27 अक्टूबर 2022 का ज्ञानप्रसाद

चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 6
परम पूज्य गुरुदेव की मार्गदर्शक सत्ता दादा गुरु स्वामी सर्वेश्वरानन्द जी महाराज पर आधारित लेखों की श्रृंखला का यह सातवां लेख है। इस श्रृंखला की लोकप्रियता का वर्णन हमारे वरिष्ठ और अन्य पाठक तो कर ही रहे हैं, कुसुम त्रिपाठी जी की नन्ही सी पोती काव्या त्रिपाठी भी पूरी रूचि के साथ आनंद उठा रही है। रोचकता की कड़ी में बहिन सुमनलता जी लिखती हैं कि जितनी बारीकी से आपके द्वारा यह हमारे समक्ष आ रहा है उससे पूज्यवर के तीन जन्मों ,तीन गुरुओं और अन्य विवरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं ,वो पढ़ने में रोचक, ज्ञान में प्रेरणादायक समझने में एक खजाना है, आपके इस प्रस्तुतिकरण के लिए हार्दिक नमन है।
आज सप्ताह का चतुर्थ दिन गुरुवार, अपने गुरु को समर्पित है। हम सब रंगमंच पर उन दृश्यों का दिव्य आनंद प्राप्त कर रहे हैं जिनमें दादा गुरु 15 वर्षीय किशोर श्रीराम को पिछले तीन जन्मों की यात्रा करवा रहे हैं। एक सीन का पटाक्षेप होते ही दूसरा सीन स्वयं आरम्भ हो जाता है।
आइये एक बार फिर अंतर्मन से स्थिर होकर आंवलखेड़ा स्थित कोठरी में पूज्यवर के सानिध्य में बैठें जहाँ दादा गुरु चलचित्र की भांति तीन जन्मों के आलौकिक दृश्य दिखा रहे हैं। हम सभी पिछले कई दिनों से तीन जन्मों की, तीन गुरु-शिष्यों की, तीन क्षेत्रों की यात्रा कर रहे हैं। रामानंद और संत कबीर, समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी, तोतापुरी और रामकृष्ण परमहंस -तीन गुरु-शिष्यों का वर्णन “बलिहारी गुरु आपुनो” को सार्थक करता है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बंगाल में घटित 600 वर्ष का यह जीवन चलचित्र दर्शाने में दादा गुरु को लगभग 6 घंटे का समय लगा, गुरुदेव अचेत से बैठे सब कुछ देखते रहे।
प्रस्तुत है स्वामी रामकृष्ण परमहंस-नरेंद्र भेंट।
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स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव जी का स्वामी विवेकानंद जी से प्रथम मिलन 1881 में हुआ था। रामकृष्ण जी ने उन्हें सीने से लगा लिया था। फूटफूट कर रोए थे, जैसे वर्षों से गुम हुई संतान को पाकर माता-पिता विह्वल हो उठते हैं। नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) तब रोज़गार की तलाश में भटक रहे थे। माता पिता ने उनका नाम वीरेश्वर रखा था। मोक्ष पाने का आवेग अपने चरम पर था। यह आवेग पेट की भूख और प्यास से भी अधिक प्रचंड हो उठता था, इतना प्रचंड कि इसकी तृप्ति के लिए वे साधु संतों के यहाँ भटकते रहते थे। रामकृष्ण परमहंस जी के पास पहुँचते ही और गुरु के स्नेह को देखते ही उन्हें ऐसा लगा कि खोज पूरी हुई।
