वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

एक ही समय पर अनेकों स्थानों पर प्रकट हुए गुरुदेव 

पाठकों से निवेदन है कि इस लेख को पढ़ने से पहले इस विषय पर पूर्व प्रकाशित तीन लेख अवश्य पढ़ लें ताकि पूर्ण लिंक बन सके। पूर्व प्रकाशित लेखों को पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट यां Internet archive

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कुछ विशेष जानकारी :

गुरुदेव की अफ्रीका यात्रा के उद्देश्य के बारे में हमने इस लेख श्रृंखला के  प्रथम लेख  में लिखा था, उन्ही पंक्तियों को एक बार फिर से दोहरा रहे हैं :

“चेतना की शिखर यात्रा” में ऐसा वर्णन भी मिलता है कि गुरुदेव ने अफ्रीका यात्रा में 14 स्थानों में से अमृतमंथन कर 14 रत्न निकाले जिन्होंने गायत्री परिवार को न सिर्फ अफ्रीका बल्कि UK,USA ,CANADA आदि देशों में ले जाने का काम किया । राम टाक जी के छोटे भाई पूर्ण टाक जी ने 28 अप्रैल 2020 को whatsapp मैसेज में हमें बताया था : ” मुझे आज भी याद है – गुरुदेव का अफ्रीका प्रवास public speeches देने का नहीं था बल्कि कुछ ऐसी आत्माओं के साथ सम्पर्क स्थापित करना था जो अफ्रीका में ही नहीं Canada , USA , UK और दूसरे देशों में भी गायत्री परिवार को लेकर जाएँ “

हमने इस बात को टेस्ट करने के लिए कि गुरुदेव के निर्देश का कितना पालन हुआ है, कुछ ऑनलाइन रिसर्च की। इस रिसर्च के अनुसार वर्तमान में  अफ्रीका में तो गायत्री परिवार का व्यापक प्रसार हो चुका है। केन्या की राजधानी नैरोबी में  एक Full- Fledged Kenya Brahma Samaj  के नाम से भवन बन चुका है जिसमें बहुत ही उच्कोटि  का कार्य सम्पन्न हो रहा है।

शशिकांत  रावल जी जिनका जब भी अफ्रीका की बात आएगी, इस समाज के मेंबर हैं। अपने पाठकों को स्मरण करा दें कि यह शशिकांत जी वही हैं जिन्हें गुरुदेव ने गायत्री माँ का स्वर्ण यंत्र भेंट किया था। मोम्बासा  में गायत्री मंदिर की स्थापना की भी जानकारी मिलती है, अभी कुछ वर्ष पूर्व ही आदरणीय चिन्मय पंड्या जी इस मंदिर में परिजनों को उद्बोधन दे चुके हैं।

इस मंदिर के द्वार “गायत्री द्वार” का उद्घाटन भारतमाता मंदिर के आदरणीय स्वर्गीय सत्यमित्रानंद गिरिजी  जी के कर कमलों से हुआ था।

इसी प्रकार  UK में All world Gayatri Pariwar UK के नाम से 9 स्थानों पर गायत्री परिवार सक्रीय हैं। इन सभी शाखाओं की जानकारी इस लिंक  से मिल सकती है। यह सभी केंद्र ईस्ट अफ्रीका से बाहिर  गए कार्यकर्ताओं  द्वारा, गुरुदेव के आह्वान पर, गुरुदेव की यात्रा के बाद ही स्थापित हो पाए हैं।

जानकारी इतनी अधिक, विशाल और विस्तृत है  कि सभी का विवरण असंभव तो नहीं है लेकिन कठिन अवश्य  है। हरिद्वार स्थित शांतिकुंज से संपर्क  करके बहुत सी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। हमारे पास भी कुछ जानकारी है, पाठक हमसे भी सम्पर्क कर सकते हैं

 तो आइये  गुरुदेव की अफ्रीका यात्रा को आगे बढ़ाएं 

केन्या की राजधानी नैरोबी में गुरुदेव विद्या परिहार के निवास पर रुके। जोधपुर से वर्षों पहले नैरोबी जा कर बसे इस परिवार ने उस ज़माने  में प्रवासी भारतीयों और मूल अफ्रीकी लोगों को गायत्री मंत्र, उपासना और गुरुदेव के मिशन के बारे में काफी कुछ बताया, प्रशिक्षित किया था। गायत्री तपोभूमि की स्थापना और उससे भी पहले गायत्री परिवार से जुड़े इस परिवार की आस्था थी कि गुरुदेव के आशीर्वाद उनके जीवन में फलीभूत हुए है। विद्या तब दस बारह साल की रही होंगी। भाई राम टांक चतुर एवं व्यावसायिक बुद्धि के थे।

