3 अप्रैल 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज सप्ताह का प्रथम दिन सोमवार है,मंगलवेला,ब्रह्मवेला का समय है। रविवार के अवकाश के उपरांत हम एक परिवार की भांति परम पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माताजी के श्रीचरणों में बैठ कर आज के दिव्य ज्ञानामृत का पयपान करने को, सत्संग करने को तैयार हैं। आइए जीवन को उज्जवल बनाएं, दिन का शुभारंभ सूर्य भगवान की प्रथम किरण की ऊर्जावान लालिमा से करें, सभी के मंगल की कामना करते हुए विश्व शांति के लिए प्रार्थना करें।
“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥”
20 मार्च से आरम्भ हुए अखंड ज्योति अगस्त 1996 के रजत जयंती स्पेशल अंक पर आधारित हमने कितने ही लेख लिख दिए हैं । अभी भी कोई अंत नहीं दिख रहा क्योंकि विवरण है ही इतना विशाल कि लिखते लिखते पता हम कहाँ खो जाते हैं।
आज का लेख पाठकों को 50 वर्ष पुराने शांतिकुंज की ओर ले जायेगा। निवेदन है कि अगर आपको ऐसा लगे कि यह तो पहले भी पढ़ा हुआ है, तो भी पूरे लेख को श्रद्धा से पढ़ें क्योंकि विषयों की overlapping के कारण अलग करना बहुत ही कठिन है।
17 से 20 जून 1971 के विदाई समारोह के बाद परमपूज्य गुरुदेव मथुरा को सदा के लिए छोड़ कर शांतिकुंज आ गए। इस विदाई समारोह का आँखों देखा हालआप हमारे इस वीडियो लिंक https://youtu.be/EgPjcZ1fp5A को क्लिक कर सकते हैं।
मिशन का अगला अध्याय :
शांतिकुंज से मिशन का अगला अध्याय आरम्भ होता है । जिन्होंने गुरुदेव एवं वंदनीय माताजी की फिलासफी को समझा है उन्हें तो किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी किंतु जो इस मिशन से धीरे-धीरे संपर्क में आये अथवा जिन्होंने शांतिकुंज को मात्र एक स्थूल structure समझकर दूर से देखा है उन्हें विगत का इतना विवरण बताना अनिवार्य है ताकि वे 1971 से आरम्भ हुई वंदनीय माताजी की विशिष्ट भूमिका को समझ सकें। यह एक ऐसी भूमिका थी जो परम पूज्य गुरुदेव ने माताजी को एक दायित्व के रूप में सौंपी थी। वैसे तो वंदनीय माताजी की परम पूज्य गुरुदेव के साथ नवनिर्माण के इस अभिनव आँदोलन में भागीदारी तब से ही आरम्भ हो गई थी, जब वे मथुरा में घीआ मंडी स्थित अखण्ड ज्योति संस्थान के पुराने भवन में परिणय सूत्र में बंधकर कटिबद्ध हो गयी थी। वहां आने वाले हर परिजन को भोजन कराने से लेकर घर की आर्थिक व्यवस्था,अखंड ज्योति पत्रिका का संचालन, अन्य पुस्तकों का प्रकाशन एवं प्रतिदिन आने वाले प्रत्येक पत्र का जवाब देने में उनका सक्रिय योगदान प्रारम्भ से ही रहा । 