1992 के कुरुक्षेत्र अश्वमेध यज्ञ में हमारी भागीदारी
सप्ताह का सबसे लोकप्रिय सेगमेंट “अपने सहकर्मियों की कलम से” लेकर हम अपने समर्पित सहकर्मियों के बीच आ चुके हैं, इसे लोकप्रिय बनाने में सहयोग देने के लिए आपका जितना भी धन्यवाद् करें कम है। अपने सहकर्मियों द्वारा पोस्ट की गयीं सभी contributions ही हैं जिन्होंने इस स्पेशल सेगमेंट को “सबसे लोकप्रिय” की संज्ञा देने में योगदान दिया है। हमारा तो सदैव यही उद्देश्य रहा है कि इस छोटे से समर्पित परिवार के समस्त योगदान एक dialogue की भांति हों, एक वार्तालाप की भांति हों ताकि एक “संपर्क साधना”, communication process, के द्वारा इसे lively बनाया जाए। थोड़े से प्रयास से ही हमें इतना बड़ी सफलता प्राप्त हुई है कि इसका श्रेय अपने गुरु को देते हैं जिन्होंने आप जैसी दिव्य आत्माओं को चुन-चुन कर इस परिवार में लाया। हमें तो बार-बार सन्देश मिलते रहे कि आपका काम पोस्ट करना है, कोई पढ़े या न पढ़े ,कोई देखे या न देखे , कोई सुने या न सुने, यह track करना असम्भव है, लेकिन हमारे गुरु ने इस असम्भव को संभव कर दिखाया। आज की परिस्थिति ऐसी है कि छोटे से छोटा कमेंट, एक छोटे से छोटा योगदान भी हमारी दृष्टि से, अंतःकरण से ओझल नहीं हो सकता, दिन के 24 घंटों में से नित्यकर्मों के पश्चात जो भी समय बचता है ,OGGP को ही तो समर्पित है। सहकर्मी भी तो अपनी परिवार की ड्यूटी निभाते हुए समय निकाल ही लेते हैं, अगर कभी किसी कारणवश समय निकालना संभव नहीं हो पाता तो सूचित करके अनुशासन का पालन तो करते ही हैं। नमन है ऐसे समर्पण को जिसने हमसे यह कठिन कार्य को सम्पन्न कराया, सच में ट्रैक करना बहुत ही कठिन कार्य है ,आइये स्वयं ही देख लीजिये।
1. आज दिन का सबसे पहला मैसेज संजना बिटिया का था जिसने झकझोड़ते पूछा कि आज का ज्ञानप्रसाद व्हाट्सप्प पर पोस्ट क्यों नहीं हुआ, उसी समय पोस्ट किया और संध्या बहिन जी ने respond भी कर दिया। यह है इंटरनेट की शक्ति।
2. संध्या बहिन जी ने हमारे लिए “फरिश्ता” और सुमनलता बहिन जी ने “वरदान” जैसे उच्कोटि के विशेषण प्रयोग करके हमारा उत्साहवर्धन किया है लेकिन हम तो फिर कहेंगें जो सदैव कहते आये हैं कि हम एक बहुत ही साधारण मानव हैं जो सदैव आपके स्नेह, प्रेम और गुरु के प्रति समर्पण की भीख मांग रहे हैं। दोनों बहिनों ने इन विशेषणों का प्रयोग करते हुए गुरुदेव का धन्यवाद् किया है जिनके कारण हम माध्यम बना पाए, दरअसल सच यही है।
3. बहिन कुसुम त्रिपाठी ( हमारी पोती काव्या fame) जी युगतीर्थ शांतिकुंज से तीर्थ सेवन के उपरांत घर आ गयी हैं ,अवश्य ही charge होकर आयी होंगीं। शांतिकुंज प्रवास के दौरान प्रतिक्षण सूचित करते रहने के लिए बहिन जी धन्यवाद् करते हैं।
4. बहिन राजकुमारी कौरव जी को करेली ,मध्य प्रदेश में 24 कुंडिय यज्ञ के समापन पर बधाई देते हैं। उन्होंने वीडियोस और संदेशों के माध्यम से बहुत सारी जानकारी भेजी है जिसे compile करके अपने सहकर्मियों के समक्ष प्रस्तुत करना हमारा कर्तव्य है। बहुत बहुत धन्यवाद् बहिन जी।