परिवार के अन्य सदस्यों ने 1956  के सहस्रकुंडीय महायज्ञ में सक्रिय हिस्सा लिया था। केन्या के परिजनों का मानना था कि इसी परिवार ने गुरुदेव से नैरोबी आने और यहां के परिजनों को दिशा दर्शन देने का अनुरोध किया था। गुरुदेव जितने भी समय नैरोबी रहे, वहां के परिजनों में प्रत्यक्ष रूप से आने वाले बदलावों के बारे में बताते रहे। उस समय के अधिकांश परिजन अब पूर्वी अफ्रीका से निकल कर दूसरे देशों में बस चुके हैं।

1973  में गुरुदेव की यात्रा के बारे में अब भी लोगों को कई बातें याद हैं। विद्या परिहार के घर में तब Poly नाम का एक तोता हुआ करता था। घर में कोई भी आता तो वह गायत्री मंत्र बोल कर उसका स्वागत करता। गुरुदेव ने उस परिवार में कदम रखा तो तोते ने उनका भी गायत्री मंत्र बोल कर स्वागत किया। गुरुदेव ने उस तोते की ओर स्नेह से देखा। किसी ने उस समय कहा, ‘मंडन मिश्र के घर पर भी वहां के तोते वेदमंत्रों का उच्चारण करते थे ।’

गुरुदेव ने कहा कि इस तोते के पाठ से परिवार में गायत्री के वातावरण का पता चलता है लेकिन तोते की तरह पाठ करने से साधक को कोई लाभ नहीं होता, उसके लिए तो उपयोगी यही है कि गायत्री उपासना के साथ साधना भी करें। उपासना बीज है तो साधना कृषि कर्म । बिना कृषि कर्म के खेत की तैयारी जुताई, बुआई और निराई के बीज का कोई महत्व नहीं है।

विद्या परिहार के निवास पर गुरुदेव की उपस्थिति में 3-4  बार नैरोबी के परिजनों का जमावड़ा लग जाता। मनुष्य, धर्म, समाज, संस्कृति और घर परिवार के साथ देश काल की चर्चाएं भी होती। दो गोष्ठियां संपन्न होने के बाद स्थानीय परिजन रोज़  चक्कर लगा जाते। गुरुदेव बाहरी कार्यक्रमों के बाद जो समय बचता उसे पूर्वी अफ्रीका और आसपास के देशों में निवास कर रहे परिजनों से संपर्क में भी लगाते। उनकी प्रेरणा होती थी कि अपने धर्म और संस्कृति की सेवा करते हुए जिस देश में निवास कर रहे हैं, वहां के राष्ट्रीय हितों की चिंता करना आप सबका प्रथम कर्तव्य है ।

मोशी में गुरुदेव ने तीन दिन एकांत साधना की   

मोंबासा के रास्ते मोशी कस्बे में गुरुदेव कुछ समय रुके। अदृष्ट घटनाओं में एक का उल्लेख यहाँ के बारे में मिलता है। गुरुदेव के साथ गए कार्यकर्त्ता आत्मयोगी बताया करते थे कि हम लोग तीन दिन मोशी में रहे। वहां गुरुदेव ने परिजनों से मिलने जुलने का सिलसिला ही शुरू नहीं किया। अधिकतर  समय वे एक कमरे में बंद रहे। आत्मयोगी और मेज़बान  परिवार के लोगों से कह दिया गया कि चौबीस घंटे तक उनके कक्ष की ओर नहीं आया जाए। आहार, जल और जरूरी चीज़ें  पहुंचाने की फिक्र भी न की जाए। गुरुदेव के निर्देशों का पूरी तत्परता से ध्यान रखा गया। परिवार का कोई बच्चा गलती से भी उधर न चला जाए अथवा वहां आते रहने वाले मित्र-परिचित भूल से भी दरवाजा न खटखटा दें, इसके लिए सावधान रहते हुए आत्मयोगी ने गुरुदेव के कक्ष के सामने ही डेरा जमा लिया था। परिवार के सभी लोग निश्चिंत होकर अपनी दिनचर्या के निर्धारित काम करते रहे। उन्होंने मान लिया कि गुरुदेव जैसे यहां आए ही नहीं हैं।

