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परम पूज्य गुरुदेव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हो रहा था, अखंड ज्योति पाठकों की संख्या बढ़ रही थी, वर्तमान आवास कम पड़ने लगा तो बड़े आवास की खोज आरम्भ हुई। 3-4 मकान देखे लेकिन परिस्थितियों के अनुरूप घीआ मंडी स्थित “वर्तमान अखण्ड ज्योति संस्थान” वाली बिल्डिंग को किराये पर ले लिया। माता भगवती देवी , ताई जी, बच्चों व अपने आराध्य के साथ यहाँ आकर वास करने लगीं। इस बिल्डिंग में 9 कमरे थे। मकान दो मंजिला था। सड़क के किनारे बने इस मकान में जहाँ आज “अखंड ज्योति ग्लोबल कार्यालय” है उस समय पर्याप्त लगा।
यह वह महिमामय स्थल है जिसे लगभग 30 वर्ष (1942 से 1971) तक परम पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी की जीवन साधना का सतत सान्निध्य प्राप्त हुआ । मासिक अखण्ड ज्योति का प्रकाशन आगरा से प्रारंभ हुआ और इस स्थान पर पहुँचकर पनपता चला गया । हाथ से बने कागज पर छोटी ट्रेडिल मशीन द्वारा यहीं पर अखण्ड ज्योति पत्रिका छापी जाती थी।
हमें ट्रेडिल मशीन को जानने की उत्सुकता हुई, गूगल रानी की सहायता ली तो पता चला कि इसे एक तरह की छोटी प्रिंटिंग मशीन कहा जा सकता है। प्रिंटिंग को लेकर भी परम पूज्य गुरुदेव के साथ कई संस्मरण हैं जिनकी चर्चा हम किसी लेख में करेंगें।
अखंड ज्योति संस्थान से ही देव परिवार के गठन का शुभारंभ हुआ। व्यक्तिगत पत्रों द्वारा जन-जन की अंतरात्मा को स्पर्श करते हुए एक महान स्थापना का बीजारोपन संभव हो सका। अगणित दुःखी, तनावग्रस्त व्यक्तियों ने नये प्राण-नई ऊर्जा पायी । परम वंदनीया माताजी के हाथों के भोजन-प्रसाद की याद आते ही आध्यात्मिक तृप्ति मिलती है | अब (2022) तो सब कुछ बदल गया । पूरी बिल्डिंग को खरीदकर नया आकार दे दिया गया है । बस पूज्यवर के लेखन और साधना वाले कक्षों को यथावत रखा गया है । इतने छोटे से स्थान में ही 30 वर्षों तक प्रचण्ड साधना चली । 24 -24 लाख के चौबीस महापुरश्चरणों का अधिकांश भाग यहीं परा हुआ ।
किराये का अनुबंध तय होते ही पहली मंजिल पर अखंड दीपक और गायत्री के विग्रह की प्रतिष्ठा हुई। शुभारंभ के दिन लगभग चालीस व्यक्ति गृह प्रवेश संस्कार आयोजन में आये। पास पड़ोस के लोगों ने जब मकान लेने की तैयारी देखी तो उन्होंने गुरुदेव को बताया कि इस बिल्डिंग में तो प्रेतात्माएं रहती हैं । वे लोग अपने हिसाब से सत्परामर्श ही दे रहे थे। श्रीराम ने उनकी बात सुनी और कहा कि प्रेतात्माएँ रहती है तो रहें। हमें उनसे कोई असुविधा नहीं होगी। हम उनसे बातचीत कर लेंगें ,उन्हें समझा लेंगे। सुनने वालों को लगा कि श्रीराम उनके परामर्श का मज़ाक कर रहे है लेकिन असल में बात ऐसी नहीं थी। श्रीराम ने अपनी बात को स्पष्ट किया, हम गायत्री साधक हैं। गायत्री के उपासक किसी से बैर प्रतिरोध नहीं मानते। परामर्श देने वाले सज्जन को अन्यथा न लगे, इसलिए उन्होंने अतीत में हुए माधवाचार्य का एक प्रसंग भी सुनाया। क्या था यह प्रसंग,आइए ज़रा संस्थान के विषय को रोक कर माधवाचार्य जी का प्रसंग जानें।
माधवाचार्य जी:
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ “माधव निदान” के निर्माता माधवाचार्य जी वृन्दावन में कठोर गायत्री उपासना करने में संलग्न रहते थे। लगातार 13 वर्ष उन्हें विधि-पूर्वक पुरशरण करते हुए बीत गये पर उन्हें अपने में कोई विशेषता दिखाई न पड़ी। तप का कोई फल दृष्टिगोचर न हुआ तो वे खिन्न रहने लगे और अपनी असफलता से खीज कर वे वृन्दावन छोड़ काशी के लिए चल दिये। उदासी उन्हें घेरे हुई थी। मणिकर्णिका घाट पर बैठे हुए सोच विचार में मग्न थे कि उसी श्मशान में रहने वाला एक कापालिक अघोरी बाबा उनके पास आया और उदासी एवं चिन्ता का कारण पूछने लगा। माधवाचार्य ने वस्तुस्थिति कह सुनाई। अघोरी ने कहा-योग की दक्षिणमार्गी वैदिक उपासनाएं देर में फल देती हैं। बरगद की तरह वे भी धीरे-धीरे बढ़ती हैं , समय आने पर ही परिपक्व होकर साधक का कल्याण करती हैं और चिरस्थायी फल देती हैं। इसमें धैर्यवान साधक ही सफल होते हैं लेकिन तांत्रिक साधना में यह बात नहीं है। उससे लाभ तो निम्न स्तर का ही मिलता है और वह ठहरता भी थोड़े दिन ही है लेकिन मिलता जल्दी है। जिन्हें धैर्य नहीं, उन आतुर लोगों के लिए जल्दी लाभ दिखाने वाली तांत्रिक साधना लाभदायक हो सकती है। आपको चमत्कार देखने की जल्दी हो तो श्मशान साधन करो। विधि मैं बता दूंगा।
माधवाचार्य सहमत हो गये और वे काशी के मणिकर्णिका घाट पर स्थित श्मशान में रहकर बाबा की बताई हुई अघोर क्रिया के अनुसार साधना करने लगे। अघोरी ने उन्हें बता दिया था कि श्मशान में रहने वाली दुष्ट आत्मा उन्हें भय एवं प्रलोभन के दृश्य दिखा कर साधना भ्रष्ट करने का प्रयत्न करेंगी, सो वे किसी की ओर ध्यान न देते हुए अपने कार्य में एकनिष्ठ भाव से लगे रहें। माधवाचार्य वही करने लगे। रोज ही उन्हें डरावने और प्रलोभन भरे आकर्षण दिखाई देते पर वे उनसे तनिक भी विचलित न होते। इस प्रकार उन्हें एक वर्ष बीत गया। एक दिन पीछे अदृश्य में से आवाज आई कि तुम्हारा मंत्र सिद्ध हो गया, कुछ उपहार, वरदान माँगों। माधवाचार्य अपने साधन में मग्न रहे,उन्होंने उधर ध्यान भी नहीं दिया। ऐसे ही अटपटे अनुभव उन्हें रोज होते थे। पर जब कई बार वही आवाज़ सुनाई दी तो उन्हें उधर ध्यान देना पड़ा। माधवाचार्य जी ने पूछा, “आप कौन हैं? किस प्रकार का उपहार दे सकते हैं?” तो उत्तर मिला: हम भैरव हैं, तुम्हारी इस साधना से प्रसन्न होकर वर देने आये हैं। माधवाचार्य ने कहा, “विश्वास नहीं होता, इसलिए कृपा कर सामने आइए और दर्शन दीजिए ताकि मैं वस्तु स्थिति को समझ सकूँ।
भैरव ने कहा: गायत्री उपासना के कारण आपको इतना ब्रह्म-तेज उत्पन्न हो गया है कि उसकी प्रखरता में सहन नहीं कर सकता और आपके सामने नहीं आ सकता। जो कहूँगा पीछे से ही कहूँगा। इस पर माधवाचार्य को भारी आश्चर्य हुआ और उन्होंने प्रश्न किया,
“यदि गायत्री उपासना का ऐसा ही महत्व है तो कृपया बताइयेगा कि 13 वर्ष तक कठोर तप करते रहने पर भी मुझे कोई अनुकूल अनुभव क्यों नहीं हुआ? आप इसका रहस्य बता सकें तो मेरे लिए इतना ही पर्याप्त होगा। जब आप गायत्री तेज के सामने प्रकट होने में भी असमर्थ हैं तो आपके द्वारा दिये हुए छोटे-मोटे उपहारों से मेरा काम भी क्या चलेगा?”
