25 जनवरी 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज सप्ताह का तृतीय दिन बुधवार है, ब्रह्मवेला का दिव्य समय है जब ऊर्जा एवं स्फूर्ति अपने शिखर पर होती है। सोने पर सुहागा तो तब होता है जब दैनिक ज्ञानप्रसाद के अमृतपान से हमारी शक्ति अनेकों गुना बढ़ जाती है और हम परमसत्ता को बारम्बार नमन करते हुए धन्यवाद् करते हैं।आइए गुरुसत्ता के श्रीचरणों में बैठ कर दिव्य ज्ञानामृत का पयपान करें, सत्संग करें और अपने जीवन को उज्जवल बनाएं, सूर्य भगवान की प्रथम किरण की ऊर्जावान लालिमा के साथ दिन का शुभारम्भ करें,विश्वशांति के लिए प्रार्थना करें और सत्संग के पथ पर अग्रसर होते चलें।
“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
आज के ज्ञानप्रसाद का चयन भी शायद गुरुदेव के मार्गदर्शन में ही हुआ है क्योंकि 1990 की वसंत पंचमी अपनेआप में विलक्षणता लिए हुए थी। गुरुदेव 1990 के वर्ष को अपने जीवन का अंतिम वर्ष कह रहे हैं लेकिन दिव्य आत्माओं का कोई आदि और अंत नहीं होती, यह तो केवल एक अल्प-विराम ही होता है।
आने वाले कुछ दिनों के लिए चार ज्ञानप्रसाद लेख परिजनों की अनुभूतियाँ में परिवर्तित हो जायेंगें, इस शृंखला का ओपनिंग लेख कल प्रस्तुत किया जायेगा। 15 सहकर्मियों का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं जिन्होंने हमारे निवेदन को मानकर हमारा सम्मान बढ़ाया है। श्रृंखला आरम्भ करने से पहले ही संजना बेटी, अशोक जी और पूनम जी का धन्यवाद् किये बिना नहीं रह सकते क्योंकि एक ही परिवार के 3 सदस्यों का योगदान बहुत ही सराहनीय है। शुक्रवार को रिलीज़ हो रही वीडियो में हम एक बार फिर से विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी के प्रांगण में चलेंगें जहाँ सूर्योदय की लालिमा में श्रद्धेय डॉक्टर साहिब के सानिध्य में ध्यान का परम् सौभाग्य प्राप्त होगा।
तो प्रस्तुत है आज का ज्ञानप्रसाद
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वर्ष 1990 को परम पूज्य अपने जीवन का अंतिम वर्ष कहते हुए लिखते हैं कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों के कुछ विशिष्ट साधना सत्र हैं जिन्हे हम अपने बच्चों से करवाना चाहते हैं। 1990 की वसंत पंचमी 31 जनवरी को थी, इसी दिन से आरम्भ हुए 5 दिवसीय साधना सत्रों का इंतेज़ाम इतना विशाल था कि पर्यटकों के शांतिकुंज आने पर बिल्कुल रोक लगा दी गयी थी, उन्हें कहा गया था कि धर्मशाला आदि में ठहरने के बाद ही शांतिकुंज आने का सोचें। कुल 60 सत्र करवाए गए थे। आश्रम की परिधि और आगन्तुकों के लिए साधनों की तुलनात्मक दृष्टि से कमी होने के कारण शांतिकुंज के आश्रमवासी इस स्थिति से निपटने में जुट गये। भूमि न मिल सकी तो जितना स्थान उपलब्ध था उसे बहुमंजिला बनाया गया। लगभग सारा