अखंड ज्योति जुलाई 1982
तीर्थ शब्द का स्मरण आते ही ह्रदय के तार झंकृत हो उठते हैं, इच्छा उठती है कि उड़ कर तीर्थ सेवन करने पंहुच जाएँ। वैसे तो सभी तीर्थ अतिसम्मानीय हैं लेकिन अगर इस लेख का आधार युगतीर्थ शांतिकुंज बना लिया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि हम सब गायत्री परिवार से जुड़े हैं जिसका केंद्र देवभूमि हरिद्वार में स्थित है। सम्पूर्ण विश्व में फैले गायत्री शक्तिपीठों का केंद्र शांतिकुंज ही है। केवल विचार ही आता है कि शांतिकुंज जाना है तो जो प्रसन्नता होती है उसे शब्दों में बांधना कठिन क्या लगभग असंभव ही है । परम पूज्य गुरुदेव ने सच में कहा है कि यह तो गूँगें का गुड़ है, प्रसन्नता और शांति केवल अनुभव ही की जा सकती है, बयान करना किसी के बस की बात नहीं है।
प्राचीनकाल में तीर्थ जब अपने वास्तविक स्वरूप में रहे होंगे, तब कैसा आनंद आता होगा। वहाँ जाने के बाद लोग अपने मन-मस्तिष्क की गंदगी धोकर के पुनीत और पवित्र होकर कैसे निकलते होंगे। लाखों करोड़ों लोगों द्वारा कुम्भ के दौरान गंगा स्न्नान का बहुत ही महत्व माना गया है। गंगा स्न्नान के उपरांत हम पुनीत और पवित्र हो जाते हैं कि नहीं, इसके बारे में कहना तो कठिन है लेकिन जिस गंगा स्न्नान की बात हम इस समय कर रहे हैं, वह है ज्ञान की गंगा, ज्ञानप्रसाद जिसका अमृतपान प्रतिदिन हम ब्रह्मवेला में करते हैं। अमृत की एक-एक बूँद हमारे अंदर के सभी दुर्गणों को निकाल कर बाहिर फेंकती जाती है। जिस ज्ञान गंगा के अमृतपान की बात हम कर रहे हैं वह तो टेक्नोलॉजी के विकास द्वारा फ़ोन के माध्यम से आप इस समय ग्रहण कर रहे हैं लेकिन यही ज्ञानप्रसाद आपको वास्तविक तीर्थ में रह कर मिल जाय, तो विश्वास कीजिए आप स्वयं को तो धोकर जायेंगे ही, अन्यों को भी धोते जायेंगें। इतना ही नहीं आपका भविष्य भी धुला हुआ ही रहेगा।
ऐसा इतने विश्वास से कहना कैसे संभव हो पाता है ?
यह इसलिए है कि शांतिकुंज में रहकर हम उपासना करते हैं, साधना करते हैं और “उपासना-साधना” करने के साथ-साथ अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिये वहाँ के “वातावरण” का लाभ उठाते हैं। शांतिकुंज में रहने वाले जीवनदानी,श्रद्धेय डॉक्टर साहिब, आदरणीय चिन्मय जी,श्रद्धेय जीजी आदि ऋषिगण के साथ परामर्श से हम अपनी समस्याओं के समाधान का मार्ग भी ढूंढते हैं। समस्याओं के समाधान की तलाश में एक मार्ग प्रायश्चित भी है। हम मार्ग ढूंढते हैं कि अब तक हमनें जो गलतियाँ की है उनका प्रायश्चित कैसे हो ? भरपाई कैसे हो ? हमारे पास कौन कौन से करने योग्य विकल्प है ? गुरुदेव बताते हैं कि इसके लिये सबसे बड़ा गुण है “शालीनता और विनम्रता का गुण।” अगर हम अपने गुण, कर्म और स्वभाव में शालीनता का समावेश कर लें तो हम अवश्य ही तलाश करेंगें कि ऐसी कौन सी गतिविधियाँ अपनायें, जो हमारे संस्कारों के रूप में परिणित हो सकें। क्या हमें जप करने होंगें ? नहीं,जप से संस्कार नहीं बनते। दिव्य साहित्य गीता, रामायण आदि का स्वाध्याय अच्छा है लेकिन इस कृत्य से भी संस्कार तो न बन पायेंगें । 10-15 मिंट स्वाध्याय कर लिया, कुछ उद्बोधन सुन लिए और बाकी सारा दिन की दिनचर्या बाकी लोगों की तरह ही है, तो क्या कुछ हो पायेगा, कुछ भी नहीं। गुरुदेव बताते हैं उपासना, साधना, आराधना, वातावरण आदि के साथ-साथ हमें कुछ “पुण्य कृत्य” भी करने पड़ेंगे। “शुद्ध विचार और पुण्य कृत्य”, दोनों का समावेश करने के बाद ही यह संभव है कि समग्र प्रक्रिया पूर्ण हो सके।
वास्तव में अध्यात्म का मतलब संस्कार पैदा करना है और संस्कार ज्ञान और कर्म दोनों के समन्वय से ही होते हैं, अलग-अलग नहीं। ज्ञान पूजा से मिलता है,स्वाध्याय से मिलता है, सत्संग से मिलता है। यह अध्यात्म का ज्ञान-पक्ष है। अध्यात्म का दूसरा पक्ष कर्म-पक्ष है। कर्म-पक्ष में सेवा का समावेश होता है, परोपकार का समावेश होता है, पुण्यकर्मों का समावेश होता है। इन दोनों बातों को अगर हम मिला देंगे,तो अध्यात्म प्रक्रिया पूर्ण हो जायेगी। बिजली के पॉजिटिव और नेगेटिव, दोनों तार कनेक्ट करने के बाद ही करेंट flow करना आरम्भ हो पाता है।
गुरुदेव तीर्थों का महत्व बताते हुए कह रहे हैं कि अगर आप शांतिकुंज आते हैं और आपको इस युगतीर्थ में कुछ दिन व्यतीत करने का सौभाग्य मिल जाय,तो आप यहाँ निर्धारित की गयी प्रक्रिया को ही ग्रहण करना। अगर आप शांतिकुंज को गायत्री तीर्थ मानते हैं तो यहाँ निवास करके अपना समय सुव्यवस्थित रूप से व्यय कीजिए । यहाँ सुव्यवस्थित रूप से व्यय करने का एक नित्यक्रम set किया हुआ है। सुबह उठने से लेकर सायंकाल सोने तक का एक निर्धारित टाइम-टेबल है जो निर्धारित करता है कि आपकी गतिविधियाँ क्या होनी चाहिए, आपको अनुशासित कैसे होना चाहिए ? आपको संयमी कैसे रहना चाहिए? आपको तपस्वी की तरह जीवनयापन कैसे करना चाहिए ?
