वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वंदनीय माता जी का आश्वासन एवं शिष्यों की क्षमा प्रार्थना 

महाशक्ति की लोकयात्रा

वंदनीय माता जी  ने कहा था कि वे देह न रहने पर भी दूर न होंगी। उनके बेटे-बेटियां उन्हें पुकारते ही अपनी मां के आंचल की छाया और छुअन को महसूस करेंगे। भावमयी जगदंबा की पराचेतना की ही भांति उनके आश्वासन भी शाश्वत, अमर और अमिट हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक अवसरों पर अनेकों बातें कही थीं जिनमें कुछ तो नितांत, निजी और व्यक्तिगत हैं लेकिन बहुत कुछ ऐसी हैं जो सार्वकालिक( For ever) और सार्वभौम ( विश्व् व्यापी) होने के साथ सबके लिए हैं। माताजी के प्रेम से छलकते स्वरों में हम सबके जीवन के लिए समाधान है। उनकी बातों को दोहराने  और स्मरण  करने से पता चलता है कि माताजी  हमें ऐसे ही बिना किसी सहारे के छोड़कर नहीं चली गयीं । उनका प्यार-दुलार और सबसे बढ़कर उनकी समर्थ शक्ति हम सबके साथ है। यहां तक कि वे स्वयं भी हमारे आस- पास ही हैं। इस सच्चाई  को अनुभव करने के लिए हमें बस अपने ह्रदय  की गहराइयों से “मां” कहकर पुकारना होगा। यह एक अक्षर सृष्टि बीज है, मंत्रराज और महामंत्र है जिसे माताजी ने  हम सबके लिए स्वयं जाग्रत और चैतन्य किया है। न जाने कितनी बार माताजी ने  अपने श्रीमुख से कहा है, 

“मैं कभी अपने बेटे-बेटियों को छोड़कर जाने वाली थोड़े ही हूं। देह सबकी छूटती है, मेरी भी छूटेगी। देह का तो धर्म ही है पैदा होकर नष्ट होना, सो यह तो नष्ट होगी ही लेकिन  इससे क्या, मैं तो जैसी की तैसी बनी रहूंगी। तुममें से जब कभी भी  कोई मां! मां!! कहकर बुलाएगा तो मैं दौड़ी-भागी चली आऊंगी।अभी भी तुम लोग मुझे बुलाते हो तो मैं आती हूं कि नहीं। तुम्हारे बुलाने पर मैं ही आती हूँ।  देह तो यहीं शांतिकुंज में पड़ी रहती है। अपनी देह की ओर इशारा करते हुए माताजी कहती हैं-यह देह है तो क्या, नहीं है तो क्या, इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है, इसलिए तुममें से किसी को इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं है कि माताजी आज हैं कल नहीं रहेंगी। अरे, माताजी आज हैं, हमेशा रहेंगी। माताजी तब भी थीं, जब यह देह नहीं थी और माताजी तब भी रहेंगी,जब यह देह नहीं रहेगी। जब हमारे बच्चे हमको बुलाएंगे, मैं भागकर आऊंगी।”

यह बुलाना कैसा होता है माताजी ?

एक बार माताजी के किसी भक्त ने पूछा- यह बुलाना कैसा होता है ? भक्त की बात  सुनकर माताजी  हंसने लगीं और बोलीं, “अपनी मां को बुलाने के लिए कोई विधि-विधान भी होता है क्या? अरे बेटा,मां तो अपने उस बच्चे की भी सारी बातें समझ लेती है जो अभी बोलना भी नहीं जानता। क्या तुमने देखा नहीं कि नवजात शिशु  जो बोलना भी नहीं जानते, केवल अपनी मां की याद कर बिलख उठते हैं। मां को पुकारने का उनका यही अद्भुत साधन है। शिशु की इस पुकार को कोई और समझे या न समझे लेकिन माँ  समझ जाती  है और  इस तरह पुकारते ही वह झटपट अपने हाथ के सारे काम छोड़कर दौड़ी-भागती  आती है,शिशु  को गोद में उठा लेती है,अपने कोमल  हृदय का सम्पूर्ण स्नेह शिशु  पर उड़ेल  देती है। इस प्रकार “बुलाने का अर्थ” समझाते हुए माताजी हंसकर बोलीं,

