क्या कभी हमने स्वयं को जानने का प्रयास किया है ? पार्ट 1

27 फ़रवरी 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज सप्ताह का प्रथम दिन सोमवार है, ब्रह्मवेला का दिव्य समय है, ज्ञानप्रसाद के वितरण का शुभ समय है। यह समय होता है ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सहकर्मियों की चेतना के जागरण का, इक्क्ठे होकर एक परिवार की भांति गुरुसत्ता के श्रीचरणों में बैठ कर दिव्य ज्ञानामृत के पयपान का, सत्संग करने का,अपने जीवन को उज्जवल बनाने का, सूर्य भगवान की प्रथम किरण की ऊर्जावान लालिमा के साथ दिन के शुभारम्भ का।

सोमवार का दिन हम सब परिवारजनों के लिए एक अद्भुत आशा और ऊर्जा लेकर आता है। आशा इसलिए कि कोई नई ज्ञानप्रसाद श्रृंखला का आरम्भ होगा जिसके अमृतपान का सौभाग्य हमें अगले कुछ दिनों तक प्राप्त होता रहेगा। ऊर्जा इसलिए कि रविवार के अवकाश के कारण ऊर्जा के संचार का स्तर कुछ अलग ही होता है और सत्संग की क्लास में हम सभी विद्यार्थी अधिक ध्यान और रूचि दिखाने में सक्षम होते हैं।

जैसे जैसे अनुभूति शृंखला अपने अंतिम पढ़ाव को अगसर हो रही थी हमारे ह्रदय में आगे वाली श्रृंखला की योजना बन रही थी। वैसे तो क्रांतिधर्मी साहित्य में अभी बहुत कुछ जानने को है लेकिन हमारा विचार था कि कुछ छोटे-छोटे विषय जिन्हें हमने बहुत दिनों से एक फाइल में सेव करके रखा था उन्ही को लिया जाए। इस तरह अखंड ज्योति का जुलाई 1996 के अंक ने हमें बहुत ही प्रेरित किया। उसी अंक में एक टॉपिक स्वयं को जानने का था जिसे हम कई दिनों से समझने का प्रयास कर रहे थे ,बहुत इच्छा थी कि अगर हमें समझ आ जाये तो हम अपने साथियों के साथ सत्संग करें। अखंड ज्योति के मार्गदर्शन में हमने क्या कुछ पढ़ डाला हमें तो कुछ याद नहीं, हाँ बहुत कुछ सीख लिया जो आपके समक्ष प्रस्तुत हैं। उपासना बेटी के एक कमेंट “खुद को जाना ,खुद को पहचाना” ने एक चिंगारी का कार्य किया और हमने बेटी के आगे यह संकल्प लेते हुए लिख भी दिया कि सोमवार वाला ज्ञानप्रसाद इसी दिशा में है। यह है ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की कार्यप्रणाली ,ऐसे मिलती है प्रेरणा, ऐसे मिलते हैं नए विचार। तो अब स्थिति ऐसी है कि अखंड ज्योति के उस लेख तक तो हम पहुँच ही नहीं पाए लेकिन उसकी प्रेरणा से जो हम लिख पाए आपके समक्ष रख रहे हैं।

तो आइए हर सुबह की भांति करें विश्वशांति के लिए प्रार्थना और कर दें आज के सत्संग का शुभारम्भ। “ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

मनुष्य की सदैव ही सबसे बड़ी अभिलाषा रही है कि विश्व ही क्या ब्रह्माण्ड तक को जानने के लिए जो कुछ भी हो सके किया जाये। ऐसी इच्छा होना नकारात्मक तो कदापि नहीं है क्योंकि Human quest for knowledge ने ही आज हमें प्रगति के उस स्थान तक पहुँचा दिया है कि हम उत्साहित होकर केवल कल्पना ही कर सकते हैं कि आगामी 20-50 वर्षों में मानव कहाँ पर होगा। इस प्रगति के सकारात्मक एवं नकारात्मक परिणाम हम सबके समक्ष हैं जिन्हे हम दिन-रात देखते हैं। सकारात्मक और नकारात्मक का तो चोली दामन का साथ रहा है, परम पूज्य गुरुदेव ने बहुत बार कहा है कि गगनचुम्बी भवन खड़ा करने के लिए गड्ढा तो खोदना ही पड़ेगा।

ज्ञानप्रसाद का आज का विषय ज्ञानप्राप्ति का तो है ही लेकिन अपने आस-पास की प्रगति केवल ज्ञान की न होकर अपनेआप को जानने की दिशा में है।