उन्होंने पूछा, “ क्या आपने ईश्वर को देखा है ?” जिस वेग से प्रश्न आया था, उससे भी प्रचंड वेग से उत्तर मिला, “तुम देखना चाहते हो क्या?” नरेन्द्र ने अब तक कितने ही संन्यासियों और योगियों से यही प्रश्न पूछा था। इतने विश्वास और वेग के साथ किसी ने जवाब नहीं दिया। कोई कहता- हाँ देखा है लेकिन उस हाँ में विश्वास का बल नहीं होता था। कोई कहता, अगर कहें कि देखा है तो यह अपनी स्थिति का ढिंढोरा पीटना हुआ। यदि मना करते हैं तो उत्तर गलत हो जाएगा। इसलिए कुछ नहीं कहना ही ठीक है। तुम अपनी जिज्ञासा बताओ हम समाधान देने का प्रयास करेंगे इत्यादि इत्यादि।
नोबल पुरस्कार विजेता कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर से भी उन्होंने यही प्रश्न पूछा था। महर्षि देवेन्द्रनाथ नदी की धारा में नाव पर विश्राम कर रहे थे। नरेन्द्र नाथ तैर कर नाव पर आ गए और धम्म से भीतर कूदे। कूदते ही उन्होंने महर्षि से ईश्वर के बारे में पूछा । नरेन्द्रनाथ के प्रश्न से देवेन्द्र हड़बड़ा गये, उन्हें लगा जैसे कोई कालर पकड़ कर पूछ रहा हो। नरेन्द्र ने अपनी उत्कंठा को पूरी तरह व्यक्त करते हुए ही पूछा था। उसमें डराने जैसा कोई रंग नहीं था, लेकिन उनकी उत्कंठा ने ही योगी को अचकचा दिया था। वह कहने लगे, “पहले बैठो तो सही, शांत हो कर बैठो। मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ।” इस व्यवहार ने नरेन्द्र नाथ को आभास करा दिया कि मेरे प्रश्न का उत्तर इनके पास नहीं है। यह कह कर वे वापस चले आए कि अब आपको कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। मुझे उत्तर मिल गया है।
देवेन्द्रनाथ ठाकुर शिक्षा प्रसार में बहुत रूचि लेते थे, उन्होंने भारत के भिन्न भिन्न स्थानों पर विशेषकर बंगाल में कई शिक्षा संस्थान खोले। 1863 में बोलपुर में एकांतवास के लिए 20 बीघा भूमि खरीदी और वहां आत्मिक शांति अनुभव होने के कारण इसका नाम “शांतिनिकेतन” रख दिया। परम पूज्य गुरुदेव ने भी युगतीर्थ शांतिकुंज की स्थापना इसी शांति का अनुभव करने हेतु की थी। कनाडा में मनोरम दिव्य वातावरण में विकसित हो रहे शांतिवन का भी यही प्रयोजन है।
स्वामी विवेकानंद जी सिद्ध योगियों के व्यवहार और रुख से ही अपने प्रश्न का भविष्य समझ लेते थे, रामकृष्ण परमहंस के सान्निध्य में पहुँचकर उनकी भटकन भरी यात्रा को एक तरह का विराम ही लग गया था। ठाकुर ने नरेन्द्र से कहा, “जो माँगना है अपनी माँ से स्वयं ही माँग लेना, मुझसे कुछ मत कहना।” जिस समय रामकृष्ण परमहंस जी ने यह बात कही थी, तब नरेन्द्र के मन में अपने परिवार के निर्वाह की चिंता घुमड़ रही थी। गुरु के कहने पर वे मंदिर में माँ की प्रतिमा के पास गये तो सही लेकिन कुछ माँगते नहीं बना। माँ के मनोहारी रूप ने उन्हें इतना भाव विभोर कर दिया कि वे माँगने की बात ही भूल गये। बिना कुछ कहे वापस चले आए। रामकृष्ण जी ने उन्हें दो बार और मंदिर में भेजा। दोनों बार वे फिर बिना कुछ मांगे वापस आ गये। इसके बाद गुरु ने कहा “तू माँ का काम कर,माँ तेरी सारी चिंताओं का ख्याल अपनेआप रखेगी। परिवार के लिए मोटे झोटे की कमी कभी नहीं रहेगी।” हमारे गुरुदेव का भी तो यही सन्देश है “तू मेरा काम कर, मैं तेरा काम करूँगा” स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस से 1881 में मिले थे, उस समय उनकी आयु केवल 18 वर्ष की थी। इस दिव्य मिलन के केवल पाँच वर्ष बाद ही 1886 में ठाकुर ने शरीर छोड़ दिया।