“अरे बेटा! माँ  तो  उन बच्चों की बातों को भी समझ लेती है जो गूंगे हैं,बहरे हैं,अपाहिज हैं जो कभी  बोल ही नहीं सकते, जो चल भी नहीं सकते एवं सुन नहीं सकते । मां को बुलाने के लिए कुछ और नहीं, केवल ह्रदय  की तड़प चाहिए, भाव व्याकुलता चाहिए। बच्चे की तड़प मां को तड़पाती है, बच्चे की  रुदन मां को रुलाती  है, बच्चे के आंसुओं पर मां व्याकुल  हो उठती है।” 

इस वाक्य को पूरा करते-करते माताजी  जैसे अपनी ही गहराइयों में कुछ देर के लिए खो गईं और फिर  उबरते हुए धीरे से बोलीं, “मां और बच्चों का रिश्ता कुछ ऐसा ही  होता है बेटा!”

अपनी संतानों पर हर पल प्राण न्योछावर  करने वाली माताजी अपने बारे में प्रायः चुप ही रहती थीं। कोई बात होने पर वह यही कहतीं, अच्छा बेटा! हम गुरुजी से कह देंगे अथवा फिर यह कहा करतीं कि गायत्री माता से प्रार्थना करेंगे लेकिन कभी-कभी विरल क्षणों में अपने स्वरूप को खुलकर प्रकट भी कर देती थीं। ऐसा करने में सामने वाले की पात्रता कम लेकिन उनकी कृपा ज्यादा होती थी। एक दिन ऐसा ही हुआ।

एक कार्यकर्ता के माध्यम से अनेकों प्रश्नों  का समाधान  

बात सन् 1992 के अंतिम दिनों की है। उस दिन दोपहर में मिलने वाले कुछ कम थे, सो माताजी जल्दी ही फुरसत पा गई थीं। सबसे अंत में एक कार्यकर्त्ता गया, और कोई था नहीं, सो उसे बैठा लिया। वह भी माताजी के साथ कुछ क्षणों का संग-लाभ पाकर खुश हो गया। खुशी के इन क्षणों में कार्यकर्ता ने अपने मन की बात पूछते हुए कहा, “माताजी, मैंने अपनी पूजास्थली पर मात्र एक छोटी सी गायत्री माँ की फोटो रखी है,साथ ही गुरुजी का और आपका भी चित्र लगा रखा है। ध्यान के समय आप दोनों में ही मैं सूर्य और गायत्री की, महाकाल और महाकाली की कल्पना करता हूं। क्या यह ठीक है? उत्तर में पहले तो वह चुप रहीं, फिर बोलीं, 

“बेटा, यह व्यक्ति की श्रद्धा-भाव संवेदना पर निर्भर करता है। जितना गहरा हमारा किसी से लगाव होगा, उतना ही गहरा ध्यान उनके विषय में होता चला जाएगा। तुम्हें अपनी साधना और प्रगाढ़ बनानी चाहिए। गायत्री महाशक्ति से साक्षात्कार करने के कारण गुरुजी का ध्यान सविता के ध्यान से शीघ्र लगता है। इसी तरह वे मेरे भी आराध्य हैं। उनकी ही शक्ति मुझे भी मिली है। मेरा ध्यान तुझे उन तक,गायत्री माता तक, और जल्दी पहुंचा सकता है। जो गुरुजी हैं, वही मैं हूं। जो मैं हूं, वही गुरुजी हैं। हम दोनों में कोई अंतर नहीं।” 

माताजी का कथन सुनने वाले कार्यकर्ता  भाव-विह्वल हो गए । काफी देर तो उन्हें कुछ  सूझा ही नहीं कि वह और क्या कहें ।  फिर उन्होंने धीरे से  पूछा, “माताजी आपकी कृपा से अगणित लोगों के लौकिक कष्टों का निवारण होता है लेकिन  क्या आपकी कृपा से जीव को मुक्ति भी मिलती है ? इस सवाल को सुनकर वह जैसे आत्मलीन हो गईं और कहने लगीं, 

