ब्रह्मवर्चस द्वारा सम्पादित 121 scanned पन्नों और 32 Text पन्नों की दिव्य पुस्तक “महाशक्ति की लोकयात्रा” पर आधारित लेख श्रृंखला हमने 15 नवंबर 2022 को आरम्भ की थी, आज तक 13 full length लेख लिख चुके हैं। आज का लेख इस श्रृंखला का 14 वां लेख है। अन्य लेखों की भांति यह सभी लेख भी हमारी website [https://life2health.org/] और internet archive [https://archive.org/details/@barwal] पर उपलब्ध हैं।
शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस व गायत्री तपोभूमि के कार्यकर्त्ता एवं गायत्री परिवार के परिजन तो पहले से ही अपनी मां की महिमामयी शक्ति से सुपरिचित थे किंतु आशंकाएं औरों को थीं। अनेकों बाहरी लोग शंकाओं-कुशंकाओं से घिरे थे। वे सोचते थे कि अब मिशन का संचालन कैसे और किस तरह से होगा। ऐसी बातें लोगों के टूटे ह्रदय से रिस-रिसकर हवाओं के साथ घुलकर वंदनीया माताजी के पास भी आतीं लेकिन इन सबका उन पर कभी कोई असर नहीं हुआ। वह तो ब्रह्मदीप यज्ञ समाप्त होते ही अपने आराध्य के चरणों में भावभरी श्रद्धांजलि अर्पित करने की तैयारियों में जुट गई थीं। इसे उन्होंने व्यापक समारोह का स्वरूप देने का निश्चय किया ताकि उनके साथ उनकी सभी संतानें अपने प्रभु को अपनी भाव श्रद्धा समर्पित कर सकें।
1990 के संकल्प श्रद्धांजलि समारोह का संक्षिप्त विवरण
ब्रह्मदीप यज्ञों का निश्चय परमपूज्य गुरुदेव ने 28 अप्रैल 1990 को स्वयं किया था। अपने एकांतवास के बावजूद उन्होंने इस दिन कुछ निकटवर्ती कार्यकर्त्ताओं की गोष्ठी बुलाकर यह तय किया था कि 7-8 जून को ज्येष्ठ पूर्णिमा के अवसर पर भोपाल, कोरबा, मुजफ्फरपुर, अहमदाबाद, लखनऊ एवं जयपुर में यह यज्ञ आयोजित किए जाएं। हालांकि हर एक के मन में यह बात थी कि वह शांतिकुंज जाकर अपने प्रभु को श्रद्धांजलि अर्पित करे, उन्हें अपने भाव सुमन चढ़ाए। किसी ने भी इसका पालन करने में कोई कोताही नहीं बरती।अनुशासित परिजन अपने सद्गुरु के आदेश को शिरोधार्य करके 2 जून, 1990 को उनके महाप्रयाण का समाचार मिलने के बावजूद सौंपे गए कार्य को पूरा करने के लिए जुटे रहे। सभी की भावनाएं कसमसाईं, छटपटाईं, तड़फड़ाईं तो बहुत थीं लेकिन गुरुदेव का आदेश सर्वोपरि था।
अपने बच्चों के इन मनोभावों से माताजी परिचित थीं। उन्हें अपनी संतानों की वेदना का ज्ञान था। इसी वजह से उन्होंने “संकल्प श्रद्धांजलि समारोह” के आयोजन की घोषणा की थी । इसकी तैयारियां बहुत चुनौती भरी थीं। जून के पंद्रह दिन और जुलाई, अगस्त एवं सितंबर के महीने ही थे। इसमें भी ज्यादातर समय वर्षाकाल का था। उतनी ही अवधि में कुंभ जैसे आयोजन की पूरी तैयारी करनी थी। कुंभ के लिए प्रशासन अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ एक वर्ष तैयारी करता है लेकिन यहां सब कुछ बिना किसी सरकारी सहायता के किया जाना था। अपनी मां के एक इशारे पर उसकी संतानें क्या कुछ कर सकती हैं इसका एक अनूठा उदाहरण पूरे उत्तर भारत की जनता को सन् 1990 में देखने को मिला।
