वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव हिमालय साधना  छोड़ कर क्यों आये और क्यों वापिस चले गए ? पार्ट 1 

5 अप्रैल 2023 का ज्ञानप्रसाद

निशा भारद्वाज बहिन जी ने कमेंट करके कल वाले लेख को एक टीवी सीरियल की उपमा दी है। हमारे बहुत सारे सहकर्मी शांतिकुंज जा रहे हैं, उनके लिए ऐसी भावना होना स्वाभाविक है। उपमा चाहे धारावहिक सीरियल की दें, रियलिटी शो सीजन 1, 2 की दें यां मूवी की दें, सभी सुपरहिट हैं। कारण केवल एक ही है कि  इसके प्रोडूसर,डायरेक्टर,स्क्रीन play writer, म्यूजिक डायरेक्टर, यहाँ तक के नायक भी हमारे परम पूज्य गुरुदेव ही हैं। It is a one-man show.हम तो केवल थिएटर के बाहिर  खड़े होकर टिकटें बेचने वाले ही हैं, प्रमोशन करने वाले हैं,दीवारों पर पोस्टर चिपकाने वाले मज़दूर हैं, दर्शकों को आकर्षित करने वाले हैं। बहिन निशा जी का धन्यवाद् करते हैं जिनके कारण यह पंक्तियाँ लिख पाए और उनके समर्पण को नमन, जिस स्थिति में उन्होंने कमेंट लिखा था। 

सरविन्द भाई साहिब का शेयर किया हुआ प्रज्ञा गीत आज के लेख पर बिल्कुल ही फिट बैठ रहा है क्योंकि एक माँ अपने ह्रदय की  बात अपने अनेकों बच्चों के साथ शेयर  कर रही हैं । लेख का  टाइटल स्वयं  बता रहा है कि गुरुदेव अपनी हिमालय साधना को छोड़ कर शांतिकुंज क्यों आये, अगर आये तो फिर रुके क्यों नहीं, क्या वोह केवल वंदनीय माता जी के हार्ट अटैक  के कारण  ही आये थे, माताजी को हार्ट  अटैक क्यों हुए थे। इन सभी प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए ही हमने दो लेख लिखने का विचार बनाया जिसका पहला पार्ट आज प्रस्तुत किया जा रहा है, कल दूसरा भाग प्रस्तुत करेंगें। दोनों पार्ट अखंड ज्योति मई 1972 अंक पर आधारित हैं। माता जी के कक्ष में, उनके  चरणों में बैठ कर, उनकी ही वाणी में सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है, किसी भी स्थिति में इन्हें  मिस नहीं करना चाहिए। 

तो आइए विश्व शांति के लिए प्रार्थना करें और तैयार हो जाएँ आज के अमृतपान के लिए : 

“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥” 

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गत मास गुरुदेव का आकस्मिक आगमन हुआ। वे शान्तिकुँज आये और थोड़े समय यहाँ रहकर चले गये । गुरुदेव ने शांतिकुंज आश्रम विश्व की दीप्तिमान आत्माओं से संपर्क बनाये रखने, उन्हें बल और परामर्श देते रहने, विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों की गुत्थियाँ सुलझाने के लिए ही बनाया है। वे आरम्भ से ही घोषित करते रहे हैं कि जब-जब उन्हें आवश्यकता अनुभव हुआ करेगी, तब जितने दिन आवश्यक होगा उतने दिन वे यहाँ ठहरा करेंगे और अन्य समय अपने भावी जीवन के साधन क्षेत्र में तत्पर रहा करेंगे लेकिन  इस बार उनका आना आकस्मिक ही हुआ।

गुरुदेव ने अपनेआप पर प्रतिबंध लगाया था कि वसन्त पर्व तक शांतिकुंज नहीं आना है, जब वह आये तो यह प्रतिबंध पूर्ण हो चुका था। इस बीच उन्होंने  अपना अति महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कर लिया था। बंगला देश के मुक्ति संघर्ष के दाव पर लगे हुए भारत के भविष्य के प्रति वे अति सतर्क रहे और राष्ट्र के जीवन-मरण जैसे उस प्रश्न को हल करने के लिए जो काम  दिव्य शक्तियाँ कर रहीं थी उसके “प्रमुख पात्र” के रूप में संलग्न रहे। 

वस्तुस्थिति कुछ ऐसी थी कि  वसन्त पर्व से पहले  उनका आना हो ही  नहीं सकता था। अपने संबंध में भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से लेकर नव निर्माण के क्रिया-कलाप की दिशा निश्चित करने तक के  शुभ मुहूर्त को बीच में छोड़ कर शांतिकुंज आना  कैसे संभव  हो सकता था। उस पर्व पर वे परिजनों को झकझोरने के लिए कुछ विशेष प्रयास करने और सजग आत्माओं के साथ संपर्क बनाने में संलग्न रहे। यह सभी आवश्यक और महत्वपूर्ण कार्य थे जो उन्होंने यथा समय सम्पन्न कर लिये । 