काम श्रमदान से हुआ और जितनों के लिए जगह थी उससे लगभग ढाई-तीन गुना के लिए जगह बना दी गई। भोजन व्यवस्था के लिए बड़े आधुनिक यंत्र-उपकरण नये सिरे से लगाये गये और ऊपरी मंजिल पर बने भोजनालय से नीचे खाद्य पदार्थ लाने के लिए एक गुड्स लिफ्ट को फिट किया गया। यह सारे प्रयास करने के बावजूद असुविधा की आशंका थी, लेकिन काम ठीक उसी प्रकार चल ही गया, जैसे ईश्वर पर आश्रित लोगों का चल जाया करता है।
इन सत्रों में साधना के माध्यम से दैवी चेतना का शिक्षण की दृष्टि से एक घंटे का प्रवचन ही पर्याप्त माना गया है। शेष समय में तो आत्मचिंतन और अंतराल का समुद्र-मंथन ही प्रधान कार्यक्रम था। पाँच दिन शांतिकुंज की परिधि में रहकर उसी प्रकार काटे गए जिस प्रकार गर्भस्थ भ्रूण माँ के पेट में ही निर्वाह करता है और जिस प्रकार भी भरण-पोषण अनुशासन निर्धारित रहता है,उसी के परिपालन में एकाग्र रहता है। रिसर्च के परिणामों का मूल्यांकन करने के लिए वैज्ञानिकों को अपनी प्रयोगशाला में, योगियों को ध्यान-साधना के लिए अपनी कुटी में और कायाकल्प-प्रक्रिया संपन्न करने वालों को एक छोटी कुटिया में रहना पड़ता है।साधकों की स्थिति लगभग वैसी ही रहेगी इसीलिए उन्हें वैसी ही मनोभूमि बनाकर आने के लिए कहा गया।
1990 का वसन्त आने से कई माह पूर्व आत्मीयजनों के हरिद्वार आने का ताँता लग गया। आगमन का उद्देश्य वह लाभ उठाना था जो किसी बड़े व्यवसायी के कारोबार में भागीदार बन जाने वालों को सहज ही मिलने लगता है। रहस्यों का पता लगाने का सहज कौतूहल भी इस उत्साह का निमित्त कारण हो सकता है। इस बीच इतने प्रज्ञापुत्रों का आगमन हुआ जितना कि इस आश्रम के निर्माण से लेकर अब तक के पूर्व वर्षों में कभी भी नहीं हुआ। इतनी बड़ी संख्या में परिजनों के आगमन से भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह रही कि जिज्ञासुओं ने आग्रहपूर्वक वह सब उगलवा लिया जो रहस्यमय समझा जाता था और गुप्त रखा गया था। महत्वपूर्ण अवसर पर सहज सौम्यता इसके लिए बाधित भी तो करती ही हैं कि चलते समय तो गोपनीयता का समाधान कर ही दिया जाय। सो कुशलक्षेम सहज आतिथ्य के अतिरिक्त ऐसा भी बहुत कुछ पूछा एवं बताया गया जिनका थोड़े से दूर रहने वालों को अनुभव भी नहीं था । जो आने में असमर्थ रहे उन्हें भी उन रहस्यमयी चर्चाओं की जानकारी प्राप्त करने से वंचित न रहना पड़े, यह विचार करते हुए आवश्यक रहस्यों का इन पंक्तियों में लिपिबद्ध कर देना उचित समझा गया ताकि उपयोगी जानकारी से वे लोग भी वंचित न रहें जो अब तक न सही अगले दिनों संपर्क में आयेंगें और अतीत के संबंध में उपयोगी जानकारी प्राप्त करने के लिए उत्सुक होंगे।