इस एकांत सेवन के दौरान किलिमंजारो, तिक और मरसाबित  कस्बों  में विचित्र घटनाएं हुईं। तीनों कस्बे केन्या में हैं और परस्पर 150  से 200  किलोमीटर दूर हैं। मोशी  समेत चारों कस्बों की दूरी का हिसाब लगाएं तो 800-1000  किलोमीटर की दूरी बनती है । किलिमंजारो पर्वत भी है और हिल स्टेशन भी । समुद्रतल से करीब 6000  फीट ऊँचाई पर स्थित इस कस्बे में एक परिजन रहते थे विक्रम देसाई । दो वर्ष  पूर्व  भारत जाना हुआ था तब मथुरा भी गए। उन दिनों गुरुदेव के मथुरा छोड़कर हिमालय क्षेत्र में जाने की तैयारियां चल रही थीं।

विक्रम भाई का उन्हीं दिनों विवाह हुआ था और विदाई वर्ष में ही वे पत्नी सहित चार दिन के परामर्श शिविर में भी हो आए थे। मथुरा में गुरुदेव के सान्निध्य में पति पत्नी इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने अपनी भावी संतान का नामकरण गुरुदेव से ही कराने का संकल्प कर लिया। जून 1971  में हिमालय जाने के बाद गुरुदेव का क्या  कार्यक्रम रहेगा, वे वापस आएंगे भी या नहीं अथवा आएंगे तो लोगों से मिलना जुलना हो सकेगा या नहीं, यह किसी को पता नहीं था। स्वयं गुरुदेव को भी नहीं। उनसे कोई पूछता तो अपने गुरुदेव और परिजनों के दादागुरु द्वारा मिले निर्देशों के अनुसार वे उत्तर दे देते। जो उत्तर देते उसके अनुसार भविष्य में किसी से भी प्रत्यक्ष संपर्क होना मुमकिन नहीं था। मिल पाएंगे या नहीं , इस बारे में गुरुदेव स्वयं भी निश्चिंत नहीं थे। मथुरा के परामर्श सत्र में विक्रम भाई को पता चला तो उन्हें निराशा हुई कि उनकी कामना पूरी न हो सकेगी। वे मन मसोस कर रह गए।

अब 1972  में गुरुदेव के अफ्रीकी देशों की यात्रा का कार्यक्रम बना तो विक्रम भाई को अपनी मुराद पूरी होती दिखाई दी। लेकिन वह भी जल्दी ही  क्षीण हो गई क्योंकि  गुरुदेव को मोंबासा नहीं उतरने दिया गया था। रास्ते में हुई देरी के कारण कुछ कार्यक्रम स्थगित करना पड़े थे। इन कार्यक्रमों में ही एक जगह विक्रम भाई ने गुरुदेव से मिलने की योजना बनाई थी। अब गुरुदेव उस जगह पहुंच ही नहीं रहे थे तो विक्रम भाई का निराश होना स्वाभाविक था । लेकिन जिस दिन की यह घटना है उस दिन शायद कोई  रविवार था। इस दिन की पिछली शाम से विक्रम भाई और उनकी पत्नी रत्ना देसाई के मन में हर्ष हिलोरें फूट रही थीं। कोई कारण समझ नहीं आ रहा था फिर भी मन था कि बावरा हुआ जा रहा था जैसे घर में कोई प्रिय परिजन अत्यंत निकटवर्ती सदस्य आने वाला हो । रात इसी हर्ष उल्लास में ठीक से नींद नहीं आई। रत्ना ने दो बार उठकर पति को जगाया और कहा, ऐसा लगता है जैसे गुरुदेव हमारे यहाँ पधारे हैं और यहीं ठहरे हैं। विक्रम को भी कुछ अचीन्ही संभावना तो महसूस हो रही थी लेकिन यह विचार जम नही रहा था कि गुरुदेव आने वाले हैं। कोई सूचना नहीं थी और घर आने के बारे में सपने में भी नहीं सोचा जा सकता था । रत्ना से कह दिया कि चुपचाप सो जाओ। किसी और से मत कह देना यह बात । हंसी होगी। रत्ना ने दूसरी बार फिर यही बात दोहराई तो विक्रम ने खीझ कर चुप रहने और सो जाने के लिए कहा ।

