7 मार्च 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज सप्ताह का दूसरा दिन मंगलवार है और मंगलवेला का दिव्य समय है, ज्ञानप्रसाद के वितरण का शुभ समय है। यह समय होता है ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सहकर्मियों की चेतना के जागरण का, इक्क्ठे होकर एक परिवार की भांति गुरुसत्ता के श्रीचरणों में बैठ कर दिव्य ज्ञानामृत के पयपान का, सत्संग करने का,अपने जीवन को उज्जवल बनाने का, सूर्य भगवान की प्रथम किरण की ऊर्जावान लालिमा के साथ दिन के शुभारम्भ करने का।
आज का ज्ञानप्रसाद युगतीर्थ शांतिकुंज के रजत जयंती ,सिल्वर जुबली वर्ष 1996 में प्रकाशित हुए अखंड ज्योति के जुलाई अंक पर आधारित है। आज का लेख हमने pdf फॉर्म में प्रस्तुत किया है जिसमें सजल श्रद्धा-प्रखर प्रज्ञा स्मारकों में परम पूज्य के ह्रदय का वास होने का विवरण है। हम में से बहुत से लोग शांतिकुंज जाते हैं लेकिन परम पूज्य गुरुदेव के दर्शन नहीं कर पाते। स्थूल काया का तो गुरुदेव ने 1990 में ही त्याग कर दिया था लेकिन सूक्ष्म रूप में गुरुदेव शांतिकुंज के कण-कण में बस रहे हैं। इन्ही तथ्यों को वर्णन कर रहा है आज का यह लेख।
तो आइए विश्वशांति की प्रार्थना के साथ आज के सत्संग का शुभारम्भ करें।
“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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जब भी हम शांतिकुंज जाते हैं तो परम पूज्य गुरुदेव को ढूंढते ही रहते हैं। हमने तो गुरुदेव को देखा है, उनका सान्निध्य पाया है,हमारे जैसे अनेकों हृदयों में यह बात उठना स्वाभाविक है कि उनकी चैतन्य सत्ता की सघन अनुभूति कहाँ और कैसे की जा सकती है। लालसा तो ऐसे परिजनों को भी होती होगी जो उन्हें देख तो नहीं सके, मिल तो नहीं पाए, लेकिन उनके विचारों से संपर्क में आए, ज्ञानप्रसाद लेखों के माध्यम से उन्हें जान पाए। हमारी वीडियोस ने बहुतों को ऐसी अनुभूतियाँ करायीं कि परम पूज्य गुरुदेव साक्षात् सामने ही हैं। अनेकों ऐसे परिजन होंगें जिन्हें अधिक प्रेरणा, स्पष्ट मार्गदर्शन पाने की ललक उन्हें भी आतुर आकुल करती रहती है।
सूक्ष्म सत्ता कितनी ही सशक्त और सर्वव्यापी हो पर स्थूल के देखने की इच्छा मिटती नहीं है। यही कारण है कि निराकार ( निर-आकार) परमात्मा भक्तों की इसी इच्छा को पूरा करने के लिए आकार ग्रहण करते हैं,अवतार लेते हैं। हमारे मंदिरों में अति सुन्दर मुँह-बोलती प्रतिमाएं, घरों की दीवारों पर टांगे चित्रों में उस परम सत्ता की ही भावना सक्रिय रहती है। परम सत्ता की उपस्थिति का एक और रूप महापुरुषों, ईश्वरीय विभूतियों की समाधियां हैं। पांडिचेरी स्थित ऑरोविले अरविंद आश्रम में महर्षि अरविन्द की समाधी तथा बेलूर मठ में श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के मन्दिरों में जाकर इसी आस्था का बोध होता है।