यह जीवनयापन करने की पद्धति, टाइम-टेबल का जो प्रावधान है,अगर हम इसे भंग कर देते हैं, तो ही जीवन अस्त व्यस्त होता रहता है। सफलता जीवन से दूर भागती चली जाती है। शांतिकुंज का एक विशेष वातावरण भी तो है जो घर में प्राप्त नहीं हो पाता। वातावरण का क्या प्रभाव होता है।
अगर हम बीमार हो जाते हैं तो कहीं भी इलाज करा सकते है लेकिन सेनिटोरियम की अपनी महत्ता है। हमारे पाठक जानते ही हैं कि सेनिटोरियम में डॉक्टर भी रहते हैं, वातावरण भी अनुकूल है, क्लाइमेट भी उपयुक्त है, वहाँ रहने से आदमी जल्दी अच्छे हो जाते हैं। सेनिटोरियम में रह करके जो फायदा उठाया जा सकता है, वही प्राचीनकाल के बच्चे गुरुकुलों में रहकर उठाते थे। बड़ी उम्र के आदमी अरण्य में रहते थे। अरण्य का संबध वन से है। जो अरण्य में पढ़ा या पढ़ाया जाए उसे आरण्यक कहते हैं।अरण्य बड़े मनुष्यों के लिये साधना के हेतु बनाये गये थे। बुद्ध ने साधना के लिए बहुत सारे संघाराम बनाये, किसी समय मथुरा में 20 से भी अधिक संघाराम थे जिनमें 3000 तक साधक निवास कर सकते थे। इन निवास स्थानों में भी लोकसेवा के लिये इच्छुक लोगों की शिक्षाओं का निवास करने का प्रबंध था। संघाराम कहिये,आरण्य कहिये,बुद्ध विहार कहिये,यां गुरुदेव के 5000 से भी अधिक शक्तिपीठ, नाम और शब्दों से क्या फर्क पड़ता है। ऐसे स्थान जहाँ कहीं भी हों , वहाँ मनुष्य को अपनी आत्मसाधना करनी पड़ती है।
इनमें और तीर्थों में बेसिक अंतर् यह है कि तीर्थों की तलाश में मनुष्य दर-दर ठोकरें खाता फिरता है, जहाँ खिलौना देखा, पैसा फेंक दिया बस, यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ धक्के खाते फिरे और जहाँ-तहाँ दान-पुण्य के बहाने जेब कटाते फिरे। गुरुदेव बताते हैं यह सब तो अज्ञानियों का जंजाल है। हमें इस जंजाल से दूर रहकर तीर्थयात्रा की गहराई जानने की कोशिश करनी चाहिए। तीर्थयात्रा की गहराई यह है कि हम जितने समय तीर्थ सेवन करें, उतने समय के लिये स्वयं का परिशोधन करें। परिशोधन का अर्थ है परिशुद्धी यानि अपनेआप को स्वच्छ और शुद्ध करना, स्वच्छ करना, नहा कर ? नहीं, नहाते तो रोज़ हैं। भूतकाल के बन चुके गड्ढे भरने का प्रयास करना। कई बार कहा गया है कि हमारा कल ,हमारे आज पर निर्भर करता है। हम तो यहाँ तक कहते आये हैं कि हमारी सायं प्रातः पर निर्भर है। कोई गलत भोजन खाकर देखिये, उसके परिणाम सायं तक प्रतक्ष्य दिखने आरम्भ हो जायेंगें। किसी से गलत बात करके देखिये, कई रातों की नींद उड़ जाएगी। भविष्य में हम क्या बनेंगे, इसके लिये तपश्चर्या तो वर्तमान में ही करनी पड़ेगी। “वर्तमान की तपश्चर्या का अर्थ है- भावी जीवन के लिए नीति-निर्धारित करने का संकल्प।” ऐसा करने से ही तीर्थसेवन सशक्त हो सकेगा। परम पूज्य गुरुदेव ने बार- बार शांतिकुंज में आकर रहने और समय बिताने पर ज़ोर दिया है। गुरुदेव चाहते हैं कि इस युगतीर्थ के दिव्य वातावरण का, माता भगवती भोजनालय आदि का आपकी दिनचर्या पर, दैनिक जीवन पर प्रभाव पड़े। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया है कि बार-बार वापिस आकर बैटरी चार्ज करते रहें। ऐसा न करने पर आपकी जीवनरुपी गाड़ी उबड़ खाबड़ गड्ढों पर चलती रहेगी।
अलग- अलग साधनाओं का अलग-अलग स्तर और प्रभाव है। उदाहरण के लिए कल्प-साधना शिविर बुड्ढे से जवान बनने के लिये नहीं, बल्कि अपने अन्तरंग( internal) परिष्कार के लिए है। इसलिए जितना भी समय है इसे स्वाध्याय,आत्मचिंतन,पूजा,मनन, उपासना और अच्छे लोगों के संपर्क में लगाना चाहिए। अच्छी बातों के सोचने में लगाना चाहिए, गंगा किनारे जाकर समय व्यतीत करना चाहिए। पूरा का पूरा समय आपका ऐसा हो जिसमें कहीं भी अनावश्यक बात के लिये स्थान ही न हो। चिन्तन ऐसा हो, जिसमें अवाँछनीयता के लिये कोई गुँजाइश न हो। बस, यह एक तीर्थ हमने बनाया है। जगतगुरु शंकराचार्य ने चार धाम बनाये थे, चार तीर्थ बनाये थे। वह शानदार तीर्थ बनाने के इच्छुक थे, इसलिये उन्होंने शानदार ही बना डाले। भगवान बुद्ध ने सारे भारतवर्ष में बहुत सारे तीर्थ विनिर्मित किये । भगवान महावीर ने भी ऐसा ही किया। समर्थ गुरु रामदास ने भी ऐसा ही किया था। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र के हर गाँव में दौरा किया और वहाँ की उस समय की परिस्थिति के हिसाब से हनुमान जी के मंदिर बनवा दिये, महावीर मंदिर बनवा दिये थे।