जैसा आरम्भ में ही लिखा है कि मनुष्य सारे विश्व/ब्रह्माण्ड को जानने की इच्छा के लिए प्रयास करता रहता है, केवल इच्छा ही नहीं बहुत कुछ जानता भी है लेकिन अधिकतर मनुष्य “स्वयं को नहीं जानते” जानते ही नहीं, बल्कि जानना ही नहीं चाहते। खुद को जानना ही विश्व की सबसे बड़ी नियामत है, वरदान है। अगर हम स्वयं को ही नहीं जानते तो दूसरों को कैसे जान पाएंगें। दूसरों को जानने के लिए पहले खुद को जानना अति आवश्यक है। इसीलिए हमारे बड़े बुज़ुर्ग, चिंतक, महर्षि कहते आये हैं कि पहले स्वयं को जानने का प्रयास करो, अपने से ही शुरुआत करो, this is the starting point. आदरणीय चिन्मय जी के उद्बोधनों में स्वयं को जानने के सिद्धांत को बार-बार दोहराया गया है, उन्होंने बार-बार “अंदर से आवाज़” निकलने की बात कही है। किस अंदर की बात कही गयी गयी है ? क्या हमारी स्थूल काया, जो हुईं दिख रही है, उसके अंदर की बात कर रहे हैं, बायोलॉजी के विद्यार्थी जानते ही होंगें की स्थूल काया के अंदर तो digestive system, circulatory system, nervous system एवं कई और systems का जाल बिछा हुआ है जो अपने-अपने कार्य एक नियमित ढंग से, अनवरत पूर्ण किये जा रहे हैं। चिन्मय जी “शायद” अंतरात्मा की बात कर रहे हैं। आने वाले दिनों में हम सब इसी “शायद” को जानने और समझने की दिशा में सामूहिक प्रयास करेंगें। सामूहिक इसलिए कि हम सब एक दूसरे के ज्ञान का लाभ लेने का प्रयास करेंगें। हमें विश्वास है कि हमारा प्रयास सफल होगा, इसीलिए तो ब्रह्मवेला में इस समय चल रही क्लास को हम सबने सत्संग का नाम दिया है। परम पूज्य गुरुदेव ने अपनी प्रथम पुस्तक “मैं क्या हूँ” में स्वयं को जानने का मार्गदर्शन दिया है। हम में से बहुतों ने इस पुस्तक का स्वाध्याय भी अवश्य ही किया होगा, इसे समझने का प्रयास भी किया होगा लेकिन स्वयं को जानने के लिए इस पुस्तक से भी सरल युगतीर्थ शांतिकुंज स्थित विश्व का एकमात्र unique मंदिर “ भटका हुआ देवता” बहुत ही सहायक है। गायत्री मंदिर के बगल में स्थित इस अद्भुत मंदिर में पांच फुल साइज दर्पण हैं जिनमें हम अपना प्रतिबिम्भ तो देखते ही हैं लेकिन हर दर्पण के साथ ही मानव के अस्तित्व का वर्णन दिया गया है कि वास्तव में “मैं क्या हूँ”।

हमारी डेली लाइफ में से स्वयं को जानने का एक उदाहरण: कोई महात्मा अपनी साधना में मग्न थे, किसी ने द्वार खटखटाया। महात्मा ने अंदर से ही पूछा-कौन? उत्तर मिला-यही तो जानने आया हूँ कि मैं कौन हूँ,स्वयं को जानने आया हूँ। महात्मा ने कहा-चले आओ, तुम ही वह अज्ञानी हो, जिसे ज्ञान की आवश्यकता है। यहीं से आरम्भ होती है जीवन की यात्रा। स्वयं को जानना अत्यंत आवश्यक है। जो स्वयं को नहीं जानता,वह अन्य किसी को जानने का दावा कैसे कर सकता। अक्सर लोग झगड़ते हुए कहते हैं- तू नहीं जानता कि मैं कौन हूँ, मैं क्या-क्या कर सकता हूँ। इसके जवाब में सामने वाला भी आग बबूला होकर यही कहता है कि तू मुझे नहीं जानता कि मैं कौन हूँ। वास्तव में वे दोनों ही स्वयं को नहीं जानते, इसलिए ऐसा कहते हैं। हम में से बहुत ही कम होंगें जिन्होंने कभी यह जानने का प्रयास किया होगा कि “खुदा” और “खुद” में क्या अंतर् है। जिसने खुद को जान लिया, उसने खुदा को जान लिया और जानने के बाद किसी को प्राप्त करना बहुत ही सरल हो जाता है। बाज़ार में आम खरीदने से पूर्व आम की वैरायटी को जानने का प्रयास करते हैं। हालाँकि ईश्वर की आम से तुलना करना कोई समझदारी नहीं है लेकिन जिस सन्दर्भ में बात हो रही है उसमें कहा जा सकता है हमारे आस पास ही ईश्वर हर वैरायटी में विध्यमान है,उसकी सत्ता को जानना हमारा कर्तव्य है, एक बार हम यह जान गए तो प्राप्त करना बहुत ही सरल है। इस स्टेज पर पहुंचते ही हम ईश्वर को अपने अंदर, अपने अंतःकरण में ढूढ़ने का प्रयास करते हैं। इसलिए पुराणों में भी कहा गया है कि ईश्वर हमारे ही भीतर है,उसे ढूँढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं।