जिज्ञासा का समाधान करना भैरव ने स्वीकार कर लिया और माधवाचार्य को नेत्र बंद करके ध्यान भूमिका में जाने को कहा, उन्हें तत्काल पूर्व जन्मों के दृश्य दिखाई पड़ने लगे। पिछले 13 जन्मों में उन्होंने एक से एक भयंकर पाप किये थे। इस दृश्य को जब वे देख चुके तब भैरव ने कहा: आपकी 13 वर्ष की साधना पिछले 13 वर्ष के पापों का शमन करने में लग गई। जब तक दुष्कर्मों से उत्पन्न कुसंस्कार दूर नहीं हो जाते तब तक गायत्री उपासना उसी की सफाई में खर्च होती रहती है। आपकी विगत गायत्री साधना ने पूर्व संचित पापों का समाधान कर दिया। अब आप नये सिरे से पुनः उसी उपासना आरंभ कीजिए, सफलता मिलेगी। प्रसन्न मन माधवाचार्य पुनः वृन्दावन लौट आये। उन्होंने पुनः गायत्री उपासना आरंभ की और फलस्वरूप उन्हें आशाजनक प्रतिफल प्राप्त हुआ।
अब चलते हैं संस्थान की चर्चा ओर:
माधवाचार्य जी प्रसंग सुनाने का उद्देश्य पड़ोसियों की चिंता का निवारण करना था। मकान में नहीं जाने की सलाह देने वालों को फिर भी संतोष नहीं हुआ। एकाध ने कह भी दिया कि आप भी इस मकान में अधिक दिन नहीं रह पाओगे लोगों के परामर्श या चेतावनी को श्रीराम ने सहज भाव से लिया।
दो तीन दिन बाद लगा कि छत पर कुछ धमाचौकड़ी मची हुई है। रात के वक्त लोगों के भागने की आवाजें सुनाई दी। ऐसा लगा जैसे बहुत से लोग चहलकदमी कर रहे हों या कबड्डी खेल रहे हों श्रीराम एक लालटेन और डंडा लेकर ऊपर गये। जाकर देखा तो वहां कोई नहीं था। आसपास की छतों पर नजर दौड़ाकर वापस चले आये। कुछ देर बाद फिर वही धमाचौकड़ी मचने लगी। ताई जी ने कहा, श्रीराम अच्छा होता अगर लोगों की सीख मानकर हम यहाँ नहीं आते। वे दुष्ट आत्माएँ ही ऊधम मचा रही हैं। अब हमें नया घर ढूंढ़ना चाहिए। कुछ रुककर वे बोली, सुबह ही लोगों से कहना। ताईजी की बात पूरी होते तक ऊपर फिर से शोरगुल की आवाजें आने लगीं। अपनी जीत की खुशी में जैसे बहुत से लोग चीखने चिल्लाने लगे हों। श्रीराम ने कहा। इस तरह तो हार नहीं मानना चाहिए। वरना ठाकुर जी और गायत्री माता हमें क्या कहेंगी। ताई जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे चुप रहीं। ऊपर रह-रह कर शोरगुल मच रहा था। श्रीराम यह कहते हुए उठे कि मुझे अब ऊपर ही डेरा लगाना पड़ेगा। देखें तो सही किन लोगों को हम सबसे नाराज़गी है। लालटेन और डंडा लेकर वे पिछली बार की तरह फिर ऊपर गये। दरवाज़े से उन्होंने बुलंद आवाज में कहा,