इन सब को बनाने के लिए पैसे का प्रबंध कहाँ से हो सकता था ? विचारशील बातों में कोई मनुष्य कहाँ पैसा खर्च करता है ? आप चाहें तो निर्धनों को बहका सकते हैं। मालदार को बहकाने के तरीके अलग हैं। उन तरीकों को adopt कर लीजिये, मालदार भी खूब बहका सकते हैं। गरीबों की जेब कटती है तो मालदार की जेब भी कटती है,मालदार और भी ज्यादा उल्लू बनते हैं। गुरुदेव कहते हैं इसीलिये मैं उसकी बात नहीं कहता जो बड़े शानदार मंदिर बनाने के पक्ष में हैं। समर्थ गुरु रामदास ने जो महावीर मंदिर बनवाये वह कैसे थे। यह मंदिर मिट्टी की दीवारों से, फूँस के झोंपड़ों के बने हुए थे । हनुमान जी की मूर्तियाँ उन्होंने गाँव में पड़े हुये पत्थरों के टुकड़ों से, स्थानीय कारीगरों के माध्यम से जैसे-तैसे बना लीं। मूर्तियों के लिए लिबास कहाँ से आये ? शृंगार कहाँ से आया ? उन्होंने सिंदूर से उनको लपेट दिया और सिंदूर से उन पत्थरों को लपेट देने के बाद में हनुमान जी की मूर्ति, बालाजी की मूर्ति बनकर तैयार हो गई। फिर क्या हुआ उनका ? वहाँ लोग पूजा करते थे ? हाँ, पूजा भी करते थे तथा और भी कार्यक्रम चलाते थे।
आजकल खराबी यह है कि हमारे मंदिरों में अब केवल पूजा ही होती है, होना यह चाहिए कि पूजा भी हो, बाकी समय में कुछ और भी हो। समर्थ गुरु रामदास ने जगह-जगह इस तरह का प्रबंध किया कि उन्होंने हर महावीर मंदिर के साथ व्यायामशाला अभिन्न रूप से जोड़े रखी। स्वास्थ्य संवर्धन और अनुशासन का परिपालन करने के लिए उन्होंने हर जगह व्यायामशालाएँ बनवायीं । व्यायामशाला एक तरह के विद्यालय थे जिसमें गाँव के बच्चे, बड़े छोटे पुरुष, नारियां जिस किसी को भी स्वास्थ्य विद्या का शौक था, वहाँ जाए और पुजारी से विद्या प्राप्त करे। इसके अलावा रात्रि को कथा-कक्षाएँ होती थीं जिनमें प्राचीनकाल की ऐतिहासिक घटनाक्रमों को सुना कर आज की समस्याओं का समाधान ढूंढने की प्रेरणा मिलती थी। कथा का अर्थ यह नहीं है कि आप इधर-उधर की गपबाजी करें, कि श्रीकृष्ण भगवान ने सोलह हजार एक सौ आठ रानियों से शादी की, एक-एक से आठ-आठ बच्चे पैदा हुए। यह सब बेकार की बातें, बेसिरपैर की बातें हैं, जिनके न कोई मायने है, न कोई अर्थ। इन बातों की न तो आज कोई उपयोगिता है और न ही प्राचीनकाल में कोई उपयोगिता थी। आप कथाएँ इन्हीं को कहते हैं कि शंकर जी ने गणेशजी का सिर काट दिया और हाथी का चिपका दिया। कथा के पीछे उद्देश्य और लक्ष्य होना चाहिए। प्राचीनकाल में समर्थ गुरु रामदास की लिखी ‘दासबोध’ की कथाएं हर महावीर मंदिर में होती थी। उन्हें एक नया ही शास्त्र बनाना पड़ा, नया ही वेद बनाना पड़ा । क्या करते बेचारे ! उस कूड़े-कचरे में से क्या चीज पल्ले पड़ती।
आज आपको इस कूड़े-कचरे में से क्या चीज पल्ले पड़ने वाली है ? कुछ भी तो नहीं है, सिवाय आफत पैदा करने के और दिमाग खराब करने के, पुरानी गपबाजियाँ खड़ी करने के, अपना समय और दूसरों का समय बरबाद करने के अलावा क्या है, कथा ! इसलिए कथा भी उन्होंने बनाई और कथा की परंपरा को जिंदा रखा और ऐसे शानदार ढंग से जिन्दा रखा कि आनंद आ गया। शिवाजी की सारी सेना को समर्थन वहीं से मिला, हथियार वहीं से मिले। उसी तरीके की पुनरावृत्ति आज भी हुई है। हमने दो धाम पहले बनवाये थे। मथुरा का धाम बनवाया और यहाँ शांतिकुंज का धाम बनवाया । एक संगठन के लिए बनाया, एक शिक्षण के लिये बनाया। फिर क्या किया ? जगतगुरु शंकराचार्य ने चार तीर्थ बनाये थे, समर्थ गुरु रामदास ने सारे महाराष्ट्र में दो हजार के करीब महावीर मंदिर बनाये थे। आज हमारे भी मंदिरों की बहुत बड़ी संख्या है और बढ़ती ही चली जा रही है। गायत्री शक्तिपीठ के नाम से लगभग 5000 ( 2023 के आंकड़े ) मंदिर बना दिये। अभी और भी बहुत से मंदिर बनने जा रहे हैं। इनके लिये कोशिश हमारी यही थी कि इनको गायत्री तीर्थ का रूप दिया जाये और तीर्थों में मंदिर नहीं, बल्कि वहाँ इनको शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित किया जाये। वहाँ शिक्षण चले, ज्ञान वृद्धि के उपदेश चलें, रचनात्मक कार्यक्रमों का प्रयोग चलें । ठीक उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए शांतिकुंज स्थानीय गायत्री तीर्थ है। आप ऐसे तीर्थों को मजबूत बनाने की कोशिश कीजिये।