6 अप्रैल 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज के ज्ञानप्रसाद लेख में हमें जो लाइन सबसे अच्छी लगी है उसी से आरम्भ कर रहे हैं। “टिकट बाबू जब टिकट बाँट ही रहा है तो उसी को खरीदने के लिए स्टेशन मास्टर को क्यों तंग किया जाय।”
“गुरुदेव हिमालय साधना छोड़ कर क्यों आये और क्यों वापिस चले गए ?” शीर्षक से कल आरम्भ किये गए लेख के दूसरे भाग में,जिसका आज समापन हो रहा है, सभी प्रश्नों के उत्तर मिलने की सम्भावना है।
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हम में से अधिकाँश लोग भगवान पर अहसान करने के लिए,यश और वाहवाही लूटने के लिए अनमने भाव से सेवा आदि करते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि ऐसे लोगों का सारा ध्यान व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति में ही लगा रहता है। भौतिक साधनों की अधिकाधिक मात्रा, गाड़ी, बंगला बैंक बैलेंस,विलासिता और अपनेआप की तृप्ति ही जीवन लक्ष्य बन कर रह जाती है, मन सारा दिन उसी में भटकता रहता है ; तृप्ति फिर भी नहीं होती। समस्त संसार संतान-परिवार तक ही सीमित दिखाई पड़ता है। सुखी और समृद्ध बनने के लिए इस संसार में दो ही साधन दिखाई पड़ते हैं- पहला स्त्री दूसरा बच्चे। बेशक उनका पालन करना हमारा कर्तव्य है, किया भी जाना चाहिए लेकिन जीवन की समस्त विभूतियाँ इन्हीं दो पर न्यौछावर कर दी जायें, यह सर्वथा अनावश्यक है। मनुष्य के कर्त्तव्य इससे बाहर भी हैं और उन्हें भी पूरा किया जाना चाहिए।
गुरुदेव अपने बच्चों से कुछ आशा रखते हैं और इस बार उन्होंने मेरे माध्यम से विशेष अनुरोध किया है कि बच्चों को निम्नलिखित शिक्षा दी जाए :
लोक मंगल के कर्त्तव्यों को भी अपने नित्यकर्म में ही जोड़ लें और उसकी पूर्ति भी उसी तरह करें जैसे अपनी शारीरिक,आर्थिक और पारिवारिक समस्यायें हल करने के लिए की जाती है।
स्वार्थपरता की संकीर्णता में ही डूबे रहना, आपाधापी के कीचड़ में ही कुलबुलाते रहना मानवीय गरिमा को देखते हुए किसी भी प्रकार शोभनीय नहीं। हमें परमार्थ प्रयोजन को जीवन लक्ष्य के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ रखना चाहिए।मनुष्य की सुख-शान्ति सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर है,इसलिए हर व्यक्ति को सामाजिक प्रगति के लिए व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं से भी अधिक प्रयत्नशील रहना चाहिए। युग निर्माण योजना की विचारणा और प्रक्रिया व्यक्ति एवं समाज को समग्र रूप से समुन्नत करने में बिना किसी शक के सभी तरह से पूर्ण है। इस योजना में भाग लेना इस युग की सबसे बड़ी, सबसे महत्वपूर्ण और सबसे आवश्यक साधना है। परिवार के प्रत्येक परिजन को पूरे उत्साह के साथ इसमें भाग लेना चाहिए।
