1 मार्च 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज सप्ताह का तीसरा दिन बुधवार और मार्च माह का प्रथम दिन है, ब्रह्मवेला का दिव्य समय है, ज्ञानप्रसाद के वितरण का शुभ समय है। यह समय होता है ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सहकर्मियों की चेतना के जागरण का, इक्क्ठे होकर एक परिवार की भांति गुरुसत्ता के श्रीचरणों में बैठ कर दिव्य ज्ञानामृत के पयपान का, सत्संग करने का,अपने जीवन को उज्जवल बनाने का, सूर्य भगवान की प्रथम किरण की ऊर्जावान लालिमा के साथ दिन के शुभारम्भ का।
आज का ज्ञानप्रसाद उस परम सत्ता, ईश्वर के साथ जुड़ने और अपनी अंतरात्मा में झाँकने का बहुत ही सरल उपाय पर चर्चा कर रहा है। किसी जिज्ञासु ने तप कर रहे तपस्वी से पूछा, ” गुरुदेव ! तप साधना से आपने क्या पाया?” उन्होंने उत्तर दिया, “खोया बहुत,पाया कुछ नहीं ।” आज का ज्ञानप्रसाद इस खोने और पाने का विश्लेषण कर रहा है। अवश्य ही यह विश्लेषण हमारे पाठकों को नई राहें दिखाने में सार्थक होगा।
बहुत दिनों से विचार उठ रहे थे कि अपने सहकर्मियों के कमैंट्स आप सबके समक्ष प्रस्तुत किये जाएँ ताकि सभी को सहकर्मियों के ज्ञान की जानकारी हो सके, अब वह समय आ चुका है। कल वाले ज्ञानप्रसाद पर संजना बेटी के कमेंट को पढ़कर हम अपनेआप को रोक नहीं पाए, इसलिए यह निर्णय लिया है। आने वाले शनिवार का स्पेशल सेगमेंट में कमैंट्स पर ही आधारित होगा। हमारे सहकर्मी एक दूसरे के कमेंट पढ़कर ही काउंटर कमेंट करते हैं लेकिन कुछ ऐसे कमेंट होते हैं जिन्हें बार बार पढ़कर श्रद्धा और भी प्रगाढ़ होती है।
इस सेगमेंट में हमें सहकर्मियों की लेखनी का स्तर, ज्ञानप्रसाद के प्रति श्रद्धा, नियमितता के इलावा “सत्संग” की परिभाषा का ज्ञान प्राप्त होगा। सही मायनों में यहाँ सत्संग ही हो रहा है हमें पूरा विश्वास है कि इस सेगमेंट के अध्ययन के बाद कोई भी मनुष्य “वाह ,वाह ,क्या बात है” कहे बिना नहीं रह सकेगा।
इन्ही शब्दों के साथ आइए ,विश्वशांति के लिए प्रार्थना करें और शुभारम्भ करें आज के ज्ञानप्रसाद का :
“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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यदि हमें अपने “आपे” को प्रयोग करना आ गया तो हम दूसरे ईश्वर बन सकने में समर्थ होते है।
संसार में जानने को बहुत कुछ है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण जानकारी स्वयं को जानने की है। स्वयं को जान लेने के बाद बाकी जानकारियां प्राप्त करना सरल हो जाता है। ज्ञान प्राप्त करने का आरंभ “आत्मज्ञान” से होता है। जो अपने को नहीं जानता, वह दूसरों को क्या जानेगा?
आत्मज्ञान जहाँ कठिन है, वहाँ सरल भी बहुत है। दूसरी वस्तुएं दूर भी है और उनका सीधा सम्बन्ध भी स्वयं से नहीं है। संसार में बिखरे हुए ज्ञान को पाने और जानने के लिए कोई माध्यम तो चाहिए और वह माध्यम हम स्वयं ही हैं यानि हमारा “अपना आपा” ( our self not ourself ) जो सबसे निकट है, हम उसके स्वामी हैं । जन्म से लेकर अंत तक उसमें समाए हुए है। इस दृष्टि से “आत्मज्ञान” सबसे सरल भी है। शोध करने योग्य एक ही तथ्य है, आविष्कृत किए जाने योग्य एक ही चमत्कार है, यह है “अपना आपा”, जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।
बाहर की चीजें ढूंढ़ने में मन इसलिए लगा रहता है कि “अपने आपे” को ढूंढ़ने के झंझट से बचा जा सके, क्योंकि आज जिस स्थिति में हम हैं,उसमें अंधेरा दिखता है और अकेलापन अनुभव होता है। यह एक डरावनी स्थिति है। सुनसान को कौन पसंद करता है? खालीपन किसे भाता है? मनुष्य ने स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और उससे भयभीत होकर स्वयं ही भागता है। इसीलिए अपने को देखने, खोजने और समझने की इच्छा नहीं होती और मन बहलाने के लिए बाहर की चीजें खोजता फिरता है। कैसी है यह विडंबना !इस खालीपन से बचने के लिए व्हाट्सप्प के अलग अलग ग्रुप बनाए फिरता है,हज़ारों लाखों फेसबुक फ्रेंड्स बनाए फिरता है, और न जाने क्या कुछ हमें तो अनेकों सोशल मीडिया साइट्स के नाम तक नहीं मालूम।
क्या सच में हमारे भीतर अंधेरा है?