यह समारोह 1-4 अक्टूबर 1990 को आयोजित हुआ था। Shantikunjvideo gayatripariwar यूट्यूब चैनल पर लगभग 78 मिनट की एक विस्तृत वीडियो उपलब्ध है जिसमें इस समारोह की छटा देखते ही बनती है। पाठकों से निवेदन है कि वंदनीय माताजी की शक्ति को दर्शाती इस वीडियो को अवशय देखें।
शिक्षक, किसान, न्यायाधीश, चिकित्सक, इंजीनियर, आई.ए.एस. अधिकारी सभी इस मिशन से जुड़े हैं। इनमें से 20 हजार से अधिक स्वयंसेवक के रूप में 25 सितंबर से ही आ गए थे। आते ही ये बिना किसी पर या शिक्षा, जाति या वर्ण के पूर्वाग्रह के सब-के-सब एकजुट होकर कार्यक्रम में लग गए।
टेंट, शामियाने, जल-बिजली आदि की व्यवस्था, ऊबड़-खाबड़ स्थानों की सफाई, विशाल भोजन भट्ठियों का निर्माण आदि सभी काम इन्हीं सबने मिल-जुलकर पूरे किए। इन सारे कामों का दायरा काफी व्यापक परिक्षेत्र में फैला हुआ था। पूरे हरिद्वार नगर की 15 मील की लंबाई व 8 मील चौड़ाई में कनखल से मोतीचूर तक 24 नगरों को बसाने की व्यवस्था की गई। जब यह सभी काम चल रहा था तो वंदनीया माताजी स्वयं पूरे क्षेत्र में गईं। एक- एक जगह पर वह मोटर-वाहन से उतरीं, काम कर रहे लोगों का उत्साहवर्द्धन किया। काम करने वाले कार्यकर्ता भी उन्हें अपने समीप पाकर आनंदित हो गए। माताजी का इस तरह इन सभी जगहों पर जाना एक दिन बड़े ही अचानक ढंग से हुआ था। इसके बारे में पूछने पर पहले तो वह बोलीं कि बच्चे काम कर रहे हैं, मैं चली जाऊंगी, तो उनका उत्साहवर्द्धन होगा। जब उनसे पूछा गया कि क्या सिर्फ इतनी सी बात ही है, तो वह कुछ सोचते हुए कहने लगीं,
“देखो जिन जगहों पर बच्चे काम कर रहे हैं, वहां कई भयानक विषधर हैं, अगर वह काट लें, तो आदमी पानी भी न मांग सके। मैं उन्हें वहां से हटाने गई थी। मैंने इन विषैले जीवों से कह दिया है कि तुम लोग यहां से चले जाओ, अभी यहां पर काम हो रहा है, यहाँ बहुत सारे लोग आएंगे और ऐसे में तुम सबका यहां रहना ठीक नहीं है। उन सबको यह बात समझ में आ गई है. अब वे चले जाएंगे।”
पूछने वाले को शायद माताजी की बातें ठीक से समझ में नहीं आईं, वह बोला, माताजी इन विषैले जीवों को मारा भी तो जा सकता है। यह बात सुनते ही उनका स्वर काफी तीखा हो गया, “क्यों मारा जा सकता है? क्या बिगाड़ा है तुम लोगों का उन्होंने? एक तो तुम लोग उनकी रहने की जगहों को तहस-नहस किए दे रहे हो, ऊपर से उन्हें मारोगे भी। क्या वे सब मेरी संतान नहीं है?” माताजी की इन बातों सुनने वाले को झकझोर दिया। वह यह सोचने पर विवश हो गया कि माताजी मनुष्यों की ही नहीं, प्राणि-वनस्पतियों, पशु-पक्षियों आदि सभी की मां हैं, तभी तो वह माताजी की बातों को समझते हैं और माताजी भी उनकी बातों को समझती हैं।