“सब कुछ मां की कृपा से होता है, संकट निवारण, स्वर्ग, मोक्ष सब कुछ उनकी ही  कृपा से संभव है। हम तो निमित्त मात्र हैं।”

महाशक्ति के इन वचनों को ध्यान से सुनने के बाद भी कार्यकर्ता भाई साहिब  ने अपनी शंका के निवारण के लिए एक और  प्रश्न किया, “माताजी, वेदांत आदि शास्त्रों में लिखा है कि ज्ञान होने पर मोक्ष मिलता है।” उत्तर में वह बोलीं, 

“यह सत्य तो है लेकिन वह ज्ञान आद्यशक्ति मां की कृपा के बगैर नहीं मिलता। वहां तक पहुंचाने के लिए मातृशक्ति के रूप में गुरु की सत्ता ही सर्वाधिक सक्षम है। जब किसी जीव पर मां की कृपा होती है, तभी ज्ञान की प्राप्ति होती है। फिर मोक्ष दूर नहीं।” 

दुर्गा  सप्तशती में लिखे निम्नलिखित श्लोक को समझाते माताजी कहती हैं : 

सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये ।सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी ।। संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ।। 

अर्थात 

“आदिशक्ति माँ  ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मोक्ष  के लिए वरदान देती हैं। वे ही परा विद्या संसार बंधन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी देवी और संपूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं।” 

ऐसा समझाकर माताजी ने  परोक्ष रूप में इस  समर्पित कार्यकर्ता  को मातृशक्ति के लीला संदोह से एवं उसमें अपनी भूमिका से परिचित करा दिया। उनके वचन सुनने वाले के कानों में अमृत घोल रहे थे। उसने बहुत हिम्मत जुटाकर एक अंतिम प्रश्न किया, 

“माताजी, दुर्गा सप्तशती मां आदिशक्ति की चरित्रकथा है। इसे पढ़ने को एक तीव्र  साधना माना जाता है। लाखों लोग प्रतिदिन इसका पाठकर मनोवांछित पाते हैं। इसी तरह क्या आपके बच्चे आपकी जीवनकथा के पाठ को साधना के रूप में कर सकते हैं। 

“बेटा, समय आने  पर हम दोनों की ही जीवनगाथा आप  सबके समक्ष आएगी। इन लीला प्रसंगों को पढ़ना स्वयं गुरुसत्ता से साक्षात्कार के समान होगा। वैसे मैं मां हूं। मुझे तो कोई कभी भी  जब  भी याद करेगा तो उसके समीप रहूंगी। उसके कष्टों के शमन का प्रयास करूंगी।

माताजी कहा करती थीं, 

“कैसे भी हो, हम उन्हें पुकारना सीख जाएं। वह कहा करती थीं, जीवन है तो परेशानियां भी आएंगी, संकट, मुसीबतें भी खड़ी होंगी। पर तुम लोग इससे घबराना नहीं। संकट कितने भी बड़े और विकराल हों, हमेशा याद रखना कि हमारी  एक मां है, जो हमेशा पीछे खड़ी है। ये संकट कितने ही बड़े क्यों न हों लेकिन हमारी  मां से बड़े नहीं हो सकते। हमेशा अपनी मां की असीम सामर्थ्य एवं कृपाशक्ति पर भरोसा रखना।”

