वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परम पूज्य गुरुदेव की अफ्रीका यात्रा का उद्देश्य

चेतना की शिखर यात्रा 3 एवं अनेकों स्रोत

गुरुदेव की अफ्रीका यात्रा के बारे में लिखना दो महान व्यक्तियों के बिना अपूर्ण ही है।  उनमें से प्रथम नाम आता है नैरोबी निवासी आदरणीय विद्या परिहार जी का और दूसरा नाम है मसूरी इंटरनेशनल स्कूल के जन्मदाता एवं  प्रवासी भारतीय  आदरणीय हंसमुख रावल जी। हम तो धन्यवाद् करते हैं फेसबुक के Mark Zuckerberg जी का जो Harvard University dropout हैं और Elon Musk जी  का जो twitter के मालिक हैं। इन सोशल मीडिया साइट्स ने हमें विद्या परिहार और रावल जी के बारे में जानकारी दी और उसी के बाद हम आगे बढ़ पाए। मसूरी इंटरनेशनल स्कूल के जन्म  की रावल जी की वीडियो हमारे दर्शक देख चुके हैं फिर भी हम उसका लिंक revision के लिए यहाँ दे रहे हैं। link

जब रावल जी का नाम आया है तो क्यों न उनकी पत्नी कल्पना रावल जी के बारे में कुछ जान लें। भुज गुजरात में जन्मी  कल्पना जी  Deputy Chief Justice and Vice President of the Supreme Court of Kenya के पद से रिटायर हुई हैं। यह विवरण हम इसलिए दे रहे हैं कि लेख में आगे चल कर पाठक देखेंगें कि second class समझे जाने वासियों ने परिश्रम के बल पर अफ़्रीकी समाज में श्रेष्ठ स्थान बनाये।

विद्या परिहार जी नैरोबी में एक इंग्लिश स्कूल चलाती  थीं, आज कल शायद रिटायर्ड है और परम पूज्य गुरुदेव के कार्य में पूरी तरह समर्पित हैं। उनके बारे में जानने के लिए हमारे साथियों को हमारा 22 अप्रैल 2020 का व्हाट्सप्प मैसेज की summary  अवश्य ही पढ़ना चाहिए।  

आज प्रातः whatsapp पर एक मैसेज प्राप्त हुआ । नाम तो नहीं मालूम था ,केवल फ़ोन नंबर था । जब profile  पिक्चर देखी तो स्मरण हो गया की यह कोई जानकार हैं।  2 माह पूर्व हमने अपने चैनल पर एक वीडियो अपलोड की थी जिसका शीर्षक था “Gurudev’s first visit abroad in 1972- incredible parrot”  इस वीडियो का लिंक इधर दे रहे हैं। link  

यह मैसेज  विद्या परिहार जी का था जो नैरोबी में रहती हैं । नैरोबी केन्या की राजधानी है । एक दम गूगल से चेक किया तो उधर  दोपहर का 1 बजा था । उनको मैसेज भेजा कि क्या बात कर सकते हैं ? उनकी हाँ के बाद बात की तो मन बहुत ही प्रसन्न हुआ।उन्होंने बताया कि उनके किसी मित्र ने यह वीडियो यूट्यूब  पर देखी और उनको शेयर की।अपना आभार व्यक्त करना चाहतीं थी लेकिन हमारा फ़ोन नंबर तो उनके पास  था नहीं। उन्होंने Abroad Cell  शांतिकुंज में वरिष्ठ कार्यकर्ता राज कुमार वैष्णव  जी से  हमारा फ़ोन लिया। ऐसे हुआ हमारा संपर्क। इस  वीडियो में गुरुदेव की 1972 वाली  ईस्ट  अफ्रीका  यात्रा का विवरण दिया था । एक दम  याद ताज़ा हो गयी । भारत से बाहिर विश्व के  प्रथम शक्ति पीठ (जो केन्या में ही है )  की भी बातें  हुईं और हमारे ऑनलाइन ज्ञान रथ के माध्यम से जो पुरषार्थ  सम्पन्न हो रहा है उसको काफी सराहना मिली । इस सराहना के हकदार हम अकेले नहीं हो सकते क्योंकि इसमें आप सबका पुरषार्थ समिल्लित है। इस पोस्ट का उद्देश्य  ही यह है कि आप  पूज्यवर के ज्ञान की मशाल विश्व भर में  जागृत कर रहे हैं -बहुत बहुत धन्यवाद । और विद्या जी आपका धन्यवाद् तो है ही जिन्होंने इतना प्रयास किया । राजकुमार जी का भी आभार । वह हमेशा ही हमारा सहयोग करते हैं । श्रेध्य डॉक्टर साहिब आदरणीय प्रणव पंड्या जी के ऑफिस( Chancellor office, पर्ण कुटीर) की वीडियो उन्ही के पुरषार्थ से सम्पन्न हो पायी थी । विद्या जी ने उस तोते की पिक्चर ऑनलाइन ढूंढने का प्रयास किया जिसने गुरुदेव के Kenya प्रवास के दौरान बहुत अहम भूमिका  निभाई थी । इस के लिए आपको वीडियो देखनी चाहिए । 