5. कुमोदनी गौराहा बहिन जी ने दो दिवसीय एस एम सी ( school management committee ) प्रशिक्षण में दो प्रज्ञा गीत (ना प्यार होता ना प्रित होती अगर कहीं तुम ना होती माता) और (अगर हम नहीं देश के काम आए धरा क्या कहेगी गगन क्या कहेगा, संदेश नया युग लाया सन् क्रांति काल है आया) प्रस्तुत कर प्रशिक्षण में उपस्थित सभी शिक्षकों को आत्मविभोर कर दिया। हम सभी परिवारजन बहिन जी को बधाई देते हैं।
6. ज्ञानप्रसाद लेख पर बहिन मंजू मिश्रा जी ने निम्नलिखित कमेंट किया है:
“1984 के तीसरे विश्व युद्ध की बात आई है उस समय में 1st ईयर में थी उस समय मेरे को निबंध लिखना था” तृतीय विश्व युद्ध आज और आज से कितनी दूर” मैंने 3-4 अखंड ज्योति मे से देखकर निबंध लिखा और गुरु देव जी की कृपा से प्रथम पुरस्कार मिला जय गुरु देव जी”
इस कमेंट के सम्बन्ध में हम तो यही लिखना चाहेंगें कि
“ बहिन जी, यह अखंड ज्योति है, जिसके नाम में ही ज्योति शब्द हो, वह ज्योति कैसे न प्रदान करे। हमारे वरिष्ठ सहकर्मी गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित बहुचर्चित पत्रिका “कल्याण” से भलीभांति परिचित तो होंगें। अखंड ज्योति “कल्याण” की भांति बिना किसी विज्ञापन के आजतक लागत मूल्य से भी कम मूल्य पर घर-घर पहुंचाई जा रही है।”
बहिन मंजू जी, आपने तो केवल 3-4 अखंड ज्योति को ही देखा और आपको प्रथम पुरस्कार मिल गया, आप विश्वास कीजिये इस दिव्य पत्रिका ने अनेकों का जीवन ही बदल दिया है। हमें परम पूज्य गुरुदेव के सबसे समर्पित शिष्य एवं तपोभूमि मथुरा के व्यवस्थापक पंडित लीलापत शर्मा जी का स्मरण हो आया जिनके पास कोई अखंड ज्योति की कुछ प्रतियां छोड़ गया था। पंडित जी ने कई स्थानों पर कहा है कि हमें तो इन पुस्तकों आदि पर न तो कोई विश्वास था और न ही श्रद्धा, लेकिन जब पढ़ा तो हमारे जीवन की दिशा ही बदल गयी। “संकल्प श्रद्धांजलि समारोह” वाली वीडियो में हमारे पाठक पंडित जी को पहचान गए होंगें जो माताजी को दंडवत प्रणाम कर रहे हैं। पंडित जी के बारे में वंदनीय माताजी अक्सर कहा करती थीं “ अगर मेरा समर्पित बड़ा बेटा देखना है तो तपोभूमि मथुरा जाकर देखो “
यह सब संस्मरण कोई मनगढ़ंत किस्से, कहानियां नहीं हैं, इनके प्रमाण सहित प्रकाशन में अनेकों ने अपना खून पसीना एक किया है। लेखन कोई ऐसा वैसा कार्य नहीं है, जो लिखते हैं वही बता सकते हैं।
हमें स्मरण आ रहा है कि युगतीर्थ शांतिकुंज में 1980s से एक समर्पित, आदरणीय जीवनदानी ने हमें कितने ही संस्मरण ऑडियो, वीडियो, लेख आदि के रूप में प्रकाशन के लिए भेजे लेकिन किसी का भी कोई प्रमाण न होने के कारण हम प्रकाशित करने में असमर्थ रहे। उनके द्वारा इस बात पर बल देना कि “ गुरुदेव के बारे में हम कह रहे हैं”, हमें संतुष्ट नहीं कर सका और प्रकाशन न हो पाया। “महाशक्ति की लोकयात्रा” और “ चेतना की शिखर यात्रा” के लिए “मनगंढ़त” जैसा