2 नवंबर 2022 का ज्ञानप्रसाद : चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1 चैप्टर 7
परम पूज्य गुरुदेव और मालवीय जी के घनिष्ठ सम्बन्ध से हम सब भलीभांति परिचित हैं। आज का ज्ञानप्रसाद इन्ही संबंधों को दर्शा रहा है।
मालवीय जी सदैव अस्पृश्यों को दूसरे वर्गों के समान अधिकार देने के पक्ष में थे। उनके अनुसार साधना, स्वाध्याय के क्षेत्र में भी छा गये ऊँच-नीच ने हिन्दू समाज को बुरी तरह खोखला किया था। कलकत्ता अधिवेशन में उपजी कटुता को शांत करने के बाद वे राष्ट्रीय भावनाओं का प्रचार करते हुए जगह-जगह घूमे। राष्ट्रीय आन्दोलन को गति देते हुए वे समाज सुधार संबंधी कार्यक्रमों को भी गति देते रहे । उनके व्याख्यानों में अछूतों के उद्धार, स्त्रियों की दशा सुधारने और सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन करने की प्रेरणा रहती। शूद्रों का शास्त्र अधिकार का मुद्दा भी इन व्याख्यानों का विषय होता। सन् 1927 में उन्होंने एक साहसिक कदम उठाया और प्रयाग में जातपात का विचार किये बिना सभी वर्ण के लोगों को मंत्र दीक्षा दी। मालवीय जी के इस कदम की बड़ी आलोचना हुई, प्रबल विरोध भी हुआ लेकिन उन्होंने कोई चिंता नहीं की। वे शाँत अविचल और दृढ़ता से अपने काम में जुटे रहे । कलकत्ता, नासिक, पुणे, काशी आदि स्थानों पर भी सामूहिक मंत्र दीक्षा के कार्यक्रम हुए। विरोध, समर्थन, सराहना आदि की मिली-जुली प्रतिक्रिया होती रहती थी।
प्रयाग में सामूहिक दीक्षा देने से कुछ माह पूर्व मालवीय जी आगरा आए थे। मार्गदर्शक सत्ता से साक्षात्कार और महापुश्चरण साधना आरंभ करने से पहले ही श्रीराम सामाजिक गतिविधियों में रुचि लेते रहते थे।जब भी श्रीराम को मालवीय जी के बारे में कोई सूचना मिलती तो वह बहुत ही ध्यान से सुनते, पूरी जानकारी जुटाते और सोचने लगते कि समाज अनुष्ठान में किस तरह सहयोग कर सकते हैं। श्रीराम को जब पता चला कि मालवीय जी आगरा आए हुए हैं तो उन्होंने तुरंत वहाँ जाने की ठान ली। दो-तीन दिन में लौट आने की बात कह कर वे चल दिये। मालवीय जी आगरा के हिन्दू सभा भवन में ठहरे थे। वस्तुतः वह सेठ गिरधर दास का मकान था जो उन्होंने हिन्दू सभा की गतिविधियों को चलाने के लिए दे दिया था। सामाजिक उपयोग में आने के कारण ही उसका नाम “भवन” हो गया था।
मालवीय जी ने सभा भवन में ही कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि बौद्ध, जैन और सिक्ख सभी विशाल हिन्दू जाति के अंग हैं। गाँव-गाँव में सभाएँ स्थापित की जाएँ और मानवता की गिरी हुई दशा को उठाने का प्रयत्न करें, जिन्हें हम अछूत कहते हैं, वे भी हमारे ही भाई हैं, उनसे प्रेम का व्यवहार करें,उनकी अवस्था सुधारने पर ध्यान दें, उन्हें अपनाएँ। मालवीय जी ने अपने संबोधन में जहाँ-तहाँ पाठशालाएँ और अखाड़े खोलने की प्रेरणा भी दी । अखाड़े खोलने के बारे में उन्होंने कहा कि हमें शरीर से भी मजबूत बनना चाहिए।
