17 नवंबर 2022 का ज्ञानप्रसाद
विशिष्ट वर्ष में अवतरित हुईं महाशक्ति
पिता का ज्योतिष ज्ञान पुत्री को गोद में लेते ही सार्थक हो गया। उन्होंने कन्या के जन्म मुहूर्त पर मन-ही-मन विचार किया,ग्रहों की दशा के बारे में गणनाएं कीं और उनके चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं झिलमिला उठीं। ज्योतिष की गणनाएं एक के बाद एक उन्हीं तथ्यों की ओर संकेत कर रहीं थीं जिनका अहसास उन्हें अपनी ध्यानस्थ चेतना में हुआ था। साधनाकाल में और ज्योतिष विद्या का गहन अवलोकन करते समय उन्हें बार-बार इस तथ्य की अनुभूति होती थी कि वर्ष 1926 महान आध्यात्मिक शक्ति के अवतरण का वर्ष है।
इसी वर्ष वसंत पंचमी को विश्व की महानतम आध्यात्मिक घटना घट चुकी थी। परम पूज्य गुरुदेव (पंद्रह वर्षीय श्रीराम) ने अपने हिमालयवासी महागुरुदेव के मार्गदर्शन में अखंड साधना दीप प्रज्वलित किया था। उनकी चौबीस वर्षीय गायत्री महापुरश्चरणों की श्रृंखला इसी वर्ष प्रारंभ हुई थी। इसके अतिरिक्त श्रीअरविंद आश्रम पांडिचेरी में महायोगी अरविंद पूर्णयोग की विशेष सिद्धि को अवतरण करने की सफलता प्राप्त कर रहे थे। इस वर्ष के अंतिम महीनों में ही अतिमानसिक चेतना धरती पर अवतरित हुई थी और महायोगी अरविंद अतिमानसिक चेतना के अवतरण के लिए परिपूर्ण एकांत में चले गए थे।
जिस आध्यात्मिक शक्ति के अवतरण के साक्षी आज जसवंतराव थे, वह उपर्युक्त दोनों ही घटनाओं से कहीं अधिक विशिष्ट थी, क्योंकि इसमें आध्यात्मिक महाशक्ति ने स्वयं ही स्थूल देह धारण करके अवतार लिया था। नीलगगन में सूर्यदेव बड़े ही सुखद आश्चर्य से इस दृश्य को निहार रहे थे। समूचे वातावरण में आज एक शांति, शीतलता, और मधुर सुवास व्याप्त हो रही थी। धरती का यह छोटा-सा कोना तीर्थभूमि बन गया था।
जसवंतराव की भावभूमि अपरिवर्तित थी। वह तो सुंदरता बिखेरती अपनी कन्या को गोद में लिए बस देखे जा रहे थे। यदि पड़ोस की महिला उन्हें न टोकती, तो वह न जाने कब तक ज्यों ही खोये रहते।पड़ोसन ने कहा: ऐसा क्या है इस लड़की में, जो कब से देखे जा रहे हैं? उसके इस तरह पूछने पर उनकी भाव-समाधि भंग हुई और वे बड़े ही हर्षित स्वर में बोले:
यह लड़की बहुत ही भगवती है। यह हजारों-हजार लोगों को भरपेट खाना खिलाएगी, यह तो सभी के भाग्य को बनाने वाली भगवती है।
पड़ोस की महिला को उनकी यह गूढ़ बातें कुछ भी समझ में न आईं। वह तो बस लोक प्रचलन के अनुसार इतना भर जानती थी कि लड़का होना अच्छा होता है और लड़की होना बुरा। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि जसवंतराव घर में लड़की होने पर इतना खुश क्यों हो रहे हैं। उनकी बातों से उसे केवल इतना समझ में आया कि उन्होंने अपनी पुत्री का नाम ‘भगवती’ रखा है। उसने कन्या को उनकी गोद से लेकर लेडी लायल अस्पताल के एक कक्ष में विश्राम कर रही मां के पास लिटा दिया। इस नाम के स्वर कन्या की मां के कानों में भी पड़े। उन्होंने बड़े ही लाड़ से अपनी बेटी की ओर निहारा। उस नन्ही-सी बालिका के नेत्रों में जैसे कोई सम्मोहिनी ( Hypnotic) शक्ति थी, जिसे देखकर वह बरबस सोचने लगीं, अहा ! कितनी सुंदर आंखें हैं, मानो देवी के नेत्र हैं! मेरी यह बेटी सचमुच ही माता भगवती है। माता के ममत्व एवं पिता के स्नेहमय लालन में भगवती शशिकला की भांति दिनोदिन बढ़ने लगी। स्वजनों के साथ बेटी का बचपन बीतने लगा।
स्वजनों के साथ बीत रहे बचपन के इन पलों में बड़ी ही मिठास थी । यदा-कदा इनके अनूठेपन के झरोखों से अलौकिकता झांक उठती। बेटी भगवती अपनी मां के साथ-साथ सभी भाई-बहनों की लाड़ली थी। रंग-रूप सामान्य होते हुए भी उसमें एक दैवी मोहिनी थी। अड़ोस-पड़ोस के लोग, रिश्ते-नातेदार, सगे-संबंधी सभी इस दैवी सम्मोहन में अनायास बंध जाते थे। वह सभी की प्रिय ‘लाली’ थी। मथुरा-वृन्दावन के आस पास के क्षेत्र में (ब्रज क्षेत्र) यह शब्द बहुत प्यारी, लाड़ली, छोटी बालिकाओं के लिए प्रयुक्त होता है। कथा तो यह भी प्रचलित है कि “लाली” शब्द को सबसे पहले बरसाने (राधा रानी की जन्म भूमि- बरसाना गांव ) में राधा रानी को पुकारने के लिए प्रयोग किया गया।
जन्मदात्री माता रामप्यारी, पिता जसवंतराव, दोनों भाई- दीनदयाल,सुनहरीलाल एवं बहन ओमवती सभी उन्हें “लाली” ही कहते थे। पड़ोसियों की जीभ पर भी यही संबोधन लिख गया था। लाली सभी की अपनी थी। सभी का प्यार उस पर बरबस बरसता था। बचपन में जैसे अन्य बच्चे शरारती, चंचल और नटखट होते हैं, वैसा उनमें कुछ भी नहीं था। भोलापन और मासूमियत लिए बड़ी ही गजब की शांत प्रवृत्ति थी।
नन्हें कदमों से जब “लाली” ने चलना सीखा और वाणी से बोल मुखरित हुए, तो माता को अम्मा और पिता को दादा कहना सीख लिया। नन्हे कदमों से धीमे-धीमे चलती हुई अपनी इस प्यारी ‘लाली’ को जसवंतराव प्रेम विभोर हो गोद में उठा लेते थे। अपनी लाड़ली की हर इच्छा को वह अपना सौभाग्य मानकर पूरा करते। वह उन्हें अपनी दिव्य अनुभूतियों का साकार रूप लगती।
काल के रथ पर सवार भगवती का बचपन जीवन के मधुर संगीत की सृष्टि करता हुआ आगे बढ़ रहा था। तभी इस मधुरता में अनायास विषाद का पल आया । जन्मदात्री माता अपनी प्यारी “लाली” को केवल 4 वर्ष की अवस्था में छोड़कर परलोक जा बसीं।माँ की बीमारी इस दैव की क्रूरता का माध्यम बनी। भगवती के बाल नेत्रों में आंसू छलक उठे। नन्हें से दिल में भावनाओं का ज्वार तड़प उठा। मातृ विछोह के पल उनके लिए बड़े ही दारुण थे। चार वर्ष की छोटी-सी बच्ची के लिए तो मां ही सब कुछ होती है लेकिन सच तो सच ही था। अपनी माँ की याद में उन दिनों वह काफी रोई पर इस करुण दशा में भी उनकी आंतरिक चेतना जाग्रत, सक्रिय और सचेतन बनी रही। बड़ी बहन एवं भाइयों को इस पर बड़ा आश्चर्य होता था कि इतनी छोटी-सी केवल 4 वर्षीय “लाली” कभी-कभी उन्हें ही समझाने लगती।