विशेषण प्रयोग करना और वह भी उस चैनल द्वारा जिसका नाम ही “गायत्री परिवार हो” अनुचित तो लगता ही है, अपने गुरु का अपमान भी जिसे सहन करना हमारे लिए बहुत ही कष्टदायक है । गुरुदेव का सारा साहित्य ऐसा है जिसने अनेकों भटके हुए परिजनों को मार्गदर्शन प्रदान करते हुए प्रकाश की किरण दिखाई है। हमें सिख धर्म से शिक्षा लेनी चाहिए जहाँ साधक “श्री गुरु ग्रन्थ साहिब, The Holy Book” को गुरु मानते हुए शीश पर धारण करते हैं और कहते हैं “गुरु मान्यो ग्रन्थ”
7. कुरुक्षेत्र अश्वमेध यज्ञ की हमारी अनुभूति
अश्वमेध यज्ञ श्रृंखला पर ज्ञानप्रसाद लेख लिखते समय हमें स्मरण हो आया कि परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वंदनीय माता जी की अनुकम्पा से कुरुक्षेत्र के समारोह में हमारी भी भागीदारी हुई थी। हम उन दिनों पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के केमिस्ट्री विभाग में टीचिंग profession में कार्यरत थे। हमारा बड़ा बेटा 9 वर्ष का था और छोटा 5 वर्ष का था, उन्हें किसी की देख रेख में छोड़ कर हम कुरुक्षेत्र गए थे। Academic कार्यों के लिए तो कुरुक्षेत्र कई बार गए थे लेकिन तब हम केवल यूनिवर्सिटी तक ही सीमित थे। अश्वमेध यज्ञ के लिए जाना एक अलग सा अनुभव तो था ही लेकिन विज्ञान ने आँखों पर अज्ञान की इस तरह की पट्टी बाँधी थी कि यज्ञ, कर्मकांड, गायत्री मन्त्र इत्यादि में उस स्तर का विश्वास नहीं था जो आज है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ जानने, समझने को है। आज जब वैज्ञानिक अध्यात्मवाद को समझने का प्रयास कर रहे हैं उन दिनों विज्ञान के झूठे आवरण के नीचे शायद कुछ समझने का प्रयास किया हो, स्मरण नहीं है। बाल्यकाल से ही माँ की धार्मिक प्रवृति ने कुछ नाममात्र धार्मिक अंश का शायद बीजारोपण किया हो लेकिन महाभारत की पावन भूमि कुरुक्षेत्र में एक नियत दिव्य कार्य के लिए लाया जाना, अवश्य गुरुसत्ता की ही अनुकम्पा रही होगी। नमन करते हैं उस दिव्य सत्ता को जिसने हमें आज इन पक्तियों के लिखने के लिए प्रेरणा दी और हम आपके समक्ष रख सके।
पटियाला से बस द्वारा देर शाम कुरक्षेत्र पहुंचे थे। किसी स्कूल की बिल्डिंग में आवास की व्यवस्था की गयी थी। जिस कमरे में हमें स्थान मिला था शायद 20 लोग इक्क्ठे रह रहे थे। ज़मीन पर ही सोने की व्यवस्था थी, कपड़े, सामान वगैरह सिरहाने ही रखने थे। टॉयलेट्स वगैरह common ही थे, open में हैंड पंप से ही नहाने की व्यवस्था थी, भोजन वगैरह की व्यवस्था तो शायद समारोह स्थली के पास ही थी।
