चेतना की शिखर यात्रा 3 एवं अनेकों स्रोत

परम पूज्य गुरुदेव की अफ्रीका देशों की यात्रा का विवरण आरम्भ करने से पूर्व एक बात स्पष्ट करना बहुत ही आवश्यक है। आगे आने वाले पन्नों में जिस जहाज़ का नाम “मिरियांबो” बताया गया है, हमने जिज्ञासावश गूगल से extensive रिसर्च की। जब हमें गूगल से यही रिप्लाई मिला “ Your search – मिरियांबो – did not match any documents” तो जैसे अक्सर होता आया है गुरुदेव ने अपना अनुदान भरा हाथ हमारे शीश पर रख दिया। हमें 2015 का एक लिंक मिल गया जो हमने नीचे दिया हुआ है। यह एक वेबपेज है और लेखक का जन्म “एस एस करंजा” नामक जहाज़ पर ही हुआ था। हमारा माथा ठनका कि कहीं यही जहाज़ तो नहीं जिससे गुरुदेव ने इन देशों की यात्रा की थी। वैसे तो ऐसी परिस्थिति में (जहाँ तथ्य उपलब्ध ने हों) कुछ भी विश्वास से कहना कठिन है लेकिन हमारा अंदेशा
ठीक ही लगता है क्योंकि उस समय भारत और अफ्रीकी देशों का कनेक्शन यही जहाज़ था। अगले पैराग्राफ में यह बात certify होती दिख रही है। पाठकों से निवेदन है कि अगर इस सम्बन्ध में किसी के पास कोई पुख्ता जानकारी हो तो हमें बताए ताकि हम संशोधन कर सकें।
एक और बात, जो केवल हमारे व्यक्तिगत विचार हैं कि परम पूज्य गुरुदेव अवश्य ही तृतीय श्रेणी में गए होंगें; जिन्होंने कभी रेलयात्रा थर्ड क्लास के इलावा किसी और क्लास में नहीं की, वह जहाज़ में भी वैसे ही जायेंगें। पूज्यवर हवाई यात्रा भी कर सकते थे जो केवल 5-6 घंटे की है और आरामदायक भी, लेकिन उन्होंने 15-20 दिन की कठिन समुद्री यात्रा का चयन किया क्योंकि वह एक औसत भारतीय का जीवन व्यतीत करते थे।
तो अब आरम्भ करते हैं यात्रा का विवरण
1948 में लॉन्च किया गया समुद्री जहाज़ “एस एस करंजा” भारत और केन्या के बीच सबसे महत्वपूर्ण कनेक्शनों में से एक है। इसे ब्रिटिश इंडिया लाइन का गौरव प्राप्त है और इसने लगभग तीन दशकों तक इस समुद्री मार्ग की सेवा की। स्टीम टर्बाइन से चलने वाला यह स्टीमर माह में केवल दो बार ही क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में 60, 180 और 825 यात्रियों को ले जा सकता था । यह एस एस करंजा आमतौर पर हिंद महासागर में दक्षिण एशिया से यात्रियों को लेकर अफ्रीका और वापसी यात्रा करता था। इस जहाज़ ने बम्बई ( मुंबई) को केन्या, तंज़ानिया, ज़ांज़ीबार,मोज़ाम्बिक और दक्षिण अफ्रीका आदि देशों से जोड़ा। स्वतंत्रता के बाद के दशक में केन्या और भारत के बीच यातायात कम हो गया, जिससे समुद्री मार्ग लाभहीन हो गया इसलिए 1988 में इसे रिटायर कर दिया गया।
ब्रिटिश शासन के अंतिम वर्षों में एस एस करंजा केन्या और भारत के बीच महत्वपूर्ण संबंध स्थापित किये हुए था। इसके सम्बन्ध में अनेकों भारतीय समुदायों की कहानियां हैं, उन्ही में से एक उस व्यक्ति की भी है जो 1968 में 10-दिवसीय यात्रा के दौरान इसी जहाज़ पर पैदा हुए थे,यहाँ प्रस्तुत विवरण इसी लेखक के हैं। पाठक इस लिंक को क्लिक करके उनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। करंजा वास्तव में एक भारतीय नाम है जो महाराष्ट्र में एक शहर है। इसका नाम संत करंज के नाम पर रखा गया है और यह मुसलमानों, हिंदुओं और जैनियों के लिए एक पवित्र स्थान है। संत करंज को अपना नाम करंज वन से मिला।