अनुमान सभी को यही था कि गुरुदेव की सभी महत्वपूर्ण गतिविधियों का प्रथम दिन अक्सर वसंत पंचमी ही रहा है, इसलिए उसी प्रथा को विशेष महत्व देने वाले आगन्तुकों की संख्या निश्चय ही पहले दिनों की अपेक्षा निश्चित रूप से अधिक रहेगी। हुआ भी ठीक ऐसा ही । मिशन के साथ जुड़े हुए परिजन इस वसन्त पर्व पर इतनी अधिक संख्या में आये जितने कि विगत दस वर्षों में कुल मिलाकर भी नहीं आये थे।
“सुनना अधिक और कहना कम” एवं “करना अधिक और बताना कम” जिनकी जीवन शैली रही हो, वे इतने गंभीर प्रसंगों को इतनी सरलतापूर्वक बता देंगे इस स्थिति का प्रावधान पाकर आगन्तुकों में से अधिकांश को भारी संतोष हुआ। प्रश्नों की, जिज्ञासाओं की झड़ी लगी रही। इतनों को एक व्यक्ति इतना कुछ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से बता सकता हैं, यह प्रसंग भी अपनेआप में अद्भुत रहा।
अधिकांश जिज्ञासुओं की जिज्ञासा
अधिकांश जिज्ञासुओं ने प्रधान रूप से एक जिज्ञासा प्रकट की एक साधनरहित एकाकी व्यक्ति सीमित समय में इतने भारी और इतने व्यापक काम कैसे कर सकता है, इसका क्या रहस्य है? पूछने वालों ने जो कानों से सुनी और आँखों से देखी थीं उनका तो सभी को पता था लेकिन मूल प्रश्न था:
युगचेतना उभारने वाला इतना विशाल साहित्य कैसे सृजा गया? उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन प्रसार कैसे सम्पन्न हुआ? इतना बड़ा परिवार कैसे संगठित हो गया, जिसमें पाँच लाख पंजीकृत और इससे पाँच गुना अधिक सामयिक स्तर पर सम्मिलित उच्चस्तरीय व्यक्तियों का समुदाय किस प्रकार जुड़ता चला गया और साथ चलता रहा? एक व्यक्ति के तत्त्वावधान में 2400 आश्रम – देवालय कैसे बन सके ? युगतीर्थ शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान,तपोभूमि मथुरा, जन्म भूमि आंवलखेड़ा एवं शक्तिपीठ आंवलखेड़ा जैसे बहुमुखी सेवा कार्य में संलग्न संरचनाओं का इतने छोटे से जीवन काल में कैसे निर्माण हो पाया ? (यह numbers 1990 के हैं, इस लेख के प्रकाशन के समय,2023 में यह कहीं अधिक हैं) सुधारात्मक और सृजनात्मक आन्दोलन की देशव्यापी, विश्व-व्यापी व्यवस्था कैसे बन गई? “रोता आये हँसता जाये” वाला उपक्रम अनवरत रूप से कैसे चलता रहा? आदि-आदि ऐसे विदित अनगनित क्रिया-कलाप इन अस्सी वर्षों में घटित हुए हैं जिनकी इतने सुचारु रूप से चलने की सूत्र संचालक जैसे एक नगण्य एवं साधारण से व्यक्तित्व से आशा की नहीं जा सकती कर भी वे कैसे सम्पन्न होते चले गए? जड़ी बूटी चिकित्सा पर आधारित आयुर्वेद की नयी सिरे से शोध कैसे बन पड़ी व मनोरोगों के निवारण और मनोबल के संवर्द्धन की ब्रह्मवर्चस प्रक्रिया कैसे चलती रही? सात पत्रिकाओं का सम्पादन एकाकी प्रयास से कैसे चल पड़ा? लाखों शिक्षार्थी हर वर्ष प्रशिक्षण पाने से किस प्रकार लाभान्वित होते रहे? सृजनात्मक आन्दोलनों को इतनी गति कैसे मिल सकी जितनी कि अनेकानेक संगठन और समुदाय भी नहीं उपलब्ध कर सके ?