उस समय तो बात आई गई हो गई लेकिन अगले दिन रविवार को पति पत्नी दोनों स्नान संध्या से निपट कर हवन करने बैठे। विक्रम और रत्ना दोनों ब्रह्म संध्या तथा गायत्री जप तो अलग-अलग करते थे लेकिन रविवार के दिन गायत्री यज्ञ एक साथ किया करते थे। उस दिन पड़ौस से विश्वरंजन भाई का परिवार भी आ जाता था। चार पांच लोग हो जाते और 40 -50  मिनट का यह आयोजन आत्मीयता और दिव्य भावों के मिले जुले माहौल में हो जाता। उस दिन इन 5-6  व्यक्तियों के साथ एक वयोवृद्ध सज्जन भी उपस्थित हुए। धोती कुर्ता और जाकिट पहने इन सज्जन के सिर पर श्वेत केश राशि थी। वे कब घर के भीतर आए किसी को पता नहीं चला, रत्ना और विक्रम को प्रतिपल लगता रहा कि उन्होंने द्वार  पर आहट सुनी थी और दोनों ने दरवाजे खोल दिए। आते ही उन सज्जन ने यज्ञ में समिल्लित  होने की इच्छा जताई  जिसे देसाई दंपत्ति ने तुरंत मान लिया फिर ऐसा कुछ वातावरण बना कि उस दिन के यज्ञ आयोजन का पौरोहित्य ही उन “अपरिचित आगन्तुक” के हाथों होने लगा। यज्ञ पूर्णाहुति से पहले उन सज्जन ने कहा 

“अब अपने बच्चे को लाइए। उसका नामकरण करेंगे।”

ऐसा सुनना था कि देसाई दंपत्ति की तंद्रा टूटी। अभी तक वे जैसे किसी अज्ञात शक्ति के वशीभूत से ही यज्ञ हवन करा रहे थे । “नामकरण” की बात सुनकर उनकी बेहोशी टूटी और वे चैतन्य हो उठे। सामने बैठे, यज्ञ संपन्न करा रहे व्यक्तित्व की ओर देखा, दोनों के मुंह से बरबस निकला “गुरुदेव आप”। इन दो शब्दों  के अलावा उनके मुंह से तीसरा शब्द नहीं निकला। नज़रें बदली तो नज़ारा  ही बदल गया। बच्चे का नामकरण गौण हो गया और गुरुदेव के अर्चन आराधन पर ही दोनों का ध्यान केन्द्रित हो गया । विश्वरंजन बाबू को कुछ समझ नहीं आ रहा था। विक्रम भाई ने कहा, “अरे ये हमारे गुरुदेव हैं। हम और  आप पर कृपा करते हुए यहां प्रकट हुए हैं।” विश्वरंजन को ध्यान आया कि कभी यज्ञ और पूजा पाठ के समय जब कभी वे यहां आते रहे हैं और जो चित्र  दिखाई देता,उसमें और उपस्थित महात्मा में रत्ती भर अंतर नहीं है। उन्होंने भी उठकर प्रणाम किया। बाद में विश्वरंजन बाबू ने हैरानी भी जताई कि फोटो में छवि देखते रहने के बावजूद वे गुरुदेव को पहचान नहीं सके।  विक्रम भाई ने भी आश्चर्य जताया।

एक अचंभा और भी हुआ। देसाई दंपत्ति और विश्वरंजन ने मिलकर पूर्णाहुति की और समापन होने लगा तो एक-एक, दो-दो कर 15-20  लोग और वहां आ गए। ये सब पास पड़ौस से ही थे । घर पर यज्ञ आयोजन कई बार हुए हैं लेकिन आने वालों की संख्या  तीन चार लोगों से अधिक  नहीं रही। इस बार तीन चार गुना लोग आए। उन्हें गायत्री और यज्ञ के सम्बन्ध  में गुरुदेव का उद्बोधन भी सुनने को मिला। 