आत्म साधना में ईश्वर उपासना, आत्म चिन्तन, आत्मा और परमात्मा का मिलन प्रधान रूप से सम्मिलित रहना चाहिए। जप, ध्यान, पूजन वन्दन की क्रिया नियमित रूप से चलनी चाहिए, लेकिन उसमें भावनाओं का गहरा पुट रहना चाहिए। लकीर पीटने की चिह्न पूजा अभीष्ट प्रतिफल उत्पन्न नहीं कर सकती। भौतिक महत्वाकाँक्षाओं से जितना दूर जायेंगें उतनी ही आत्मिक विभूतियों के सम्पादन में अभिरुचि एवं तत्परता बढ़ेगी। इस तथ्य को भली-भाँति समझ लिया जाना चाहिए। उपासना का कर्मकाण्ड ही सब कुछ नहीं मान लिया जाना चाहिए बल्कि उसके प्रयोजन की उत्कृष्टता बनाये रखनी चाहिए।
यदि ईश्वर को रिश्वत और खुशामद के बल पर फुसला कर अपने भौतिक स्वार्थ साधनों का जाल बिछाया जा रहा है तो समझना चाहिए कि वह भक्ति, साधना, उपासना से हजारों कोसों दूर भौतिक मायाजाल है, जिससे अपनेआप को धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
अन्तरंग जीवन को समर्थ और सशक्त बनाने के लिए, अन्तर्मुखी होना अत्यन्त आवश्यक है। अपने स्वरूप, लक्ष्य, कर्त्तव्य और उपलब्ध जीवन विभूतियों के श्रेष्ठतम सदुपयोग की बात निरन्तर सोचते रहना चाहिए। अधिक मिले के प्रयास के साथ-साथ जो मिला है उसके उत्कृष्ट उपयोग की बात पर अधिक ध्यान देना चाहिए ।
माताजी बता रही हैं कि यही हैं वे उपदेश जो परिजनों के प्रति सन्देश रूप में देकर गुरुदेव चले गये हैं। इन्हें श्रद्धा और तत्परता के साथ पालन करना अब हमारा कार्य और कर्त्तव्य है । यों तो गुरुदेव इन्हीं बातों को कई प्रकार से हमें समझाने के लिए सदा ही लिखते रहे हैं, लेकिन इस बार उन्होंने “विशेष तौर” से ज़ोर दिया है कि अध्यात्म केवल कहने,सुनने, लिखने और पढ़ने तक ही सीमित नहीं कर लिया जाना चाहिए बल्कि उसे व्यावहारिक जीवन क्रम (Day to day life ) में समाविष्ट और ओत-प्रोत करने का प्रयत्न करना चाहिए। गुरुदेव के प्रति जितनी श्रद्धा रखी जाती है,उतनी ही अगर उनके निर्देश को भी हृदयंगम किया जाय तो निस्सन्देह हम उनके पथ पर उनके साथ-साथ कदम मिलाते हुए उस लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं जो मानवीय जीवन की महान उपलब्धि का वास्तविक प्रयोजन है।
गुरुदेव भविष्य में कब वापिस लौटेंगे, कुछ भी कहा नहीं जा सकता। इसका निर्णय उन्होंने पूर्णतया अपने मार्गदर्शक (दादा गुरु) के हाथ में दे रखा है। जब भी वह आवश्यकता समझेंगें, आएंगें और प्रयोजन पूरा होते ही वापिस चले जाएँ। गुरुदेव पर लगाया गया प्रतिबन्ध का काल समाप्त हो गया था। आवागमन पर रोक की अवधि वसन्त पर्व पर समाप्त हो गयी थी लेकिन फिर भी बिना प्रयोजन और अभीष्ट शक्ति संचय किए बिना जल्दी ही आने वाले नहीं हैं। गायत्री तपोभूमि मथुरा में या अन्यत्र पिछले दिनों जिस प्रकार उनके दर्शनों के लिए भीड़ लगा करती थी भविष्य में वैसी पुनरावृत्ति कभी भी नहीं होने वाली है। गुरुदेव जब शांतिकुंज कुछ समय के लिए आएं तभी दर्शनों के लिए भीड़ उमड़ पड़े ऐसा भविष्य में कभी भी सम्भव न होगा। जो थोड़ा बहुत समय वे शान्तिकुँज आने के लिए निकाल पाया करेंगे उसके एक-एक क्षण का सदुपयोग होगा। उनके निवास के लिए एक नितान्त एकाँत कक्ष बना दिया गया