ऐसी ममतामयी मां के ममत्व से भीगे हुए हज़ारों परिजन इस “संकल्प श्रद्धांजलि समारोह” की तैयारियों में जुटे थे। इन तैयारियों के प्रत्येक चरण से उनकी महिमा प्रकट हो रही थी। हालांकि कुछ शंकालु जन अभी भी यही सोच रहे थे कि जितने व्यापक स्तर पर तैयारियां की गई हैं, क्या उतने लोग आएंगे भी कि नहीं। इन लोगों का सोचना कई अर्थों में सही भी था क्योंकि उस समय अयोध्या प्रकरण व मंडल कमीशन की प्रतिक्रिया स्वरूप देशव्यापी आंदोलन भड़का हुआ था। बसें, ट्रेनें, यहां तक कि फायर ब्रिग्रेड की गाड़ियां तक जलाई जा रही थीं। सड़कों एवं प्लेटफार्मों पर एक अजीब सूनापन छाया हुआ था। बिहार प्रदेश के बाबू बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में मंडल कमीशन ने अपनी सिफारशें दीं जिनके फलस्वरूप 49.5 प्रतिशत रिजर्वेशन का द्वार खुला लेकिन सम्पूर्ण भारत में इसके विरोध में आंदोलन हुए। ऐसी स्थिति होने के बावजूद महाशक्ति की महिमा ने अपना कमाल दिखाया। श्रद्धांजलि समारोह में जितने व्यक्तियों को आना था, सभी आए। इन लाखों लोगों के मार्ग में न कोई उपद्रव आड़े आया और न कोई जन-धन की हानि हुई। जिन लोगों ने 1 अक्टूबर से 4 अक्टूबर तक सभी कार्यक्रमों में नियमित रूप से भाग लिया, उनकी संख्या 5 लाख से अधिक रही। एक लाख से अधिक तो वे लोग थे जो प्रतिदिन आते-जाते रहे। सारा हरिद्वार पीले वस्त्र पहने, पीत दुपट्टाधारी स्त्री-पुरुषों से भर गया था। नगर व प्रांत के पत्रकारगण, दूरदर्शन व आकाशवाणी के प्रतिनिधि सभी समारोह की व्यवस्था को देखकर चकित थे। उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम सत्यनारायण रेड्डी भी इस कार्यक्रम में आए थे। उन्होंने सब कुछ देखकर अपनी मुखर अभिव्यक्ति दी कि यह सब कुछ दैवी एवं दिव्य है। शरद पूर्णिमा की सायं इस दिव्यता से और अधिक दीप्त हो उठी। शाम 6.30 बजे दीपयज्ञ आरंभ होने से पूर्व पूरा विशाल सभागार खचाखच भर गया। विराट् सवालक्ष दीपों का महायज्ञ प्रारंभ हुआ। ‘यन्मण्डलम् दीप्तिकरं विशालम्’ की धुन के बीच सब दीप जल उठे। यह दृश्य देखते ही बनता था। शरद पूर्णिमा की रात थी लेकिन पूर्णिमा का चांद भी छोटे-छोटे दीपों की समन्वित आभा-ऊर्जा के सामने मद्धिम लग रहा था। महाशक्ति की महिमा इन अगणित दीपों की कोटि-कोटि ज्योति किरणों से प्रकट हो रही थी।
4 अक्टूबर 1990 को जब विदाई की वेला आई, तब सभी के हृदय भरे और भीगे थे। उनकी महाशक्ति के अनेकों चमत्कार इन दिनों देखने को मिले। इनमें से एक चमत्कार यह भी था कि
लाखों लोगों के नित्य भोजन करने के बावजूद शांतिकुंज के अन्न भंडार यथावत् परिपूर्ण रहे। कहीं कोई कमी नहीं आई। पता नहीं अन्नपूर्णा ने कैसे और किस तरह यह चमत्कार कर दिया था।