शरीर छोड़ना भी जैसे किसी दैवी योजना का हिस्सा था। एक दिन उन्होंने शिष्यों से कहा,
“सुनो,अब मैं लोगों के साथ ज्यादा बात नहीं कर सकूँगा इसलिए माँ से निवेदन किया है कि नरेन्द्र, राजा (राखाल महाराज), तारक, बाबू (बाबूराम), योगीन, शशि आदि शिष्यों को शक्ति दे। अब आगे से यही लोग भक्तों को उपदेश दिया करें।”
इस घोषणा के कुछ ही दिन बाद गले में पीड़ा उठने लगी, पीड़ा इतनी बढ़ गयी कि भोजन करने में कठिनाई होने लगी। रोग बढ़ता गया, भक्तों ने उपचार के लिए कहा । रामकृष्ण कहने लगे,
“माँ की इच्छा है, वह चाहेगी, तो रोग ठीक होगा, वरना कितना ही उपचार करो, कुछ नहीं होने वाला।”
उपचार नहीं कराने के पीछे औषधियों के निर्माण में बरती जाने वाली क्रूरता मुख्य कारण था। भक्तों ने दबाव डाला कि जिन औषधियों में पशु हिंसा नहीं हुई हो, उनका उपयोग किया जाय। होम्योपैथी और आयुर्वेदिक चिकित्सा शुरू हुई। उनसे कुछ लाभ नहीं हुआ। हालत ज्यादा बिगड़ने लगी। एक दिन ठाकुर ने कहा, “जब रोग मिटता ही नहीं,तो इसके लिए कष्ट सहने की क्या आवश्यकता है, माँ को क्यों कष्ट दिया जाय। उस दिन ठाकुर ने भोजन भी नहीं किया। माँ शारदामणि की लाई हुई भोजन की थाली वापस कर दी। माँ ने भक्तों को ढाढ़स बंधाया और कहा ठाकुर ने शरीर छोड़ने का निश्चय कर लिया है।16 अगस्त 1886 को लीला का संवरण हुआ था, दिन भर सहज दिखाई दिए। शाम को भरपेट भोजन किया। आधी रात बीत जाने के बाद करीब एक बजे रामकृष्ण परमहंस ने अपनी लीला का संवरण कर लिया। उनके शिष्यों ने ठाकुर का सौंपा हुआ दायित्व निभाने का संकल्प लेते हुए गुरु के पार्थिव अवशेषों को श्रद्धाभक्ति से प्रणाम किया और उन्हें समाधि दी गयी।
ऑनलाइन उपलब्ध सूत्रों के अनुसार रामकृष्ण परमहंस जी की मृत्यु clergyman’s throat नामक बीमारी से हुई जिसने बाद में throat cancer का रूप ले लिया। Clergyman का हिंदी शाब्दिक अर्थ पादरी होता है, शायद इस बीमारी का सम्बन्ध प्रवचनों के साथ जुड़ा हो।
पूजा की कोठरी में बैठे श्रीराम इन दृश्यों की यात्रा करते हुए चुपचाप बैठे रहे। जब स्मृतियों से बाहर आए और सामने प्रसन्न मुद्रा में खड़ी मार्गदर्शक सत्ता को निहारा, जब स्मृतियों से बाहिर आये तो ऐसा अनुभव हुआ जैसे कि बहुत दूर की यात्रा कर ली हो। जिस प्रकार अन्यत्र और निरंतर यात्रा करने के बाद शरीर और मन थक सा जाता है, वैसी ही बल्कि उससे कई गुना ज्यादा थकान अनुभव होने लगी। कुछ ही पलों में 600 वर्षों का जीवन जी लिया, इस अवधि में लिखे गये शब्द या अंकित किये गये दृश्यों का अवलोकन