क्या कभी हमने स्वयं को जानने का प्रयास किया है ? पार्ट 4   

2 मार्च   2023  का ज्ञानप्रसाद :

आज गुरु का दिन गुरुवार है, ब्रह्मवेला का  दिव्य समय है, ज्ञानप्रसाद के वितरण का शुभ समय  है। यह समय  होता है ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सहकर्मियों की  चेतना के जागरण का, इक्क्ठे होकर एक परिवार की भांति गुरुसत्ता के श्रीचरणों में बैठ कर दिव्य ज्ञानामृत के पयपान का, सत्संग करने का,अपने जीवन को उज्जवल बनाने का, सूर्य भगवान की प्रथम किरण की ऊर्जावान लालिमा के साथ दिन के शुभारम्भ का।

आज का ज्ञानप्रसाद उस दिव्य ज्ञानामृत का समापन कर रहा है जिसकी एक-एक बूँद  पिछले तीन दिनों से नर्सरी कक्षा के विद्यार्थिओं को बेसिक ज्ञान देने का प्रयास कर रही थी। कबीर जी अति सुन्दर  रचना “मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में” इस  अंतिम पार्ट को समझने में बहुत सहायता कर सकती है।    

प्रत्येक लेख की भांति आज भी सरलीकरण की दिशा में बहुत प्रयास किया है, कितना सफल हो पाए हैं आपके कमेंट ही बताएंगें। आप कीजिये कल रिलीज़ होने वाली वीडियो की प्रतीक्षा और हम शुभारम्भ  करते हैं आज के ज्ञानप्रसाद का विश्वशांति की प्रार्थना के साथ :  

“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

पिछले तीन दिनों से हम स्वयं को जानने का प्रयास कर रहे हैं,ज्ञानप्रसाद लेख पोस्ट हो रहे हैं, कमैंट्स-काउंटर कमैंट्स हो रहे हैं, brainstorming  discussion हो रही है, क्या हमें कुछ लाभ हुआ ? क्या हम अपनेआप को जानने में सफल हो पाए ?क्या हमें सबकुछ समझ आ गया ? क्या आज इस  विषय का समापन करते हुए हम कह सकते हैं कि अब THE END हो जाना चाहिए क्योंकि बार- बार यही रटते आ रहे हैं “स्वयं को जानों, स्वयं को पहचानों” अगर हमसे इस विषय की सफलता के बारे में पूछा जाये तो हमारा व्यक्तिगत उत्तर “न” ही होगा। “न” कह कर हम अपनी यां  किसी की योग्यता/परिश्रम पर शंका नहीं कर रहे हैं, ऊँगली नहीं उठा रहे हैं। तो फिर समस्या क्या हैं ? समस्या केवल यही है कि स्वयं को जानने का विषय बहुत ही विशाल है, अनंत है, इसका कोई अंत नहीं है और हमारा लेवल इतना low है क़ि इस विषय को समझने के लिए कई वर्षों का समय चाहिए। हम तो मात्र नर्सरी के वोह विद्यार्थी हैं जो अभी नियमितता से, ध्यान लगाकर अध्यापक को सुनने का अभ्यास कर रहे हैं । अध्यापक द्वारा दिया गया दैनिक होमवर्क करने के लिए भी मम्मी की सहायता और दुलार की आवश्यकता है। ऐसी है हमारी स्थिति। अभी तो केवल बैकग्राउंड ही बनी है। 

शायद यह कहना गलत न हो कि इस विशाल टॉपिक को समझने के लिए बार-बार पढ़ना चाहिए, नोट्स बनाने चाहिए, cheat sheets आदि बनाने चाहिए। पिछले तीन दिनों में ज्ञानप्रसाद और सहकर्मियों के सहयोग से इतना तो जानने को मिला ही है कि हम परमसत्ता ईश्वर के ही अंश हैं, हम उस परमसत्ता के राज कुमार हैं, हम ईश्वर की सर्वोत्तम कलाकृति हैं। वह परमसत्ता, supernatural power, कहीं बाहिर नहीं है, अपने भीतर ही है, हर क्षण हमारे साथ ही है। आवश्यकता है तो केवल उस परमसत्ता को जानने की, पहचानने की। आदरणीय चिन्मय पंड्या जी के  अपने भीतर झाँकने वाले सिद्धांत को पाठक फिर से स्मरण कर लें तो उचित ही होगा। 