“अपने भीतर शक्ति होगी तभी बाहरी और भीतरी दोनों तरह के शत्रुओं से लड़ सकने में समर्थ होंगें। बलवान शरीर में ही बलवान आत्मा का निवास होता है। मन को बलवान बनाने के लिए पूजा-पाठ,ध्यान,जप और शास्त्रों का अध्ययन-मनन करें।”
समाज का नया गठन
मालवीय जी के प्रवचनों में टूटे-फूटे जीर्ण-शीर्ण हिन्दू समाज को फिर से गठित करने पर ज़ोर रहता था। निजी चर्चाओं में भी वे अछूतों के उद्धार की बात करते थे। सभा भवन में व्याख्यान पूरा होने के बाद वे कार्यकर्ताओं से बात करने लगे। किसी ने पूछा, “अछूतों के उद्धार का आपका विचार क्या राष्ट्रीय आंदोलन से अलग नहीं है। इस कार्यक्रम पर ज़ोर देंगे,तो राष्ट्रीय आन्दोलन से लोगों का ध्यान बँटने लगेगा। फिर हम अपने मूल उद्देश्य को भूल जायेंगे। मालवीय जी ने कहा मूल उद्देश्य क्या है? प्रश्न कर्ता ने उत्तर दिया “स्वतंत्रता।” उन्होंने फिर पूछा, “स्वतंत्रता किस लिए?” प्रश्न कर्ता भी जैसे पूरी तैयारी से आया था, स्वतंत्रता इसलिए कि हम दुनिया में सिर ऊँचा उठा कर चल सकें,अपने सम्मान की, अपने गौरव की रक्षा कर सकें,उसे बढ़ाएँ।” मालवीय जी ने इस उत्तर से प्रश्नकर्ता का मानस समझ लिया। उन्होंने बात वहीं से आगे बढ़ाई और कहने लगे, “सम्मान और गौरव किसी एक व्यक्ति का नहीं बल्कि पूरे देश और समाज का। हमें स्वतंत्रता आत्म सम्मान के लिए चाहिए। हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि अपने ही लाखों- करोड़ों भाइयों की गरिमा रौंदते रहने से अपना आत्म सम्मान प्राप्त नहीं हो जाएगा। उनके सम्मान और गरिमा की प्रतिष्ठा करते हुए ही हम पूरे राष्ट्र का गौरव लौटा सकेंगे।
मालवीय जी का व्याख्यान सुनने के बाद श्रीराम भी सभागार में आ गए थे। उन्होंने मालवीय जी को प्रणाम किया और एक तरफ बैठ गये, अन्य लोग भी बैठे थे, अधिकतर युवा कार्यकर्ता ही थे। हर किसी ने अपना परिचय दिया। श्रीराम अपना परिचय देने लगे तो एकाध पंक्ति सुनने के बाद ही मालवीय जी को जैसे कुछ याद आया। पंडित रूपकिशोर के साथ वर्षों पहले काशी आए उस बालक और बालक से संबंधित घटनाएँ स्मृति में उभर आईं। यह भी याद आ गया कि बालक के होनहार होने का आभास तभी हो गया था और आशा भी बंधी थी कि यह आगे चल कर देश और समाज की कुछ विशिष्ट सेवा करेगा। वहाँ उपस्थित किसी कार्यकर्ता ने छपको माँ (अछूत) का जिक्र छेड़ दिया। वह कहने लगा कि यह बालक गाँव की एक बीमार अछूत स्त्री की सेवा करने और इस कारण कुछ समय तक प्रताड़ित रहने का दंड भुगत चुका है। मालवीय जी ने वह घटना स्वयं श्रीराम के मुँह से सुनी और पूछा कि सेवा के समय मन में क्या भाव उठते रहे, सब कुछ सुनने के बाद उन्होंने श्रीराम की पीठ थपथपाई और कहा कि आगे चलकर तुम्हें और भी चुनौतियों का सामना करना है। समाज सुधार और राष्ट्रीय आंदोलनों पर चर्चा में ही समय बीत गया। प्रत्यक्ष रूप से कोई महत्त्वपूर्ण चर्चा नहीं हो सकी लेकिन उपस्थित लोगों, स्वतंत्रता सेनानियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं में जो बातचीत हुई उसे सुनने का मौका मिला। उस बातचीत से श्रीराम को अपना पक्ष निर्धारित करने में सहायता