कबीर जी के दोहे “कस्तूरी कुंडल में बसे मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि। ऐसे घटी-घटी राम हैं दुनिया जानत नाँहि॥” से कौन परिचित नहीं है। इसी दोहे में छिपा है यह तथ्य कि अँधेरा भीतर नहीं है। स्वयं से पूछें कि क्या सच में हमारे भीतर अंधेरा है? क्या सच में हम अकेले और सूने है? उत्तर है बिल्कुल नहीं, प्रकाश का ज्योतिपुंज हमारे भीतर विद्यमान है और एक पूरा संसार ही हमारे भीतर विराजमान है। उसे प्राप्त करने के लिए और देखने के लिए आवश्यक है कि हमारा मुँह अपनी ओर हो। पीठ फेर लेने पर तो सूर्य भी दिखाई नहीं देता और हिमालय तथा समुद्र भी दिखना बंद हो जाता है। फिर अपनी ओर पीठ करके खड़े हो जाएं तो शून्य (खालीपन) के अतिरिक्त और दिखेगा भी क्या ?
बाहर केवल जड़ जगत (चेतना रहित संसार) है, पंचभूतों का बना हुआ निर्जीव ।बहिरंग दृष्टि लेकर तो हम मात्र जड़ता ही देख सकेंगे। अपना जो स्वरूप आँखों से दिखता है,कानों से सुनाई पड़ता है वह जड़ है। ईश्वर को भी यदि बाहर देखा जाएगा तो उसके रूप में जड़ता या माया ही दृष्टिगोचर होगी। अंदर जो है, वही सत है। इसे अंतर्मुखी होकर देखना पड़ता है। आत्मा और उसके साथ जुड़े हुए परमात्मा को देखने के लिए अंतर्दृष्टि (insight) की आवश्यकता है। इस प्रयास में अंतर्मुखी हुए बिना काम नहीं चलता।
स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, शाँति आदि विभूतियों की खोज में कही अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है बाहर भरी हुई जड़ता में चेतना कैसे पाई जा सकेगी? जिसे ढूंढ़ने की प्यास और पाने की चाह है, वह तो भीतर ही भरा पड़ा है। जिसे कुछ मिला है, यहीं से मिला है। कस्तूरी वाला हिरन तब तक भागता रहेगा और अतृप्त फिरता रहेगा,जब तक अपने ही नाभिकेंद्र में कस्तूरी की सुगंध सन्निहित होने पर विश्वास न करेगा। बाहर जो कुछ भी चमक रहा है, सब अपनी ही आंखों और प्रकाश का प्रतिबिंब मात्र है।
इसीलिए कहा जाता है कि अपने आपको जानो, अपने को प्राप्त करो और अमृतत्व में लीन हो जाओ। इसी तथ्य को ऋषियों ने बार-बार दोहराया है और तत्वज्ञानियों ने कहा है कि जो तुम्हे बाहर दिख रहा है, वह भीतरी तत्व का ही विस्तार है। अपना “आपा” जिस स्तर का होता है, संसार कर स्वरूप भी वैसा ही दिखता है। बाहर हमें जैसा देखना पसंद हो, उसे भीतर से खोज निकालो । यह अन्वेषण( exploration) की चरम सीमा है।
दुःख, दारिद्रय, शोक, संताप और अभाव का निवारण करने के लिए अंतरंग में जमी हुई जड़ों को खोदना पड़ता है। भीतर का दीपक जलने पर ही बाहर फैले हुए अंधकार का समाधान होगा। जो कुछ हमारे लिए अभीष्ट और आवश्यक है, उसकी समस्त संभावनाएं अपने भीतर सुरक्षित रखी हुई है। आवश्यकता है तो केवल उन्हें प्रयोग करने की। यदि हमें अपने आपे को प्रयोग करना आ गया तो हम दूसरे ईश्वर बन सकते हैं । अपने को खोकर हमने खोया ही खोया है। बाहर ढूंढ़ने में जीवन गवा डाला, पर मिला कुछ नहीं, मिलता तो तब, जब बाहर कुछ होता।
अनात्म तत्वों ( आत्मा रहित ,जड़ पदार्थ ) के कारण जो गंदगी हमारे भीतर भर गई है, उसे निकाल दें तो शेष वही रह जाता है जो हमारा स्वरूप है। कुछ पाने के लिए खोना तो पड़ता ही है। आत्मिक शांति के लिए ही कठिन तप साधन किए जाते हैं। आत्मा तो स्वयं उपलब्ध ही है, उसे पाने के लिए कुछ अधिक करना ही नहीं पड़ता। बात तो केवल इतनी ही है कि जो अनुपयुक्त और अवांछनीय (कूड़ा कर्कट) अपने भीतर भर लिया है, उसे निकाल कर फेंक दे। यह परिशोधन (cleaning,purging) ही उपलब्धि का निमित्त बन जाता है।