 मां के इस आश्वासन के बाद भी क्या कोई हमारे लिए चिंता का कोई  कारण बचता है ? माताजी का  यह आश्वासन उनके लिए है जो उनसे कभी भी कैसे ही  क्षणों में मिले हैं और  उनके लिए भी है जो उनसे कभी भी नहीं मिले। यहाँ यह इसलिए कहा जा रहा है कि माताजी कहा करती थीं कि  मैं अपने उन बच्चों से भी परिचित हूँ जो मेरी देह के न रहने पर शांतिकुंज आएंगे। उनके प्रति मेरा प्यार उनसे कहीं अधिक  होगा जो मुझसे मिल चुके हैं। उन्हें मैं अपनी स्नेह छाया से पूरी तरह सुरक्षित-संरक्षित रखूंगी। जब वे मुझे याद करेंगे, मैं उन्हें उनका अभीष्ट प्रदान करूंगी। ऐसी करुणामयी मां के प्रति भी उनकी नादान संतानों ने जाने-अनजाने कुछ भूलें की हैं, आज वे सब उन क्षमामयी के चरणों में क्षमा की याचना करते हैं।

हमें क्षमा कर दो मां -शिष्यों की क्षमा याचना 

बड़ी गहरी आत्मपीड़ा और सघन अंतर्वेदना से घिरे हम आपसे यह याचना कर रहे हैं। आज आप स्थूल रूप से हमारे बीच नहीं हैं, पर आपके साथ बिताए गए हर पल का कोमल अहसास हमारे हृदय में ज्यों का त्यों  है। आपकी हर याद की छुअन मन में अगणित अनुभूतियों का रस घोलती है। कभी-कभी तो स्वयं को देखकर स्वयं पर विश्वास ही नहीं होता । हे माता! आपकी यादों के कई रूप हैं और सभी अनूठे हैं, अनोखे हैं। हममें से कइयों को गुरुदेव विभिन्न कामों के सिलसिले में बुलाते थे। हम सबको अपने ही आलस्य एवं प्रमाद के कारण जब-तब डांट-फटकार भी पड़ती थी। सीढ़ियों से उतरते ही जब हम सब आपके कमरे में प्रवेश करते तो आप हंसकर हम सभी से कहतीं,

“लगता है तुम लोगों को आज कुछ ज़्यादा  ही डांट पड़ गई। चलो खैर कोई बात नहीं, अभी तो तुम लोग यह थोड़ा खा पी लो।”

ऐसे एक नहीं अनेक अवसरों की यादें हमारे मनों में घुली हैं। आपके प्यार-दुलार के अनेकों रूप मन के आंगन में अपनी दिव्य आभा फैला रहे हैं। जहां तक आपकी डांट- फटकार की बात है, तो वह प्रायः होती ही नहीं थी। यदि होती भी तो बहुत कम अवसरों पर। ऐसे अवसरों पर जितना आप डांटतीं, उससे ज्यादा हम सबकी मान-मनुहार करतीं। हमें यह समझातीं कि आपकी इस डांट में हम सबका कितना भला छुपा है। इतना ही नहीं, डांटने के बाद अवश्य ही अपने सामने बिठाकर कुछ खिलाती-पिलातीं। हे भावमयी! हम आपके भाव भरे मातृत्व की कैसे, क्या एवं  कितनी चर्चा करें? यह  कथा तो असीम है,अनंत है। हम जैसे अज्ञानी बालक तो क्या, दिव्य लोकों के देवगण भी इसे पूरी तरह से कहने में अयोग्य  हैं। इन क्षणों में हम सब तो बस यह महसूस कर रहे हैं कि हमनें  आपके कोमल हृदय को जाने-अनजाने अनेकों तरह से दुःखी किया है, चोट पहुंचाई है। आप कितना कुछ सहकर हमारे  हठों को पूरा करती रहीं और हम इसे अपना सौभाग्य मानकर इतराते रहे। हमनें  उस समय यह सोचने का  तनिक सा भी प्रयास नहीं किया कि  आपको कितना कष्ट होता होगा। सच में मां, आज हम अपने किए पर अत्यंत शर्मिंदा हैं।हमें वह पल  अच्छी तरह से याद है, जब हमने अपने अज्ञानी बाल स्वभाव के कारण आप से लड़-झगड़ लिया लेकिन कैसा  आश्चर्य है कि  बदले में आपने हमें डांटने-डपटने के  बजाय भरपूर प्यार दिया। झगड़ा भी हमीं ने किया और रूठे भी हमीं, लेकिन  आप सदा ही हम पर कृपालु बनी रहीं। कभी भूल से भी हममें से किसी पर कभी भी कुपित नहीं हुईं क्योंकि इस सत्य को केवल आप ही जानती थीं कि आपके कुपित होने पर तीनों लोकों में हमारा कोई भी  शरणदाता न होगा, हमें कहीं भी  ठिकाना न मिलेगा। कर्म से, वाणी से और चिंतन से हम सबके कई अपराध  हैं और इनमें से हर एक क्षमा के काबिल नहीं है  हमें यह अच्छी तरह से मालूम है कि क्रूर कर्म में प्रवीण कालदेवता, निष्ठुरता में निष्णात विधि का विधान हमारे किसी भी अपराध के थोड़े से अंश को भी क्षमा न करेगा, परंतु हमारी इनसे कोई आशा भी नहीं है। हम सबकी प्रत्येक आशा का केंद्रबिंदु तो आप हैं। अब तक हमने अपनी हर चाहत को पूरा करने के लिए केवल माँ- माँ ही  कहना सीखा है। आज फिर से वही माँ-माँ कहते हुए अपने किए गए  कृत्यों के लिए, अपने समस्त अपराधों के लिए क्षमा की याचना कर रहे हैं। अपने द्वार पर आए सभी याचकों की झोली भरने वाली माता,आज हम बच्चों की झोली अपनी क्षमा से भर दो। आपकी क्षमा शक्ति ही हमारी  जीवन नैया  को पार लगा सकती है,हमें  भवसागर से पार उतार सकती है।

