चेतना की शिखर यात्रा 1,चैप्टर 20, महाशक्ति की लोकयात्रा एवं ऑनलाइन references
जब ताई जी ने ओमप्रकाश को चरणस्पर्श करने को कहा तो चरण स्पर्श करते ही नई माँ ने पूछा, “किस कक्षा में पढ़ते हो?” ओमप्रकाश ने बड़े हल्के स्वर में इस प्रश्न का उत्तर दिया, “मेरा नाम ओमप्रकाश है और मैं कक्षा सात में पढ़ता हूँ।” इस प्रश्नोत्तर ने माँ और पुत्र को भाव के कोमल तंतुओं से जोड़ दिया।
अपने प्रथम मिलन की अनुभूतियों को याद कर अक्सर ओमप्रकाश जी की आँखें भीग जाती थीं। वह कहते थे
“कुपुत्रो जायते क्वचिदपि कुमाता न भवति, अर्थात पुत्र का कुपुत्र होना तो संभव है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती।”
इस कथन को साकार करती हुई माँ अपने इस बेटे पर सदा कृपालु बनी रहीं। अगणित गलतियों को उन्होंने हँसकर बिसराया। क्षमामयी ने सारे अपराध पल में क्षमा किए और सदा ही अपनी स्वभावगत कोमलता- मृदुलता निछावर करती रहीं।
आज जब हम 2022 में इस संस्मरण को चित्रित करने का प्रयास कर रहे हैं तो हमें याद आ रहा है कि कुछ वर्ष पूर्व ही ओमप्रकाश जी का देहांत हो गया था। शांतिकुंज से ही एक वीडियो रिलीज़ हुई थी जिसमें श्रद्धेय डॉक्टर साहिब और आदरणीय जीजी उनके अंतिम संस्कार में दिख रहे थे।
ओमप्रकाश और दया से मिलकर माँ “श्रद्धा बेटी” से मिलीं। अपनी इस बालिका को उन्होंने भरपूर प्यार दिया और असीम स्नेह उँडेला। कुछ ही दिनों में तीनों बच्चे माँ से घुल-मिल गए। माता ने भी उन्हें अपने हृदय में जगह दी। ओमप्रकाश अपनी दादी के पास सोते। दया और श्रद्धा माँ के पास। जो भी जरूरत होती उसे माँ को ही बताते। घूमना फिरना और खेलकूद का इंतजाम दादी के ज़िम्मे रहा। दादी और नई माँ का दायित्व बंटा तो नहीं, लेकिन दोनों ने एक दूसरे का काम संभाल लिया। बच्चों ने दादी से भारी कामों के लिए कहना कम कर दिया। वे सोचते थे कि दादी को थकाना नहीं चाहिए। कुछ ही दिनों में नई माँ से इतने घुलमिल गये जैसे पुराना परिचय हो, इसी माँ की गोद में बड़े हुए हों, यहीं जन्म पाया हो।
सबके लिए ममत्व
बहु के आने से घर का वातावरण कुछ ही दिनों में बदल गया। ऐसा लगने लगा कि जैसे पतझड़ में वसंत की देवी आ गई हो। भगवती देवी ने बच्चों का ही नहीं “अखंड ज्योति परिवार” और परिवार में आने वाले अभ्यागतों का दायित्व भी संभाल लिया था। शुरू दिन से लग रहा था कि यह घर, परिवार और परिवार के सदस्य परिचित से हैं। ताई जी ने औपचारिक रूप से घर की व्यवस्था और आवश्यकताओं के बारे में समझा दिया था। जो समझाया उसे दोबारा पूछने की जरूरत नहीं हुई। सबसे प्रथम दायित्व अखंड दीपक ग्रहण करने का था। गृहस्थी का पहला काम यही किया। तीनों बच्चों से परिचय के बाद ही श्रीराम से परिचय हुआ। उस