अगर तीर्थयात्री करें तो यह बहुत अच्छी बात है। तीर्थयात्रा में आपको समय लगाना चाहिए, लेकिन मैं यह पूछता हूँ कि तीर्थ नहीं होंगे फिर आप कहाँ जायेंगे ? आपको एक काम और भी करना है, जहाँ तीर्थयात्रा करनी हो, वहाँ तीर्थों की स्थापना करने में भी योगदान देना चाहिए। तीर्थों की मरी हुई परम्परा को पुनर्जीवित भी करना चाहिए ? कोई आदमी आये और तलाश करे कि कैसे होते हैं तीर्थ तो आप दिखा तो सकें। आज तीर्थों के स्थान पर हर जगह बड़े-बड़े विशालकाय मंदिर बने हुये हैं और लोग उनके माध्यम से अपना पेट भरते रहते हैं, झगड़ा करते रहते हैं। तीर्थों के वातावरण, तीर्थों के गुण, तीर्थों के कर्म, तीर्थों के उद्देश्य और तीर्थों के लक्षण सब ऐसे ही गायब हो गये। असली बात तो तीर्थ की अलग होती है। उसमें “ज्ञान गंगा” बहती है, जहाँ प्रेरणा मिलती है, दिशा मिलती है, जहाँ भावनाओं को उभारा जाता है, मनुष्य को समुन्नत स्तर का बनाया जाता है-ऐसे तीर्थों की स्थापना और पुनर्जीवन आवश्यक पड़ गया, आप भी इन तीर्थों की स्थापना में योगदान दीजिये ! जहाँ तीर्थ बन चुके हैं, उनको मजबूत बनाने की कोशिश कीजिए।
अगर हम बीमार हो जाते हैं तो कहीं भी इलाज करा सकते है लेकिन सेनिटोरियम की अपनी महत्ता है। हमारे पाठक जानते ही हैं कि सेनिटोरियम में डॉक्टर भी रहते हैं, वातावरण भी अनुकूल है, क्लाइमेट भी उपयुक्त है, वहाँ रहने से आदमी जल्दी अच्छे हो जाते हैं। सेनिटोरियम में रह करके जो फायदा उठाया जा सकता है, वही प्राचीनकाल के बच्चे गुरुकुलों में रहकर उठाते थे। बड़ी उम्र के आदमी अरण्य में रहते थे। अरण्य का संबध वन से है। जो अरण्य में पढ़ा या पढ़ाया जाए उसे आरण्यक कहते हैं।अरण्य बड़े मनुष्यों के लिये साधना के हेतु बनाये गये थे। बुद्ध ने साधना के लिए बहुत सारे संघाराम बनाये, किसी समय मथुरा में 20 से भी अधिक संघाराम थे जिनमें 3000 तक साधक निवास कर सकते थे। इन निवास स्थानों में भी लोकसेवा के लिये इच्छुक लोगों की शिक्षाओं का निवास करने का प्रबंध था। संघाराम कहिये,आरण्य कहिये,बुद्ध विहार कहिये,यां गुरुदेव के 5000 से भी अधिक शक्तिपीठ, नाम और शब्दों से क्या फर्क पड़ता है। ऐसे स्थान जहाँ कहीं भी हों , वहाँ मनुष्य को अपनी आत्मसाधना करनी पड़ती है।
इनमें और तीर्थों में बेसिक अंतर् यह है कि तीर्थों की तलाश में मनुष्य दर-दर ठोकरें खाता फिरता है, जहाँ खिलौना देखा, पैसा फेंक दिया बस, यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ धक्के खाते फिरे और जहाँ-तहाँ दान-पुण्य के बहाने जेब कटाते फिरे। गुरुदेव बताते हैं यह सब तो अज्ञानियों का जंजाल है। हमें इस जंजाल से दूर रहकर तीर्थयात्रा की गहराई जानने की कोशिश करनी चाहिए। तीर्थयात्रा की गहराई यह है कि हम जितने समय तीर्थ सेवन करें, उतने समय के लिये स्वयं का परिशोधन करें। परिशोधन का अर्थ है परिशुद्धी यानि अपनेआप को स्वच्छ और शुद्ध करना, स्वच्छ करना, नहा कर ? नहीं, नहाते तो रोज़ हैं। भूतकाल के बन चुके गड्ढे भरने का प्रयास करना। कई बार कहा गया है कि हमारा कल ,हमारे आज पर निर्भर करता है। हम तो यहाँ तक कहते आये हैं कि हमारी सायं प्रातः पर निर्भर है। कोई गलत भोजन खाकर देखिये, उसके परिणाम सायं तक प्रतक्ष्य दिखने आरम्भ हो जायेंगें। किसी से गलत बात करके देखिये, कई रातों की नींद उड़ जाएगी। भविष्य में हम क्या बनेंगे, इसके लिये तपश्चर्या तो वर्तमान में ही करनी पड़ेगी। “वर्तमान की तपश्चर्या का अर्थ है- भावी जीवन के लिए नीति-निर्धारित करने का संकल्प।” ऐसा करने से ही तीर्थसेवन सशक्त हो सकेगा। परम पूज्य गुरुदेव ने बार- बार शांतिकुंज में आकर रहने और समय बिताने पर ज़ोर दिया है। गुरुदेव चाहते हैं कि इस युगतीर्थ के दिव्य वातावरण का, माता भगवती भोजनालय आदि का आपकी दिनचर्या पर, दैनिक जीवन पर प्रभाव पड़े। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया है कि बार-बार वापिस आकर बैटरी चार्ज करते रहें। ऐसा न करने पर आपकी जीवनरुपी गाड़ी उबड़ खाबड़ गड्ढों पर चलती रहेगी।