इतना ज्ञान होने के बावजूद मुर्ख मनुष्य ईश्वर को मंदिरों आदि में ढूंढ रहा है, नाक रगड़ रहा है, भिक्षा मांग रहा है, तरह- तरह की मनौतियां कर रहा है, ईश्वर से सौदेबाज़ी कर रहा है, ईश्वर तू मेरा कार्य कर दे तो मैं इतने का प्रसाद भेंट करूँगा,तू इतना निर्दय कैसे हो सकता है, मैंने आज तक तेरे से कुछ नहीं माँगा आदि आदि। इतनी ड्रामेबाज़ी के बाद जब कुछ भी नहीं हो पाता तो  ईश्वर से युद्ध करने को तैयार हो जाता है। हम उसे मुर्ख इसलिए कह रहे हैं कि उसे परमपूज्य  गुरुदेव का “बोओ और काटो” का सिद्धांत जो बिल्कुल सीधा और सरल है वह ही समझ नहीं आया और डींगें मार रहा है बड़ी बड़ी। अरे मुर्ख ईश्वर के खेत में बीज तो बिखेर ले, इन बिखरे हुए बीजों को सींच तो ले, कोंपलें तो आने दे, फल आने तक प्रतीक्षा तो कर, पर नहीं, मुझे तो इंस्टेंट चाहिए ,यह इंस्टेंट का युग है। इस मुर्ख को गुरुदेव का दूसरा सिद्धांत “तू मेरा कार्य कर, बाकि सब मुझ पर छोड़ दे” भी भूल गया। अरे मुर्ख क्या तूने पहले ईश्वर के इस विराट ब्रह्माण्ड में कोई सत्कर्म किया जो चल पड़ा है भीख मांगने। अरे तुझे तो कबीर जी का  दिव्य भजन भी भूल गया :   

“मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में ।ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में ।ना मंदिर में, ना मस्जिद में,ना काबे कैलाश में । मैं तो तेरे पास में ।मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में ।”

अगर मनुष्य को इन तथ्यों का ज्ञान हो जाए, जो हमें पिछले तीन दिनों में कुछ बेसिक लेवल का हुआ है तो ईश्वर दूर नहीं है। ईश्वर सदैव हमारे साथ है, आवश्यकता है तो केवल सच्चे निर्मल मन से बुलाने की।  एक बार बुलाकर तो देख मुर्ख कैसे भागते हुए आयेंगें । सूर्य देवता जिसे वैज्ञानिक star (न कि planet) कहते हैं,148 मिलियन किलोमीटर दूर होने के बावजूद केवल 8 मिंट में अपना प्रकाश धरती पर पहुंचा देते हैं। ऐसा इसलिए है कि प्रकाश किरणे एक सेकंड में 3 लाख किलोमीटर की यात्रा कर लेती हैं। यह Figures  देकर हम अपने पाठकों को किसी भी प्रकार से भ्रमित नहीं कर रहे क्योंकिविज्ञान  के बारे में हर किसी का ज्ञान अलग हो सकता है। लेकिन एक बात तो बहुत ही स्पष्ट है कि एनर्जी का भंडार सूर्य, जिसे हम शक्ति भी कहते हैं, सूर्य देवता भी कहते हैं, सविता देवता भी है ,ईश्वर भी है, हमारे कितना पास है, हमारी आत्मा में, तन मन में, पेड़ पौधों में-यानि omnipresent है।

अब तक की चर्चा केवल ईश्वर के अस्तित्व को  समझने के प्रयास से की गयी है। हम कहते तो आये हैं कि ईश्वर  हमारे पास हैं, ईश्वर  हमारे अंदर हैं तो यह  वैज्ञानिक तथ्य  इसके साक्षी हैं।   

लेकिन मनुष्य की एक बहुत  बड़ी  दिक्कत है कि वह ईश्वर का अस्तित्व मात्र  शरीर निर्वाह, परिपोषण आदि के लिए ही मानता है। साँस लेने  के लिए  फेफड़ों का एक बहुत ही छोटा भाग काम में आता है और शेष बहुत बड़ा भाग ऐसे ही निष्क्रिय पड़ा रहता है। इसी निष्क्रिय भाग  में विषाणु पलते और प्राण संकट उत्पन्न करते हैं। चेतना का निष्क्रिय (inactive) भाग यदि स्तरीय सक्रियता में संलग्न न होगा तो उस अँधेरी कोठरी में ऐसे तत्व पलेंगे जो पतन-पराभव के गर्त में व्यक्तित्व को गिराते रहें और सड़न उत्पन्न करके उस क्षेत्र को दुर्गन्ध से भरते रहें। लेकिन ईश्वर ऐसा होने नहीं देते। मनुष्य को जो समस्त  चेतना उपलब्ध है, शरीर निर्वाह आदि के लिए समग्र चेतना का कठिनाई से शताँश (1 /100 th पार्ट ) ही होगा। इस शतांश को minus करने के बाद जो बड़ा  भाग( शेषांश) बच जाता है उसी से मनुष्य अनजान है। यही कारण है कि मनुष्य को बार-बार उसकी क्षमता का स्मरण कराया जाता है और कहा जाता है कि जिसके शताँश से जीवनचर्या का इतना बड़ा सरंजाम ढोया, ढकेला जा रहा  है उसके शेषाँश (बड़े भाग) को भी महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए, असल में वह शेषांश ही सब कुछ है जिसके कारण मानव से महामानव और देवमानव बन पाते हैं। मनुष्य की  चेतना के इस  major portion को  नज़रअंदाज़ करने की धारणा से बाहिर  निकाला जाना चाहिए। मनुष्य को एक  ऐसा अवसर प्रदान करना चाहिए कि सम्पूर्ण  चेतना के प्रयोग की प्रवीणता प्राप्त हो सके ताकि वह नर-पशु जैसे भव बन्धनों से निकल कर ब्रह्मचेतना के स्वच्छन्द आकाश में विचरने योग्य हो सके। ऐसी  प्रवीणता प्राप्त करने पर ही मनुष्य  दिव्यता का  अनुभव करता है जिसे स्वर्ग लोक में निवास या जीवन-मुक्ति जैसा हाथों-हाथ रसास्वादन समझा जाता है। 