इस समय उनके आने का प्रत्यक्ष कारण मेरा स्वास्थ्य था। वह अकस्मात बिगड़ा । हृदय के कई अत्यन्त घातक दौरे आये। वे असामान्य थे। जहाँ तक कष्ट सहने का प्रश्न है, सारा जीवन सहनशीलता  के अभ्यास में ही  लगा रहा  है। गुरुदेव की छाया में रहकर अधिक नहीं तो इतना तो सीखा ही है कि आपत्तियों के समय धैर्य, साहस और विवेक को दृढ़तापूर्वक अपनाए रखना  चाहिए । व्यथा को इस तरह दबाये रखना  कि समीपवर्ती को उसका आभास न होने पाये। 

मल-मूत्र त्याग की क्रिया, प्रजनन क्रिया आदि  गुप्त रखे जाते हैं। कारण यही है कि इन क्रियाओं को देखने में किसी को कोई रुचि नहीं  होती, दरअसल घृणा होती है। कष्टों की प्रक्रिया भी ऐसी है। मानव जीवन में सुखों के साथ दुःखों का भी जुड़ाव है। मानव कल्याण के लिए भगवान् केवल सम्पत्ति ही नहीं विपत्ति भी भेजते हैं। माता दुलार भी करती है और चपत भी लगाती है। उसकी दोनों ही क्रियायें बालक के हित में ही  होती हैं, यह तथ्य असंख्य बार समझा और हृदयंगम किया गया है। गुरुदेव के संपर्क में ऐसे ही पाठ पढ़ती रही हूँ कि रुदन को मुस्कान में कैसे बदला जाना चाहिए। 

इस बार हुए हृदय रोग के दौरों को डॉक्टरों  ने एक स्वर से प्राणघातक तो  ठहराया ही था लेकिन जब उनसे बचाव हो गया  तो उन्ही ने आश्चर्य भी प्रकट किया। 

इतना ज्ञान होने के बावजूद हमें तो यही विदित हो रहा था कि अब शरीर और प्राण अपना संबंध अलग करने जा रहे हैं। यों गुरुदेव की प्रत्यक्ष निकटता का अभाव भी कम कष्टकारक नहीं रहा है। वे जिस स्थिति में रह रहे  हैं और मुझे जिस स्थिति में रहना पड़ रहा है  उसे भगवान् राम के वन गमन के पश्चात् भरत की मनोवेदना से तोला  जा सकता है। गुरुदेव की  अप्रत्यक्ष समीपता को छीन सकना तो किसी की भी (स्वयं उनकी भी) सामर्थ्य में नहीं है लेकिन प्रत्यक्ष समीपता की अपनी आवश्यकता और उपयोगिता है। वह छिन जाने से अंदर ही अंदर  सूनेपन की धुन्ध सी छा गई है। गुरुदेव हिमालय में  किस कष्ट में रहते हैं और मैं किन  सुविधा साधनों के बीच रहती हूँ, यह असमानता कई बार रुला देती है, लगता है कि अपना बहुत बड़ा वैभव कहीं चला गया है और उसका स्थान शून्य की स्तब्धता ने ले लिया है। हृदय रोग के दौरे के समय यह बात भाव चिन्तन तक सीमित न रह कर और आगे बढ़ गया, ऐसा  लगा कि शरीर और प्राण अब विलग होने जा रहे हैं। ऐसे समय में एक ही इच्छा थी कि उनके प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए ही नेत्र बन्द हों। समर्पित काया और आत्मा का उन्हीं के हाथों समापन हो और उसके बाद जो कुछ बच जाय वोह  उन्हीं में लीन हो जाय। उस विपत्ति की घड़ी में यह अनुरोध उन तक पहुँचाना पड़ा। यों अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं के लिए जीवन भर कभी उन पर रत्ती भर भी दबाव नहीं पड़ने दिया है। उनकी इच्छा और व्यवस्था में सहायक न सही कम से कम बाधक कभी भी नहीं बनी हूँ। उनकी तप साधना में अड़चन पैदा  करने का तो कभी स्वपन में भी नहीं सोचा लेकिन विवशता ने यह करा लिया। सभी ओर से लाचार होकर ही मैंने उन्हें पुकारा कि यदि इस दुविधा की  घड़ी में वह किसी  प्रकार उपस्थित होने की कृपा करें। पत्नी के नाते चाहे  नहीं-उनकी साधिका के नाते, अनन्य साधनारत-अकिंचन आराधिका के नाते ही यह इच्छा व्यक्त करने का साहस कर सकी।

जैसे ही यह  पुकार गुरुदेव तक पहुँची, वे अविलम्ब शान्तिकुँज उपस्थित हो गये। शारीरिक कष्ट तो उनके आने पर  भी बहुत था लेकिन मानसिक कष्ट उनके सामने आते ही भाव भरे आँसुओं के साथ बह गया। कुछ समय वे यहाँ ठहरे। उनकी करुणा और ममता के साथ बरसते हुए अमृतकण कितनों की आत्माओं को जीवनदान देते हैं। मुझे तो उस काय कष्ट से भी त्राण मिल गया। उनके आगमन के उपरान्त भी कुछ समय कष्ट रहा लेकिन  वह धीरे धीरे हल्का होता चला गया और वह दिन भी आ गया जब गुरुदेव  प्रयोजन पूरा करने के लिए पुनः हिमालय वापिस लौट गये।