क्षेत्र और समय की परंपरा के अनुसार वर वधू ने एक दूसरे को विवाह से पहले देखा नहीं था। वधू ने तो विवाह के बाद भी कुछ दिन तक नहीं देखा। यज्ञ में और पूजापाठ में बैठते समय कनखियों से ही अपने जीवनसाथी को देखा था। जब परिचय हुआ तो यही अनुभव किया कि श्रीराम केवल पति ही नहीं, “इष्ट-आराध्य” भी हैं। लगा जैसे बचपन से जिस शिव की आराधना करती आई हैं, वही इष्ट लौकिक जीवन में इस रूप में सामने आये हैं। प्रथम परिचय में श्रीराम ने अनायास ही कहा कि इन बच्चों के लिए तो माता का दायित्व निभाना ही है और बच्चे भी तुम्हें माँ कहेंगे। भगवती देवी ने असमंजस का भाव जताते हुए मुँह उठाया और श्रीराम की ओर ऐसे देखने लगीं जैसे पूछ रहीं हों कि आप कहना क्या चाहते हैं। श्रीराम ने भी जो कहा था वह योजना बनाकर या सोच समझ कर नहीं कहा था, अपनेआप ही भीतर से प्रेरणा उठी या कहें कि उमंग जगी और मुँह से वचन निकल आये।
उन्होंने कहा,
“आगे चलकर हमें हजारों लाखों लोगों तक पहुँचना है। वे लोग भी हमें तलाशते हुए आएँगे। उन सबको तुम्हें माँ की तरह स्नेह देना है।”
भगवती देवी अपने आराध्य का मुँह देखती रह गई थीं। स्तब्ध भी हुई, फिर कुछ सोचने लगीं। जितनी देर वे श्रीराम के मुँह की ओर अवाक देखती रहीं, उन्हें प्रतीत होता रहा कि सामने उनका पति एक व्यक्ति के रूप में प्रकाशपुंज खड़ा है। उन्होंने कुछ भी कहा नहीं, केवल अनुभव ही किया और मन ही मन दोहराया कि आप पति,जीवनसाथी और स्वामी ही नहीं, गुरु भी हैं,
“गुरुदेव गुरुदेव-परब्रह्म” के भाव उदय होते हो मन में शिव की स्तुति गूंजने लगी। नमामीशमिशान निर्वाण रूपं -रुद्राष्टकम स्तोत्र अर्थात हे मोक्षरूप, विभु, व्यापक ब्रह्म, वेदस्वरूप ईशानदिशा के ईश्वर और सबके स्वामी शिवजी,मैं आपको नमस्कार करता हूँ ,जो नियमित पूजा उपासना में गाया करती थीं, श्रीराम के चरणों में आत्मनिवेदन करते हुए उन्होंने अपनेआप को योग, ज्ञान,कर्म, विद्या, भक्ति आदि के कारण नहीं मात्र निवेदन और समर्पण भाव के आधार पर प्रस्तुत कर दिया। विनीत भाव से उस समर्पण को स्वीकार करने का दावा भी जताया।
घर के काम-काज, बच्चों की देखभाल सभी में एक निखार सा आ गया। हर तरफ सौंदर्य और सुव्यवस्था नजर आने लगी। इस परिवर्तन ने हर एक मन, प्राण व अंत:करण को छुआ। इस छुअन ने अनेकों सजल भावनाएँ जगाई। अपने आराध्य की अंतर्चेतना व अंतर्भावना से तो पहले ही मिल चुकी थीं। दृश्य व प्रत्यक्ष मिलन इन्हीं दिनों हुआ। इस मिलन के हर पल में, हर घडी में एक अपूर्व अलौकिकता थी। यह किसी सामान्य विवाहित दंपती का मिलन नहीं था। पति-पत्नी के सामान्य सांसारिक मिलन की तरह इसमें स्थूल और लौकिक दृष्टि नहीं थी। यह तो परम पुरुष और माता प्रकृति के मिलन की तरह अद्भुत था। इसमें सर्वेश्वर सदाशिव और भगवती महाशक्ति के मिलन की अलौकिकता थी। नई सृष्टि के सृजन का बीजारोपण मिलन के इन्हीं पलों में हुआ। ईश्वर चिंतन और चर्चा के बीच वे दोनों जब भी इकट्ठे बैठते, भविष्य की नई संभावनाओं पर चर्चा होती। उनके आराध्य उन्हें नई भूमिका के लिए तैयार करते।