मिली। उधर लोगों की बातचीत चल रही थी, इधर वे निश्चित कर रहे थे कि आँवलखेड़ा पहुँच कर क्या करना है? आँवलखेड़ा पहुँचे तो बालसेना की बैठक बुलाई,आगरा यात्रा के बारे में बताया,सभी साथियों को घटनाओं के हवाले से बताया किआगरा में छावनी होते हुए भी लोग कैसी हिम्मत और निडरता से लड़ रहे हैं। छावनी में फौजी रहते हैं। सामान्य स्थिति के लोग फौज़ वालों से डरते तो हैं लेकिन युवकों में जोश है । वे मुकाबला करने के लिए तत्पर रहते हैं। रामप्रसाद नामक किशोर ने उत्साह में भर कर कहा- हम भी तैयार रहते हैं श्रीराम। हम भी किससे डरते हैं। देखा नहीं कि उस मोटे अफसर और काले फौजियों को कैसा खदेड़ा था। श्रीराम ने कहा वह गाँव की बात थी। छावनी में मुकाबला करना बहुत बड़ी बात है। रामप्रसाद ने इस उलाहने का प्रतिवाद किया। उसे लगा कि आगरा के युवकों की तुलना में अपनेआप को जैसे कम आंका जा रहा है। उसने कहा आप कैसे कह सकते हैं? आगरा में आपने ही एक मोटे अफसर का सिर नहीं फोड़ दिया था और सभी रामप्रसाद की भावनाओं से सहमत हुए।
आइए जाने इस घटना के बारे में:
घटना सन् 1923 की है, श्रीराम केवल 12 वर्ष के थे और आगरा गए हुए थे। वहाँ एक अँगरेज फौजी अफसर को किसी युवती से छेड़छाड़ करते देखा। उस अँगरेज ने युवती को रौब से अपने पास बुलाया। वह समझदार थी। उसे अंदाजा हो गया कि अँगरेज अफसर की मंशा क्या है। वह अफसर के पास जाने के बजाय तेजी से पग उठाते हुए आगे बढ़ने लगी। अफसर उसकी तरफ झपटा तो युवती के साथ जा रहे युवक ने पूछा क्या बात है। ऐसा पूछना अफसर की निगाह में अपराध था जिसका दण्ड दिया ही जाना था। युवक की पीठ पर उसने बंदूक का कुंदा मारा और नीचे गिरा दिया। उसे गिरा पड़ा छोड़कर अंगरेज युवती के पीछे दौड़ा और वह डरकर भागी। गोरा उसके पीछे लपका। श्रीराम किसी दूकान पर खड़े देख रहे थे। उनके मन में जबर्दस्त आक्रोश उबल रहा था। गोरे अफसर के साथ और भी बहुत से लोग थे जो यह सब चुपचाप देख रहे थे।12 वर्षीय बालक श्रीराम ने देखते- देखते कुछ ही पलों में तय कर लिया कि क्या करना है। दुकान पर दरवाज़ा रोकने वाला पत्थर उठाया और युवती का पीछा कर रहे अँगरेज अफसर पर साधकर ऐसा निशाना मारा कि चोट से वह लड़खड़ा कर गिर गया, विलाप करता हआ उठा लेकिन उसके पाँवों में जान नहीं थी। वह लड़खड़ाता चल रहा था, चीखता-चिल्लाता रहा और लोग अब भी मूक दर्शक बने देखते रहे। किसी ने नहीं बताया कि पत्थर किसने फेंका था। वह लोगों को डराता-धमकाता रहा लेकिन कोई कुछ नहीं बोला। युवती इस बीच किसी सुरक्षित स्थान पर छुप चुकी थी। अंग्रेज अधिकारी वापस लौट गया।
बाल सेना के सदस्यों को यह घटना इसलिए भी याद थी कि इसके बाद ही उन्होंने किशोरों को संगठित करने का विचार किया था।
मालवीय जी से मिलकर लौटने के बाद श्रीराम और सक्रिय होने की योजना बनाने लगे। कुछ कार्यक्रम तय किये। साधना का क्रम अपने ढंग से चलाने और गुरुनिर्देशों का पालन करना उनकी प्राथमिकता थी
अगले लेख में इसी सन्दर्भ में बहुत ही रोचक कथा वर्णन की जाएगी।