जिन परिजनों ने यह सभी प्रत्यक्षदर्शी कृत्य अंकुरित,पल्लवित और फलित होते देखे थे , उनका समाधान एक ही उत्तर से हुआ कि “सर्वशक्तिमान सत्ता की इच्छा और प्रेरणा के अनुरूप अपने व्यक्तित्व, कर्तृत्व, मानस और श्रम को समर्पित कर सकने वालों के लिए ऐसा कुछ बन पड़ना तनिक भी कठिन नहीं हैं।” एक छोटी सी चिंगारी के ईंधन के अम्बार से मिल जाने पर प्रचण्ड अग्निकाण्ड बन सकता है। पारस को छूकर अगर लोहा सोना बन सकता है तो फिर भगवान के साथ जुड़ने वालों की स्थिति भगवान जैसी क्यों नहीं हो सकती।यह सब कुछ मात्र कठपुतली के खेल की तरह होता रहा। मनोरंजन तो लकड़ी की कठपुतली ही करती रही लेकिन श्रेय तो पर्दे के पीछे बैठे बाजीगर की उँगलियों को ही मिलेगा जो उन्हें नचाती हैं ।
बहुतों का समाधान तो हो गया लेकिन हज़ारों जिज्ञासु सन्देह ही प्रकट करते रहे और पूछते रहे कि जब लाखों की संख्या में गिने जा सकने वाले भगवद् भक्त गई गुज़री उपहासास्पद, अवांछनीयताओं के बीच ही जीवन व्यतीत करते हैं तब एक व्यक्ति ने ऐसा क्या कर दिया जिसमें भगवान के अनुदान नरसी मेहता के हुण्डी बरसने तथा हनुमान, अर्जुन जैसे किन्हीं बिरलों को भगवत् सखा होने के रूप में मिलें। संदेह सही भी था लेकिन जो उत्तर दिया गया वह भी कम समाधानकारक नहीं था।
पात्रता के अनुरूप उपलब्धियों का हस्तगत होना एक ऐसी वास्तविकता है जिसे हर कहीं चरितार्थ होते देखा जा सकता हैं। खोटे सिक्के ही सर्वत्र ठुकराये जाते हैं। खरे सोने की कीमत तो कहीं भी उठाई जा सकती हैं। भगवान से जो अपना स्वार्थ साधना चाहता है उस प्रपंची, पाखण्डी को सदैव भगवान को उलाहना देने और निरंकुश कहते रहने की शिकायत रहती है।
अप्रैल 1990 की अखंड ज्योति में गुरुदेव लिखते हैं कि लम्बी मंजिल लगातार चल कर पार नहीं की जाती। बीच में सुस्ताने के लिए विराम भी देना पड़ता है। रेलगाड़ी जंक्शन पर खड़ी होती हैं। पुराने मुसाफिर उतारे जाते हैं और नये चढ़ाये जाते हैं। ईंधन भरने और सफाई करने की भी आवश्यकता तो पड़ती हैं। Financial year समाप्त होने पर गुज़रे वर्ष का हिसाब- किताब जाँचा जाता है और नया बजट बनता हैं। भ्रूण माता के गर्भ में रहकर अंग प्रत्यंगों को इस योग्य बना लेता है कि आने वाले जीवन में काम में लगाया जा सके। किसान हर वर्ष नई फसल बोने और काटने का क्रम जारी रखता है लेकिन भूमि को भी कुछ समय के लिए फसल के बिना आराम दिया जाता है। कोई भी कृत्य लगातार नहीं होते, सभी के बीच में विराम के क्रम भी चलते रहते हैं। फौजियों की टुकड़ी भी कूच के समय में बीच-बीच में सुस्ताती हैं।
ब्रह्मकमल की एक फुलवारी 80 वर्ष तक हर वर्ष एक नया पुष्प खिलाने की तरह अपनी मंजिल का एक विराम निर्धारण पूरा कर चुकी । अब नयी योजना के अनुरूप नयी शक्ति संग्रह करके “नया प्रयास” आरम्भ किया जाना है। जिस प्रकार वयोवृद्ध शरीर को त्याग कर नये शिशु का नया जन्म होता है और उसे नये नाम से सम्बोधन किया जाता है, नवसृजन की सन्धिवेला में भी लगभग ऐसा ही हो रहा है।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 8 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है।अरुण जी गोल्ड मैडल विजेता हैं जिसके लिए उन्हें बधाई और उन सभी का धन्यवाद् जिन्होंने गोल्ड मैडल दिलवाने और सभी को संकल्प पूर्ण करने में सहायता की।
(1)संध्या कुमार-30 ,(2 ) रेणु श्रीवास्तव-37,(3 ) विदुषी बंता-30,(4 ) सुजाता उपाध्याय-28,(5)अरुण वर्मा-50,(6)सरविन्द पाल-28,(7)वंदना कुमार -32,(8) प्रेरणा कुमारी-24