इन महापुरुषों की भांति पूज्य गुरुदेव भी परिजनों की इस आतुरता भरी ललक से परिचित थे। गुरुवार सोचते थे कि उनके न रहने पर बालकों को स्थूल सहारा, प्रेमपूर्ण सान्निध्य कहाँ मिलेगा, इसकी चिन्ता ऋषि-युग्म को थी। इस चिंता के समाधान के लिए गुरुवर ने 1982 की बसन्त पंचमी वाले दिन शान्तिकुँज में दो छतरियों का निर्माण कराया था और उन्होंने स्वयं इनका नामकरण किया था “प्रखर प्रज्ञा,सजल श्रद्धा।” ये दोनों ही नाम ऋषि-युग्म के व्यक्तित्व की विशेषताओं को अपने में परिलक्षित करते हैं। अपने हाथों से की गई इस स्थापना के अवसर पर उन्होंने हँसते हुए कहा था, “अब हम दोनों यहीं रहेंगे।” एक अन्य अवसर पर उन्होंने इस स्थान विशेष का माहात्म्य बताते हुए कहा था, “शान्तिकुंज मेरा स्थूल कलेवर (ऊपरी ढांचा) है, परन्तु ‘प्रखर प्रज्ञा’ एवं ‘सजल श्रद्धा’ हमारे न रहने पर हमारे हृदय की भूमिका निभायेंगे।
उन्होंने विशेष ज़ोर देकर कहा था कि महत्व संगमरमर से बने हुए इस structure का नहीं है, इस स्थान विशेष की प्राण ऊर्जा का है। हमारा व्यक्तिगत अनुभव इस तथ्य पर मोहर लगाता है। जब भी हम शांतिकुंज में होते हैं हमने अनेकों परिजनों को इस तथ्य से जागृत और प्रेरित करने का प्रयास किया। 1971 में गायत्री नगर की स्थापना से लेकर 1983 की बसंत पंचमी तक धर्म ध्वजारोहण भी स्वयं पूज्यवर के हाथों वहीं हुआ था। एक अन्य अवसर पर उन्होंने बताया कि “गंगा की गोद और हिमालय की छाया में बना शान्तिकुँज इस युग का ऊर्जा- अनुदान केन्द्र है। हिमालय की दिव्य ऋषि सत्ताओं का हवाई अड्डा है, युगान्तरीय चेतना का हैड क्वार्टर है, महाकाल का घोंसला है और सजल श्रद्धा-प्रखर प्रज्ञा इस इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री के गोमुख के रूप में प्रसिद्ध होगा। युग चेतना के अविरल प्रवाह का मूल स्त्रोत बनेगा। इस स्थान का विशेष महत्व उन्होंने इस स्थली के नीचे गहराई में बहने वाली मोक्षदायिनी भागीरथी की विशेष धारा के कारण परिजनों को समझाया था।”
निःसंदेह युगान्तरकारी चेतना का उत्तराधिकारी इस स्थान के अतिरिक्त हो भी कौन सकता था ? गायत्री जयंती सन् 1990 में पूज्यवर के लौकिक महाप्रयाण के पश्चात् उनके देहावशेष ‘प्रखर प्रज्ञा’ में स्वयं वन्दनीया माताजी ने स्थापित किये। 1992 में उत्तरकाशी में भूकम्प के कारण शान्तिकुँज में रहने वाले और बाहर के परिजनों का मन हुआ कि भूकम्प प्रधान बेल्ट में स्थित होने के कारण कमजोर नींव खिसकने से जो इसके ढाँचे में Cracks आये हैं, उन्हें देखते हुए मजबूत आधार देकर उन्हें बाहर से नया रूप दे दिया जाय । वन्दनीया माताजी से निवेदन करने पर उन्होंने इतना कहा – “अभी नहीं।”
समय सरकता गया। 7 नवंबर 1992 को आरम्भ हुई अश्वमेध यज्ञों की श्रृंखला के लिए जाते समय हर बार वंदनीया माताजी ‘प्रखर प्रज्ञा’ में अपने आराध्य के चरणों में प्रणाम किया। 26 नवंबर 1992 वाले दिन बड़ौदा अश्वमेध यज्ञ हेतु रवाना होने से पूर्व एक कार्यकर्त्ता गोष्ठी में वे सहज ही बोल उठीं कि मेरे भगवान ‘प्रखर प्रज्ञा’ में भस्मावशेषों के रूप में स्थापित हैं, मुझे भी तुम ‘सजल श्रद्धा’ में स्थापित कर देना । हम दोनों सदा उस स्थान पर विद्यमान रहकर तुम्हें प्रेरणा देते रहेंगे। हाँ ! बाहर का संगमरमर से बना आवरण तुम अवश्य बदल सकते हो, किन्तु अभी नहीं कुछ समय बाद, जब तक मैं अपने आराध्य से एकाकार न हो जाऊँ। वहाँ मौजूद सभी वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हतप्रभ रह गये क्योंकि परम वंदनीया माताजी किसी न किसी प्रकार से अपने महाप्रयाण की सूचना दिए जा रही थीं व स्वयं के स्मृति चिन्ह स्थापित हो जाने के बाद उसके जीर्णोद्धार ( मुरम्मत) की बात कह रही थीं। 