अलग- अलग साधनाओं का अलग-अलग स्तर और प्रभाव है। उदाहरण के लिए कल्प-साधना शिविर बुड्ढे से जवान बनने के लिये नहीं, बल्कि अपने अन्तरंग( internal) परिष्कार के लिए है। इसलिए जितना भी समय है इसे स्वाध्याय,आत्मचिंतन,पूजा,मनन, उपासना और अच्छे लोगों के संपर्क में लगाना चाहिए। अच्छी बातों के सोचने में लगाना चाहिए, गंगा किनारे जाकर समय व्यतीत करना चाहिए। पूरा का पूरा समय आपका ऐसा हो जिसमें कहीं भी अनावश्यक बात के लिये स्थान ही न हो। चिन्तन ऐसा हो, जिसमें अवाँछनीयता के लिये कोई गुँजाइश न हो। बस, यह एक तीर्थ हमने बनाया है। जगतगुरु शंकराचार्य ने चार धाम बनाये थे, चार तीर्थ बनाये थे। वह शानदार तीर्थ बनाने के इच्छुक थे, इसलिये उन्होंने शानदार ही बना डाले। भगवान बुद्ध ने सारे भारतवर्ष में बहुत सारे तीर्थ विनिर्मित किये । भगवान महावीर ने भी ऐसा ही किया। समर्थ गुरु रामदास ने भी ऐसा ही किया था। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र के हर गाँव में दौरा किया और वहाँ की उस समय की परिस्थिति के हिसाब से हनुमान जी के मंदिर बनवा दिये, महावीर मंदिर बनवा दिये थे।
इन सब को बनाने के लिए पैसे का प्रबंध कहाँ से हो सकता था ? विचारशील बातों में कोई मनुष्य कहाँ पैसा खर्च करता है ? आप चाहें तो निर्धनों को बहका सकते हैं। मालदार को बहकाने के तरीके अलग हैं। उन तरीकों को adopt कर लीजिये, मालदार भी खूब बहका सकते हैं। गरीबों की जेब कटती है तो मालदार की जेब भी कटती है,मालदार और भी ज्यादा उल्लू बनते हैं। गुरुदेव कहते हैं इसीलिये मैं उसकी बात नहीं कहता जो बड़े शानदार मंदिर बनाने के पक्ष में हैं। समर्थ गुरु रामदास ने जो महावीर मंदिर बनवाये वह कैसे थे। यह मंदिर मिट्टी की दीवारों से, फूँस के झोंपड़ों के बने हुए थे । हनुमान जी की मूर्तियाँ उन्होंने गाँव में पड़े हुये पत्थरों के टुकड़ों से, स्थानीय कारीगरों के माध्यम से जैसे-तैसे बना लीं। मूर्तियों के लिए लिबास कहाँ से आये ? शृंगार कहाँ से आया ? उन्होंने सिंदूर से उनको लपेट दिया और सिंदूर से उन पत्थरों को लपेट देने के बाद में हनुमान जी की मूर्ति, बालाजी की मूर्ति बनकर तैयार हो गई। फिर क्या हुआ उनका ? वहाँ लोग पूजा करते थे ? हाँ, पूजा भी करते थे तथा और भी कार्यक्रम चलाते थे।
आजकल खराबी यह है कि हमारे मंदिरों में अब केवल पूजा ही होती है, होना यह चाहिए कि पूजा भी हो, बाकी समय में कुछ और भी हो। समर्थ गुरु रामदास ने जगह-जगह इस तरह का प्रबंध किया कि उन्होंने हर महावीर मंदिर के साथ व्यायामशाला अभिन्न रूप से जोड़े रखी। स्वास्थ्य संवर्धन और अनुशासन का परिपालन करने के लिए उन्होंने हर जगह व्यायामशालाएँ बनवायीं । व्यायामशाला एक तरह के विद्यालय थे जिसमें गाँव के बच्चे, बड़े छोटे पुरुष, नारियां जिस किसी को भी स्वास्थ्य विद्या का शौक था, वहाँ जाए और पुजारी से विद्या प्राप्त करे। इसके अलावा रात्रि को कथा-कक्षाएँ होती थीं जिनमें प्राचीनकाल की ऐतिहासिक घटनाक्रमों को सुना कर आज की समस्याओं का समाधान ढूंढने की प्रेरणा मिलती थी। कथा का अर्थ यह नहीं है कि आप इधर-उधर की गपबाजी करें, कि श्रीकृष्ण भगवान ने सोलह हजार एक सौ आठ रानियों से शादी की, एक-एक से आठ-आठ बच्चे पैदा हुए। यह सब बेकार की बातें, बेसिरपैर की बातें हैं, जिनके न कोई मायने है, न कोई अर्थ। इन बातों की न तो आज कोई उपयोगिता है और न ही प्राचीनकाल में कोई उपयोगिता थी। आप कथाएँ इन्हीं को कहते हैं कि शंकर जी ने गणेशजी का सिर काट दिया और हाथी का चिपका दिया। कथा के पीछे उद्देश्य और लक्ष्य होना चाहिए। प्राचीनकाल में समर्थ गुरु रामदास की लिखी ‘दासबोध’ की कथाएं हर महावीर मंदिर में होती थी। उन्हें एक नया ही शास्त्र बनाना पड़ा, नया ही वेद बनाना पड़ा । क्या करते बेचारे ! उस कूड़े-कचरे में से क्या चीज पल्ले पड़ती।