कभी-कभी वह गुमसुम-सी चुपचाप पालथी मारकर बैठी होतीं तो उन्हें इस भावमग्न दशा में बैठे देखकर घर के सदस्यों को अचरज होता।
वे सब “लाली” की अंतर्दशा से अपरिचित थे। उनमें से कोई सोच नहीं पाता था कि यह छोटी-सी बच्ची आखिर इस तरह क्यों एकांत में शांत होकर बैठी है।
एक दिन बड़े भाई दीनदयाल ने “लाली” को इस तरह बैठे देखकर पूछ लिया,
“लाली, तू इस तरह चुपचाप शांत क्यों बैठी है, बच्चों के साथ खेलती-कूदती क्यों नहीं? तुझे देखकर तो ऐसा लगता है कि तेरे सिर पर सारी दुनिया का भार है?”
प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बड़े ही शांत नेत्रों से भाई की ओर देखा, फिर बड़े ही गंभीर स्वरों में बोलीं,
“हां, सो तो है। सारी दुनिया का भार मुझ पर नहीं, तो और किस पर होगा !”
उनकी ये बातें दीनदयाल को कुछ भी समझ नहीं आईं लेकिन उनके शब्दों में यह सत्य तो निहित ही था कि वह बचपन से ही अपने भावी दायित्वों के प्रति जागरूक थीं।
इन्हीं वर्षों में दीनदयाल की शादी हो गयी। “लाली” की भाभी बड़े ही स्नेहशील स्वभाव और प्रेमपूर्ण हृदय की महिला थी। उन्होंने अपनी इस ननद की बड़े ही यत्न से सार-संभाल की। बार-बार उनका मन कहता था कि उनकी यह “छोटी-सी ननद कोई देवी है।” उसकी पारदर्शी आंखों में उन्हें पारलौकिक व अलौकिक प्रभा छलकती हुई लगती। जब-तब उनकी यह ननद कुछ ऐसी बातें कह देती जिससे उनका यह विश्वास और भी अधिक मज़बूत हो जाता। ऐसे ही एक बार के घटनाक्रम में भाभी पिता जी उन्हें लिवाने के लिए आने वाले थे। 15-20 दिन पूर्व इस आशय की चिट्ठी भी आई थी जिसमें उनके आने की सुनिश्चित तिथि लिखी थी लेकिन उस तिथि को न वह आ सके और न ही कोई सूचना भी पहुंची। इससे भाभी की चिंता बढ़ गई। उन्होंने किसी से कुछ कहा तो नहीं परन्तु उदास रहने लगीं। घर के कामों, जिम्मेदारियों को निभाते हुए वह हर पल, हर क्षण बेचैन रहती। मन की घबराहट चेहरे पर भी नज़र आ जाती। एक दिन “लाली” ने उनसे धीरे से पूछ ही लिया, “क्या बात है भाभी, आजकल आप इतनी परेशान क्यों रहती हो?” उन्होंने जवाब दिया, “कुछ नहीं, लाली ऐसी कोई बात नहीं।” भगवती ने हल्के से मुस्कराते हुए कहा, “बात तो है भाभी, कहो तो बता दूं।” फिर धीरे से गंभीर स्वर में बोलीं,
“आप इसलिए परेशान हो न, कि आपके पिता नहीं आए, लेकिन अब आप ज़्यादा परेशान न हों क्योंकि उन्हें काफी तेज बुखार आ गया था। चिट्ठी उन्होंने लिखी थी लेकिन वह समय पर पहुंच न पाई । आज वह चलने की तैयारी कर रहे हैं। कल यहां पहुंच जाएंगे। जहां तक चिट्ठी की बात है, वह आज ही आपको मिल जाएगी।”