16 अप्रैल 1994 को चित्रकूट अश्वमेध हेतु जाते समय उसी स्थान पर प्रणाम करने के बाद वे कुछ देर भाव विह्वल खड़ी रहीं एवं फिर पास खड़े वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं की तरफ मुड़कर बोलीं, “अब समय आ गया है कि तुम कुछ दिनों बाद इसे नये सिरे से बनवा दो। हाँ! स्मृति चिन्ह वाले स्थान यथावत् रहें, छतरियों का ढाँचा जो जर्जर हो रहा है उसे बदल दें। जिस स्थान पर पूज्यवर के शरीर को पंचभूतों को समर्पित किया गया था,किसी प्रकार का पक्का चबूतरा बना देना।” इसकी रूपरेखा उन्होंने वहीं खड़े-खड़े समझा दी। सबने सुन तो लिया पर सभी हैरान थे।
सभी जानते हैं कि उनके इस कथन के पीछे नियति का एक अदृश्य संकेत था । चित्रकूट यज्ञ के पश्चात् वे सूक्ष्मीकरण की स्थिति में चली गई। अगस्त 1994 की अखण्ड ज्योति पत्रिका में उन्होंने अपनी अंतर्वेदना व्यक्त कीं एवं 19 सितम्बर, 1994 (भाद्रपद पूर्णिमा) की दोपहर में महाप्रयाण के पश्चात् वे अपने आराध्य के बगल में जा विराजीं। श्रद्धेय पंडित लीलापति शर्मा जी सहित शान्तिकुँज के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के द्वारा उनके देहावशेष ‘सजल श्रद्धा’ में स्थापित कर दिये गये। दोनों ही स्मृति चिन्ह अभी भी वहाँ उसी रूप में विद्यमान हैं ।
जैसा कि परम वंदनीया माताजी का निर्देश था, नवनिर्माण हेतु विशद चर्चाएं होती रहीं, नक्शे बनाये गये, देश के सभी मूर्धन्य आर्किटेक्टों की सेवायें ली गई। मिशन के लिए अपनी सेवाओं को अपने पिताश्री के पश्चात् भी परम्परा निर्वाह करते चले आ रहे श्री शरद पारधी जी ने यह सारा दायित्व अपने कन्धों पर ले लिया। पाठकों को बता दें आदरणीय शरद पारधी जी DSVV के वर्तमान वाईस चांसलर हैं। तीन माह में इस कार्य ने गति पकड़ी और यह कार्य आरम्भ कर दिया गया । जहाँ ऋषियुग्म के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था, उस स्थान पर एक भव्य चबूतरा विनिर्मित किया गया। इसकी नींव में कार सेवा के माध्यम से कूट- कूट कर उसी मिट्टी को भरा गया है, जिस पर ऋषियुग्म की स्थूल काया को अग्नि दी गई थी। काले ग्रेनाइट का स्मारक एक माह में ही बनकर तैयार हो गया , जिसके दोनों ओर परमपूज्य गुरुदेव एवं परम वंदनीया माताजी के अंतिम संदेश भी उकारे गये । गायत्री मंत्र जो गुरुसत्ता की हर साँस में समाहित था- राजघाट पर बापू की समाधि पर लिखे “हे राम ” की तरह ग्रेनाइट के चबूतरे पर लगा दिया । इस स्थान के पीछे जहाँ दो छतरियाँ परिजनों ने पूर्व में देखी हैं, उनमें स्थित स्मृति अवशेष को सुरक्षित बनाये रख नींव को नीचे से सीमेंट, कंक्रीट के स्लैब सरिया आदि लगाकर मजबूती दी गई एवं समाधि की छतरियों के मार्बल बदल दिये गये । ध्यान भव्यता एवं महंगे पत्थर पर नहीं बल्कि मज़बूती पर दिया गया ताकि आने वाले अनेकानेक वर्षों तक “महाकाल का यह घोंसला” अपनी स्थिति इसी प्रकार अक्षुण्ण बनाये रख सके। चारों तरफ का स्थान अब इतना अधिक बढ़ा दिया गया है कि चारों ओर परिजन, साधक, आगन्तुकगण बैठकर ध्यान कर सकें, ऋषियुग्म की प्राण चेतना को आत्मसात् कर सकें। प्रायः 200 से अधिक व्यक्ति अब वहाँ बैठकर ध्यान कर सकते हैं । चारों ओर से हरियाली पुष्पों – दिव्य वनस्पतियों से घिरा यह स्थान सुन्दरता- भव्यता एवं पवित्रता में अनेक गुना वृद्धि कर रहा है ।
गुरुवर द्वारा स्थापित छतरियों को क्यों हटाया गया ?