अपनी मां से विदा लेते हुए सभी परिजन अनुभव कर रहे थे कि माताजी उनकी अपनी मां होने के साथ समूचे राष्ट्र की माता हैं।
परम वंदनीय माताजी की राष्ट्रिय संवेदना
वे राष्ट्र की प्राणदायिनी शक्ति हैं। मातृसत्ता में राष्ट्रीय संवेदना की सघनता की अनुभूति पहले भी सभी को समय-समय पर होती रहती थी परंतु “संकल्प श्रद्धांजलि समारोह” के बाद से राष्ट्र के लिए उनके प्राणों की विकलता कुछ अधिक ही बढ़ गई। वे बार-बार सोचती रहतीं कि ऐसा कौन-सा अनुष्ठान संपन्न किया जाए जिससे राष्ट्र के प्राणों को नवस्फूर्ति प्राप्त हो, देश की संस्कृति संवेदना अपना व्यापक विस्तार कर सके। अपने निकटस्थ जनों से चर्चा में भी उन दिनों उनका यही चिंतन मुखरित होता था। मिशन के सारे कामकाज के ताने-बाने को सुलझाती-बुनती हुई माताजी इसी राष्ट्र चिंता में लीन रहती थीं। माताजी का अधिकतर समय ऐसे चिंतन और चर्चा में बीता। शांतिकुंज के क्रिया-कलापों में कई नयी कड़ियां भी इसी दौरान ही जुड़ीं। परम वंदनीया माताजी की देख-रेख व उनके सूत्र संचालन में पहले से सुचारु व्यवस्था और भी अधिक गतिशील हुई। इसी समय उन्होंने हिमालय यात्रा की योजना बनाई। यह योजना प्रायः यकायक ही बनी।
वंदनीय माता जी की हिमालय यात्रा
माताजी हिमालय जाएंगी, यह सोचकर निकटस्थ जनों को थोड़ा भय भी हुआ। वे सोच रहे थे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि माताजी हिमालय में ही रहने का मन बना लें। कइयों को यह भी शंका हुई कि कहीं वह हिमालय के हिमशिखरों के बीच महासमाधि तो नहीं लेना चाहतीं क्योंकि वैसे भी गुरुदेव के अभाव में उनका मन संसार में किसी भी तरह नहीं टिक पा रहा था।
अंतर्यामी मां से अपने बच्चों के मन की यह ऊहापोह छुपी न रही। उन्होंने हंसते हुए कहा, यह ठीक है कि गुरुजी के बिना यह देह रखना मेरे लिए अत्यंत कठिन है लेकिन मुझे अपने बच्चे भी कोई कम प्यारे नहीं हैं। मैं तुम लोगों के लिए अभी कुछ दिनों रहूंगी और यही शांतिकुंज में ही रहूंगी। जहां तक हिमालय जाने की बात है, तो वहां जाने का कारण कुछ और है। ये बातें तुम सबको वहां से लौटने पर पता चलेंगी।
सबको इस तरह अपनी वापसी के बारे में निश्चिंत कर वह हिमालय में गंगोत्री के लिए चल पड़ीं। उनके साथ शैलदीदी, डॉ. प्रणव पंड्या, चिन्मय एवं कुछ अन्य पारिवारिक सदस्य थे। दो-चार दूसरे सौभाग्यशाली जनों को भी उनके साथ इस यात्रा में जाने का सुयोग मिला। हिमशिखरों के मध्य पहुंचकर माताजी के भावों में एक अनोखा परिवर्तन झलकने लगा। उन्हें देखने वालों को ऐसा लगा जैसे कि कोई कन्या अपने पीहर आई है। जैसे कि वह अपने आप नहीं, पिता हिमवान के बुलावे पर यहां आई हैं। उनके दीप्त मुखमंडल पर आनंद की रेखाएं सघन हो गईं। कई स्थानों पर वह रुकीं और ध्यानस्थ हो गईं। गंगोत्री के पास भगीरथ शिला पर तो वह काफी देर ध्यानमग्न बैठी रहीं। यहां पर जब वह ध्यान से उठीं, तो उनके चेहरे पर कुछ विशेष पाने की प्रसन्नता की प्रदीप्ति थी ।