किसी तत्ववेत्ता से जिज्ञासु ने पूछा, ” गुरुदेव ! तप साधना से आपने क्या पाया?” उन्होंने उत्तर दिया, “खोया बहुत, पाया कुछ नहीं ।” जिज्ञासु ने आश्चर्य से पूछा, “ऐसा क्यों?” ज्ञानी ने कहा, “जो पाने लायक था, वह तो पहले से ही प्राप्त था। जो खोने लायक विषय विकार और अज्ञान अंधकार के अनात्म तत्व भीतर घुस पड़े थे, उन्हें साधना ने निकाला भर है। अपने आपको खाली कर लिया।” इस तरह साधक साधना में खोता ही खोता है, पाता कुछ नहीं। अगर हम स्वप्नों में ही खोये रहेंगें तो सत्य का कैसे पता चलेगा। सत्य को जानने के लिए नींद से बाहिर आना पड़ेगा,स्वप्नों से निकलना पड़ेगा।
महर्षि रमण ने कहा है, “ अपने को जानने का प्रयत्न करो। अपने स्वरूप को समझो और जिस लिए जन्मे हो, उस पर विचार करो। तुम्हें दिशा मिलेगी और सही दिशा में कदम उठ गए तो वह प्राप्त करके रहोगे, जिसके पाए बिना अपूर्णता और अतृप्ति घेरे ही रहेगी।”
स्वामी विवेकानंद इस संदर्भ में एक कथा सुनाया करते थे, कहानी इस तरह से है।
एक फिलॉस्फर अपनी पत्नी से कह रहे थे- संध्या आने वाली है, काम समेट लो। उनकी कुटिया के पीछे एक सिंह यह सुन रहा था। उसने समझा संध्या कोई बड़ी शक्ति है, जिससे डरकर यह निर्भय रहने वाले ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुए हैं । सिंह चिंता में डूब गया। उसे संध्या का डर सताने लगा। पास के घाट का धोबी दिन छिपने पर अपने कपड़े समेटकर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा। देखा तो गधा गायब।उसे ढूंढ़ने में देर हो गई। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। धोबी को एक झाड़ी में खड़खड़ाहट सुनाई दी, समझा गधा है, सो लाठी से उसे पीटने लगा। अरे धूर्त यहां छिपकर बैठा है। छिपकर बैठा शेर डर से थर-थर कांपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लादकर घर चल दिया।रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला। उसने अपने साथी की दुर्गति देखी तो पूछा, यह क्या हुआ, तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो। सिंह ने कहा,” संध्या के चंगुल में फंस गए हैं। यह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लादती है।” सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं, उसकी ग़लतफ़हमी थी, जिसके कारण धोबी को कोई बड़ा देव दानव समझ लिया गया और उसका भार एवं प्रहार बिना सिर हिलाए स्वीकार कर लिया ।
यह तो मात्र एक दृष्टांत है, यही हमारी स्थिति है।अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के साथ, जड़ पदार्थों के साथ अपने संबंधों का ठीक तरह तालमेल न मिला सकने की गड़बड़ी ने ही हमें उन विपन्न परिस्थितियों में धकेल दिया है, जिनमें अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दिखता ही नहीं। इस भ्रांति को ही “माया” कहा गया है। माया को ही बंधन कहा गया है और दुःखों का कारण बताया गया है। यह माया और कुछ नहीं, वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान ही है।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 12 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है और अरुण जी गोल्ड मेडलिस्ट हैं । उन्हें परिवार की सामूहिक एवं हमारी व्यक्तिगत बधाई।
(1) वंदना कुमार-26,(2)चंद्रेश बहादुर-26,(3) मंजू मिश्रा-32,(4)अरुण वर्मा-61 ,(5) सरविन्द कुमार-29,(6)रेणु श्रीवास्तव-28,(7)पुष्पा सिंह-24,(8)सुमन लता-27,(9) विदुषी बंटा-26,(10) संध्या कुमार-24,(11)नीरा त्रिखा-25,(12) सुजाता उपाध्याय-24
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई क्योंकि अगर सहकर्मी योगदान न दें तो यह संकल्प सूची संभव नहीं है। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं। जय गुरुदेव