23 मार्च 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज सप्ताह का चौथा दिन, गुरु का दिन गुरुवार है। ब्रह्मवेला का यह समय हमने दैनिक दिव्य ज्ञानप्रसाद के अमृतपान के लिए निश्चित किया हुआ है। इस समय हम सब इक्क्ठे होकर, एक परिवार की भांति गुरुसत्ता के श्रीचरणों में बैठ कर सत्संग करते हैं, सुन्दर भक्ति गीत के साथ कीर्तन करते हैं, विश्वशांति की प्रार्थना करते हैं : “ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥”
अखंड ज्योति के अगस्त 1996 अंक पर आधारित वर्तमान लेख श्रृंख्ला का आज चतुर्थ लेख है। अखंड ज्योति का यह अंक शांतिकुंज की रजत जयंती को समर्पित है।किसी भी लेख श्रृंखला को लिखते समय हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यही आती है कि repitition का ध्यान रखा जाए। इतनी अधिक overlapping होने के कारण देखना पड़ता है कि यह बात पहले हो चुकी है या नहीं। कई बार रिपीट करना भी पड़ता है क्योंकि उसके साथ सम्बंधित बातें बहुत ही महत्वपूर्ण होती हैं। कल वाले लेख का उदाहरण लें तो गुरुदेव का शांतिकुंज स्थापित करने का उद्देश्य “खोए हुए अध्यात्म” को पुनः जीवित करना था। आज जब आगे बढ़ने लगे तो “गुरुदेव ने मथुरा क्यों छोड़ा ?” कुछ repetition सा लगा लेकिन avoid करना उचित नहीं समझा क्योंकि उसका cross reference अखंड ज्योति मार्च 1971 था। जो भी हो लेख का सरलीकरण करके रोचक बनाने का भरपूर प्रयास किया है, हमारा पाठक ही बताएंगें कि कितना रोचक था।
सुजाता बहिन जी द्वारा भेजी गयी वीडियो से ही प्रेरित होकर हम शुक्रवार को एक बहुत ही महत्वपूर्ण वीडियो रिलीज़ कर रहे हैं। Description box में दी गयी जानकारी अवश्य देखें।
वीकेंड सेगमेंट तो है ही सबसे लोकप्रिय, इस बार और भी लोकप्रिय होने वाला है।
इन्ही शब्दों के साथ आरम्भ करते हैं आज का ज्ञानप्रसाद अमृतपान :
गुरुदेव ने मथुरा से विदाई को “महाप्रयाण” कहते हुए कहा कि उनके गुरु ने एक बहुत बड़ी assignment पर जाने के लिए मथुरा छोड़ने का निर्देश दिया है।
गुरुदेव कहते हैं : हमारे जाने के दिन अब अति निकट आ गये हैं । अगले अति महत्वपूर्ण कार्य पूरे करने के लिए हमें मथुरा छोड़ना पड़ रहा है। आत्मविद्या के शक्ति पक्ष की धाराएं इन दिनों एक प्रकार से सूख ही गई है। न तो ऐसे व्यक्तित्व दिखाई पड़ते हैं जो अपने ब्रह्म वर्चस्व से विपन्न परिस्थितियों से टक्कर ले सकें और न ऐसे आधार उपलब्ध हैं जो आत्मिक क्षमता को आशाजनक रीति से आगे ले जा सकें। आत्मविद्या के नाम पर कथा प्रवचनों तक सीमित कथावाचकों को जहाँ तहाँ देखा-सुना जा सकता है। ओछे व्यक्तित्वों का कहने के लिए ही ऊँचा प्रवचन अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकता वह केवल मनोरंजन का साधन ही बन कर रह गया है। आज आत्मिक चर्चा, मात्र जिज्ञासा की ही पूर्ति करती है। उस क्षेत्र में ब्रह्म वर्चस्व सम्पन्न व्यक्तित्व न के बराबर ही उभर रहें हैं। यदि ऐसे व्यक्तित्व उभरे होते तो महामानवों को अपने प्रभाव से लोकमानस बदलने से लेकर-परिस्थितियाँ पलटने का कार्य उतना कठिन न रहता जितना आज दिखाई पड़ रहा है।