1926 में जन्मी वंदनीया माताजी के कंधों पर बहुत ही छोटी आयु में एक बहुत ही बड़ी जिम्मेदारी आ गयी थी। गुरुदेव के लिए अपने सगे-संबंधी रिश्तेदारों के बच्चे एवं गायत्री परिवार के परिजनों एवं उनके बालक-बालिकाओं में कोई अंतर नहीं था । दो मंजिले भूतों वाले मकान में 40-50 से अधिक व्यक्ति रह लेते थे, चिकित्सा भी करा लेते थे, पढ़ भी लेते थे, अनुदान पाकर आशीर्वाद लेकर चले जाते। फिर कोई नया समूह आ जाता । यह सब कैसे होता था आज भी समझ में नहीं आता । ऐसी जिम्मेदारियों के बोझ से लदी माताजी 1943 से लेकर 1971 तक जो कार्य सम्पन्न करती रहीं,उसमें एक अत्यंत जटिल स्तर का कार्य उनके कंधों पर आ गया। वह कार्य था शांतिकुंज की स्थापना का। अखंड ज्योति संस्थान तो भीड़-भाड़ के बीच में बाजार के बीच अवस्थित था, लेकिन शांतिकुंज बिल्कुल अलग, दुनिया के शोर-शराबे से दूर, एकांत में स्थित था। सबसे बड़ी बात थी कि उनकेआराध्य परम पूज्य गुरुदेव भी सशरीर उनके पास नहीं थे क्योंकि मथुरा को छोड़ने के बाद कुछ दिन ही शांतिकुंज रह कर गुरुदेव हिमालय प्रवास के लिए रवाना हो गए थे।
प्रारम्भ में वंदनीय माताजी के साथ शाँतिकुँज में केवल तीन कार्यकर्त्ता ही थे। देख रेख के लिए शारदा देवी और रुक्मणी देवी नाम की दो महिलाएँ, कुल चार कन्याएँ एवं एक समर्पित स्वयं सेवक के रूप में श्री रामचंद्रसिंह थे। इन छोटी-छोटी बालिकाओं के द्वारा माताजी ने न केवल अखण्ड दीपक के समक्ष 24 लक्ष के 24 अनुष्ठान कराये थे बल्कि उन्हें माँ का प्यार देते हुए उन्हें नारी जाग्रति अभियान का सूत्रधार भी बनाया था। बड़ा ही कठिन रहा होगा उस विराट हृदय वाली माँ के लिए वह क्षण, जब उनके समक्ष नन्हीं-नन्हीं 12 से 14 वर्ष की बालिकाएँ समस्त प्रतिकूलता के मध्य रहती हुई निरंतर तप में संलग्न रहती थी । वे स्वयं अपने भरे- पूरे परिवार को अपने पीछे छोड़कर आई थीं। शांतिकुंज के आस पास का क्षेत्र उन दिनों निर्जन वन था। हरिद्वार ऋषिकेश के बीच यातायात भी उतना नहीं था और सप्तर्षि रोड स्थित शाँतिकुंज का मुख्य द्वार east facing होने के कारण चार धामों को जाने वाली मेन रोड से बिल्कुल ही अलग था। आजकल तो गेट नंबर 2,4 और 5 के सामने से हाईवे चलता है। उन दिनों हरिद्वार से एक बस सबेरे व एक शाम को आती थी और सप्तर्षि आश्रम स्टॉप पर थोड़ी देर रुक कर चली जाती थी। हरिद्वार से मात्र इतना ही संपर्क था । चारों ओर ऊँचे, घने पेड़ थे, रात्रि की शांति भंग करती पशु-पक्षियों की चीरती हुई आवाजें, एकाँत में सोने वालों को तुरंत जगा देती थी। 6-7 वर्षों में पक्की सड़कें बन जाने के कारण,एवं प्रकाश व्यवस्था उपलब्ध होने से यातायात में काफी सुविधा हो गयी । जो शांतिकुंज उन दिनों अपनी बाल्यावस्था के प्रथम वर्ष में इतना छोटा था आज एक विराट स्वरूप ले चुका है।