लगभग 700 यात्रियों को लेकर मुंबई से रवाना हुआ जहाज मिरियांबो केन्या की समुद्री सीमा को छूने ही वाला था। यात्रा का 18वां दिन था। दो दिन बाद मोंबासा बंदरगाह पर लगना था। जहाज में करीब चार सौ लोग केन्या और यूगांडा के थे। बाकी तंजानिया, रवांडा, पुरुडी आदि पूर्वी अफ्रीकी देशों के थे। इनमें वहाँ के मूल निवासी, ब्रिटिश और भारतीय नागरिक भी थे। मिरियांबों की तीसरी मंजिल पर बने केबिन में पिछले दो सप्ताहों से यात्रियों की आवाजाही जहाज़ के दूसरे हिस्सों की तुलना में कुछ अधिक ही थी। एक पूरे टापू की तरह लगने वाले जहाज़ की डेक पर और केबिन में लगे शीशों से झांकने पर चारों ओर अगाध जलराशि दिखाई देती थी, इसके सिवाय और कुछ भी नहीं। हिंद महासागर में उठती हुई ऊँची लहरें और कभी समुद्र की शान्त निश्चल काया को देखते निरखते यात्रियों का मन भर जाता तो वे अपनी जगह आकर बैठ जाते, आपस में बातचीत करते या कुछ पढ़ने-लिखने में मन लगाते। अक्सर बातचीत के विषय निजी, पारिवारिक और व्यावसायिक सभी स्तर के होते थे।
जब भी यात्री तीसरी मंज़िल पर बने उस केबिन में जिसकी बात हम कर रहे हैं, जाते तो घण्टों मन लौटने का नहीं होता। कुछ तो मन ही मन सोचने लगते कि यात्रा के बाकी दिन इसी केबिन में कट जाएं तो कितना अच्छा हो।गुरुदेव इसी केबिन में रुके हुए थे, उनके पास यात्रियों को विलक्षण शांति और ऊर्जा मिलती थी। आने जाने वाले यात्रियों में 90% लोग ऐसे थे जिन्होंने गुरुदेव को पहली बार देखा था। जब जहाज़ ने मुंबई की बंदरगाह से समुद्र में केन्या जाने के लिए अपने पांव बढ़ाए थे तो कैप्टन सदका डेंगला के लिए गुरुदेव भी अन्य यात्रियों की तरह थे। गुरुदेव के साथ गायत्री परिवार के केवल एक ही वरिष्ठ कार्यकर्ता (चित्र में दाढ़ी वाले युवक) थे। दूसरे केबिन या स्पेशल श्रेणियों में यात्रा कर रहे लोगों के साथ निजी सहायक के अलावा सेवकों/सहयोगियों की संख्या 10-12 तक थी। जहाज़ के कर्मचारी या परिचारक तो होते ही थे । कैप्टन सदका और जहाज़ के दूसरे कई विशिष्ट यात्रियों को शुरु में ऐसा कुछ नहीं लगा कि वे गुरुदेव की ओर देखते। भारत की समुद्री सीमा पार मिरियांबों पड़ोसी देश मालदीव के पास पहुँचा ही था कि जहाज में सवार कुछ यात्रियों को मनोविक्षोभ( mental illness, psychosis ) ने घेर लिया। वे अपने घर, परिवार, परिजनों और मित्र संबंधियों को रह-रह कर याद करने लगे। समुद्री यात्रा में यह बीमारी आमतौर पर हो ही जाती है। मुश्किल से 25-30 किलोमीटर की गति से तैरने वाले जहाज़ पर यात्रियों को चारों तरफ पानी ही पानी दिखाई देने लगता है तो भांति-भांति