है जिसमें वे अकेले ही रहेंगे। लगभग 20 घण्टे उनकी व्यक्तिगत उपासना-साधना के लिए निश्चित रखने के बाद केवल कुछ ही घण्टे अति आवश्यक परामर्श के लिए निकाल पाना संभव होगा। यह बहुमूल्य समय दर्शन, शंका-समाधान,भौतिक प्रयोजनों के लिए, आशीर्वाद जैसे तुच्छ कार्यों में बर्बाद नहीं किया जायगा । प्रेरणा प्राप्ति के आत्मिक प्रयोजनों के संदर्भ में ही वह घड़ियाँ नियोजित रहेंगी। उसके लिए पहले से ही पत्र व्यवहार कर लेना चाहिए कि किसी की उत्कण्ठा यदि मिलने की है तो उसका प्रयोजन क्या है और उसे न्यूनतम कितने समय में पूरा किया जा सकता है। घण्टों स्वच्छन्द दर्शन, सत्संग, हास-परिहास,संपर्क के लिए बैठे रहने की बात अब बहुत पीछे रह गई है। यों पहले ही उनका समय मूल्यवान था लेकिन अब तो इतना अधिक बहुमूल्य हो गया है और उसके साथ समस्त विश्व के इतने महत्वपूर्ण पहलू जुड़े हुए हैं कि उस समय में तनिक भी अड़चन आना अनुचित ही कहा जायगा। अगली बार जब कभी भी गुरुदेव आएं तब किसे, क्यों, कितने समय तक मिलना आवश्यक है यह पहले से ही हम लोगों से पत्र व्यवहार कर लेना चाहिए। यदि मिलना नितान्त आवश्यक समझा जायगा तो ही उसके लिए व्यवस्था बनाई जायगी । इस प्रतिबन्ध में न तो अहंता है और न स्वार्थपरता ।
जिस प्रकार बड़े आदमी छोटों से नहीं मिलते और घर बैठे गपशप करते रहते हैं, या अपने स्वार्थ साधन में तत्पर रहकर दूसरों की आवश्यकता को नकारते रहते हैं, वैसी बात स्वप्न में भी नहीं सोचनी चाहिए। जो गुरुदेव से परिचित हैं उन्हें यह समझने में तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि गुरुदेव तप साधना द्वारा ऊँचे उठ रहे हैं, नीचे नहीं गिर रहे हैं। उनका प्रेम और ममत्व परिजनों के लिए ही नहीं मानव मात्र के लिए, प्राणि मात्र के लिए जिस वेग-आवेग के साथ उमड़ता रहता है उसमें कमी नहीं आई बल्कि इन दिनों वृद्धि ही हुई है लेकिन उस प्रेम का उपहार अनुदान प्रस्तुत करने के लिए उन्हें कुछ उपार्जन और संचय भी करना है । तपश्चर्या में निरत समय इसी प्रयोजन के लिए है। वे हमें प्यार करते हैं, हमें भी उनसे प्यार करना चाहिए। हमारे प्यार का एक सच्चा स्वरूप यही है कि उनके उच्चस्तरीय प्रयोजनों में उनके समय में मोहवश अनावश्यक अड़चन न डालें । इन दिनों गुरुदेव जिस कार्य में लगे हुए हैं उस पर विश्वमानव के भविष्य की अति महत्वपूर्ण सम्भावनायें टिकी हुई हैं। यदि हम उस समय को अपने मोह के लिए प्रयुक्त करते हैं तो उसकी हानि विश्व मानव को ही भुगतनी पड़ेगी। इतनी बड़ी क्षति पहुँचाकर हम अपनी भावुकता तृप्त करें यह किसी प्रकार भी उचित न होगा।