विद्या जी और रावल जी के इस संक्षिप्त परिचय को यहीं छोड़कर आगे बढ़ते हैं।

हिमालय यात्रा से वापिस आने पर गुरुदेव शांतिकुंज में गोष्ठी ले रहे थे ,डॉक्टर साहिब भी उपस्थित थे। विदेश यात्रा के सन्दर्भ में चर्चा हुई तो गुरुदेव ने कहा कि वे परिजन तो हम लोगों के साथ जन्म जन्मांतरों से जुड़े हुए हैं,ज़माने  को बदल देने की इस युग साधना में वे भी योगदान करते हुए दीखें इसलिए यह व्यवस्था की है। भगवान चाहें तो चुटकी बजाते दुनिया को उलट पुलट कर दें, पर वे अपने पुत्रों को सक्रिय देखना चाहते हैं। गोष्ठी में  उपस्थित कार्यकर्ताओं के लिए यह स्पष्ट हो गया कि परिजनों से सीखना,सूचनाएँ आमंत्रित करना तो एक नैमित्तिक (casual) सी प्रक्रिया है। गुरुदेव वास्तव में विभूतिवान व्यक्तियों को कुछ देने के उद्देश्य से ही विदेश जा रहे हैं। गुरुदेव ने यात्रा के सन्दर्भ में आगे कहा कि हमारी इस यात्रा का विवरण एवं सूचना अखबारों, रेडियो और अन्य प्रचार माध्यमों में नहीं लाना है। यह यात्रा प्रचार के लिए हरगिज़ नहीं है, इसका उद्देश्य संसार की विभूतिवान आत्माओं से प्रत्यक्ष संपर्क करना है,परामर्श करना है कि वे अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने क्षेत्र में,अपनी सामर्थ्य के अनुसार तत्परतापूर्वक कैसे जुट सकते हैं। 

इसी सम्पर्क प्रक्रिया का विस्तृत रूप आजकल हम आये दिन देख रहे हैं। शांतिकुंज से आदरणीय डॉक्टर चिन्मय पंड्या जैसी प्रतिभाएं विश्व के कोने-कोने में गुरुदेव से शक्ति एवं प्रेरणा प्राप्त कर उनके विचारों का प्रचार कर रही हैं।  

इतना कहकर गुरुदेव कुछ रुके। वहां बैठे किसी कार्यकर्ता के मन में प्रश्न आया कि गुरुदेव जब जा ही  रहे हैं और महत्वपूर्ण लोगों से मिलेंगे भी सही तो इस बारे में किसी को बताया क्यों  न जाए? गुरुदेव ने उस  कार्यकर्ता की ओर देखा और फिर माताजी की ओर देखा, जैसे कह रहे हों कि इस बारे में वही कुछ कहें। माताजी ने कहा, 