हे माता, यदि हममें से किसी के द्वारा कोई ऐसा अपराध बन पड़ा है जो किसी भी तरह से क्षमा करने लायक नहीं है, तो उसके लिए आप स्वयं ही दंड विधान तय करना। हमको काल के क्रूर हाथों में अथवा विधाता के निष्ठुर विधानपाश के हवाले मत करना। हमें कुछ भी सजा देना मां, लेकिन अपने से दूर मत करना। हम आपके चरणों के सान्निध्य से कभी भी, किसी भी हाल में दूर नहीं होना चाहते। आपकी कृपा छांव में हम सारे कष्ट प्रसन्नतापूर्वक सह लेंगे। मुंह से कभी कोई उफ तक नहीं करेंगें। आपके बिना,आपसे थोड़ा भी दूर होकर हमें इस समस्त विश्व–ब्रह्मांड का कोई भी बड़े से बड़ा श्रेय-सौभाग्य नहीं चाहिए। इन तुच्छ सांसारिक धन-वैभव, यश-प्रतिष्ठा, पद-सम्मान की बात कौन कहे, माता हमें आपसे दूर होकर देवराज इंद्र और सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा का पद भी नहीं चाहिए। दंड हो या पुरस्कार, हमारा समस्त संसार आपके श्रीचरणों में सिमटा हुआ है। हमारे मन व बुद्धि आपके सिवा अन्य कुछ भी सोचने-समझने और जानने में असमर्थ है।

जब आप स्थूल देह में थीं,हम बच्चे रूठा करते थे तो आप हमें मनाया करती थीं। आज जब आप  सूक्ष्म हैं, तो हमारा शंकालु मन यह सोचने लगता है कि कहीं हमारी मां हमसे रूठ तो नहीं गईं। हालांकि हम यह जानते हैं कि भौतिक जीवन की अनेकों रस्सियों में कसा बंधा यह मन आपकी सूक्ष्म चेतना का स्पर्श करने में असमर्थ है, फिर भी अपने इर्द-गिर्द आपकी ढूंढ़-खोज में हमेशा जुटा रहता है। आपके जीवनकाल में इसे आपको प्रतिदिन  देखते रहने की आदत जो पड़ गई है। इस नादान मन को अभी तक यह ठीक से समझ ही  नहीं आ पाया कि अपने बच्चों पर प्राण न्योछावर  करने वाली मां अचानक सूक्ष्म में क्यों जा बैठी। उन्होंने ऐसा कहीं  हम सबसे रूठकर तो नहीं किया,लेकिन  हृदय की उफनती भावनाओं में विश्वास के यही स्वर उमड़ते हैं कि 

