किया की इन छोटी बच्चियों से इतना कार्य संभाला नहीं जा रहा तो उन्होंने बच्चिओं की  संख्या 10 कर दी। 10 कन्याओं की गिनती करने से हर कन्या का समय 4 घंटे से घटकर औसत ढाई-तीन घण्टे रह गया जिसे वह आसानी एवं प्रसन्नता के साथ रात्रि और दिन में विभाजित करके पूरा कर लेती हैं। 

जप के इलावा इस कन्याओं को नित्य गंगा से जल लाना, उसी को पीना, आहार-विहार में संत जैसी विशेषताएं रखना आदि कई और भी अनुशासनों का पालन करना अनिवार्य था। इस प्रकार उनकी तप साधना माँ पार्वती की पुत्री इला की साधना से मेल खाती है। कुमारिकाएं आत्म-कल्याण की दृष्टि से भी इस प्रकार के अनुष्ठानों का आश्रय लेकर बहुत आगे बढ़ सकती हैं। मरियम और कुन्ती ने देवताओं को अपनी गोदी में खिलाने तक के लिये आह्वान कर लिया था। माता जी कहती थीं कि इस प्रयोजन में जो कन्या जितना समय  लगा सकेगी, वह हर दृष्टि से उसके उज्ज्वल भविष्य के लिये एक “संचित पूँजी” ही सिद्ध होगी। इस दृष्टि से तपस्विनी कन्याएं आत्म-कल्याण ( अपना कल्याण) और लोक-मंगल के दोनों प्रयोजन पूरा करती हैं।

कन्याओं का मात्र ढाई घण्टा जप के अतिरिक्त शेष समय भी पर्याप्त बचता था। उसके लिये माता जी ने सोचा  कि इस बचे हुए समय में  उन्हें जीवनोपयोगी शिक्षा का लाभ  दिया जाए। माता जी तो पत्रिकाओं का सम्पादन, पत्र व्यवहार आगन्तुकों का अतिथि सत्कार,अपने  निज के  साधना क्रम, आश्रम व्यवस्था आदि में व्यस्त रहती थीं लेकिन उन्होंने कन्याओं के  लिये भी समय निकाला और उनकी  शिक्षा व्यवस्था अपने हाथ में ले ली।  माता जी ने उन्हें नारी जीवन का लक्ष्य और सदुपयोग बौद्धिक दृष्टि से, संगीत उल्लास की दृष्टि से, और सिलाई गृह-उद्योग की दृष्टि से स्वयं ही शिक्षा देनी शुरू कर दी। इसका एक प्रयोजन यह भी था कि लड़कियाँ अपने परिवार को छोड़कर आई हैं, उन्हें माता जी की  समीपता का और  अधिक समय मिले और वे अधिक स्नेह लाभ करती हुई, अधिक सन्तुष्ट रह सकें। माता जी बता रही हैं कि  यह प्रयोग बहुत सफल रहा। बच्चियाँ इस बहाने मेरे साथ रहीं और  इतनी घुल-मिल  और इतनी लिपट गईं कि जब उनके घर वाले जब के लिए लिखते तो रोने लगतीं। इसका कारण केवल एक ही है कि माता जी द्वारा दिया गया स्नेह कन्याओं के  अपने परिवार से कोई  कम नहीं अधिक ही था। आपस में हँसने खेलने, विनोद आदि का क्रम इतना सुन्दर चल पड़ा है कि उन्हें आनन्द, उल्लास की एक अनोखी दुनिया का ही अनुभव होता। कन्याओं का  बस चले तो वे जीवन भर इस आश्रम के आनन्द को न छोड़ें लेकिन विवाह जैसी परिस्थितियाँ उन्हें यहाँ से जाने को विवश करेंगी तो उन्हें घर वापिस जाना ही होगा।

To be continued 

आज के  24 आहुति संकल्प में 14 युगसैनिकों की भागीदारी रही है। कुमोदनी बहिन जी ने  शतक प्राप्त क्या है, इसके लिए स्वर्ण पदक बहुत ही छोटा है, इसलिए उन्हें हीरक पदक से सम्मानित किया जाता है।  आइए सब बहिन जी का  तीन claps देकर सम्मान करें। हमारी व्यक्तिगत बहुत बहुत बधाई।    

(1) सरविन्द कुमार-49,(2)चंद्रेश बहादुर-28 (3) सुजाता उपाध्याय-35,(4) अरुण वर्मा-53,(5) रेणु श्रीवास्तव-52,(6) सुमनलता-32,(7)संध्या कुमार-45,(8) कुमोदनी  गौरहा-105,(9)वंदना कुमार-38,(10) निशा भारद्वाज-31,(11 )स्नेहा गुप्ता-26,(12)  कुसुम त्रिपाठी-26,(13) पूनम कुमारी-28,(14) विदुषी बंता-27       

सभी विजेताओं को हमारी  व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।

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