“अगले दिनों गुरुदेव की यात्रा से कई महत्वपूर्ण संभावनाएं सामने आएंगी। हम लोग सोचते हैं कि उनका श्रेय अनेक व्यक्तियों को मिले। गुरुदेव इसलिए उन्हें ही आगे रखेंगे। इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी धर्माध्यक्षों की भूमिका संदिग्ध और लांछित होने लगी है। वे राजनीति को प्रभावित करने और निहित स्वार्थों को पूरा करने में जुटे रहते हैं।” 

उस गोष्ठी में गुरुदेव ने यात्रा के संबंध में सावधानी बरतने का एक उद्देश्य यह भी बताया था कि  विदेश यात्रा के समाचार आने, प्रचार होने से सामूहिक स्तर पर कोई लाभ होगा या नहीं, एक वितंडावाद ( निरर्थक दलीलों की चर्चा) जरूर खड़ा हो सकता है ।इसलिए भी गुरुदेव चाहते थे कि  यात्रा के प्रचार और सूचना को विश्व से न जोड़ा जाए। 

इस यात्रा में गुरुदेव ने कितने और कैसे-कैसे व्यक्तित्वों से संपर्क स्थापित किये,उन्हें तराशा, ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ेंगें सब जानते जायेंगें। 

अफ्रीका जाने का उद्देश्य-अफ्रीका और भारत की लुप्त

कड़ियां

गुरुदेव की अफ्रीका यात्रा का प्रकट उद्देश्य वहां रहने वाले प्रवासी भारतीयों की इच्छा  पूरी करना था। वर्षों से वहां के प्रवासीजन गुरुदेव को अपने घर,बस्ती और क्षेत्र में आमंत्रित कर रहे थे । केन्या, तंजानिया, मोजांबिक आदि देशों में हिन्दु, इस्लाम, ईसाई आदि सभी धर्म संप्रदायों के लोग रहते थे लेकिन  भारत से गए प्रवासियों की संख्या  सबसे अधिक  थी। सातवीं, आठवीं शताब्दी  में ब्रिटिश और अरब देशों ने अफ्रीकी देशों में colonies  बनायीं।   वहां इन देशों के धर्म प्रचारकों ने लोगों को अपने विश्वासों और परंपराओं में दीक्षित किया और स्थानीय संस्कृति की जड़ें भी खोदी। यह तो सर्वविदित है कि शासक देश वहां के मूल निवासियों एवं उनके रिवाजों,मान्यताओं की समाप्ति के यथासंभव प्रयास करते हुए अपनी  मान्यताओं या मूल्यों की स्थापना पर ज़ोर  देते  हैं। लगभग उसी तरह की प्रक्रिया अफ्रीकी देशों में भी चली लेकिन भारत से गए प्रवासियों की स्थिति कुछ अलग थी। वे 17वीं,18वीं शताब्दी  में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज्य स्थापित हो जाने के बाद फ्रांस और पुर्तगाल आदि देशों में होते हुए अफ्रीकी देशों में गए थे। वे इन शासक देशों या जातियों के अधीनस्थ कर्मचारी  या मजदूर की हैसियत से गए थे। इसलिए उनकी स्थिति दोयम दर्जे (second-class citizens)  के नागरिकों की सी थी। उन्होंने परिश्र्म से अपनी जगह बनाई और तंजानिया, केन्या, कांगो, यूगांडा, मोजांबिक, जांबिया आदि देशों के श्रेष्ठ वर्ग में गिने जाने लगे। स्वतंत्रता  के बाद भी भारतीयों का तंजानिया, केन्या और यूगांडा में जाना जारी था। उनके परिजन सम्बन्धी/ पूर्वज 150-200 वर्ष  से वहां थे  इसलिए भारतीयों को  अफ्रीकी देशों में उन्नति की संभावना और सुविधा दोनों ही दिखाई दे रही थीं। परम पूज्य गुरुदेव का इन देशों में जाने का उद्देश्यअपना भविष्य तलाशते और वर्तमान को संवारते लोगों को संपर्क करते हुए मार्गदर्शन देना था। इसके अलावा एकगुप्त  उद्देश्य भी  था  जिसकी अधिक  चर्चा नहीं हुई थी। गुरुदेव के साथ गए कार्यकर्ता आत्मयोगी, जहाज़  के कप्तान सदका और वर्षों बाद केन्या के राष्ट्रपिता जोमो केन्याता ने बताया। गुरुदेव जिन दिनों केन्या गए, उन दिनों केन्याता इस देश के राष्ट्रपति थे। उन्होंने केन्या की स्वतंत्रता  के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी थी और स्वतंत्रता  के बाद देश की जनता ने उन्हीं के हाथों में देश की बागडोर सौंपी थी। केन्या प्रवास के दौरान गुरुदेव उनसे भी मिले थे लेकिन उस बारे में बाद में। 