 “प्रवासी संस्कृति का संकट और समाधान” सेमीनार में गुरुदेव की अद्भुत उपस्थिति 

रविवार को किलिमंजारो में एक परिवार में यह छोटा सा उत्सव हो रहा था, ठीक उसी समय 10:30  बजे मरसाबित  कस्बे के एक सभागार में  150-200 लोग किसी सेमीनार में  जुटे हुए थे। अधिकतर लोग उस क्षेत्र के प्रसिद्ध लेखक, साहित्य और विज्ञान से  सम्बंधित  थे। इनमें विज्ञान और दर्शन शास्त्र पढ़ रहे विद्यार्थी भी थे। मरसाबित  केन्या के पूर्वी हिस्से में बसा शहर है। अब तो यह नामी ज़िला  बन गया है और उस क्षेत्र के उद्योग व्यापार का केन्द्र भी है। केन्द्र तब भी था लेकिन यहां के प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता था । पर्यटकों की संख्या  तब भी यहाँ खूब थी। धर्म परंपरा अनुसार यहां ईसाइयों की संख्या अधिक  है। लगभग 40   प्रतिशत। उसके बाद इस्लाम में यकीन रखने वालों की बारी आती है, करीब 32  प्रतिशत, 28 प्रतिशत लोग स्थानीय आदिवासी परंपराओं और पूजा विधियों को मानते हैं । कस्बा एक सुप्त ( सोये हुए) ज्वालामुखी पर बसा हुआ है। धर्मगुरु लोगों को उपदेश देते डराते रहे हैं कि इस शहर की पहाड़ी से किसी भी वक्त गरम-गरम लावा और आग के गोले फूट पड़ सकते हैं। ईश्वर के कोप के कारण ऐसा होगा और  उससे बचने के लिए तुम्हे  हमारे धर्म की शरण में आना चाहिए। किसी ज़माने  में इलाके की पूरी आबादी स्थानीय देवी देवताओं और रीति रिवाजों को मानती थी। बाद में पहुंचे धर्म प्रचारकों ने उनमें से कई को अपने मत में दीक्षित किया। शिक्षा का प्रचार हुआ तो भी कई लोग आदिवासी और स्थानीय विश्वास छोड़कर संगठित व्यवस्थित धर्मों को अपनाने लगे। 

जिस आयोजन का संदर्भ ऊपर की पंक्तियों में आया है, वह इलाके में बदल रहे धर्म विश्वासों के अनुपात और उसके प्रभाव पर ही था। चर्चा का विषय था ‘प्रवासी संस्कृति का संकट और समाधान’। आयोजकों ने इस कार्यक्रम में गुरुदेव को भी आमंत्रित किया था। गुरुदेव की अफ्रीका यात्रा के बहुत से महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में एक यह भी था। जिन कारणों से मोम्बासा  पहुंचने और पहले से निर्धारित कार्यक्रमों में फेरबदल करना पड़ा, उसमें मरसाबित भी एक था। मरसाबित  की कुछ संस्थाओं ने तो गुरुदेव के न आने पर  दुष्प्रचार भी शुरु कर दिया। उनका कहना था कि मोम्बासा  न उतरने देने का कारण तो  एक बहाना ही  है। गुरुदेव खुद इस कार्यक्रम में नहीं आना चाहते थे क्योंकि  उनके पास अपने मत और विश्वास के बचाव में कोई दलील हैं ही नहीं।  इस प्रचार के लिए 10-12  दिन का समय मिल गया था। जिस दिन यह कार्यक्रम होना था उस दिन गुरुदेव करीब 700  किलोमीटर दूर मोशी  में थे और वहां से इतनी जल्दी मरसाबित  पहुँचने  का कोई साधन ही  नहीं था रविवार ही किलिमंजारो में विक्रम देसाई परिवार में यज्ञ हो रहा था और रविवार को ही मरसाबित  के सेंट्रल आडिटोरियम में विज्ञान और साहित्य के अध्यापकों, विद्वानों के साथ यह सेमिनार हो रहा था। संयोजक संचालक प्रो. इसरार ने कहना शुरु किया:  मित्रों, सभा की कारवाई शुरु की जाए। दो तीन को छोड़कर सभी विद्वान आ गए है। कुछ आ नही सके और कुछ ने न आने के लिए बहाना तलाश लिया ( शायद वह गुरुदेव के बारे में ही कह रहे थे )। जब  प्रो. इसरार ऐसा  कह ही रहे थे कि सभागार   द्वार पर कुछ चहल-पहल दिखाई दी। कोई विद्वान अतिथि आते प्रतीत हो रहे थे। उनके साथ चल रहे साथी सहयोगी कुछ वचनों और उद्घोषों का उच्चारण करते चल रहे थे। लोगों का वह समूह जब मंच के पास आ गया तो प्रो. इसरार ने आगंतुक विद्वान को पहचाना और कहा मित्रों हमें गलत सूचना मिली थी । आचार्य श्री हम लोगों के बीच आ चुके हैं। उस गोष्ठी में प्रवासी लोगों के कारण स्थानीय संस्कृति और रिवाजों पर आ रहे संकटों के बारे में चर्चा होनी थी। शुरू में दो वक्ताओं ने इस विषय पर अपनी बात रखी लेकिन तीसरे और चौथे क्रम में ईसाई, इस्लाम, सिख तथा जैन धर्म के विद्वान अपने अपने मतों का पुरजोर समर्थन करते हुए उन्हें ही स्थापित करने पर जोर देने लगे। स्थिति अपने मत की पुष्टि के साथ दूसरों के मत का खंडन और फिर निंदा की दिशा में बढ़ने लगी। गुरुदेव को नौवें क्रम पर बोलना था । उन्होंने अपना परिचय एक ऐसी धारा और परंपरा का अनुयायी “विद्यार्थी” होने के रूप में दिया जिसकी सैंकड़ों शाखाएं हैं और उनमें कोई भी व्यक्ति या समूह अपने लिए एक उपयुक्त शाखा चुन सकता है। चुनने का अर्थ उस धर्म परंपरा में दीक्षित होना नहीं, बल्कि अपने विश्वासों को उसके प्रकाश में समझना है।