की कल्पनाएं/कुंठाएं मन में उभरने लगती है। जहाज़ में साथ चल रहे चिकित्सक ऐसे यात्रियों को प्रायः sleeping medicines देते हैं ताकि वे सो जाएं और समय तथा प्रकृति स्वयं उपचार कर दे। मनोविक्षोभ के शिकार 16 लोग तो 2-3 दिन में ही सामान्य हो गए लेकिन पांच की हालत नहीं सुधरी। मिरियांबो जहाज के चिकित्सा कक्ष में उनकी अब भी देखभाल हो रही थी। कैप्टन सदका उनके लिए थोड़ा चिंतित थे कि यदि उनकी हालत नहीं सुधरी तो जहाज का रुख मोड़ना न पड़े और रास्ते में आने वाले दियागो गार्शिया( Diego Gracia या सेशेल्स( Seychelles) द्वीपों में उन्हें कहीं उतारना पड़े। अगर ऐसी नौबत आई तो यात्रा का समय दो तीन दिन और बढ़ जाएगा।
जिस प्रकार की mental illness की बात हम कर रहे हैं, उसे Jetlag से मिलाया तो नहीं जा सकता लेकिन कुछ इसी तरह लम्बी हवाई यात्रा में भी होता है। इसीलिए सलाह दी जाती है कि लम्बी नॉन स्टॉप फ्लाइट्स लेने के बजाय यात्रा में ब्रेक आये तो अच्छा होता है लेकिन समय तो किसी के पास है नहीं ,हर कोई नॉन स्टॉप फ्लाइट ही prefer करता है।
इन्हीं विचारों में डूबते- कैप्टन डेंगला डैक पर आए तो उन्होंने देखा कि गुरुदेव पास ही पड़ी कुर्सियों में से एक को केबिन के पास खींच कर, जहाँ से समुद्र की जलराशि निकटतम दूरी पर दिखाई देती है, बैठे हुए हैं। कैप्टन ने उन्हें दो दिन पहले भी इसी मुद्रा में देखा था लेकिन उस समय ध्यान नहीं गया था। अब उनका मन समुद्री mental illness से बेहाल हो रहे यात्रियों के प्रति चिंतित हो रहा था। गुरुदेव को डैक पर बैठे देख कैप्टन डेंगला को उनसे कुछ चर्चा करने की इच्छा हुई। दूर कहीं समुद्र को छू रहे क्षितिज पर सूर्य देवता लहरों में उतरने की तैयारी कर रहे थे। संध्या का समय था, कैप्टन ने देखा कि गुरुदेव सूर्य को निहार रहे थे। कुछ पल वह चुपचाप देखते रहे,फिर गुरुदेव के पास जाकर बातचीत आरम्भ की। कुछ ही मिंटों में वह गुरुदेव के साथ खुल से गए और 10-15 मिंट के भीतर ही उन्होंने जहाज़ में बीमार यात्रियों से लेकर अपने कामकाज, घर, परिवार और सामाजिक जीवन के बारे में बहुत सारी बातें कर डालीं। उस समय कैप्टन की आयु 45 वर्ष थी, उन्होंने बचपन से लेकर आजतक का सारा व्योरा गुरुदेव के समक्ष खोल कर रख दिया।
कैप्टन कह रहे थे कि मुझे बच्चों से मिले आठ महीने हो गए हैं।आप कोई उपाय कीजिए कि मैं उनसे मिल सकूं, उनके बारे में जान सकूं। अभी तो मुझे यात्रा के दौरान
ही कहीं किसी पड़ाव पर उनके बारे में पता चल पाता है। तीन माह पूर्व उनसे दार-एस-सलाम ( Dar es Salaam) में पोर्ट पर टेलीफोन से ही बात हो सकी थी। Dar es Salaam, तंज़ानिया का पोर्ट नगर है गुरुदेव ने कैप्टन सदका की ओर देखा । कुछ पल निहारने के बाद कहा,
“तुम चाहो तो अभी यहीं बैठे-बैठे ही उनसे मिल सकते हो। उन्हें देख सकते हो।” कैप्टन चौंक उठे ,व्यग्र होकर उन्होंने पूछा, “कैसे ? मैं उनसे बात भी कर सकता हूँ क्या ?”