कुछ समय पूर्व हमने शांतिकुंज परिसर के चप्पे-चप्पे की पैदल यात्रा की और एक रोडमैप develop किया था। तब हमें पता चला कि साधकों के रहने के लिए लगभग दो दर्जन आवास भवन हैं, विदेशी साधकों के लिए आधुनिक सुविधाओं वाले दो अलग भवन हैं। इस मानचित्र को develop करने का विचार हमें उन वरिष्ठों एवं अन्य साधकों को देखकर आया था जो इधर-उधर पूछते फिरते थे और कई बार थके, घबराए हुए भी होते थे। वैसे तो सूचना केंद्र से भी सारी जानकारी मिल जाती है लेकिन इस रोडमैप को चीटशीट की तरह जेब में रखने में कोई हर्ज़ नहीं है।
जिस शांतिकुंज की हम इस समय बात कर रहे हैं उन दिनों उसका स्थूल शरीर छोटा तो अवश्य था लेकिन सूक्ष्म शक्ति की पराकाष्ठा पर था। गंगा का किनारा और वृक्षों की बहुलता होने के कारण ठण्डक भी बहुत थी । स्थापना के लगभग 12 वर्ष बाद तक भी यहाँ पंखा चलाने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। बदलाव तो बाद में आया है जब यहाँ गंगा पर बाँध बँध गए, नहर निकाली गईं एवं वृक्ष काटने का क्रम चल पड़ा । निश्चित ही प्रकृतिक सौंदर्य से भरे पड़े वातावरण में शांतिकुंज का वह मुख्य भवन जिसमें अखण्ड दीपक स्थापित है तथा पीछे का छोटा बगीचा शामिल था अति सुंदर होगा । विस्तार तो अनवरत चलता ही रहा,आज भी चल रहा है।
हम पाठकों को 50 वर्ष पूर्व के काल प्रवाह में 1971-72 के प्रारम्भिक दिनों में ले जाना चाहते हैं जब यहाँ आने वाले जिज्ञासु साधकों की भीड़ नहीं के बराबर थी। अभी पिछले सप्ताह (30 मार्च 2023) की ही बात है हमारी समर्पित सहकर्मी आदरणीय सुमनलता जी अपने बेटे का जन्मदिन मनाने शांतिकुंज गयी थीं। बता रही थीं कि लाखों की संख्या में साधक आये थे, अनेकों पारियों में तीनों यज्ञशालायों में यज्ञ हो रहे थे।
1971-72 के दिनों में वंदनीय माताजी न केवल उनके साथ आयी 12-13 वर्ष की बालिकाओं की अभिभाविका, संरक्षिका थी वरन् नीचे कार्यालय में बैठकर आने वाले हर पत्र का उत्तर देने वाली एक व्यवस्थापिका भी थीं । समय-समय पर जमीन, बैंक संबंधी कार्यों के लिए उन्हें सिटी बस में शहर भी जाना पड़ता था । निजी वाहन यहाँ बाद में आए जब नारी जागरण सम्मेलन हेतु दो एम्बेसेडर गाड़ियाँ ली गई। उनके सहायक उन दिनों के व्यवस्थापक श्री बलराम परिहार जी होते थे जो व्यवस्था में उनके साथ थे। आज जो सारा कार्य सम्पन्न हो रहा है परम पूज्य गुरुदेव द्वारा माताजी को सिखाया गया और उनके द्वारा उन बालकों को जो आज इतने बड़े विराट् संगठन की स्थापित नीतियों का क्रियान्वयन सुव्यवस्थित सामूहिक दायित्व का निर्वाह करते हुए कर रहे है। लगभग 45 वर्ष की आयु, कार्य का अत्यधिक भार, स्थूलता लिए हुए काया एवं सबसे बड़ी प्रतिकूलता अपने आराध्य का प्रत्यक्षतः न होना, इन सबके बावजूद माताजी ने सारा बोझ अपने कंधों पर लेकर शाँतिकुँज को चलने-फिरने योग्य बनाया ।