परिजनों को लग सकता है कि जो छतरियाँ ऋषियुग्म द्वारा अपनी देख-रेख में बनाई गई थीं, उन्हें क्यों हटाया गया, उन्हें उपरोक्त पृष्ठभूमि भली-भाँति समझनी चाहिए। जैसे कि पूज्यवर एवं शक्तिस्वरूपा माताजी कहा करते थे कि उनका निवास यों तो समूचे शान्तिकुंज में है क्योंकि यहीं से मिशन ने 1971 में एक क्रान्तिकारी मोड़ लिया, किन्तु घनीभूत प्राण ऊर्जा रूपी केन्द्रक के रूप में पवित्र स्मृति अवशेषों (रेलिक्स) के माध्यम से वे इस स्थान विशेष पर और भी स्पष्ट रूप में अनुभूत किये जा सकते हैं। यहाँ ध्यान करने वाले व्यक्ति यह अनुभूति और भी बढ़े-चढ़े परिणाम में कर सकेंगे, यह विश्वास रखें।
शान्तिकुँज की रजत जयंती (Silver jubilee) वर्ष 1996 की बेला में ही यह परम वंदनीया माताजी द्वारा निर्देशित नवीनीकरण सम्पन्न हुआ है, यह एक संयोग मात्र नहीं, नियति की एक ऐसी इच्छा मानना चाहिए जिसे इतने शानदार ढंग से सम्पन्न होना ही था। पुरानी छतरियों के हटाये गये, मार्बल स्लैब्स का क्या किया जाय ? यह सभी वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की गोष्ठी में प्रश्न उठा। सर्वसम्मति से यह राय बनी कि अब सारे देश के शक्तिपीठों में परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वंदनीया माताजी के प्रतीकों के रूप में ‘सजल श्रद्धा’ प्रखर प्रज्ञा’ की स्थापना हो रही है या हो चुकी है परन्तु गायत्री तपोभूमि मथुरा, जहाँ से पूज्यवर 1971 में विदाई लेकर हरिद्वार आये थे, में अभी तक इनकी स्थापना नहीं हुई। सभी परिजनों ने श्रद्धेय पंडित लीलापत शर्मा जी से विनम्र अनुरोध किया कि इस निर्माण में थोड़ा कुछ और जोड़कर जीर्णोद्धार कर वे इस पावन स्मृति को ,मथुरा में स्थापित कर लें। प्रसन्नता की बात है कि यह अनुरोध मान लिया गया एवं गायत्री जयंती (28 मई 1996 ) की पावन बेला में सारे देश के कार्यकर्ताओं व शान्तिकुँज प्रतिनिधियों की उपस्थिति में भूमि पूजन कर यह शुरुआत कर दी गई। शान्तिकुँज के इंजीनियर्स व श्री पारधी जी के मार्गदर्शन में यह निर्माण संपन्न हुआ एवं इस प्रकार पवित्र स्मृति अवशेष शांतिकुंज में एवं चबूतरों के रूप में विद्यमान छतरियाँ गायत्री तपोभूमि में सुरक्षित रख दी गईं ।
प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा तो महाकाल की अविनाशी सत्ता के जीवन्त आवास के रूप में यथावत् शांतिकुंज में उसी स्थान पर वैसे ही स्थापित हैं, जैसा परम वंदनीया माताजी व उनके बाद उनके पुत्रों द्वारा उन्हें रखा गया था। पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी की यह जीवन्त उपस्थिति इस गायत्री तीर्थ की चैतन्य ऊर्जा द्वारा अपने स्नेही बालकों को युगों-युगों तक अपना सान्निध्य-संरक्षण- अनुदान देती रहेगी।
सिक्खों के गुरुओं की स्मृतियों से जुड़ें स्थानों का महत्व है। पटना साहिब, हेमकुण्ड, पंजा साहिब उसी रूप में पूजित हैं। लेकिन अमृतसर एवं गुरुग्रन्थ साहिब का महत्व इनकी अपेक्षा असंख्य गुना अधिक है। इसी तरह पूज्य गुरुदेव की स्मृति से जुड़े सभी स्थान तीर्थ हैं। गुरुदेव जहाँ-जहाँ गये वही स्थान तीर्थ हो गया परन्तु शान्तिकुँज गुरुवर का आवास है जहाँ उनकी चैतन्य उपस्थिति कण कण में व्याप्त है।
1996 की गायत्री जयंती को शांतिकुंज की स्थापना के पच्चीस वर्ष पूरे हुए , इन पच्चीस वर्षों में शान्तिकुंज के स्वरूप, विस्तार, गुरुदेव माताजी की स्नेह स्मृतियों को स्पष्ट करने वाला एक विशेषाँक अगस्त में प्रकाशित हुआ। अनेकों परिजन इस अंक को पढ़कर शांतिकुंज के आध्यात्मिक मूल्य एवं महत्व को भली प्रकार समझ सके हैं। प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा स्मारक पूज्यवर के बच्चों को हमेशा शान्तिकुँज के लिए स्नेह आमंत्रण देते रहेंगें।