गुरुदेव ने कहा, “नहीं”,बात तो कर सकते हो लेकिन वे लोग शायद नहीं कर पाएं। अचानक तुम्हे अपने सामने देखकर वे डर सकते हैं।”
कैप्टन ने बच्चों की तरह पुलकित होते हुए कहा, “तो मुझे उन्हें देख ही लेने दीजिए साहब। मैं इतने में ही संतुष्ट हो जाऊंगा।”
इस बीच गुरुदेव के पास ही खड़े परिजन ने कहा, “हमारे लिए ये गुरुदेव हैं, बेहतर होगा कि आप भी इन्हें इसी तरह देखें, आपको आसानी रहेगी।”
कैप्टन ने कहा, “हाँ,हाँ गुरुदेव, मुझे उनसे दूर से ही मिला दीजिए। मैं उनसे बाद में मिलूगां तब बातचीत कर लूंगा।”
कहते हुए कैप्टन गुरुदेव के सामने घुटनों के बल बैठ गए । गुरुदेव ने उनके सिर पर दाहिना हाथ रखा और स्नेह से दुलार दिया। गुरुदेव ने 2-3 बार कैप्टन के सिर पर हाथ फेरा ही था कि उनकी आंखें बंद हो गई। घुटनों के बल बैठे-बैठे वह वहीँ पालथी मार कर बैठ गए । बैठने की मुद्रा में यह बदलाव अनायास ही आया था और फिर उन्होंने अपनी दोनों हथेलियां गोद में रख ली जैसे ध्यान की अवस्था में चले गए हों । करीब दस मिन्ट तक वह इसी स्थिति में रहे। धीरे धीरे आंखें खोली और गुरुदेव की ओर देखा । आँखें खोलते हुए पलकें उघाड़ते ही उसकी पुतलियों में खुशी की चमक नाच उठी थी और गालों पर आंसुओं की कुछ बूंदें लुढ़क आई थीं। अश्रुपूरित नयनों में कृतज्ञता के विभोर हुए भाव तैर रहे थे। देर तक गुरुदेव की ओर अपलक निहारने के बाद उनके मुंह से इतने ही शब्द निकले, “आपकी दुआ से मैं अपने बच्चों को देख सका गुरुदेव। उनसे मिला भी और उन्हें प्यार भी किया। मेरी मां अब ठीक होती जा रही है और पत्नी उसकी अच्छी तरह से देखभाल भी कर रही है, इतनी अच्छी तरह कि मुझे ऐसी आशा भी नहीं थी।”
कैप्टन सदका ने पराभौतिक माध्यम ((celestial) से अपने परिजनों को देखा और उनके प्रति स्नेह लुटाया । उन लोगों को भले ही अपने अभिभावक की सन्निधि का भान नहीं हुआ हो लेकिन कैप्टन उन्हें देख और अनुभव कर गदगद हो उठे । इस घटना के बाद तो वह गुरुदेव के भक्त हो गए। इस घटना के बाद कैप्टन गुरुदेव के केबिन में अधिकतर आने लगे, उनकी ज़रूरतों के बारे में पूछते,अपनी ओर से सुविधाएं देने की कोशिश करते। समय मिलने पर अपने अतीत की एवं परिवार तथा आकांक्षाओं के बारे में बातें करते। कैप्टन की देखादेखी जहाज के और अधिकारी भी गुरुदेव के पास आने लगे क्योंकि सदका जहाज़ के उच्चाधिकारी थे। 2-3 दिन में तो ऐसी स्थिति बन गई कि अधिकारी या जहाज का स्टाफ ही नहीं, यात्री भी गुरुदेव की सन्निधि पाने के लिए केबिन में,या आसपास मंडराते दिखाई देने लगे।
कैप्टन सदका ने यात्रा के चौथे दिन पूछा,
“गुरुदेव आपने जिस तरह मुझे अनुगृहीत किया, तंजानिया या जिन देशों में जा रहे हैं, वहां अन्य लोगों को भी उपकृत करेंगे क्या ?”