आत्मविद्या का आरम्भिक पक्ष “ज्ञानचर्चा” है। उच्चस्तरीय पक्ष “शक्ति सम्पादन” है। साधना से जो शक्ति उत्पन्न होनी चाहिए आज उसका सर्वथा अभाव ही दिखता है। ऐसा दिखता है कि वोह रहस्य लुप्त से हो गये। यदि लुप्त न हुए होते तो सामर्थ्य सम्पन्न आत्मवेत्ता जरूर मिलते जो अंधकार में उलझे मानव समाज के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में-विषम परिस्थितियों को सरल बनाने में कुछ आशाजनक योगदान दे सकते । राजनैतिक क्षेत्रों में कुछ तो उलटा-पुलटा हो रहा है लेकिन आध्यात्मिक क्षेत्र में खालीपन ही छाया हुआ है । झूठ, फरेब ,हेराफेरी का ही बोल बाला है। आत्मबल का सामर्थ्य जो संसार के समस्त सामर्थ्यों से बढ़-चढ़ कर माना जाता रहा है यदि किसी के पास होता तो व्यक्ति और समाज को वर्तमान दुर्दशा से निकालने में उसका प्रयोग अवश्य हुआ होता। चमत्कारों के नाम पर आज जहाँ तहाँ बाज़ीगरी दिखती है, इस बाज़ीगरी से अपने को सिद्ध पुरुष साबित करने और लोगों की मनोकामना पूर्ण करने का पाखण्ड मात्र ही खोजा जा सकता है। बेवकूफों को बदमाश कैसे ठगते और उलझाते हैं इसका ज्वलन्त उदाहरण देखना है तो आज के तथाकथित करामाती और चमत्कारी कहे जाने वाले ढोंगियों की करतूतों को नंगा करके आसानी से देखा जा सकता है। वास्तविक सिद्ध पुरुष न चमत्कार दिखाते हैं और न हर उचित/अनुचित मनोकामना को पूरा करने के आश्वासन देते हैं। असली आत्मवेत्ता अपने आदर्श प्रस्तुत करके अनुकरण का प्रकाश उत्पन्न करते हैं और अपनी प्रबल मनस्विता ( मनस्वी होने का भाव) द्वारा जन-जीवन में उत्कृष्टता उत्पन्न करके व्यापक विकृतियों का उन्मूलन करने की देवदूतों वाली परम्परा को प्रखर बनाते हैं।
अध्यात्म क्षेत्र के वर्तमान कलेवर को यदि उखाड़ कर देखा जाये तो वहाँ धोखा और रिक्तता के अतिरिक्त और कुछ मिलता ही नहीं है। जो है वह और भी ज़्यादा भ्रमित करने वाला है। आत्मविद्या की जितनी दुर्दशा आज है वैसी पहले कभी भी नहीं रही है।
इस दुर्दशा एवं अभाव की पूर्ति करने के लिए विश्व की सर्वोच्च एवं सर्वसमर्थ शक्ति आत्म विद्या सिद्ध करने के लिए हमें कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त करनी होंगी। यह अन्वेषण, प्रयोग और लाभ अनायास ही नहीं मिलने वाला है इसके लिए कठोरतम प्रयत्न करने पड़ेंगे। इन प्रयत्नों के लिए ही हम शांतिकुंज जा रहे है। इस दृष्टि से हमारी भावी गतिविधियाँ उत्साहवर्धक ही होंगी। जाने के वियोग का दुःख जितना स्वजनों को है उससे कितना अधिक हमें भी है, लेकिन बड़े उद्देश्य के लिए छोटे का त्याग तो करना ही पड़ता है। वृक्ष रूप में परिणत होने के लिए बीज को तो गलना ही पड़ता है। प्रकृति के इस क्रम से हमें कैसे छुटकारा मिल सकता था, सो मिला भी नहीं।