छोटी -छोटी बच्चियाँ जो जून माह में 4 की संख्या में थी एवं मई 1972 में जिनकी संख्या जाकर 24 हो गई थी, उन्हें यहां 24 घंटे अखण्ड जप सम्पन्न करना था । गायत्री महाशक्ति की प्रतिमा के समक्ष जल रहे अखण्ड दीप, जिसे परम पूज्य गुरुदेव ने 1926 में आंवलखेड़ा स्थित कोठरी में प्रज्ज्वलित किया गया था, के समक्ष दिनभर एवं रात्रि को तीन परियों में समय विभाजन कर निरंतर जप की व्यवस्था बनाई गयी थी। शुरुआत के कुछ दिनों बाद से वर्ष में यह कार्य कुमारी पुष्पा, आदर्श, कमला, बसंती, निर्मला, रेणुका, सरोज, सुधा एवं उर्मिला, नामक 9 बालिकाओं के माध्यम से प्रारम्भ हुआ था। यह बालिकाएं भारत भर से वर्षों से जुड़े कार्यकर्त्ताओं की पुत्रियाँ थीं ।
प्रातःकाल एवं सायंकाल की आरती माताजी सहित नौ बालिकायों और देख-रेख करने वाली दो बहनों( शारदा और रुक्मणी ) द्वारा सम्पन्न होती थी। अखण्ड गायत्री जप के बाद जो समय बचता उसमें वंदनीय माताजी, 12 से 14 वर्ष की औसत आयु वाली उन देव कन्याओं को भोजन बनाना, संगीत संकीर्तन के साथ सम्भाषण, योग व्यायाम आदि की कक्षाओं में विभाजित करके ट्रेनिंग देती थीं ।
माताजी की व्यक्तिगत साधना इसके अतिरिक्त थी जो प्रातःकाल तीन बजे से आरंभ हो जाती थी। प्रातः उठकर वे अखण्ड दीपक के सामने भजन कर रही बालिका को देखकर आती, अपना कार्य समाप्त कर स्वयं भी जप में बैठ जाती थी। आरती होने तक सब बच्चों को नहला-धुलाकर तैयार करके वे उन्हें धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनने का प्रशिक्षण दे रही थी । बीच-बीच में मनोरंजन हेतु कुछ ऐसी मनोरंजक अंताक्षरियों, खेल चर्चाओं अथवा बच्चों द्वारा खेले जाने वाले खेलों का समावेश उनका मन बहलाने के लिए करती। गायत्री मंदिर, जहाँ अखंड दीप स्थित है, शाँतिकुँज का सबसे पहला मंदिर है। माताजी इस मंदिर की व्यवस्था स्वयं करती थीं और सुनिश्चित करती थीं कि अखंड जाप में कोई व्यवधान न आये। कभी- कभी अतिरिक्त जप कर माताजी अखण्ड दीपक का दायित्व किसी एक बालिका या शारदा देवी के ज़िम्मे छोड़कर बालिकाओं को हरिद्वार घुमाने, सप्तसरोवर के गंगा तट पर ले जाने का क्रम भी बनाती थीं ।
यह सारा विवरण इसलिये लिखा जा रहा है ताकि शांतिकुंज में रहने वाले हज़ारों जीवनदानी ,लाखों करोड़ों की संख्या में आने वाले साधक शाँतिकुँज के प्रारम्भिक स्वरूप को समझ सकें। उन्हें इस तथ्य से अवगत कराया जाये कि जप की आधारशिला पर रखी गयी शाँतिकुंज की नींव इतनी मज़बूत और प्राण -ऊर्जा से ओतप्रोत है कि इसकी स्थापना को कोई भी डगमगा नहीं सकता।
क्रमश जारी
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 9 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है और चंद्रेश जी गोल्ड मैडल विजेता हैं। उनको हमारी बहुत बहुत बधाई।
(1) सरविन्द कुमार-30 ,(2 )चंद्रेश बहादुर-44, (3 ) सुजाता उपाध्याय-24 ,(4 ) अरुण वर्मा-39,(5 ) रेणु श्रीवास्तव-26 ,(6 ) वंदना कुमार-33 ,(7 ) सुमनलता-26 ,(8)राजकुमारी कौरव-26, (9)संध्या कुमार-28
सभी विजेताओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।