भागीरथी शिला गंगोत्री में स्थित एक प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षण है। इस शिला से एक पौराणिक कहानी जुड़ी हुई है। मान्यताओं के अनुसार, राजा भगीरथ ने देवी गंगा को प्रसन्न करने के लिए इसी चट्टान पर आराधना की थी। वंदनीय माताजी ने यहीं से अपनी यात्रा को विराम दिया और शांतिकुंज वापस लौट आईं। वापस लौटने पर उन्होंने “एक भव्य शपथ समारोह” में राष्ट्रव्यापी अश्वमेध महायज्ञों की घोषणा की।
इस शपथ समारोह की डेढ़ घंटे की वीडियो भी यूट्यूब पर उपलब्ध है। इस वीडियो को भी अवश्य देखें और पूरा देखें , हमारा विशवास है कि आपके बहुत सारे सुप्त प्रश्न इस वीडियो में छिपे हुए हैं।
हिमालय से मिला था अश्वमेध यज्ञों का निर्देश
अश्वमेध यज्ञों की घोषणा करते समय माताजी ने बताया कि देवात्मा हिमालय ने उन्हें यही संदेश दिया है। हिमालय में निवास करने वाली दिव्य शक्तियों का यही आग्रह है कि राष्ट्र को समर्थ एवं सशक्त बनाने वाले अश्वमेध महायज्ञ का महानुष्ठान किया जाए। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि इन महायज्ञों में वह स्वयं जाएंगी। उनके आने की बात सुनकर परिजनों का उत्साह आकाश चूमने लगा। सभी अपने क्षेत्र में इस महायज्ञ को आयोजित करने के लिए उतावले थे लेकिन यह सौभाग्य कुछ विशेष स्थानों को ही मिला। माताजी ने अपनी देख-रेख में इस महायज्ञ का कर्मकांड तैयार करवाया। परिजनों को इसकी विस्तृत जानकारी देने के लिए अखण्ड ज्योति की संपादक मंडली ने अखण्ड ज्योति का एक संपूर्ण विशेषांक (नवम्बर 1992 ) तैयार किया। इस स्पेशल अंक में यज्ञ सम्बन्धी पाठकों के अनेकों प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं।
परम वंदनीया माताजी ने जयपुर के प्रथम अश्वमेध के लिए अपनी यात्रा प्रारंभ की। उनका यह क्रम भिलाई (म.प्र.), गुना (म.प्र.), भुवनेश्वर (उड़ीसा), लखनऊ (उ.प्र.) बड़ौदा (गुजरात), भोपाल (म.प्र.), नागपुर (महाराष्ट्र), ब्रह्मपुर (उड़ीसा), कोरबा (म.प्र.), पटना (बिहार), कुरुक्षेत्र (हरियाणा) एवं चित्रकूट (म.प्र.) आदि स्थानों में होने वाले अश्वमेध महायज्ञों में जारी रहा। इन सभी स्थानों की यात्रा के लिए विभिन्न राज्य सरकारों ने उनके लिए सरकारी वायुयान की व्यवस्था की। परम वंदनीय माताजी को राजकीय अतिथि का सम्मान दिया गया । दिग्विजय सिंह, लालू प्रसाद यादव, बीजू पटनायक, चिमन भाई पटेल आदि कई राज्यों के तत्कालीन मुख्यमंत्रियों ने उनके वात्सल्य से स्वयं को अनुग्रहीत अनुभव किया। मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल मो. शफी कुरैशी, उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा एवं उस समय के प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्ह राव एवं प्रतिपक्ष नेता के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी आदि अनेकों विशिष्ट व्यक्तियों ने इन अश्वमेध कार्यक्रमों में उपस्थित होकर अनुभव किया कि माताजी का हृदय समूचे राष्ट्र के प्रति वात्सल्य से भरा हुआ है।