“भटका हुआ देवता” मंदिर में दर्पण के साथ explanation यही बता रहे हैं। “यह सारी चर्चा दो महत्वपूर्ण प्रश्नों के इर्द-गिर्द केंद्रित है। पहला बेसिक प्रश्न है कि स्वयं को जाना कैसे जाए और दूसरा है कि स्वयं को जानने से क्या लाभ होगा।” प्रश्न तो दोनों ही कठिन हैं, लेकिन उतने कठिन नहीं, जितना हम सोचते हैं। हम में से कोई ऐसा नहीं होगा जिसके जीवन में ऐसे कोई पल न आएँ हों जब हमने स्वयं को कठिनाइओं से घिरा पाया हो। यह ऐसे क्षण होंगें जब समाधान तो क्या दूर-दूर तक शांति भी दिखाई नहीं देती। स्वयं को जानने के, स्वयं को पहचानने के लिए ऐसे ही क्षण होते हैं । वैसे तो इंसान के लिए हर क्षण परीक्षा की घड़ी होती है लेकिन ऐसे क्षणों में ईश्वर उस high level की परीक्षा लेते हैं जिसे हम unannounced unit test की संज्ञा दे सकते हैं। परेशानियाँ मनुष्य के भीतर की शक्तियों को पहचानने के लिए ही आती हैं, मनुष्य को स्वयं के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए ही आती हैं। कठिनाईं के उन क्षणों का स्मरण आते ही हम स्वयं के बारे में जान पाते हैं कि कितनी कुशलता से उस स्थिति का सामना किया गया था। एक-एक क्षण भारी पड़ रहा था लेकिन हम उस स्थिति से बाहिर निकलने में सफल हो पाए थे। उस स्थिति का स्मरण आते ही आज शायद सिहरन अवश्य हो लेकिन उस समय तो हम एक एक कुशल योद्धा थे, एक ऐसा योद्धा जिसने अपने पराक्रम से वह युद्ध जीत लिया।

वास्तव में मुसीबतें एक शेर की तरह होती हैं, जिसकी पूँछ में समाधान लटका होता है. लेकिन हम शेर की दहाड़ से ही इतने आतंकित हो जाते हैं कि समाधान की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता।

अगर हम यह सोचें कि अगर हम जीवित हैं, तो उसके पीछे कुछ न कुछ कारण तो होगा ही क्योंकि Everything happens for a reason. यदि शेर ने हमें जीवित छोड़ दिया, तो निश्चित ही हमारे जीवन का कोई और उद्देश्य है। उस समय यदि हम शांति से उन परिस्थितियों को जानने का प्रयास करें, तो हम पाएँगे कि हमने उन क्षणों का साहस से मुकाबला किया।

यहीं से हमें प्राप्त होता है “आत्मबल” और शुरू होता है खुद को जानने का सिलसिला जिसे हम “आत्म परिचय” का नाम देते हैं।

हम स्मरण करें उन क्षणों के साहस को, हमने कितनी सूझबूझ का परिचय दिया था। आज भी यदि मुसीबतें हमारे सामने आईं हैं, तो यह जान लेना चाहिए कि वह हमें किसी परीक्षा के लिए तैयार करने के लिए आईं हैं। हमें उस परीक्षा से जूझना ही है यानि स्वयं की शक्ति को पहचान कर हमें आगे बढ़ना है क्योंकि जीवन आगे बढ़ने का नाम है, जीवन चलने का नाम है। बॉलीवुड की सुप्रसिद्ध फिल्म “शोर” का महेंद्र कपूर जी का गाया बहुचर्चित गीत जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबह शाम” इसी तथ्य को सार्थक करता है। यह बात हमेशा याद रखें कि जिसने परीक्षा में अधिक अंक लाएँ हैं, उन्हें और परीक्षाओं के लिए तैयार रहना है. जो फेल हो गए, उनके लिए कैसी परीक्षा और काहे की परीक्षा। याद रखें मेहनत का अंत केवल सफलता नहीं है, बल्कि सफलता के बाद एक और कड़ी मेहनत के लिए तैयार होना है, बस। आज के इस abrupt अल्पविराम के लिए क्षमाप्रार्थी हैं ,कल इसी के आगे का सत्संग करने का प्रयास करेंगें।

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