यह गुरुदेव की तीव्र साधना का काल था। गायत्री महापुरश्चरणों की शृंखला अपने अंतिम चरण में थी। अखण्ड ज्योति मासिक पत्रिका का प्रकाशन विधिवत प्रारंभ हो चुका था। आज का विशालकाय गायत्री परिवार तब अखण्ड ज्योति परिवार के रूप में अंकुरित होने लगा था। इसकी उपयुक्त साज-सँभाल के लिए, सही पालन-पोषण के लिए माँ की आवश्यकता थी।
माँ का अर्थ केवल एक-दो संतानों को जन्म देने तक सीमित नहीं था। जन्म देने भर से कोई माँ नहीं बन जाया करती। माँ तो वही है, जो अपनी संतानों को श्रेष्ठ संस्कार दे। उनमें अपने प्राणों को उँडेलकर उनका भाव विकास करे। उन्हें “विश्व उद्यान” के श्रेष्ठ पुष्पित पादपों के रूप में विकसित करने के लिए जरूरी खाद-पानी की व्यवस्था जुटाए।
यह काम आसान नहीं है। इसके लिए कठोरतम साधना और अध्यात्म उपार्जित आत्मशक्ति की आवश्यकता है। अपनी भावी रीति-नीति के अनुरूप माता भगवती इन दिनों यही करने में जुट गईं। अपने आराध्य के संसर्ग में अनेकों गुह्यमंत्रों, बीजाक्षरों, योग की गहन प्रक्रियाओं का ज्ञान उन्हें इसी समय हुआ। उनकी अपनी विशिष्ट साधना की शुरुआत ठीक उसी स्थान से हुई, जहाँ कभी तपस्वी प्रवर श्रीराम ने अखण्ड साधना दीप प्रज्वलित किया था, हालाँकि यहाँ उनका साधनाकाल बहुत ही थोड़े समय के लिए रहा।
अखण्ड ज्योति के प्रकाशन की वजह से परमपूज्य गुरुदेव का मथुरा रहना अनिवार्य था। पहले कुछ अंकों के आगरा से प्रकाशित होने के बाद अब अखण्ड ज्योति मथुरा से प्रकाशित होने लगी थी। साधकों, जिज्ञासुओं और आगंतुकों का आवागमन भी बढ़ने लगा था। अखंड ज्योति परिवार के सदस्य बढ़ने लगे और मकान छोटा पड़ने लगा था। श्रीराम के यज्ञ अभियान और छोटे-मोटे कार्यक्रमों में आने वालों को किसी विषय में कुछ जानने की उत्कंठा उठती तो वे बेधड़क आ जाते थे। इनमें कुछ व्यक्तिगत समस्याएँ लेकर भी आते थे। श्रीराम यज्ञ का संचालन करते हुए यज्ञ का संदेश देते थे कि
“अग्निहोत्र में दी गई आहुति और समिधा को अपनी तरह होम देने से ही पुण्य मिलता है, इसके साथ बुराईयों की भी आहुति देना चाहिए। अपनेआप को दूसरों की सेवा में जितना जला-खपा दिया जाएगा, उतना ही पुण्यफल मिलेगा।”