शाखाओं का संगठन, युग-निर्माण प्रक्रिया का संचालन, परिजनों की व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान-परामर्श जैसे कार्य उन्होंने मेरे जिम्मे छोड़े हैं। उन्हें यथाशक्ति कर भी रही हूँ। उन्हीं कार्यों के लिए उन्हें भी खटखटाया जाय तो यह पुनरावृत्ति मात्र ही हुई । टिकट बाबू जब टिकट बाँट ही रहा है तो उसी को खरीदने के लिए स्टेशन मास्टर को क्यों तंग किया जाय। गुरुदेव जैसा व्यक्तित्व लाना तो असंभव है लेकिन मैं वोह काम उसी तरह निभा रही हूँ जैसा गुरुदेव द्वारा सम्भव था। इस परिस्थिति में वही बातें उनके सामने रखने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। जो बच्चे इतना समझ पायेंगें वोह सहज ही अपनी भावुकता पर नियन्त्रण कर लेंगे।
उपयुक्त परिजनों की आत्मिक प्रगति में अतिरिक्त सहायता करने की उनकी आकाँक्षा अभी भी यथावत है। वह घटी नहीं वरन् बढ़ी ही है। प्रशिक्षण का समय चला गया। अब वे किसी को विस्तारपूर्वक सिखा, समझा नहीं सकेंगे। इसके लिए जितना लम्बा समय चाहिए वह रह नहीं गया है।
प्राण प्रत्यावर्तन (संक्षेप में); इस विषय पर 7 विस्तृत लेख हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध हैं
माताजी बता रही हैं कि अब गुरुदेव केवल प्रत्यावर्तन ही करेंगे जिसका अर्थ है कि अपनी उपार्जित शक्ति का वितरण करेंगे। इसके लिए पूरे तीन दिन शान्तिकुँज में रहना पर्याप्त होगा। आचार्य यम के द्वार पर बालक नचिकेता तीन दिन पड़ा रहा था और आग्रह पूर्वक पंचाग्नि विद्या का अनुदान लेकर वापस लौटा था। वैसा ही कुछ यहाँ भी होगा। साधक तीन दिन तक पूर्ण एकान्त सेवन करेंगे-मौन रहेंगे और मस्तिष्क को सब प्रकार के विचारों से खाली रखेंगे। शौच, स्नान जैसे नित्य कर्मों के अतिरिक्त यथासम्भव अधिक से अधिक अचेत रहेंगे। शरीर से ही नहीं, मन से भी। गंगाजल पियेंगे, मेरे द्वारा बना और परोसा भोजन ही करेंगे। इस अवधि में गुरुदेव अपनी अन्तःस्थिति को साधकों के अन्तरंग में उतारते रहेंगे। बछड़ा जिस तरह दूध पीता, भूमि जैसे वर्षा का जल सोखती, लकड़ी जैसे आग पकड़ती, बैटरी जैसे चार्ज होती है साधक ठीक वही अपनी मनोभूमि बनाये रखेंगें और जहाँ तक सम्भव होगा मनःक्षेत्र को पूर्णतया खाली रखेंगे। निवास, भोजन आदि की व्यवस्था शान्तिकुंज में ही होगी । इस अवधि में हर साधक अपने ऊपर एक दिव्य शक्ति अवतरित होते हुए अनुभव करेगा और इससे लाभान्वित होकर इतनी शक्ति प्राप्त कर लेगा जिसके आधार पर प्रगति का पथ-प्रशस्त हुआ स्पष्ट दिखाई देने लगे।
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आज के 24 आहुति संकल्प में 12 युगसैनिकों की भागीदारी रही है। सभी युगसैनिक यज्ञकुण्डों से उठ रही ऊर्जा प्राप्त करके गुरुदेव की ज्ञान मशाल हाथों में थामें अखंड दीप के दर्शन को जा रहे हैं, बहिन वंदना जी अपने भाई अरुण जी के साथ इस procession को लीड कर रहे हैं, वोह दोनों आज के गोल्ड मेडलिस्ट जो ठहरे।
(1) सरविन्द कुमार-28,(2)चंद्रेश बहादुर-32 (3) सुजाता उपाध्याय-34,(4) अरुण वर्मा-48 ,(5) रेणु श्रीवास्तव-29,(6) सुमनलता-31,(7)संध्या कुमार-34,(8) कुमोदनी गौरहा-24,(9) मंजू मिश्रा-31,(10) वंदना कुमार-48,(11) पुष्पा सिंह-24,(12) निशा भारद्वाज-24
सभी विजेताओं को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।