यह विवरण हम इसलिए दे रहे हैं कि 30 वर्षों में व्यवस्था का स्तर कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। आज जब 2019 का विदेशी साधकों वाला लोपा मुद्रा आवास का स्मरण आता है तो गुरुदेव के चरणों में बार-बार शीश नवाने को मन करता है। शांतिकुंज में दो भवन, लोपामुद्रा और गायत्री भवन विदेशी साधकों के लिए हैं। कई बार कहते सुना है कि युगनिर्माण योजना ईश्वर द्वारा संचालित योजना है तो ऐसी प्रगति से ही विश्वास होता है कि इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है। लोपा मुद्रा और गायत्री भवन तो शांतिकुंज में स्थित हैं लेकिन अगर क्षेत्रों के समारोहों पर भी दृष्टि दौड़ाएं तो ईश्वर का वास वहां पर भी दिखाई देता है। आये दिन ऐसे ऐसे क्षेत्रों की वीडियोस मिल रही हैं जहाँ गायत्री परिवार ने जंगल में मंगल जैसी स्थिति बनाई हुई है। शांतिवन कनाडा के बारे में हमारे पाठक भलीभांति जानते हैं, कैसे सारा शांतिकुंज ही यहाँ आया प्रतीत होता था।
अगले दिन प्रातः नित्यक्रिया आदि से फारिग होकर पंडाल में पहुंचना था। ऐसे लगता था जैसे पंडाल में साधकों की बाढ़ आई हो , लाखों में ही होंगें , लेकिन व्यवस्था top quality की, कहीं कोई भागदौड़ नहीं , अस्तव्यस्तता नहीं, अनुशासन और श्रद्धा ऐसी अनुकरणीय ही शब्द कम पड़ जाएँ। समारोह स्थली में वंदनीय माता जी के लिए जो मंच तैयार किया गया था उसकी छटा और ऊंचाई देखते ही बनती थी। शांतिकुंज में तो अनेकों बार चरण स्पर्श और आशीर्वाद प्राप्त किया था लेकिन यहाँ पर श्रद्धावान जनसमूह को देखते हुए दूर से ही माताजी के दिव्य उद्बोधन को सुनकर ही ढाढ़स बंधाना पढ़ा। दुर्भाग्यवश आवास दूर होने के कारण हम कलश यात्रा में तो शामिल न हो पाए लेकिन यज्ञ में अवश्य ही भाग किया। आज वीडियोग्राफी और इंटरनेट की सुविधा से हर क्षण सभी सूचनाएँ मिलती जाती हैं ,लेकिन 30 वर्ष पूर्व तो वहीँ जाकर ही देखा जा सकता था। यज्ञस्थली, साहित्य स्टाल प्रदर्शनी इत्यादि देखकर सामूहिक श्रमदान का अनुमान लगाया जा सकता था। हमारे पास उन दिनों एक सस्ता सा Hotshot कैमरा होता था जिससे हमने माता जी की, यज्ञस्थली की , स्वयं यज्ञ करते हुए, कुछ ब्लैक एंड वाइट फोटो लिए थे। कलर फोटोग्राफी का कुछ प्रचलन तो हो गया था लेकिन photo roll और developing/ printing इतनी महंगी प्रक्रिया थी कि इन्हें अमीरों के शौक ही समझा जाता था। पूर्णाहुति के उपरांत बुक स्टाल से परम पूज्य गुरुदेव के कुछ चुने हुए अमृतवाणी अंश जो Sony/TDK cassette में रिकॉर्ड किये हुए थे, लेकर हम आवास में आए और सामान लेकर वापिस पटियाला आ गए।
इस समारोह की सबसे महत्वपूर्ण बात जो वर्णन योग्य है उसे हम अपने सहकर्मियों से समक्ष रखना चाहते हैं। यज्ञस्थली से यज्ञ भस्म की दिव्यता को अंतःकरण में उतारते हुए अपने साथ लेकर आये थे जिसे आज 30 वर्ष भी पूजास्थली में रखकर पूजा कर रहे हैं। इन 30 वर्षों में न जाने कितने ही घर बदले, कितने ही नगर बदले लेकिन यह यह भस्म आज भी हमें मार्गदर्शन दिए जा रही है।
हर बार की भांति आज भी यह सेगमेंट इतना विस्तृत हो गया है कि शब्दसीमा यहीं पर रुकने को कह रही है। आज भी उसी आश्वासन के साथ इस स्पेशल सेगमेंट का समापन करते हैं कि जो प्रकाशित नहीं हो पाया उसे आने वाले अंको तक स्थगित करने की आज्ञा लेते हैं।
शब्द सीमा के कारण संकल्प सूची प्रकाशित करने में असमर्थ हैं।