अपनी इस छोटी-सी ननद की बातें सुनकर भाभी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने तो घर में किसी को भी अपने मन की बातें नहीं बताई थीं। यह आश्चर्य तब और भी बढ़ गया जब सच में सुबह डाकिया आकर चिट्ठी दे गया। चिट्ठी में वही सब बातें लिखी थीं जो उनकी लाली ने उन्हें बताई थीं। दूसरे दिन पिताजी उन्हें लेने के लिए आ गए। पिताजी ने घर-परिवार के, अपने स्वास्थ्य के जो समाचार बताए, वे सब वही थे जो लाली(भगवती) ने बताए थे। पिताजी को भी इस बात पर पक्का विश्वास हो गया कि लाली सच में ही कोई दैवी शक्ति है। भाभी के हृदय में अपनी इस ननद के लिए प्यार तो पहले से ही था, अब सम्मान और श्रद्धा का भाव भी जाग उठा।
“लाली” के गुड़िया-गुड्डे के खेल
भगवती के मन में भी अपनी भाभी के लिए विशेष लगाव था। अपनी अवस्था के अनुरूप वह उन्हें घर के छोटे-छोटे कामों में मदद करती। कभी-कभी भाभी और बड़ी बहन के साथ गुड़िया-गुड्डे के खेल खेलती। यह उनका प्रिय खेल था। गुड़िया-गुड्डे तैयार करने, रंग-बिरंगे कपड़ों से सजाना, जब-कभी गुड्डा बीमार हो जाता, फिर वैद्य जी को बुलाना आदि बहुत ही मनमोहक था। बीमारी में जड़ी-बूटियां घिसी और पीसी जातीं जिन्हें खाकर और परहेज़ करके गुड्डा महाशय स्वस्थ हो जाते। स्वस्थ होते ही बालिका भगवती हंसी से खिलखिला उठती। गुड़िया-गुड्डे का यह खेल उनके बचपन का सच्चा सहचर था जिसमें घर के सभी लोगों को किसी-न-किसी रूप में उनका सहभागी बनना पड़ता था। कभी गुड़िया की शादी, तो कभी गुड्डे की बीमारी,कभी उनके लिए नए घर-मकान का इंतजाम। इस तरह के अनेकों काम और इंतजाम थे जो उनके बचपन को क्रीड़ामय एवं उल्लासमय बनाए रखते थे।
महाशक्ति की इन लीलाओं में उनकी दिव्य क्रीड़ा भी यदा-कदा उजागर होती रहती थी। खेल-खेल में ही अनेकों दिव्य भाव उमगते-पनपते और सृष्टि के आंगन में बिखर जाते।
शिव पूजा “लाली” का प्रिय खेल
कई तरह के खेलों में उनका सबसे अधिक प्रिय खेल था, ‘शिव-पूजा’। इस खेल को वह दिनभर कम-से-कम एक बार अवश्य खेला करतीं। कभी-कभी तो उनका यह प्रिय खेल दिन में दो से भी अधिक बार दोहरा लिया जाता। खेल की शुरुआत भगवान महादेव के प्रतीक चिह्न बनाने से होती। अपनी बहन ओमवती और बालसखी सुखमती के साथ मिट्टी के शिव प्रतीक का निर्माण करती । उसकी विधिवत् स्थापना करने के बाद पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य एवं वेलपत्री से पूजा का क्रम चलता। यह पूजा बड़ी भक्ति और अनुराग से होती। पूजन के अंत सभी को भगवान शिव के पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय” का जप करना होता