“देखिए आप लोग जो भी कोई हों, हमें आपका कोई डर नहीं है। आप लोग यहाँ रहना चाहते हैं, खुशी से रहिए। उपद्रव मत मचाइए। हम आपको तंग नहीं करेंगे लेकिन आपका उपद्रव भी नहीं सहेंगे।”
जब किसी भी दिशा से कोई उत्तर नहीं आया तो श्रीराम आसन बिछाकर छत पर ही बैठ गए। चारों तरफ सन्नाटा छाया रहा। एक बार हल्की सी पदचाप सुनाई दी, जैसे कोई धीमे-धीमे चलता आ रहा हो । श्रीराम ने उस दिशा में देखा तो कोई दिखाई नहीं दिया लेकिन पदचाप फिर भी सुनाई दे रही थी। श्रीराम टकटकी लगा कर उसी दिशा में देख रहे थे। आहट पास तक आती अनुभव हुई फिर लगा कि जैसे आने वाले ने अपना इरादा बदल दिया। आहट दूर जाती हुई अनुभव हुई। ऐसा लगा कि आने वाला वापस लौट गया था। श्रीराम पहले की तरह चुपचाप बैठे रहे। दस पंद्रह मिनट बाद नीचे के कमरे से ताई जी की आवाज आई, वे बुला रहीं थीं। श्रीराम यह कहते हुए उठे कि
“अगर आपको हमारी बात स्वीकार हो तो उपद्रव न मचायें शान्ति से रहें। आपकी मुक्ति के लिए हम प्रयास करेंगे। माँ से प्रार्थना और यज्ञ अनुष्ठान करेंगे। आपको शांति मिले। आप कुछ और अपेक्षा रखते हैं तो वह भी निभाएंगे लेकिन उपद्रव न करें।”
श्रीराम इतना कहकर नीचे चले गए। उस दिन के बाद से छत पर दोबारा कभी धमा चौकड़ी नहीं हुई। अगली पूर्णिमा को श्रीराम ने उन आत्माओं की शांति के लिए छत पर ही एक यज्ञ किया। पास पड़ोस के लोगों को देखकर आश्चर्य हो रहा था कि श्रीराम अपने परिवार सहित यहीं बसे हुए थे।
अखंड ज्योति संस्थान की चर्चा का समापन यहीं पर होता है। नीचे दिए गए यूट्यूब लिंक को भी अवश्य देख लें, सही मायनों में एक दिव्य तीर्थस्थल का अनुभव होगा।
अंत में हम मणिकर्णिका घाट की विशेषता पर दो शब्द कह दें।
मणिकर्णिका घाट काशी के 84 घाटों में से केवल एक ही ऐसा घाट है जहाँ लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती। इसी कारण इसको महाश्मशान घाट नाम से भी जाना जाता है। एक चिता की अग्नि समाप्त होने तक दूसरी चिता में आग लगा ही दी जाती है,24 घंटे ऐसा ही चलता है।वैसे तो लोग श्मसान घाटों में जाना नही चाहते, पर यहाँ देश विदेश से लोग इस घाट का दर्शन करने आते हैं । इस घाट पर ये एहसास होता है कि जीवन का अंतिम सत्य यही है।
जय गुरुदेव