आज आपको इस कूड़े-कचरे में से क्या चीज पल्ले पड़ने वाली है ? कुछ भी तो नहीं है, सिवाय आफत पैदा करने के और दिमाग खराब करने के, पुरानी गपबाजियाँ खड़ी करने के, अपना समय और दूसरों का समय बरबाद करने के अलावा क्या है, कथा ! इसलिए कथा भी उन्होंने बनाई और कथा की परंपरा को जिंदा रखा और ऐसे शानदार ढंग से जिन्दा रखा कि आनंद आ गया। शिवाजी की सारी सेना को समर्थन वहीं से मिला, हथियार वहीं से मिले। उसी तरीके की पुनरावृत्ति आज भी हुई है। हमने दो धाम पहले बनवाये थे। मथुरा का धाम बनवाया और यहाँ शांतिकुंज का धाम बनवाया । एक संगठन के लिए बनाया, एक शिक्षण के लिये बनाया। फिर क्या किया ? जगतगुरु शंकराचार्य ने चार तीर्थ बनाये थे, समर्थ गुरु रामदास ने सारे महाराष्ट्र में दो हजार के करीब महावीर मंदिर बनाये थे। आज हमारे भी मंदिरों की बहुत बड़ी संख्या है और बढ़ती ही चली जा रही है। गायत्री शक्तिपीठ के नाम से लगभग 5000 ( 2023 के आंकड़े ) मंदिर बना दिये। अभी और भी बहुत से मंदिर बनने जा रहे हैं। इनके लिये कोशिश हमारी यही थी कि इनको गायत्री तीर्थ का रूप दिया जाये और तीर्थों में मंदिर नहीं, बल्कि वहाँ इनको शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित किया जाये। वहाँ शिक्षण चले, ज्ञान वृद्धि के उपदेश चलें, रचनात्मक कार्यक्रमों का प्रयोग चलें । ठीक उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए शांतिकुंज स्थानीय गायत्री तीर्थ है। आप ऐसे तीर्थों को मजबूत बनाने की कोशिश कीजिये।अगर तीर्थयात्री करें तो यह बहुत अच्छी बात है। तीर्थयात्रा में आपको समय लगाना चाहिए, लेकिन मैं यह पूछता हूँ कि तीर्थ नहीं होंगे फिर आप कहाँ जायेंगे ? आपको एक काम और भी करना है, जहाँ तीर्थयात्रा करनी हो, वहाँ तीर्थों की स्थापना करने में भी योगदान देना चाहिए। तीर्थों की मरी हुई परम्परा को पुनर्जीवित भी करना चाहिए ? कोई आदमी आये और तलाश करे कि कैसे होते हैं तीर्थ तो आप दिखा तो सकें। आज तीर्थों के स्थान पर हर जगह बड़े-बड़े विशालकाय मंदिर बने हुये हैं और लोग उनके माध्यम से अपना पेट भरते रहते हैं, झगड़ा करते रहते हैं। तीर्थों के वातावरण, तीर्थों के गुण, तीर्थों के कर्म, तीर्थों के उद्देश्य और तीर्थों के लक्षण सब ऐसे ही गायब हो गये। असली बात तो तीर्थ की अलग होती है। उसमें “ज्ञान गंगा” बहती है, जहाँ प्रेरणा मिलती है, दिशा मिलती है, जहाँ भावनाओं को उभारा जाता है, मनुष्य को समुन्नत स्तर का बनाया जाता है-ऐसे तीर्थों की स्थापना और पुनर्जीवन आवश्यक पड़ गया, आप भी इन तीर्थों की स्थापना में योगदान दीजिये ! जहाँ तीर्थ बन चुके हैं, उनको मजबूत बनाने की कोशिश कीजिए।
जुलाई 1982 में शांतिकुंज प्रांगण में दिए गए गुरुदेव के उद्बोधन पर आधारित तीर्थ सम्बन्धी लेखों का आज समापन हो रहा है। अखंड ज्योति के जुलाई 1996 अंक में यह उद्बोधन प्रकाशित हुआ था जिसे हम पूरी तरह से पढ़कर, समझकर, अपने विचार शामिल करके प्रकाशित कर रहे हैं । प्रकाशन से उपरांत हमारे समर्पित पाठकों हमसे भी अधिक श्रद्धा से अध्ययन कर रहे हैं, अध्ययन के उपरांत अपने कमैंट्स लिख कर अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं लिख रहे हैं, उन कमैंट्स को पढ़कर,अन्य पाठक reply कर रहे हैं; हम अपने लेवल पर एक-एक कमेंट को पढ़ते हुए, चुनिंदा कमैंट्स को save करते जाते हैं और समय समय पर प्रकाशित भी करते हैं। इस तरह से जो कंटेंट निकल कर आता है उसे हम Multi-refined मक्खन से कम नहीं कह सकते।
यह प्रक्रिया न केवल इस ज्ञानप्रसाद लेख के लिए प्रयोग की गयी है बल्कि हर एक लेख को यही श्रद्धा और सम्मान प्रदान किया जाता है -आखिर यह हमारे गुरु की अमृतवाणी जो ठहरी।
1982 में परम पूज्य गुरुदेव जिन-जिन बातों की योजना अपने परिजनों से शेयर कर रहे थे आज 2023 में सभी उपलब्ध हैं, हमारे समर्पित सहकर्मी जो अक्सर युगतीर्थ शांतिकुंज का सेवन करते रहते हैं, हमारी इस बात के साक्षी हैं। गुरुदेव शिक्षण की बात कर रहे थे तो यहाँ बच्चों की पाठशाला, बड़ों की पाठशाला, महिलाओं की पाठशाला उपलब्ध हैं,यहाँ आसनों और प्राणायामों के केन्द्र हैं, जड़ी-बूटियों एवं medicinal plants की वाटिकाएँ हैं,नवग्रह वाटिका दर्शाती हमारी वीडियो पाठकों ने अवश्य देखी होगी,एक्यूप्रेशर मार्ग देखा होगा, प्रवचन हाल में चल रही कक्षाएं देखीं होंगी, देखीं क्या,भाग भी लिया होगा। गुरुदेव बता रहे हैं कि इस तीर्थ को गायत्री मंदिर कहें या तीर्थ कहें कोई अधिक फर्क नहीं पड़ता। फर्क केवल इस बात का पड़ता है कि हम तीर्थसेवन किस उद्देश्य से कर रहे हैं।