खेल में सहभागिनी अन्य बालिकाओं का जप तो थोड़ी देर में समाप्त हो जाता लेकिन भाव-समाधि में डूबी भगवती काफी देर तक ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप करती रहती। कभी-कभी तो उन्हें यह सब करते हुए घंटों बीत जाते। साथी बालिकाएं थकने और ऊबने लगतीं। कभी-कभी तो बालिकाएं उन्हें इसी तरह अकेला छोड़कर चुपचाप चली जातीं और फिर दूसरे दिन जब दुबारा मिलना होता तो वे पूछतीं कि तुम्हें शिव-पूजा करते-करते यह अचानक क्या हो जाता है? जप करने के लिए आंखें बंद करके जो बैठती हो तो बस उठने का नाम ही नहीं लेतीं। अरे भई, पूजा तो हम लोग भी तुम्हारे साथ ही करती हैं लेकिन इस तरह होश-हवास नहीं खोतीं। उत्तर में भगवती के बालमुख पर हल्की-सी रहस्यात्मक मुस्कान तैर जाती। इस मुस्कान में जो कुछ छिपा होता, उसे साथ खेलने वाली बालिकाएं कभी न जान पातीं। किसी को भी पता न चलता कि
यह पूजा महाशक्ति की अपने आराध्य महाशिव के प्रति आंतरिक अनुराग की अभिव्यक्ति है।
जब कभी भी भाभी पूछती कि लाली, तू इतनी पूजा क्यों किया करती है, जब देखो भगवान शिव के चित्र या प्रतीक के सामने आंखें बंद करके बैठी रहती है तो भाभी के सवालों के जवाब में वह हंस देती और कहती,
“अरे मैं कोई पूजा थोड़े ही करती हूं, यह तो बस खेल है। मुझे सब खेलों में यह खेल सबसे अधिक पसंद है।”
उनकी इस बात का किसी के पास कोई काट न होता और खेल का सिलसिला इसी तरह से प्रतिदिन चलता रहता।
इसी सिलसिले में नयापन जोड़ने के लिए पिता जसवंतराव का सहारा लेती। वह उनसे शिव पुराण की कथाओं को सुनाने का आग्रह करती । भगवान शिव के लीलाचरित सुनना उन्हें परमप्रिय था। भगवान महाकाल के दिव्य चरित्र का श्रवण उनके मन-प्राण एवं अंतरात्मा को भारी सुख पहुंचाता था। वह बार-बार इन्हें सुनने का आग्रह-अनुरोध करती । जसवंतराव भी अपनी लाड़ली को बड़े ही रसपूर्ण ढंग से महाशिव की लीलाएं सुनाया करते लेकिन उन्हें यह अहसास कभी न हो पाता कि लीलामयी उनके सामने स्वयं बालरूप में उपस्थित होकर अपने आराध्य, अपने सर्वस्व का चरित सुन रही हैं, इस आंतरिक भाव सत्य से सभी अनजान थे। प्रत्यक्ष सत्य बस इतना ही था कि श्रोता एवं वक्ता दोनों भगवान की लीलाओं को सुनते और कहते हुए भक्तिरस में डूबे रहते। इन शिव लीलाओं के कोई-न-कोई अंश अगले दिन की शिव पूजा में जुड़ जाते। कभी तो इसमें शिवरात्रि का प्रसंग जुड़ता, कभी इसमें शिव विवाह की कथा जुड़ती। इस तरह खेल में नयापन आता। साथ खेलने वाली बालिकाओं का उत्साह भी बढ़ जाता। सभी को खेल के लिए पूरे जोर-शोर से तैयारी करनी पड़ती। उनकी बालसखी सुखमती तो उनकी सहचरी ही नहीं, अनुचरी भी थी। उसे वह प्यार से सुखमन बुलाया करती थीं। सुखमन वही करती जो उसकी प्राणप्रिय सखी भगवती को प्रिय लगता।