आत्म विद्या के तत्व ज्ञान और शक्ति विज्ञान को आज के युग और आज के व्यक्ति के लिए किस प्रकार का, किस हद तक प्रैक्टिकल बनाया जा सकता है और आज की विकृत परिस्थितियाँ बदलने में उसे किस प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है, यह सीखना, खोजना, प्रयोग करना और सर्वसाधारण के सामने बुद्धिसंगत एवं व्यावहारिक रूप से प्रस्तुत कर सकने की स्थिति प्राप्त कर लेना सचमुच एक बहुत बड़ा काम है। यदि हम इस काम को सफलता पूर्वक कर लेते हैं तो उसके मुकाबले में हमारे भावी जीवन की कष्टसाध्य प्रक्रिया प्रताड़ना और स्वजनों की वियोग वेदना कुछ भी नहीं है। हम यही प्रक्रिया पूरी करने के लिए शांतिकुंज जा रहे हैं। 20 जून के अब दिन ही कितने रह गये। विश्वास किया जाना चाहिए कि हम दूसरे बाबा वैरागियों की तरह बेकार बैठ कर दिन नहीं काटेंगे। विश्व मानव के प्रति अपनी श्रद्धा को नज़रअंदाज़ नहीं करेंगें। स्वर्ग मुक्ति और ऋद्धि सिद्धि के व्यक्तिगत स्वार्थ से हमारा मन रत्ती भर भी नहीं फिसलेगा। जब तक अन्तिम साँस चलेगी विश्व के सम्मान और सेवा से मुंह नहीं मोड़ेंगे। यदि हमें कहीं भी शंका अनुभव होती कि हमारी इस भावी उग्र तपश्चर्या का परिणाम लोकमंगल के लिए वर्तमान गतिविधियों के मुकाबले हल्का पड़ेगा तो शायद अपने मार्गदर्शक से यह फैसला बदलने का अनुरोध भी करते लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा । हम आलसी और बेकार जैसे दिखेंगे तो सही लेकिन सही मायनों में आज की अपेक्षा लाख गुना अधिक सक्रिय होंगे। भागीरथ जैसा तप करके गंगावतरण की सामयिक पुनरावृत्ति करना ही हमारा मात्र प्रयोजन है। सो आँखों में वियोग के आँसू टपकने के बावजूद हमारा अंतःकरण टूटा नहीं है बल्कि आशा और उल्लास से भरा हुआ है।
हमारा प्रयोजन समझने में किसी को भूल नहीं करनी चाहिए। हम प्रचण्ड आत्मशक्ति की एक ऐसी गंगा को लाने जा रहे हैं जिससे शापग्रस्त,आग में जलते और नरक में बिलखते जन समाज को आशा और उल्लास का लाभ दे सकें। हम लोकमानस को बदलना चाहते हैं। इन दिनों हर व्यक्ति का मन मृगतृष्णाओं से भरपूर है। लोग अपने व्यक्तिगत वैभव और प्रधानता के इलावा, तृष्णा और वासना के इलावा और कोई बात सोचना ही नहीं चाहते, उनका समस्त मनोयोग इसी केन्द्र बिन्दु पर उलझा पड़ा है कि अधिक से अधिक प्राप्त कर लें। हमारी चेष्टा है कि लोग जीने भर के लिए सुख सुविधा पाकर सन्तुष्ट रहें। उपार्जन हज़ार हाथों से करें लेकिन उसका लाभ अपने और अपने बेटे से सीमित न रख कर समस्त समाज को वितरण करें। व्यक्ति की विभूतियों का लाभ उसके शरीर और परिवार तक ही सीमित न रहे बल्कि उसका बड़ा अंश देश-धर्म, समाज और संस्कृति को, विश्व मानव को, लोक मंगल को मिले। इसके लिए व्यक्ति के वर्तमान