तीर्थयात्रा का उद्देश्य केवल स्वयं सेवन ही नहीं है बल्कि अनेकों नये परिजनों के लिए भी रास्ता बनाना है। तीर्थ स्थान सैरगाहों से अलग होने चाहियें। सैर तो महानगरों की भीड़भाड़ में, शोरशराबे के वातावरण में भी हो सकती है लेकिन तीर्थसेवन के लिए तो शांत, आध्यात्मिक वातावरण एक बहुत बड़ी आवश्यकता है। परम पूज्य गुरुदेव ने इस तीर्थ का नाम ही शांतिकुंज रख दिया यानि शांति का उपवन। हमारे पाठक हमारी बात से पूरी तरह सहमत होंगें कि शांतिकुंज के गेट के अंदर आते ही दिव्य वातावरण का अनुभव होना आरम्भ हो जाता है। शांतिकुंज में पिछले 50 वर्षों में और उससे भी पूर्व जिस स्तर की प्राण ऊर्जा का संचार होता आ रहा है उससे हमारे सहकर्मी भलीभांति परिचित हैं । परम पूज्य गुरुदेव अपने उद्बोधन में ऐसा ही स्वप्न चित्रित कर रहे थे। गुरुदेव कह रहे थे कि हमने इस दिशा में कदम बढ़ाया है। आप हमसे कंधा मिलाइये, हमारे कदम से कदम मिलाइये। थोड़ा-सा प्रयत्न हमने किया है, आप भी थोड़ा सहयोग कीजिए। आप मान्धाता ( भगवान राम के पूर्वज राजा ) तो नहीं हैं, लेकिन कुछ योगदान तो कर ही सकते हैं। आप मान्धाता की तरह तीर्थों की स्थापना के लिए कुछ कर सकें, तो जरूर करें। अहिल्याबाई की तरह तीर्थों का उद्धार करने के लिए फिर से कुछ कर सकते हों, तो अपने ढंग से अवश्य करें । अहिल्याबाई ने मंदिरों के जीर्णोद्धार ( पुनर्निर्माण ) कराये थे।जैसे हर किसी वस्तु की कोई न कोई expiry date होती है, तीर्थों का भी पुनर्निर्माण आवश्यक है। हमारे पाठक जानते ही होंगें कि तपोभूमि मथुरा का आजकल जीर्णोद्धार हो रहा है। हमने समय-समय पर जीर्णोद्धार के दौरान की फोटो शेयर की हैं। गुरुदेव इस जीर्णोद्धार को मरे हुओं को जिंदा करने जैसा कह रहे थे।
तीर्थों का प्रबंधन यानि प्रायश्चित :
गुरुदेव 1982 के दिनों की स्थिति पर चर्चा कर रहे थे। कोई भी ऐसा मनुष्य न होगा जिसने कभी न कभी,कोई न कोई पाप/ बुरा कर्म न किया हो,तीर्थ प्रबंधन, तीर्थों की देख रेख आदि से प्रायश्चित किया जा सकता है और ऐसा करना कोई कठिन भी नहीं है। कैसे ?
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जहाँ अब तक शक्तिपीठें बन गई हैं, उनमें एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य की कमी है और वह है कि वहाँ ऐसे प्राणवान परिव्राजक नहीं हैं, जो वहाँ रहें और वातावरण को हिला कर रख दें, वातावरण को जगा दें। बड़ी मुश्किल से कहीं पण्डा मिल गया, कहीं पुजारी मिल गया, कहीं आरती करने वाला मिल गया, कहीं नौकर मिल गया, कहीं कर्मचारी मिल गया, कहीं झाडू लगाने वाला मिल गया। बस इसी तरह बेचारे जैसे-वैसे काम चला रहे हैं। ऐसे प्राणवान् परिव्राजकों (सन्यासी) का घोर अभाव है जो शक्तिपीठ में ही जीवनदानी की भांति रहें और अपनी निष्ठा के, अपनी सेवा भावना के आधार पर उस सारे क्षेत्र को जगा दें और सारे क्षेत्र का वातावरण ऐसा बना दें, जैसा कि तीर्थों का होना चाहिए। हम पहले पढ़ ही चुके हैं कि तीर्थों का एक विशेष वातावरण होता है। वहाँ जो कोई भी पहुँच जाता है, वह उस ढाँचे में ढलने लगता है। वातावरण बनाना नौकरों का काम नहीं हैं,कर्मचारियों का काम नहीं है, पुजारियों का काम नहीं है, “प्राणवानों” का काम है। आप प्राणवान मालूम पड़ते हैं। इस कायाकल्प चिकित्सा की कल्प-साधना में आये हुए हैं। प्राणवान न होते तो आप आ ही क्यों पाते, कष्ट कैसे उठा पाते ? हर कोई तो माल मारने के लिये, इंस्टेंट चमत्कार की तलाश में भगवान के मंदिरों में फ्री का प्रसाद पाने के लिये घूमता रहता है, त्याग कौन करता है ? भूखा कौन रहता है ? अपने घर का काम कौन छोड़ता है ? आपके अन्दर वह शराफत मालूम पड़ती है, जीवन भर मालूम पड़ती है और पड़ती रहेगी, आध्यात्मिकता का परिचय मालूम पड़ता है तथा और भी कई