शिव पूजा में दिव्य अनुभूतियाँ – “परम पूज्य गुरुदेव की अनुभूति”
भगवती के सान्निध्य में उसका भी शिव-पूजा पर विश्वास जम गया था। शिव-पूजा के प्रत्येक कार्य में उसे भी रस मिलने लगा था। बालिका भगवती को तो इस खेल में कई तरह की दिव्य अनुभूतियां भी होने लगी थीं जिनके अर्थ एवं रहस्य अभी पूरी तरह से प्रकट नहीं हो पाते थे। शिवपूजन करते हुए जब वह भावमग्न होती तो उनकी अंतर्चेतना में कई तरह के दृश्य उभरते थे। उन्हें ऐसा लगता जैसे कि
भगवान शिव ने एक गौरवर्ण के लंबे दुबले युवक का रूप ले लिया है। इस युवक की छवि पहले तो थोड़ी अस्पष्ट होती लेकिन बाद में काफी स्पष्ट हो जाती। यह युवक उन्हें प्रायः एक कोठरी में पूजा वेदी पर प्रज्वलित साधना दीप के सामने ध्यानस्थ नजर आता। उसके मुखमंडल पर उन्हें अपूर्व तेजस्विता दिखाई देती। यह दृश्य उनके अंतर्मन में बार-बार उभरता।
वह बार-बार इस दृश्य को देखकर अचरज में पड़ जाती। वह सोचती कि शिव-पूजा करते हुए उन्हें यह कैसी विचित्र अनुभूति होती है। जब-तब यह भी मन में आता कि कहीं ऐसा तो नहीं कि भगवान शिव ने स्वयं अवतार ले लिया है। अपनी सृष्टि में युग प्रत्यावर्तन करने, एक नए युग का प्रवर्तन करने के लिए प्रभु स्वयं आ गए हैं। अपने इस विचार के बारे में वह जब-जब सोचती, उन्हें सचाई नजर आती। बार-बार उस महायोगी युवक के रूप में उन्हें भगवान शिव का स्वरूप प्रत्यक्ष होता। मन-ही-मन वह उसे शिव-शिव कहते हुए प्रणाम भी कर लेती। पंचाक्षरी मंत्र ॐ नमः शिवाय’ का जप करते हुए जब वह प्रगाढ़ भावदशा में होती तो उनके मानस-पटल पर यह दृश्य प्रत्यक्ष हो जाता। अपनी अंतर्चेतना में रोज-रोज उपस्थित होने वाले इस साधनारत युवक का उन्होंने अब “महायोगी शिव’ यही नामकरण भी कर दिया, हालांकि यह “महायोगी शिव” रोज़ ही उनकी अंतर्भावनाओं में प्रत्यक्ष होते परंतु अभी तक वह यह नहीं जान पाई थीं कि ये कौन हैं? कहां हैं और क्या करते हैं? लेकिन जब कभी वह ध्यानरत होती अथवा अपनी शिव-पूजा में भावमग्न होतीं, तब उनके हृदय में यह तीव्र स्फुरण होता था कि ये महायोगी शिव जो कोई भी हों, पर ये हैं भगवान शिव ही। साथ ही यह भी स्पष्ट होता कि किसी-न-किसी तरह इनसे उनका अपना भविष्य जुड़ा हुआ है। शायद वह इन्हीं के द्वारा किए जाने वाले किसी कार्य में सहयोग करने के लिए आई हैं।
किशोरी “लाली” की ध्यान साधना