अपवित्र अंतःकरण को बदलना अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्तिवाद (निजी हित,स्वार्थ ) के असुर को समूहवाद (समाज हित) के देवत्व में परिणत न किया गया तो सर्वनाश के गर्त में गिरकर मानवीय सभ्यता को आत्महत्या करने के लिए विवश होना पड़ेगा। इस विभीषिका को रोकने के लिए हम बॉर्डर पर लड़ने जा रहे है। स्वार्थपरता और संकीर्णता की असुरता में पैर से लेकर नाक तक डूबे हुए जनमानस को उबारने और सुधारने में हम अधिक तत्परता और सफलता के साथ कुछ कहने लायक कार्य कर सकें, हमारी भावी तपश्चर्या का प्रधान प्रयोजन यही है।आत्मविद्या की महत्ता को भौतिक विज्ञान की तुलना में अधिक उपयोगी और अधिक समर्थ सिद्ध करने में ही उस भूले हुए क्षेत्र के प्रति लोक रुचि मुड़ेगी सो उसे प्रामाणिकता की हर कसौटी पर खरी सिद्ध कर सकने लायक उपलब्धियाँ प्राप्त करने हम जा रहे है। हमारा भावी जीवन इन्हीं क्रिया कलापों में लगेगा। सो परिवार के किसी स्वजन को हमारे इस महाप्रयाण के पीछे आशंका या निराशाजनक बात नहीं सोचनी चाहिए।
हमारे बच्चे भले ही हमें न देख सकें लेकिन हम उन्हें जरूर देखते रहेंगे। हमारे प्रतिनिधि के रूप में माताजी हरिद्वार रहकर यह कार्य भली प्रकार करती रहेंगी। अब तक यदि हमारे दरवाजे पर 20 प्रतिशत व्यक्ति निराश और खाली हाथ लौटे हैं तो अब केवल 5 प्रतिशत ही लौटेंगे। दुःखी और कष्ट पीड़ितों के प्रति सहानुभूति और सेवा का जो क्रम चलता आ रहा है उसके प्रति हमारा असाधारण मोह है। इससे हमें भी बहुत सन्तोष मिला है सो उसे बन्द करना हमसे बन भी नहीं पड़ेगा। जिन्हें इस प्रकार के लाभ मिलते रहे हैं उन्हें तनिक भी निराश नहीं होना चाहिये बल्कि अपनी आँखों में अधिक चमक इसलिये पैदा कर लेनी चाहिए कि उनका पिता अधिक कमाई करने जा रहा है और पिता की कमाई और समर्थता बढ़ने पर बच्चों को ही लाभ मिलता है। यह तो हुई व्यक्तिगत लाभ अनुदान की बात, समस्त समाज को हमारी इस तप साधना का जो लाभ मिलने वाला है वह निश्चित रूप से ऐतिहासिक होगा और उस लाभ से एक बहुत बड़ी आवश्यकता पूरी हो सकनी सम्भव होगी। समय ही बतायेगा कि हमारा भावी जीवन विश्व मंगल की दृष्टि से कितना उपयोगी सिद्ध हुआ और ढलती एवं निरर्थक समझे जाने वाले बुढ़ापे की आयु का भी कितना महत्वपूर्ण सदुपयोग सम्भव हो पाया।
आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 13 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है और वंदना बहिन जी गोल्ड मैडल विजेता हैं।
(1) सरविन्द कुमार-25,(2 )कुमोदनी गौरहा-31,(3 )संध्या कुमार-26 ,(4) नीरा त्रिखा-25 , (5 )चंद्रेश बहादुर-28, (6) सुजाता उपाध्याय-26,(7) पुष्पा सिंह-25,(8) अरुण वर्मा-27,(9 ) रेणु श्रीवास्तव-25,(10) वंदना कुमार-40,(11) सुमनलता-30,(12 )स्नेहा गुप्ता-24
सभी विजेताओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।