वात्सल्यमयी माता कभी भी अपनी संतानों से रूठ नहीं सकती। वह ज़रूर  अपने किसी विशेष प्रयोजनवश हमारी स्थूल आंखों से ओझल हुई है।

इस विश्वास को बल तब  मिलता है, जब स्वप्नों में आपकी दिव्य झलक मिलती है। वही हंसती-मुस्कराती, प्रसन्नता की प्रदीप्ति से ओत-प्रोत दिव्य भावमूर्ति । वही चिर-परिचित वात्सल्य का भावभरा अंदाज । वही स्नेहमय आश्वासन, वही प्रेम छलकाते शब्द। जगने पर लगता है कि अरे मां तो अपने एकदम आस-पास ही है, केवल चर्मचक्षुओं से ओझल हुई है। उसकी सूक्ष्म चेतना तो विराट-विस्तार लिए आंचल की तरह हम सब पर एक साथ छाया कर रही है। संकट में, आपत्ति में, मुसीबत में ,परेशानी में जब कभी प्राण पुकारते हैं, सर्वशक्तिमयी अपनी समस्त शक्तियों के साथ आकर उपस्थित हो जाती है। माता के स्मरण मात्र से क्रूर काल के बढ़ते कदम भी पीछे वापस होने के लिए मजबूर हो जाते हैं। सच है मां महाकाली के शिशुओं के सामने बेचारा काल करेगा भी तो क्या।  उसके लिए तो जगदंबा की एक हुंकार ही पर्याप्त है। इस सत्य का अनुभव हम बच्चों ने अपने इस छोटे से जीवन में अनेकों बार किया है।

समस्त  कामनाओं को पूरा करने वाली हे कामेश्वरी मां! आपने हम बच्चों की प्रत्येक इच्छा पूर्ति की है। हम में से जिसने जो चाहा, उसे आपने वही दिया है। आपके वरदानों को नित्यप्रति अपने जीवन में अनुभव करने वाले हम सभी जनों को यह अनुभूतिजन्य विश्वास हो चला है कि जैसे हमारे लिए अब कुछ भी पाना असंभव नहीं रहा । हम जो भी इच्छा करेंगे, हमारी मां हमें वही दे देगी।

अंतिम याचना एवं संकल्प  

अपने इसी विश्वास के बल पर हे माता ! हम आपसे सिर्फ एक अंतिम याचना कर रहे हैं कि हमें अब किसी और की नहीं, बस आपकी और सिर्फ आपकी चाहत है। हम केवल और केवल आपको चाहते हैं। आपके सिवा अब हमें और कुछ भी नहीं चाहिए। हमारे बिलखते हुए हृदय और आंसू भरी आंखों पर दृष्टि डालकर अब हमें अपनी गोद में उठा लो । संसार के भीषण वन में भटकते हुए हे माता! अब हमारा तन-मन पूरी तरह से तार-तार हो गया है। वेदना से जीवन का अणु-अणु व्यथित है। हे वात्सल्यमयी माँ, ऐसे में सिर्फ आपकी गोद ही हमें त्राण दे सकती है। हे भावमयी भगवती ! हम अतीत और आगत के अपने समस्त अपराधों के लिए आपसे क्षमा-प्रार्थना करते हुए बस अपने लिए आपकी गोद की याचना करते हैं। साथ ही जीवन की शेष सांसों को पूरी तरह आप पर निछावर करने का संकल्प लेते हैं।

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का एक-एक सहकर्मी इस संकल्प को निभाने में वचनबद्ध है क्योंकि उसे इस बात का ज्ञान है कि इससे कम में कुछ भी होने वाला नहीं है। 

इसी संकल्प के साथ ही  वंदनीय माता जी पर आधारित 17 खण्डों  की दिव्य लेख शृंखला का समापन होता है। 

जय गुरुदेव ,जय वंदनीय माता जी। 

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