आहार-विहार का सन्तुलन रखने से आमतौर पर रोग नहीं होते। हम लोगों को भी उस तरह के काय कष्टों में फँसने का अवसर नहीं आता। इस बार तो कारण कुछ दूसरा ही  था। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का अन्त गले के कैन्सर से हुआ। वह न तो उनके आहार विहार का व्यतिक्रम था और न प्रारब्ध भोग अथवा देवी प्रकोप। वे अपनी उपलब्ध तप पूँजी की सीमा से अधिक खर्च भावावेश में करते रहे। भले ही वह जन कल्याण के लिए किया गया हो पर “प्रकृति की मर्यादा” की अवहेलना तो हुई ही है। आमदनी से अधिक खर्च करने वाले की जो दुर्दशा होती है वही दुर्दशा उनकी भी हुई।

अपने सामने भी एकमात्र कारण वही था। पिछले दिनों परिवार के लिए जितना अनुदान आवश्यक था वह दिया तो पूरा गया पर उसका कमाई उतनी न हो सकी। अखण्ड दीपक पर कुमारी कन्याओं के माध्यम से शान्तिकुंज में जो अखण्ड गायत्री जप- 24 लक्ष के 24 महापुरश्चरणों के निमित्त चल रहा है, उसके अतिरिक्त अपनी उपासना थोड़ी सी ही हो पाती है। अधिकाँश समय तो पत्रिकाओं के सम्पादन, पत्रों के उत्तर तथा आगन्तुकों के स्वागत सत्कार में ही निकल जाता है। गुरुदेव ने अपनी सारी शक्ति विश्व महत्व के कार्यों में पूरी तरह लगा रखी थी। विश्व्यापी विशाल परिवार की विविध आवश्यकतायें पूरी करने का भार मेरे ऊपर आ पड़ा। “शक्ति कम और बोझ अधिक” पड़ने से अपना ढाँचा चरमराने लगा तो उसमें कुछ आश्चर्य भी नहीं था। यही है अपने इन दिनों के रोग- प्रकोप का कारण । अब स्थिति बहुत कुछ काबू में आ गयी है। गुरुदेव के अनुदान की मात्रा बढ़ जाने से परिजनों की आत्मिक और भौतिक सहायता के लिए जो किया जाना चाहिए उसे अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह निभाया जा सकेगा।

गुरुदेव केवल मेरे लिए ही आये हों और परिवार के लिए कोई भी  सन्देश/ निर्देश न दिये हों ऐसा तो हो नहीं सकता। संयोगवश जिन लोगों से भेंट हो गयी उन्हें वे व्यक्तिगत रूप से भी कुछ बता गये हैं। शेष सभी लोगों के लिए कुछ सन्देश दे गये हैं उनका उल्लेख इन पंक्तियों में किया जा रहा है। अखण्ड-ज्योति में मेरी भूमिका  केवल उनकी सन्देश वाहिका के रूप में ही है। प्रेरणा स्रोत गुरुदेव ही  हैं। पत्रिकाओं में जो कुछ छपता है उसे असल में  गुरुदेव का ही प्राण प्रवाह मानना चाहिए। अपना कार्य तो उनके संकेत सन्देशों को कार्यान्वित करना ही है।

परम पूज्य गुरुदेव ने बार-बार इच्छा व्यक्त की कि परिवार को लोक मंगल के लिए अधिक से अधिक सक्रिय होना चाहिए। यों जो कुछ किया जा रहा है उसे भी नगण्य नहीं कहा जा सकता, पर जीवन निर्वाह के अतिरिक्त बची हुई शक्तियों की जमाखोरी और फिजूल खर्ची बन्द करके उसे युग प्रयोजन के लिए नियोजित कर दिया जाय तो बाहर के लोगों की बात छोड़िए, अपना छोटा सा परिवार ही राष्ट्र निर्माण ही नहीं, विश्व निर्माण भी असंदिग्ध रूप से कर सकने में भली प्रकार समर्थ हो सकता है।

अल्प विराम – कल तक के लिए दूसरे  भाग की प्रतीक्षा  

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आज के  24 आहुति संकल्प में 14 युगसैनिकों की भागीदारी रही है।  बहुत दिनों के gap  के बाद सरविन्द जी फिर से गोल्ड मैडल विजेता हैं, अरुण जी भी close ही हैं। दोनों भाइयों को हमारी बहुत बहुत बधाई।    

(1) सरविन्द कुमार-51,(2)चंद्रेश बहादुर-29 (3) सुजाता उपाध्याय-32,(4) अरुण वर्मा-48,(5) रेणु श्रीवास्तव-31,(6) सुमनलता-25,(7)संध्या कुमार-45,(8) कुमोदनी  गौरहा-38,(9) मंजू मिश्रा-24,(10) वंदना कुमार-35,(11) पुष्पा सिंह-24,(12) निशा भारद्वाज-28,(13)स्नेहा गुप्ता-25,(14) प्रेरणा कुमारी-24      

सभी विजेताओं को हमारी  व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।

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