करने में जितना समय और श्रम लग सकता है, उसका दबाव चित्त पर अनुभव हो रहा था। प्रकट तौर से देखा जाये तो केवल कुछ घंटे( शायद 6 घंटे) ही बीते थे। पांच सात मिनट की नींद में कभी जन्म-जन्मांतर की यात्रा कराने वाले दृश्य भी चेतना में उभर आते हैं। समय का जो विस्तार वर्तमान स्थिति में अनुभव होता है, वह स्वप्न, समाधिभाव और अंतर्यात्रा के समय प्रतीत होने वाले विस्तार से सर्वथा भिन्न है। किशोर श्रीराम की अंतर्यात्रा भी सूक्ष्म और दिव्य विस्तार में प्रवेश की यात्रा थी लेकिन जब वे वर्तमान में लौटे तो थकान ने घेर लिया। मार्गदर्शक सत्ता ने इस थकान को दूर करने के लिए दाँया हाथ आगे बढ़ाया, उसका अंगूठा दोनों भौंहों के मध्य में रखा और चारों उँगलियाँ सिर के उस भाग पर रखा जिसे योगीजन सहस्रार या ब्रह्मरंध कहते हैं। इस स्पर्श ने श्रीराम की थकान और नींद को दूर कर दिया। श्रीराम की चेतना में स्फूर्ति लहराने लगी। एक नया जगत सामने प्रस्तुत हो गया, एक ऐसा जगत् जिसमें आलोक भरा हुआ पूजा का कक्ष, गुरुदेव और वातावरण में दिव्य गंध की व्याप्ति अनुभव हो रही थी।
मार्गदर्शक सत्ता का आदेश:
दादा गुरु कह रहे थे,
“जो कबीर था, जो रामदास था और जो रामकृष्ण था, वही तुम हो। यह अंतर्दर्शन थकाने या चमत्कृत करने के लिए नहीं है।
प्रकाश की भांति ही दिखाई दे रही उस मार्गदर्शक सत्ता के होंठ हिले। उस कंपन से जो निर्देश प्रस्फुटित हो रहे थे, उनमें कोई ध्वनि नहीं थी। परावाणी भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसके लिए होंठों के कंपन भी आवश्यक नहीं। नाभि या हृदय से उद्धृत पश्यंती स्तर की यह वाणी केवल उसी व्यक्ति को सुनाई देती है, जिसके लिए वह कही गयी होती है। दादा गुरु कह रहे थे कि अभी तुम्हारे लिए एक ही प्रेरणा है, इसे निर्देश भी मानें और यह प्रेरणा है- साधना। सहज और सामान्य भाव से बैठे श्रीराम के मन में जिज्ञासा उठी। उसे कौतूहल भी कह सकते हैं। मार्गदर्शक सत्ता से प्रथम दृष्टि में ही परिचय इतना प्रगाढ़ हो गया कि अटपटा प्रश्न पूछने में भी कोई संकोच न हो।
क्या था यह अटपटा प्रश्न, इसे जानने के लिए हमारे पाठकों को सोमवार तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी , कल शुक्रवार को गुरुदेव की जीवनी पर एक वीडियो प्रस्तुत करने की योजना है।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 13 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है और अरुण वर्मा, वंदना कुमार और संध्या कुमार गोल्ड मैडल विजेता हैं।
(1 )अरुण वर्मा-60 ,(2)वंदना कुमार-62,(3)सरविन्द कुमार-29,(4) सुजाता उपाध्याय-29 , (5)राजकुमारी कौरव-29,(6)नीरा त्रिखा-25,(7)प्रशांत सिंह-25,(8)संध्या कुमार-59,(9 ) प्रेरणा कुमारी-27,(10)पूनम कुमारी-27,(11)मंजू मिश्रा-30,(12)विदुषी बंता-27,(13)रेणु श्रीवास्तव-28
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं। जय गुरुदेव