माताजी की अश्वमेध यात्रा की अनुभूतियां एवं यादें इतनी अधिक हैं कि उन पर अलग से कई खंडों में एक समूची ग्रंथावली प्रकाशित की जा सकती है। वह जहां भी गईं, वहां व्यस्त कार्यक्रमों एवं थोड़े समय के बावजूद सभी से मिलीं। अति विशिष्ट जनों से लेकर अति साधारणजन तक सभी उनसे मिलकर धन्य हुए। इस अति व्यस्तता में भी वे अपने भावुक बच्चों को नहीं भूलीं। उनके आग्रह- अनुरोध पर वे उनके घरों में गईं। समूचे देश में ऐसे कई घर हैं जो उनकी चरण धूलि से तीर्थ स्थान बन गए। जहां पर वह बैठीं, उन स्थानों को कई लोगों ने अपनी उपासना स्थली बना लिया। ऐसे व्यक्तियों ने बाद के दिनों में अनेकों दिव्य अनुभूतियां पाईं। उनकी अंतर्चेतना में एक अलौकिक आलोक का अवतरण हुआ। वह जहां भी गईं, वहां उन्होंने अनेकों अनुदान बिखेरे। कई स्थानों पर स्वयं उन्हें भी अनेकों यादों ने घेर लिया। ऐसा लगा जैसे कि वह पहले किसी अन्य रूप में यहां आई हैं।
चित्रकूट में सभी ने इस सत्य को प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देखा । चित्रकूट अश्वमेध के समय वह शारीरिक रूप से काफी कुछ कमज़ोर थीं। इस शारीरिक कमज़ोरी के बावजूद वह उन सभी स्थानों पर गईं जहां प्रभु श्रीराम, माता सीता एवं भ्राता लक्ष्मण के साथ गए थे, जहां उन्होंने अनेकों ऋषि-मुनियों का संग लाभ लिया था। माताजी इन सभी स्थानों पर आग्रहपूर्वक गईं। कामदगिरि, स्फटिक शिला, गुप्त गोदावरी आदि सभी स्थानों की यात्रा उन्होंने बड़े भाव भरे मन से की। इन जगहों को उन्होंने कुछ इस तरह से देखा जैसे वह यहीं कहीं अपने राम को देख रही हों। स्फटिक शिला पर वह थोड़ी देर बैठीं भी। यहां बैठने पर बोलीं,
“देखो तो सही, समय बदलने के साथ कितना कुछ बदल गया है। त्रेता युग में कुछ और था, अब कुछ और है।”
सुनने वाले कुछ समझे, कुछ नहीं समझे, अधिक पूछने पर वह हल्के से मुस्करा दीं। अपने बच्चों को खुशियां देते, राष्ट्र के प्राणों में नवस्फूर्ति का संचार करते हुए उनकी यह यात्रा चल रही थी। उन्हें इस तरह यात्रा करते हुए देखकर विदेशों में बसे परिजनों के मन में यह लालसा सघन हो गई कि उनकी मां उनके पास भी आ जाएं। उनके घर भी विश्वजननी की चरण धूलि से तीर्थ-भूमि बन सके। अपने विदेशी बच्चों के इस आग्रह अनुरोध को वह ठुकरा न सकीं। सभी के प्रबल प्रेम के कारण विश्वमाता ने विश्वयात्रा के लिए हामी भर दी। उनकी इस “हां” से अगणित हृदय पुलकित-प्रफुल्लित हो उठे।
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