गुरुदेव ने सूर्य विज्ञान के प्रयोग किये 

गुरुदेव ने इस गोष्ठी में सूर्य विज्ञान के कुछ प्रयोग बताए । उन प्रयोगों के आधार पर फूल खिलाए जा सकते हैं, संपदा प्रकट की जा सकती है और शून्य में से मनचाही वस्तुएं प्रकट की जा सकती हैं। उन्होंने दो तीन प्रयोग करके भी दिखाए। एक प्रयोग में प्रो. इसरार की चुनी हुई कुर्सी का पाया लकड़ी से लोहे में बदलकर दिखाया। चारों तरफ से बंद सभागार में तेज धूप को अपने इशारों से उतारकर दिखाया जैसे सूर्य की किरणों ने छत और दीवार की बाधाएं पार कर ली हों ।

सभागार में ही बैठे एक लकवाग्रस्त व्यक्ति को उन्होंने अपनी जगह से बिना सहारे उठाकर खड़ा कर दिया और कुछ कदम चलाया भी। इन प्रदर्शनों के बाद कहा कि ये प्रयोग प्रतीकात्मक हैं, यों न समझें कि मेस्मेरिस्म  के कारण ये दृश्य दिखाई दिए। सविता देवता की, सूर्य नारायण की शक्ति का भलीभांति उपयोग किया जा सके तो आज की दुनिया में हम जितनी सफलताएं और उपलधियां हासिल कर इतराते हैं, उन सबसे हजार गुना चमत्कार किए जा सकते हैं।

गुरुदेव के कुछ प्रयोग प्रदर्शन और प्रतिपादन के बाद आयोजन वहीं पूरा हो गया। उनके बाद तीन वक्ताओं को और बोलना था। उन्होंने अपने नाम वापस ले लिए और गुरुदेव से सविता विज्ञान पढ़ने की मंशा व्यक्त की। सभा संपन्न हुई। आयोजक और गोष्ठी में उपस्थित कुछ लोग गुरुदेव को बाहर छोड़ने गए। सभागार की सीढ़ियां उतरते तक तो लोगों ने उन्हें देखा। इसके बाद गुरुदेव किस वाहन पर बैठे, किस दिशा में गए, किसी को पता नहीं चला। 

ये घटनाएं पूर्वी अफ्रीका यात्रा की कुछ बानगियां (Hallmarks ) हैं। उस यात्रा के जितने विवरण मिलते हैं, उन्हें ध्यान में रखें तो एक ही समय अलग-अलग जगह अपने प्रेमियों और श्रद्धालुओं से संपर्क की सैंकड़ों घटनाएं हैं।

समापन

 

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