गुरुदेव ने कहा, “देखा जाएगा।”
कैप्टन ने इन दो शब्दों को पकड़ लिया और कहने लगे,
“आप दूसरों पर भी उपकार करेंगे। मुझे विश्वास है।किलोसा और शिनयांगा छोटे-छोटे दो कस्बों में मेरे 4-5 पारिवारिक मित्र रहते हैं। मैं उन्हें आपके बारे में बता देता हूँ। हो सके तो उन पर भी कृपा कीजिएगा।”
गुरुदेव ने इस अनुरोध का कोई उत्तर नहीं दिया । कुछ पल सदका की ओर देखते रहे और फिर बोले,
“देखो कैप्टन,तुम चाहो तो मेरा भी एक काम कर सकते हो।”
14 दिन में गुरुदेव ने एक नई भाषा सीख ली
कैप्टन भारतीय ढंग से हाथ जोड़ कर गुरुदेव के सामने घुटनों के बल बैठ गया और बोला, “कृपा करके आप मुझे कैप्टन मत कहिए गुरुदेव, मुझे मेरे नाम से ही बुलाइए, सदका,सिर्फ सदका ही कहिए देंगल भी नहीं । ‘
गुरुदेव ने कहा, “ठीक है। पर यह तो बताओ कि तुम मेरा काम करोगे या नहीं। छोटा सा काम है।”
सदका ने गुरुदेव का वाक्य बीच में ही पकड़ कर कहा “आप आज्ञा तो करें जनाब। मेरा नाम भी सदका देंगल है जिसका मतलब होता है -सच्ची खुशी- मैं अपने नाम के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ।” सदका भाव विह्वल हो रहे थे ।
गुरुदेव ने कहा, “मेरा काम भी कुछ ऐसा ही है। अभी हम लोगों को दार-एस-सलाम (Dar-es-Salaam) पहुँचने में 15-16 दिन लगेंगे।” लेकिन आपको तो मोंबासा जाना है न गुरुदेव, सदका ने बीच में ही रोकते कहा तो गुरुदेव ने जैसे अपनी बात में संशोधन किया, “हां मोंबासा ही सही, लेकिन वहां तक पहुंचने में एकाध दिन और कम हो सकता है। समझ लो कि चौदह दिन। इस दौरान तुम मुझे अपनी भाषा सिखा सकते हो।”
सदका ने आश्चर्य से कहा, “मुझे खुद अपनी स्वाहिली भाषा नहीं आती गुरुदेव । मैं आप जैसे विद्वान व्यक्ति को क्या सिखा सकता हूँ ।”
गुरुदेव ने कहा ,”मुझे स्वाहिली भाषा का कोई विद्वान थोड़े ही बनना है, ‘इतनी जानकारी काफी है कि वहां के लोगों से बात कर सकूं, उन्हें अपनी बात कह सकूं और उनकी बात समझ सकूं।”
सदका ने तुरन्त हामी भरी और साथ ही में असमंजस भी व्यक्त किया कि उन्हें अध्यापन का कोई अनुभव नहीं है, वह कैसे सिखाएंगें। गुरुदेव ने यह कहकर उनका संकोच दूर कर दिया कि तुम्हे कुछ नहीं करना है । मैं खुद तुमसे पूछता चलूंगा। तुम उसका उत्तर देते चलना बस। मुझे जहाँ कुछ खास समझना होगा वहाँ अलग से पूछ लूंगा ।