जो शिव-पूजा उन्होंने खेल खेल में शुरू की थी, वह उन्हें दिव्य भावानुभूतियों में डुबोती जा रही थी, उन्हें अपने जीवन और भविष्य के प्रति जागरूक बना रही थी,उनकी बालक्रीड़ा में दिव्यता के तत्त्व सघन हो रहे थे। लाली का क्रीड़ामय बचपन किशोरावस्था की ओर बढ़ने लगा था, योग-साधना के जो तत्त्व खेल-खेल में अंकुरित हुए थे,अब वह पल्लवित होने लगे थे। उनके हृदय में साधनामय जीवन के लिए अभीप्सा बढ़ने लगी थी। अपने आराध्य से मिलन के लिए पुकार तीव्र होने लगी थी। इस पुकार में भक्ति की सघनता, प्रेम की तरलता एवं अनुराग की सजलता सभी कुछ था। बालिका भगवती एक प्रखर योग साधिका के रूप में रूपांतरित होने लगी थी। अपने प्रभु के प्रति भावभरी पुकार में उनकी योग साधना का स्वर संगीत गूंजने लगा था। शिव-पूजा के खेल में जो भावानुभूतियां हुई थीं, वे आयु के बढ़ने के साथ सघन और प्रगाढ़ होने लगीं। किशोरी भगवती के मन-प्राण व अंतःकरण में एक पुकार ने जन्म ले लिया। उनके प्राण अपने शिव को पुकारते रहते। रह-रहकर मन ध्यानस्थ चेतना में देखे गए दृश्यों को फिर-फिर निहारने लगता। कई तरह के सवाल अंतःकरण को कुरेदते रहते। वह सोचा करतीं कि यह
महायोगी शिव कौन है, जिसे वह ध्यान में हमेशा देखती हैं? बार-बार ध्यान करते समय शिव के स्थान पर सुदर्शन व्यक्तित्व वाले इस महायोगी की छवि क्यों प्रकट हो जाती है? क्या सचमुच ही भगवान शिव ने धरती पर अवतार ले लिया है।
ऐसे अनेकों प्रश्न उन दिनों उनकी अंतर्चेतना में अंकुरित हो रहे थे। इन सभी प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए उन्होंने ध्यान-साधना को और अधिक तीव्र करने का निश्चय किया। इस निश्चय के साथ ही उनमें एक अजीब-सा भाव परिवर्तन हो गया। घर के प्रायः सभी सदस्यों ने इसे अनुभव किया। इन दिनों उनकी दिनचर्या बड़ी ही अस्त-व्यस्त हो गई लेकिन इस बाहरी अस्त-व्यस्तता में एक आंतरिक सुव्यवस्था साकार हो रही थी। वह अपनी ध्यान-साधना में इतनी डूबी रहतीं कि उन्हें अपने उठने, नहाने, खाने की सुध-बुध ही न रहती। घर के सदस्य उनके इस आंतरिक परिवर्तन से अनजान थे। भाभी जो मां की तरह उनकी साजसंभाल किया करती थीं, उन्हें समझाती रहतीं, बार-बार कहतीं,
“लाली, तू तो ऐसी न थी। आजकल तुझे क्या हो गया है। कहां तो तू सवेरे-सवेरे जल्दी उठकर नहा-धोकर तैयार हो जाती थी, खेलने लगती थी, घर का काम-काज भी करा लेती थी लेकिन आजकल तो तुझे जैसे अपना ध्यान ही नहीं रह गया है।”
भाभी की इन बातों को लाली हंसकर टाल जाती, किसी तरह उन्हें बहला-समझा देतीं। वह जानती थी कि यदि वह बैठकर सुव्यवस्थित तरीके से दिन रात ध्यान-साधना करेगी, तो सबके-सब परेशान हो जाएंगे और वह अपने परिवार के किसी भी सदस्य को परेशान नहीं करना चाहती थीं इसीलिए उन्होंने यह अनूठा तरीका निकाला था। वह दिन-प्रतिदिन ध्यान-साधना की गहरी भावदशा में खोती जा रही थीं। अनेकों दिव्य अनुभूतियां प्रतिक्षण उन्हें घेरे रहती थीं।
बाहरी तौर पर सब कुछ सामान्य होते हुए भी उनके आंतरिक जीवन में सभी कुछ असामान्य और अलौकिक हो गया था।