संदेश व्यापक अर्थ में ग्रहण करने वाले लोग कम ही होते। पारिवारिक और आसपास के जीवन जगत से जुड़ी समस्याओं के बारे में अधिक लोग आते थे। अपने घर परिवार के माहौल और संबंधों से दु:खी दो तीन लोग तो प्रायः आने ही लगे थे। श्रीराम जिस समय बाहर होते उस समय ताई जी इन लोगों को संभालती। उन्हें जल्दी ही लगा कि संपर्क और परामर्श के लिए बैठना रास नहीं आ रहा है। उन्हें भगवान का भजन करने की सीख ही अच्छी लगती थी। वे इसी में रमी भी रहना चाहती थी। उन्होंने अपनेआप को धीरे-धीरे इस दायित्व से मुक्त कर लिया और बहू भगवती देवी को आगे करने लगीं। बहू को संकोच हुआ तो ताई जी ने और फिर श्रीराम ने भी समझाया कि आगे चलकर दुःखी संतप्तजनों का आना जाना बढ़ेगा, तब तुम्हें ही यह सब संभालना है। वे मुश्किल से लोकसंपर्क के लिए राज़ी हुईं । लोगों से मिलने जुलने की व्यवस्था की बात श्रीराम के बाहर रहने की स्थिति में ही स्वीकार की।
संख्या बढ़ी तो आवश्यक लगा कि नया मकान ढूंढा जाए। डैंपियर पार्क में बारह कमरों की दो मंजिला हवेली के बारे में पता चला। वहाँ का किराया आठ रुपये महीना था । खुलेपन और विस्तार की दृष्टि से वह अच्छा था। श्रीराम उसे देखने गये तो पास पड़ोस के लोगों ने बताया कि मकान को लेकर कुछ विवाद चल रहे हैं। दो परिवार दावेदार हैं। दोनों में से कोई भी बेचने या किराए पर उठाने की कोशिश करता है तो झगड़ा शुरू हो जाता है। मकान खाली पड़ा रहता है तो दोनों ही निश्चिंत हो जाते हैं। श्रीराम की ख्याति और प्रतिष्ठा से अवगत पड़ोसियों ने यह भी सुझाया था कि आप चाहे तो दोनों परिवारों में समझौता हो सकता है। लड़ना भिड़ना छोड़कर वे किसी एक फार्मूले पर आ सकते हैं। श्रीराम ने मध्यस्थता में रुचि नहीं ली। विवाद में उलझा कोई भी पक्ष इसके लिए पहल नहीं कर रहा था। जो लोग किराये पर देना चाह रहे थे, उनकी रुचि श्रीराम की किराएदारी से ऊर्जा ग्रहण करने तक ही सीमित थी। वह सोचता था कि अगर श्रीराम जैसे किराएदार बसेंगे और लोगों का आना जाना बढ़ेगा तो उसका दावा मजबूत होगा। इन परिस्थितियों के अनुरूप घीआ मंडी स्थित “वर्तमान अखण्ड ज्योति संस्थान” वाली बिल्डिंग को किराये पर ले लिया। माता भगवती, ताई जी, बच्चों व अपने आराध्य के साथ यहाँ आकर वास करने लगीं। इस बिल्डिंग में 9 कमरे थे। मकान दो मंजिला था। सड़क के किनारे बने इस मकान में जहाँ आज “अखंड ज्योति ग्लोबल कार्यालय” है उस समय पर्याप्त लगा। किराये का अनुबंध तय होते ही पहली मंजिल पर अखंड दीपक और गायत्री के विग्रह की प्रतिष्ठा हुई। शुभारंभ के दिन लगभग चालीस व्यक्ति गृह प्रवेश संस्कार आयोजन में आये।
हमारे अधिकतर पाठक इस बिल्डिंग से परिचित हैं लेकिन हम कल अपनी लेखनी से इस “भूतों वाली बिल्डिंग” को वर्णन करेंगें। जैसा पहले भी बता चुके हैं कल वाला लेख बहुत ही रोचक होने वाला है क्योंकि हम 2019 में शूट की गयी वीडियो के माध्यम से उस बिल्डिंग में ले चलेंगें, so stay tuned. जय गुरुदेव