गुरुदेव के इस उत्तर से सदका का संकोच दूर हो गया। हमारे पाठक जानते होंगें कि स्वाहिली पूर्वी अफ्रीका के चार प्रमुख देशों (तंजानिया, केन्या, यूगांडा और कांगों) की आधिकारिक भाषा है । 1972-73 में इस भाषा को राजकीय भाषा का दर्जा प्राप्त था हालांकि सरकारी काम अंग्रेजी में ही होता था। यों तो स्वाहिली भाषा हिंद महासागर में स्थित अफ्रीकी द्वीपों के आदिवासी कबीलों में खूब बोली समझी जाती थी लेकिन व्यापार, व्यवसाय में अंग्रेजी,अरबी और पश्तो का ही अधिक चलन था। चारों देशों में जहां गुरुदेव को जाना था, आबादी का दो तिहाई हिस्सा स्वाहिली में ही बातचीत करता था | आधे से अधिक लोग तो ऐसे थे जो इस भाषा के सिवा अन्य कोई और भाषा समझते ही नहीं थे।
केप्टन सदका ने गुरुदेव को स्वाहिली पढ़ाने की बात जैसे ही स्वीकार की गुरुदेव ने पूछा, “इस भाषा का अर्थ क्या है ?”
कैप्टन सदका ने कहा, “सीमा,समुद्री किनारा।”
उन्होंने ही बताया, प्रारंभिक शिक्षा में सीखा था कि स्वाहिली में पांच स्वर होते हैं और 38 वर्ण । शुरु के दिनों में कैप्टन ने “मैं, तुम, आप, यह, वह, पानी आदि सर्वनाम और संज्ञाओं से परिचय कराया। कुछ वाक्यांश बताए।” गुरुदेव ने जिस क्षण स्वाहिली भाषा सीखने की इच्छा जताई थी, उसी क्षण से कैप्टन सदका गुरुदक्षिणा चुकाने के साथ अपनी खुद की योग्यता बढ़ाने में भी लग गए थे। गुरुदेव ने अफ्रीका की लोक भाषा सीखने के लिए कहते ही विनोद में कह दिया था कि अब शिष्य को भी गुरु का दायित्व निभाना चाहिए । इस पर सदका बहुत दुःखी हुए, रो-रो कर अपना बुरा हाल कर लिया था। रोने का कारण यही था कि आप मुझे इस तरह दंड मत दें। मुझे गुरु क्यों कहते हैं। गुरुदेव ने उन्हें बहुतेरा समझाया पर वह यही कहते रहे कि
गुरुदेव मेरी जगह आपके चरणों में है। गुरुदेव ने उन्हें दूसरी तरह समझाया कि शिष्य का कर्त्तव्य दक्षिणा देना भी होता है। तुम दक्षिणा देने के नाते ही मुझे अपनी भाषा सिखाओ। यह सुन कर सदका का संताप थोड़ा कम हुआ। इसके बाद गुरुदेव ने सदका के सिर पर हाथ रखा,गुरुदेव के होंठ हिले ओर सदका को लगा कि उनके शरीर के भीतर विस्मयकारी तरंगें दौड़ने लगी हैं, सिर्फ उसी ने महसूस किया और गुरुदेव के वचनों को सुना कि “तुम्हारी आकाक्षां पूरी हो।” डेक पर पास ही बैठे आत्मयोगी ने गुरुदेव को कहते सुना,
“इस व्यक्ति ने गायत्री की सही मायने में उपासना की है, उसे अपने भीतर धारण किया है। तप किया हो या न किया हो, गायत्री की ऋषि आत्मा को जरूर सिद्ध कर लिया है।”