भारत लौटने के बाद आत्मयोगी ने अपने अनुभव विस्तार से बताने के बारे में यह कहते हुए मना कर दिया कि गुरुदेव ने उनकी चर्चा पर रोक लगाई हुई है। अपने निजी अनुभवों को तो वह नहीं ही बताएंगे। जो थोड़ी बहुत जानकारी आत्मयोगी ने दी और वे सूचनाएं किंचित इतिहास से भी मेल खाती हैं। उनके अनुसार अफ्रीका भी भारत की तरह मानवीय सत्त्यता और संस्कृति की मूल भूमि है। भारत में मनुष्य की चेतना ने उन्नति के शिखर छुए हैं और अफ्रीका में मनुष्य की पार्थिव सत्ता ने, उसके कायिक स्वरूप ने, उन्नत स्वरूप प्राप्त किया है। यदि मनुष्य की चेतना को सर्वांगीण विकसित करना हो तो इन दोनों ही सिरों, ध्रुवों या तलों को संवारने की जरूरत है। आत्मयोगी के अनुसार गुरुदेव की अफ्रीका यात्रा का उद्देश्य वहां के सूक्ष्म जगत में ऐसे बीज बो देना था जिनका विकास भारतीय अध्यात्म चेतना के लिए सहयोगी और पूरक सिद्ध हो सके। अपनी इस धारणा एवं  मान्यता के बारे में परिजनों ने आत्मयोगी से विस्तारपूर्वक बताने का अनुरोध किया तो उनके चेहरे पर भय की रेखाए खिंचने लगीं क्योंकि वह वचनबद्ध थे और  वे बताना चाह कर भी  बता नहीं पा रहे थे।

गुरुदेव इन देशों में 40 दिन रहे और 14  स्थानों पर गए । परिजन इन यात्राओं को याद करते हुए इस कबालियों का उद्बोधन और उनमे सोए हुए संस्कार का जागरण सबसे महत्वपूर्ण- दिखाई देने वाली – घटना  समझते हैं । दिखाई देने वाली इस लिए कि अदृश्य जगत में तो कई घटनाएं हुई जिनका दृश्य संसार में कोई रिकार्ड नहीं रखा गया । “चेतना की शिखर यात्रा” में ऐसा वर्णन भी मिलता है कि गुरुदेव ने 14 स्थानों में से अमृतमंथन कर 14 रत्न निकाले जिन्होंने गायत्री परिवार को न सिर्फ अफ्रीका बल्कि UK,USA ,CANADA  आदि देशों में ले जाने का काम किया । राम टाक जी के छोटे भाई पूर्ण टाक जी ने  28  अप्रैल 2020 को  whatsapp  मैसेज में हमें  बताया था : ” मुझे आज भी याद है – गुरुदेव का अफ्रीका  प्रवास public speeches देने का नहीं था  बल्कि कुछ ऐसी आत्माओं  के साथ सम्पर्क स्थापित करना था जो अफ्रीका में ही नहीं Canada , USA , UK  और दूसरे  देशों में भी गायत्री परिवार को लेकर जाएँ “ 

विद्या परिहार जी का धन्यवाद् जिन्होंने हमें  पूर्ण टाक  और  दूसरे  परिजनों से संपर्क करवाया । 

हमारे सहकर्मी इस बात से सहमत होंगें कि इतनी विस्तृत जानकरी वाले अति complex लेखों को compile करना कोई सरल कार्य नहीं है और त्रुटि होना स्वाभाविक है , इसलिए  क्षमाप्रार्थी हैं । 

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