मनुष्य चेतना का जो भाग परिवार, समाज के छोटे दायरों में और बहिरंग जीवन में प्रयोग होता है उससे बहुत अधिक और व्यापक होता है overall कार्यक्षेत्र। हाड़-माँस के स्थूल शरीर की अपनी हस्ती और क्षमता है, किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण और अदृश्य शरीर – आत्मा की उपलब्धि है और वे यदि सजग सक्रिय हो सके तो ‘काय शरीर’ की तुलना में अत्यधिक महत्व के काम कर सकते हैं। स्थूल शरीर बोझिल होने के कारण धीमे चलता और जल्दी थकता है, लेकिन सूक्ष्म शरीर का भार न होने से वह प्रकाश की गति  (एक सेकंड में तीन लाख किलोमीटर) से भी अधिक गति के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच सकता है।

सूक्ष्म शरीर की क्षमताएं हम जहाँ तहाँ अनेकों बार कर चुके हैं। परम पूज्य गुरुदेव ने भी स्थूल शरीर का त्याग करते समय सूक्ष्म में विलीन होकर अधिक सक्रीय होने की बात की है।  

दूरदर्शन, दूरश्रवण जैसी अनेकों आश्चर्यजनक घटनाओं के उदाहरण सामने आते रहते हैं। Radio waves, TV waves के द्वारा रिमोट दबाते ही सूक्ष्म तरंगों के माध्यम से TV में अपने मन पसंद शो आने आरम्भ हो जाते हैं। यह है सूक्ष्म तरंगों की क्षमता।  भूत-प्रेतों के अस्तित्व सिद्ध करने वाले प्रमाण मिलते रहते हैं। जीवित रहते हुए तन्त्र योगी अपनी ही एक अदृश्य अनुकृति छाया पुरुष के रूप में गढ़ लेते हैं, और उससे बिना चेतन की देवमानव जैसे सहायक सेवक का काम लेते हैं। यह सूक्ष्म शरीर के ही चमत्कार हैं। कितने ही स्वप्न अक्षरशः सत्य निकलते हैं और कइयों में महत्वपूर्ण संकेत रहते हैं। जाग्रत अवस्था में भी कई बार ऐसे दिवा-स्वप्न ( Day dreams)  देखे गये हैं जो किसी सामयिक घटनाक्रम की जानकारी देने वाले सिद्ध हुए। कारण शरीर सूक्ष्म से भी अधिक रहस्यमय है। जिस प्रकार स्थूल शरीर आधा प्रकृति का और आधा प्राणचेतना के समन्वय से बना है, उसी प्रकार कारण शरीर आधा मानवी चेतना और आधा देव चेतना के समन्वय से बना है । अन्तःकरण की सूक्ष्म परतें इसी क्षेत्र में है। यह जग पड़े तो भीतर से ही देव- शक्तियों का उदय हो सकता है। 

अध्यात्म शास्त्र में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय पंचकोशों को प्रख्यात पंच देवों का प्रतीक-प्रतिनिधि बताया गया। इसी शरीर में समस्त लोक, देव ऋषि, तीर्थ सन्निहित माने गये हैं। बहुमूल्य रत्न भण्डारों का ख़ज़ाना  इसी में गढ़ा हुआ बताया गया है। अंतःकरण ही व्यक्तित्व का मूलभूत स्वरूप है। उसकी स्थिति जैसी भी भली-बुरी होती है। उसी के अनुरूप चिन्तन, चरित्र, व्यवहार, वातावरण गढ़ी हुई दुनिया में मनुष्य अपने ढंग का निर्वाह करता है। अंतःकरण की प्रेरणा से मन, बुद्धि को काम करना पड़ता है। मन के निर्देशन पर काया काम करती है। 

संक्षेप में बाह्य जीवन का जैसा भी स्वरूप है, उसे अन्तः करण का प्रतीक- प्रतिबिम्ब ही समझा जाना चाहिए। यह अन्तराल ही कारण शरीर है। 

स्थूल शरीर की क्षमता, प्रखरता के आधार पर मिलने वाली प्रसन्नता, सम्पदा, सफलता जिन्हें प्राप्त है उन्हें उतना और भी जानना चाहिए कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की सामर्थ्य में उत्तरोत्तर वृद्धि ही होती चली जा रही है। नीरोग, परिपुष्ट स्फूर्तिवान, सुन्दर, सुडौल शरीर के सहारे जो कुछ हो सकता है, उनसे अत्यधिक अनुपात में समुन्नत सूक्ष्म शरीर और सुसंस्कृत कारण शरीर के माध्यम से उपलब्ध किया जा सकता है। 

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