चीजें मालूम पड़ती हैं। अगर यह बात सही है, तो आपको “समयदान” देने के लिये एक ही स्थान चुनना चाहिए, वह है शक्तिपीठ । परिव्राजक के अलावा, घूम-घूम कर प्रचार करने के अतिरिक्त एक तरीका यह भी है कि आप किसी समीपवर्ती शक्तिपीठ में चले जायँ, वहाँ कुछ समय तक निवास ( यं समय व्यतीत करें ) करें और निवास करने के बाद में अपने जीवन को न केवल परिष्कृत करें, बल्कि उस क्षेत्र को जगा देने की सेवा-साधना में भी संलग्न हो जायँ। गुरुदेव कहते हैं कि यह भी आपका बढ़िया वाला प्रायश्चित है। यदि ऐसा आप करें, तब मैं बराबर कहूँगा कि आपने तीर्थयात्रा का मर्म समझ लिया और उसे करने के लिये कदम बढ़ा लिया।
आजकल 2023 में विश्व में कितने ही स्थानों पर शक्तिपीठ बन चुके हैं, ज्ञानप्रसाद के माध्यम से कुछ एक की तो आपने यात्रा कर ही ली है लेकिन 1982 में गुरुदेव की बड़ी इच्छा थी कि देश-विदेश में इन तीर्थों की स्थापना हो। गुरुदेव ने हाथ बटानें के लिए आवाहन किया था। गुरुदेव कह रहे थे कि आपके सहयोग से हम इतना बड़ा काम कर सकेंगे। धर्म-ग्रन्थों में तीर्थों का पुण्य लिखा हुआ है।आप उसमें सहयोग दोनों ही तरीके से कर सकते हैं। तीर्थों में दान-पुण्य की भी परम्परा है, क्षतिपूर्ति के लिये आर्थिक सहयोग की भी परम्परा है, ब्राह्मण भोजन की परम्परा है। पहले समय में लोग जब तीर्थयात्रा जाते थे तो घर लौटने पर जप कराते थे, कथा कराते थे, भागवत कराते थे, दान भी कराते थे। तीर्थों में भी दान कर देते हैं, घर में भी दान कर सकते थे ।
आखिर यह दान है क्या ? वास्तव में दान समयदान का ही दूसरा रूप है। जो मनुष्य समयदान नहीं कर सकता, वह अर्थदान कर सकते हैं, समयदान और अर्थदान दोनों सम्भव हो सकें तो और अच्छा, लेकिन नहीं हो सके, तो आप समय के बदले दूसरे मनुष्यों का समय खरीद कर, यानि किसी को पैसे देकर काम करवा सकते हैं। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि आपके पास पैसा तो है लेकिन समय नहीं है, आप पैसा देकर किसी दुसरे का समय खरीद रहे हैं। इसका लॉजिक ऐसे भी समझा जा सकता है कि जो मनुष्य आपके पैसे लेकर काम कर रहा है, उस काम का पुण्य आपको मिल रहा है, बदले में उसकी घर- गृहस्थी चल रही है। अगर उसकी गृहस्थी आपके कारण चल रही है तो यह, काम करने के बराबर ही माना जायेगा। गुरुदेव बताते हैं कि गायत्री परिवार में सैकड़ों-हजारों ऐसे लोग हैं, जो सेवा करने के बड़े इच्छुक है, लेकिन क्या करें, घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ ऐसी हैं की कुछ करने ही नहीं देतीं।परिवार की ज़िम्मेदारी तो हमारी ही है न, और अगर कोई महिला है तो ज़िम्मेदारी कई गुना बढ़ जाती है। ज़िम्मेदारियों के कारण हजारों-लाखों कार्यकर्त्ता जो आज समाज के नये उत्थान, नये निर्माण करने के लिए आवश्यक थे,उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि उन ब्राह्मणों के लिए, प्रतिभाशाली मनुष्यों के लिए रोटी हमारे पास नहीं है। आप अपने खर्चे में कटौती करके दान भी दे सकते हैं, यह प्रायश्चित्त के तरीके हैं। इसी स्थिति को परिवार के सभी सदस्य योगदान देकर सार्थक कर सकते हैं। हमें बहुत बार बताया जाता है कि हम ज्ञानप्रसाद लेख का अमृतपान करके कमेंट भी करना चाहते हैं लेकिन समय ही नहीं मिलता, गृहस्थी कुछ करने ही नहीं देती। आप अपनी इच्छापूर्ति के लिए अपनी कुछ ज़िम्मेदारियाँ दूसरों को देकर अपने लिए कुछ समय फ्री (Me Time ) अलग से रख सकते हैं। Try करके देखा जा सकता है, शायद कठिन न हो, कुछ न करने से कुछ कर पाना बेहतर है
तीर्थयात्रा में डुबकी मारना ही जरूरी नहीं है, पंचामृत पीना, मंदिरों के दर्शन करना यह सब आवश्यक नहीं है। असली बात भी तो सोचिए, बिल्ली के गले में घंटी भी तो बाँधिये। आप कुछ त्याग भी तो कीजिए, सेवा की बात भी तो सोचिए, मन से उदार तो बनिये, कुछ कष्ट भी उठाइये, कुछ मेहनत भी कीजिए। कुछ करके भी तो दिखाइये। अगर हम किसी को यह बात बताते हैं उन्हें बेकार की लगती हैं। प्रायश्चित्त ऐसे ही हो जाते हैं क्या ? यह तो वही बात हो गयी हींग लगे न फटकरी, रंग चोखा ही आवे।
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